Krauncha

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Krauncha (क्रौंच) was name of forest, a mountain, a cave and a dvipa mentioned in Mahabharata, Ramayana, Puranas. Kronchadvipa was given to Yadu by his father Yayati.

Variants of name

History

V. S. Agrawala[1] writes that Patanjali makes clear the social status of the sudras in his time. Firstly there were sudras who were not excluded from Aryavrata but were living within its social system. Secondly, there was another class of sudras who were living outside Aryavrata and its society. He cites as examples (1) Kishkindha-Gabdikam (2) Shaka-Yavanam and (3) Saurya-Krauncham. Of these

Mangat clan

B S Dahiya[2] writes about Mangat clan: In the Tang period of Chinese history, the Chinese called the Mongols as Mengu Pronounced as Mung-nguet. [3] It is this word Mung-nguet which is now written as Mongait In Russia , e.g. A.L. Mongait, author of the Archeology in USSR, Pelican series, London (1961) and is written as Mangat (a Jat clan) in India, This clan’s name appears in Mahabharata as Manonugat-a country in Kroncha Dvipa, east of Pamirs. [4]

क्रौंचवन

क्रौंचवन - पूर्वकाल में राजस्थान से लेकर मराको तक और उसकी शाखाओं में जितने देश विस्तृत हैं, वे सब वीरान थे तथा कौंचवन के नाम से प्रसिद्ध थे। सम्राट् ययाति ने अपने पुत्र यदु को क्रौंचवन दिया। राजपूताना, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, ईरान, अरब, मिश्र, लिबिया, अल्जीरिया और मराको आदि देशों को यदु एवं उसके वंशज यदुओं ने आबाद किया तथा राज्य किया। यदु और उसके वंशज जाट हैं। [5]

क्रौंच

विजयेन्द्र कुमार माथुर[6] ने लेख किया है ...


1. क्रौंच द्वीप (AS, p.247): क्रौंच द्वीप पौराणिक भूगोल की उपकल्पना के अनुसार पृथ्वी के सप्त महाद्वीपों में से एक महाद्वीप है। इस द्वीप में क्रौंच नामक पर्वत स्थित है। क्रौंच द्वीप के निवासियों को जल देवता या वरुण का पूजक बताया गया है। इस द्वीप के चारों ओर क्षीर समुद्र की उपस्थिति है। विष्णु पुराण के अनुसार - 'जंबूप्लक्षाह्वयौ द्वीपौ शाल्मल श्चापरो द्विज, कुश:, क्रौंच स्तथाशाक: पुष्करश्चैव सप्तम:' (विष्णु पुराण 2,2,51)

क्रौंच पर्वत की स्थिति के अनुसार क्रौंच द्वीप को तिब्बत का एक भाग मानना चाहिए। (देखिये कौंच-2)

2. क्रौंच पर्वत: क्रौंच पर्वत को विष्णुपुराण 2, 4, 50-51 में उल्लिखित क्रौंच द्वीप के सप्त पर्वतों में से एक बताया गया है- 'क्रौंचश्चवामनश्चैवतृतीश्चांधकारक: चतुर्थो रेत्नशैलस्य स्वाहिनीहयसन्निभ:।'

यह पर्वत हिमालय का एक भाग है। पौराणिक कथा से ज्ञात होता है कि परशुराम ने धनुर्विद्या समाप्त करने के पश्चात् हिमालय में बाण मारकर आर-पार मार्ग बना दिया था। इस मार्ग से ही मानसरोवर से दक्षिण की ओर आने वाले हंस गुजरते थे। इस मार्ग को 'क्रौंच रंध्र' कहते थे।

वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड 43, 20 में वानर राज सुग्रीव ने सीता के अन्वेषणार्थ वानर सेना को उत्तर की ओर भेजते हुए तत्स्थानीय अनेक प्रदेशों का वर्णन करते हुए कैलाश से कुछ दूर उत्तर की ओर स्थित 'क्रौंचगिरि' का उल्लेख किया है- 'क्रौंचं तु गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम्, अप्रमत्तै: प्रवेष्टव्यं दुप्प्रवेशं हि तत्स्मृंतम्' अर्थात् "क्रौंच पर्वत पर जाकर उसके दुर्गम बिल पर पहुँच कर उसमें बड़ी सावधानी से प्रवेश करना, क्योंकि यह मार्ग बड़ा दुस्तर है।"

'पुन: क्रौंचस्य तु गुहाश्चान्या: सानूनि शिखराणि च, दर्दराश्च नितंबाश्च विचेतव्यास्ततस्त:।' किष्किंधाकांड 43, 27 अर्थात् "क्रौंच पर्वत की दूसरी गुहाओं को तथा शिखरों और उपत्यकाओं को भी अच्छी तरह खोजना। क्रौंचगिरि के आगे मैनाक का उल्लेख है-'क्रौंचं गिरिमतिक्रम्य मैनाको नाम पर्वत:।' किष्किंधाकांड 43, 27

'मेघदूत' (उत्तर मेघ 59) में भी क्रौंच रंध्र का सुंदर वर्णन है- 'प्रालेयाद्रेरुपतट मतिक्रम्यतां स्तान् विशेषान् हंसद्वारं भृगुपति यशोवस्मै यत्क्रौंचरन्ध्रम्।' अर्थात् "हिमालय के तट में क्रौच रंध्र नामक घाटी है, जिसमें होकर हंस आते-जाते हैं; वहीं परशुराम के यश का मार्ग है। इसके अगले छन्द 30 में कैलाश का वर्णन है। इस प्रकार वाल्मीकि और महाकवि कालिदास दोनों ने ही क्रौंच पर्वत तथा क्रौंच रंध्र का उल्लेख कैलाश के निकट किया है। अन्यत्र भी 'कैलासे धनदावासे क्रौंच: क्रौंचोऽभिधीयते' कहा गया है। कालि-

[p.248]: दास ने क्रौंच रंध्र से संबंधित कथा का 'रघुवंश' 11, 74 में भी निर्देश किया है-'विभ्रतोस्त्रमचलेऽप्यकुंठितम्' अर्थात् "मेरे (परशुराम) अस्त्र या बाण को पर्वत (क्रौंच) भी न रोक सका था।

वास्तव में क्रौंच रंध्र दुस्तर हिमालय पर्वत के मध्य और मानसरोवर-कैलाश के पास कोई गिरिद्वार है, जिसका वर्णन प्राचीन साहित्य में काव्यात्मक ढंग से किया गया है। हंस और क्रौंच या कुंज आदि हिमालय के पक्षी जाड़ों में हिमालय की निचली घाटियों को पार करके ही आगे दक्षिण की ओर आते हैं। श्री वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार यह अल्मोड़ा के आगे 'लीपूलेक' का दर्रा है। (दे.कादंबिनी, अक्टूबर’ 62)

3. क्रौंचगिरि (AS, p.248): पंचवटी के निकट एक पहाड़ है. 'गुंजत्कुंजकुटीरकौशिकघटाधुक्कारवत् कीचकस्तंबाडंबरमूकमौकुलिकुल: क्रौंचाभिधोअयं गिरि:' उत्तररामचरित 2,19. इसके निकट ही क्रौंचारण्य स्थित था.

In Ramayana

Kraunchagiri (क्रौंचगिरि) is mentioned Ramayana (4.3.25), (4.3.27), (4.3.29)

Kishkindha Kanda Sarga 43 mentions that Sugreeva sends troops to north in search of Sita. He gives an account of the snowy regions and provinces of northern side and asks them to search in the places of Yavana, Kuru, and Daradas etc., civilisations. Sugreeva specially informs them about a divine province called Uttara Kuru and a mountain called Kraunchagiri near Kailasha.

25. "Thereafter on reaching Mt. Krauncha you shall cautiously enter into a highly impassable tunnel of that mountain to search Seetha. That tunnel, they say, is an un-enterable one. [4-43-25][7]

27. "Besides the main peak of Mt. Krauncha, its other peaks, terraces, crevices and midriffs shall be searched, far and wide. [4-43-27][8]


29. "You all have to search Mt. Krauncha inclusive of its mountainsides, grades, and its fringe mountains, and on moving away from that Mt. Kraunca, a mountain named Mainaka is there. [4-43-29][9]

जाट इतिहास

ठाकुर देशराज[10] ने लिखा है कि आर्यों का कौन-सा समूह कहां बसा? इस प्रश्न को हल करने के लिए पुराणोक्त इतिहास हमें बहुत सहायता देता है। पृथ्वी को पुराणों ने सात द्वीपों में विभाजित किया है और प्रत्येक द्वीप को सात वर्षों (देशों) में। यह बटवारा स्वायम्भू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने अपने पुत्रों में किया है। प्रियव्रत के दस पुत्र थे जिनमें से तीन तपस्वी हो गये। सात को उन्होंने कुल पृथ्वी बांट दी। प्रत्येक के बट में जो हिस्सा आया, वह द्वीप कहलाया। आगे चलकर इन सात पुत्रों के जो सन्तानें हुई उनके बटवारे में जो भूमि-भाग आया, वह वर्ष या आवर्त (देश) कहलाया। निम्न विवरण से यह बात भली भांति समझ में आ जाती है -

द्वीप - 1. जम्बू, 2. शाल्मली, 3. कुश, 4. क्रौंच, 5. शाक, 6. पुष्कर, 7. प्लखण


अधिकारी - 1. अग्निध्र, 2. वपुष्मान, 3. ज्योतिष्मान, 4. द्युतिमान, 5. भव्य, 6. सवन, 7. मेधातिथि।

कौंच द्वीप जो द्युतिमान को मिला था, वह भू-भाग हो सकता है जिसमें श्याम, चीन, कम्बोडिया, मलाया आदि प्रदेश अब स्थित हैं। यहां रूद्र की पूजा पुराण में होना बताई गई है। यहां रूद्र को तिग्मी कहा जाता था। [11]

कुमुद्वती

विजयेन्द्र कुमार माथुर[12] ने लेख किया है ...कुमुद्वती (AS, p.204) विष्णु पुराण 2,4,55 के अनुसार क्रौंच-द्वीप की एक नदी-- 'गौरी कुमुद्वती चैव संध्या रात्रिर्मनोजवा'.

क्षांति

विजयेन्द्र कुमार माथुर[13] ने लेख किया है ...क्षांति (AS, p.249) - विष्णुपुरन 2,4,55 के अनुसार क्रौंच द्वीप की एक नदी, 'गौरी कुमुद्वती चैव संध्या रात्रिर्मनोजवा,क्षांतिश्च पुंडरीका च सप्तैता वर्षं निम्नगा:'.

अंधकारक

विजयेन्द्र कुमार माथुर[14] ने लेख किया है ...अंधकारक (AS, p.5) एक पौराणिक स्थान है। विष्णुपुराण (2,4,48) के अनुसार क्रोंचद्वीप का एक भाग या वर्ष जो इस द्वीप के राजा द्युतिमान् के पुत्र के नाम पर है। क्रौंच-द्वीप के एक पर्वत का नाम भी अंधकारक कहा गया है- 'क्रौंचश्चवामनश्चैव तृतीयश्चांधकारक:' (विष्णुपुराण 2,4,50 )।

References

  1. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p. 78
  2. Jats the Ancient Rulers (A clan study)/Jat Clan in India,p. 264
  3. Journal Asiatique 1920 , I, quoted by Studies in Indian History and Civilization by Buddha Prakash p. 409
  4. Bhisma Parva, 12 / 21
  5. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter IV,p.411
  6. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.247-248
  7. क्रौन्चम् तु गिरिम् आसाद्य बिलम् तस्य सुदुर्गमम् । अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यम् दुष्प्रवेशम् हि तत् स्मृतम् ॥४-४३-२५॥
  8. क्रौन्चस्य तु गुहाः च अन्याः सानूनि शिखराणि च । निर्दराः च नितंबाः च विचेतव्याः ततः ततः ॥४-४३-२७॥
  9. स च सर्वैः विचेतव्यः स सानु प्रस्थ भूधरः । क्रौन्चम् गिरिम् अतिक्रम्य मैनाको नाम पर्वतः ॥४-४३-२९॥
  10. जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ.3-4
  11. Jat History Thakur Deshraj/Chapter I,p.5
  12. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.204
  13. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.249
  14. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.5-6