Maharaja Surajmal and Marathas
Author: Laxman Burdak IFS (R) |
महाराजा सूरजमल का गलत चित्रण
आजकल सोनी टीवी पर एक धारावाहिक – ‘पुण्यश्लोक अहिल्याबाई’ प्रसारित हो रहा है जिसमें भरतपुर महाराजा सूरजमल का गलत चित्रण किया गया है। इसमें भरतपुर महाराजा सूरजमल को डरपोक व कायर बताया गया है। इसमें खांडेराव होल्कर के संवाद में गलत शब्द व तथ्य बताये गए। इससे भारत का जाट समुदाय काफी उद्वेलित है। महाराजा सूरजमल ही नहीं इसमें आमेर के तत्समय राजपूत राजा ईश्वरी सिंह की छवि भी बहुत खराब पेश की है।
यद्यपि धारावाहिक के निर्माता रोचक बनाने के लिए अनेक काल्पनिक तथ्य और कहानियाँ भी प्रस्तुत कर देते हैं परंतु ऐतिहासिक तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ कर गलत ढंग से पेश करने पर समाज के विभिन्न समुदायों में विद्वेष पैदा होता है जो भारत जैसे जटिल संरचनाओं और संस्कृति वाले देश में अपेक्षित नहीं है।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि होल्करों ने भरतपुर रियासत से अवैध वसूली के लिए 1754 में कुम्हेर के किले को घेरा था। इस युद्ध में खांडेराव होल्कर मारा गया था। महाराजा सूरज मल ने उदारता दिखाते हुये खांडेराव के पिता मल्हार राव तथा पुत्र मालेराव को शोक-सूचक वस्त्र भेजते हुये खेद व्यक्त किया था। महाराजा सूरजमल ने खांडेराव होल्कर का स्मारक वहीं कुम्हेर दुर्ग के सामने मैदान में बना दिया (दिल्ली क्रानिकल्स, पृ.48) जो आज भी गांगरसोली (कुम्हेर) में जाट शासकों की सद्भावना के प्रतीक के रूप में विद्यमान है। ऐसी उदारता और सदाशयता शायद ही किसी शासक में देखने को मिलती है। ऐसे में यदि उस शासक का गलत चित्रण किया जाता है तो समाज का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। हमारे नीति निर्धारकों और वर्तमान सरकारों को संवेदनशील होना पड़ेगा।
अजेय यौद्धा महाराजा सूरजमल
महाराजा सूरजमल ने 80 युद्ध लड़े पर नहीं हरा पाया कोई भी राजा - महाराजा सूरजमल ने मुगल वजीर मंसूर अली सफदरजंग को अपने डीग के किले में शरण देकर पानीपत युद्ध से जान बचाकर, लुटे-पिटे मराठा सैनिक व सेना नायक सदाशिव राव भाऊ की पत्नी पार्वती देवी को शरण देकर शरणागत रक्षक का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। पानीपत युद्ध में विजयी अहमदशाह अब्दाली ने सूरजमल को संदेश भेजा कि यदि पराजित मराठों को उसने नहीं सौंपा और अपने राज्य में शरण दी तो वह भरतपुर राज्य पर आक्रमण कर देगा। अब्दाली की धमकी व आसन्न आक्रमण की चिंता किए बिना उसने मराठा सेना को अपने डीग, कुम्हेर, भरतपुर के किलों में शरण दी। छह माह तक घायलों का इलाज व अन्न, वस्त्र, भोजन देकर आश्रय दिया और अपनी सेना की ओर से ग्वालियर तक सुरक्षित पहुंचाया। मीर वख्सी सलामत खां को पराजित किया। रूहेला सरदार अहमद शाह वंगश के हिमालय की तराइयों तक खदेड़ा, मल्हार राव हाल्कर, बजीर गाजिउद्दीन तथा जयपुर नरेश माधो सिंह की गठबंधित सेना को 1754 के युद्ध में पराजित किया। डासना अलीगढ़ के युद्ध में नजीब खां को हार का मुंह दिखाकर भारत से लौटने पर विवश कर और भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर छोटे-छोटे राज्य तथा नबाबों से राज्य छीनकर एक संगठित राज्य की स्थापना की।[1]
मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ यदि महाराजा सूरजमल के परामर्श को मान लेते तो पानीपत युद्ध में उनकी पराजय नहीं होती और न अंग्रेजों को भारत में प्रवेश करने का अवसर मिल पाता। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस युद्ध के बाद देश में विदेशी शक्तियों ने अधिकार जमा लिया। सूरजमल ने अपने जीवन में अस्सी युद्ध लड़े और सभी में विजयी रहे, उन्हें कोई राजा-महाराजा हरा नहीं पाया। इमाद के लेखक ने सत्य ही उसे जाटों का प्लेटो कहा है। भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए दिल्ली में इमाद से लड़े गए युद्ध में धोखे से महाराजा सूरजमल 25 दिसंबर 1763 को वीरगति को प्राप्त हो गए। [2]
भरतपुर महाराजा सूरजमल के बारे में उपर्युक्त परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में सही-सही इतिहास को जानने के लिए नीचे पढ़िए।
Maharaja Suraj Mal (13 February 1707 - 25 December 1763) was Sinsinwar Jat ruler of Bharatpur in Rajasthan, India. He has been described by a contemporary historian as "the Plato of Jats" and by a modern writer as the "Jat Ulysses", because of his political sagacity, steady intellect and clear vision. He was one of the greatest warriors and ablest statesmen ever born in India. [3]
अट्ठारवीं शताब्दी को भारतीय इतिहास की सबसे अस्थिर, उथल-पुथल से भरी और डांवाडोल शताब्दी माना जा सकता है। इस शताब्दी के जिस रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ,चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था, वह था महाराजा सूरजमल। मेल-मिलाप और सह-अस्तित्व तथा समावेशी सोच को आत्मसात करने वाली भारतीयता का वह सच्चा प्रतीक था।
मुगलों, मराठों व राजपूतों से गठबंधन का शिकार हुए बिना ही सूरजमल ने अपनी धाक स्थापित की। घनघोर संकटों की स्थितियों में भी राजनीतिक तथा सैनिक दृष्टि से पथभ्रांत होने से बचता रहा। बहुत कम विकल्प होने के बावजूद उसने कभी गलत या कमजोर चाल नहीं चली। उसने यत्न किया कि संघर्ष का पथ अपनाने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को अवश्य आज़माया जाए। जाट राज्य की रक्षा करने और उसे सुरक्षित बनाए रखने के लिए उसने अदम्य साहस तथा सूझबूझ का परिचय दिया।
बगरू का युद्ध 1748
सन 1743 ई. में जयपुर-नरेश सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद राजगद्दी पर आसीन होने के मसले पर उसके पुत्रों ईश्वरी सिंह और माधो सिंह में भ्रातृघाती युद्ध हुआ। माधो सिंह की मां उदयपुर की होने के कारण मेवाड़ के राणा ने अपने पद और प्रभाव का प्रयोग करके अपने भांजे के लिए प्रबल समर्थक जुटा लिया। मराठों तथा जोधपुर, बूंदी और कोटा के शासकों ने भी माधोसिंह का साथ दिया। केवल भरतपुर के सिनसिनवार बदन सिंह ने जयसिंह को दिए अपने वचन को निभाते हुए ईश्वरी सिंह को सक्रिय सहयोग प्रदान करने के लिए अपने वीर पुत्र सूरजमल को जयपुर भेजा। सूरजमल ने दस हज़ार घुड़सवार ,दो हज़ार पैदल सैनिक और दो हज़ार बर्छेबाज को साथ लेकर कुम्हेर से जयपुर की ओर कूच किया। उसकी सेना में जाट, गुर्जर, अहीर, राजपूत और मुसलमान थे। ईश्वरी सिंह ने सूरजमल को बराबरी का सम्मान देते हुए उसका स्वागत किया।
अगस्त 1748 ई. में दोनों पक्षों के बीच युद्ध छिड़ गया। मोती डूंगरी के निकट हुई प्रथम मुठभेड़ में सूरजमल के नेतृत्व में जाटों के साहसिक हमलों से मराठा सेना को पीछे हटने के लिए विवश होना पड़ा। मोती डूंगरी की पराजय के बाद मल्हार राव होल्कर ने बगरू स्थित अपने डेरे को लौटकर सभी मित्र सेनाओं का निरीक्षण कर उन्हें नए युद्ध के लिए पुनः व्यवस्थित किया। ईश्वरीसिंह भी सूरजमल तथा अपनी 30,000 सेना के साथ जयपुर से बाहर निकलकर बगरू की ओर चल पड़ा। (डॉ चांदावत, पृ.62)
ईश्वरीसिंह और माधोसिंह की सेनाओं का आमना-सामना 21 अगस्त 1748 को जयपुर से 18 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित बगरू में हुआ। बेशक युद्ध बेमेल था। माधोसिंह के पक्ष में शामिल नामी योद्धाओं में मल्हारराव होलकर, गंगाधर टांटिया ,मेवाड़ के महाराणा, जोधपुर नरेश तथा कोटा व बूंदी के राजा थे। उसकी सहायता करने के लिए महाराणा, राठौड़, सिसोदिया, हाड़ा, खींची व पंवार सब शासक शामिल थे। ईश्वरी सिंह के साथ लड़ने वाला सूरजमल अप्रसिद्ध- सा था। सूरजमल के सैनिक संख्या में अवश्य कम थे, परन्तु भली-भांति प्रशिक्षित थे। उनका सेनापति सूरजमल परखा हुआ शूरवीर था। ईश्वरी सिंह की सेना के अग्र भाग का नेतृत्व संभालने वाला सीकर का सरदार शिव सिंह युद्ध के दूसरे दिन युद्ध के मैदान में ढेर हो गया। तब तीसरे दिन हरावल (अग्रभाग) का नेतृत्व सूरजमल को सौंपा गया। मराठा सरदार मल्हारराव होलकर ने गंगाधर टांटिया को एक शक्तिशाली सैन्य दल के साथ ईश्वरी सिंह की तैनाती वाले सेना के पृष्ठ भाग पर अचानक धावा बोल देने के लिए भेज दिया। युवा सूरजमल ने आगे बढ़ते हुए शत्रु-सेना के पार्श्व भाग पर धावा बोल दिया। दो घंटे तक भीषण युद्ध हुआ। अंत में गंगाधर को पीछे धकेल दिया। सूरजमल ने छिन्न-भिन्न पृष्ठभाग को फिर व्यवस्थित किया। उस घोर संकट के समय सूरजमल ने लड़ाई में जबरदस्त शौर्य दिखाया। संकट के उन गंभीर क्षणों में जाट राजा अद्भुत साहस के साथ लड़ा और उसने 50 व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा तथा 108 को घायल किया। सूरजमल की वीरता ने हारती बाजी को पलट दिया। ईश्वरीसिंह को राजगद्दी पर आसीन करवाने में वह सफ़ल हो गया। रण-भूमि में इस जीत ने सूरजमल को विख्यात कर दिया। (डॉ चांदावत, पृ.63)
इस युद्ध में जयपुर नरेश माधोसिंह के हिमायतियों को जिनमें मल्हार होलकर, गंगाधर ताँतिया, और मेवाड़, मारवाड़, कोटा बूंदी के राजा सामिल थे, एक साथ ही परास्त किया था। बूंदी के राजपूत कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस समय की महाराजा सूरजमल की वीरता का वर्णन इस भाँती किया है -
- "सह्यो भले ही जट्टनी, जाए अरिष्ट अरिष्ट ।
- जिहिं जाठर रवि मल्ल हुव, आमैरन को इष्ट ।।
- बहुरि जट्ट मल्हार सन, लरन लग्यो हरबल्ल ।
- अंगद व्है हुलकर अरयो, मिहिरमल्ल प्रति मल्ल" ।। (डॉ चांदावत, पृ.63)
अर्थ- जाटनी ने व्यर्थ ही प्रसूति पीड़ा नहीं सही। उसके गर्भ से शत्रु का संहारक और आमेर राजा का हितैषी सूरज (रवि) मल शत्रुओं के लिए अनिष्ट और आमेर का शुभचिंतक था। पृष्ठ भाग से वापस मुड़कर जाट ने हरावल में मल्हार से युद्ध शुरू किया। होल्कर भी अंगद की भाँति अड़ गया। दोनों की टक्कर बराबर की थी।
इस युद्ध के पश्चात महाराजा सूरजमल की कीर्ति सारे भारत में फ़ैल गयी, क्योंकि उन्होंने शिशोदियों, राठोरों, चोहानों और मराठों को एक ही साथ हरा दिया था। यह बात राजस्थान क्या भारत के इतिहास में एक अपूर्व मिशाल थी. (ठाकुर देशराज, जाट इतिहास, पृ. 641)
"सूरजमल की नेतृत्व शक्ति और उसके सैनिकों के पराक्रम की ख्याति तेजी से फैल गई, और देश के उच्चतम शासकों की ओर से बार-बार उसके पास सैनिक सहायता की मांग आने लगी।" (गंगासिंह, यदुवंश ,पृष्ठ 156)
मुगलों से मुकाबला-1750
20 जून 1749 को जोधपुर नरेश महाराजा अभयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा की गद्दी पर आसीन हुए रामसिंह को उसके मामा बख़्त सिंह ने चुनौती दी। रामसिंह ने आमेर के तत्समय राजा ईश्वरीसिंह से सहायता मांगी। मुगल सम्राट अहमदशाह ने बख़्त सिंह का समर्थन करते हुए नवंबर में मीर बख्शी सलाबतजंग को 18000 सैनिकों के साथ उसकी सहायता के लिए भेजा। मीर बख्शी ने जाट राजा के अधीन मेवात के रास्ते जोधपुर जाने का निश्चय किया। योजना यह थी कि मीर बख्शी जाटों से आगरा और मथुरा सूबे के उन भागों को भी वापस छीन लेगा, जिन पर उन्होंने कब्जा कर लिया था। जाटों से निपटने के बाद मीर बख्शी को मारवाड़ पहुँचकर बख़्तसिंह से जा मिलना था। मीर बख्शी ने जाट-राज्य में मेवात को लूटा और नीमराना के मिट्टी से बने किले पर 30 दिसम्बर 1749 को अधिकार कर लिया। अभिमान से चूर हो चुके मीर बख्शी ने सूरजमल को सबक सिखाने की ठान ली और सराय शोभचंद आ धमका। सूरजमल ने अपने छ हज़ार सैनिकों का नेतृत्व करते हुए सन 1750 के नववर्ष के दिन मुगल-सेना को चारों ओर से घेर लिया। सूरजमल के साथ जाट सरदार थे। मीर बख्शी चारों तरफ से घिर गया था। आक्रमण में सैनिकों के साथ दो प्रमुख मुगल सेनाध्यक्ष अली रुस्तम खां और हकीम खां भी मारे गए। मीर बख़्शी अब सूरजमल के वश में था। तीन दिन बाद उसने लड़ाई की जिद्द छोड़कर सूरजमल से संधि की याचना की। सूरजमल ने संधि के लिए निम्नलिखित चार शर्तें रखीं और मीर बख्शी ने इन्हें स्वीकार कर लिया:
1. सम्राट की सरकार पीपल के वृक्षों को न कटवाने का वचन देगी; 2. इस वृक्ष की पूजा में कोई बाधा नहीं डालेगी; 3 . इस प्रदेश के हिंदू मंदिरों का अपमान या नुकसान नहीं करेगी; 4. सूरजमल अजमेर प्रांत की मालगुजारी के रूप में राजपूतों से 15 लाख रुपए लेकर शाही खजाने में दे देगा, बशर्ते मीर बख्शी नारनोल से आगे न बढ़े ...।
इस सफलता से सूरजमल और जाटों में नया आत्मविश्वास भर गया। जाटों का सैनिक सामर्थ्य प्रमाणित हो गया। इस संधि की शर्तों में स्पष्ट रूप से ब्रज- मंडल में भरतपुर के शासकों की उत्कृष्ट स्थिति को मान्यता दी गई थी, जिससे 'बृजराज'उपाधि का औचित्य सिद्ध होता है। सूरजमल के अलावा दूसरा कोई राजा नहीं हुआ जो ऐसी शर्तें मुस्लिम शासकों से मनवा सका।
दिल्ली में सूरजमल की धमक- 1753
सन 1748 में मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद शहज़ादा अहमदशाह शाहंशाह और अवध का सूबेदार सफ़दरजंग वजीर बना। मुगल दरबार में आपसी कलह से घोर अव्यवस्था का दौर शुरू होना लाज़िम था। सफदरजंग को उसकी निजी जागीर बल्लभगढ़ व रुहेलखंड में विद्रोह का सामना करना पड़ा। इनमें से पहले संग्राम में सूरजमल ने उसका विरोध किया और दूसरे में उसका समर्थन किया। मुगल दरबार में सफदरजंग के काफी शत्रु थे और रुहेलों ने भी उसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। ऐसी स्थिति में उसने सूरजमल का नाम अपने विरोधियों की सूची में जोड़ना ठीक नहीं समझा। दोनों में हुए समझौते के तहत झगड़ा खत्म हो गया। रुहेले जब सफदरजंग के प्रभुत्व को खुली चुनौती देने लगे तो बंगश पर चढ़ाई करने के अभियान में सफदरजंग के साथ सूरजमल था। उसने अहमद बंगश की राजधानी फर्रुखाबाद पर अधिकार कर लिया।
रुहेलों के विरुद्ध संग्राम में जाटों ने जो सराहनीय वीरता दिखाई उससे बल्लभगढ़ की समस्या का हल सूरजमल ने अपनी इच्छा के अनुकूल करवा लिया। रुहेलों का दमन करने के लिए दूसरी बार प्रस्थान करने से पहले सफदरजंग ने मराठों से मैत्री- संधि कर ली। जाट और मराठा सैनिकों ने रुहेला प्रदेश को तहस-नहस कर डाला। दिल्ली लौटकर सफदरजंग ने रुहेलों के विरुद्ध अपने दो संग्रामों में सूरजमल द्वारा दी गई सहायता को कृतज्ञतापूर्वक याद रखा। 20 अक्टूबर 1752 को जब वज़ीर सफ़दरजंग के साथ सूरजमल दरबार में उपस्थित हुआ तो सम्राट ने सूरजमल को 'राजेंद्र' की उपाधि देकर 'कुंवर बहादुर' और उसके पिता बदनसिंह को 'महेंद्र' की उपाधि देकर 'राजा' बना दिया।
कालांतर में मुग़ल दरबार में कलह का खेल कुछ ऐसा चला कि सफदरजंग और सम्राट के बीच तनातनी चरम पर पहुंच गई। सम्राट ने सफदरजंग को पदच्युत कर उसकी जागीरें ज़ब्त कर लीं। सफदरजंग ने अपने अहसान फ़रामोश बादशाह को सबक सिखाने के लिए दिल्ली पर घेरा डाल दिया और सूरजमल से सहायता की गुहार की। मार्च से नवंबर 1753 तक दिल्ली में गृह- युद्ध के हालात बने रहे। सफदरजंग की पुकार पर सूरजमल मई के पहले सप्ताह में विशाल सेना तथा 15 हज़ार घुड़सवार लेकर दिल्ली जा धमका। तत्कालीन नवाब गाजीउद्दीन( इमाद ) से जोरदार लड़ाई लड़ी। 9 मई और 4 जून1753 के बीच जाटों ने पुरानी दिल्ली में अपनी मनमर्जी चलाई। 16 मई को तो उन्होंने वहाँ खूंखार तरीके से उधम मचाई। बादशाह की सेना लाचार बनी रही; कुछ नहीं कर सकी।
'तारीख़-ए- अहमदशाह' के लेखक ने यह लिखा है: "जाटों ने दिल्ली के दरवाजे तक लूटपाट की ; लाखों- लाख लूटे गए; मकान ढहा दिए गए; और सब उपनगरों ( पुरों ) में और चुरनिया और वकीलपुरा में तो कोई दीया ही नहीं दीखता था।" उसी समय से 'जाट- गर्दी' शब्द प्रचलन में आया। परंतु यह भी याद रखना होगा कि इसके तत्काल बाद अहमदशाह अब्दाली की 'शाह-गर्दी' और मराठों की 'भाऊ-गर्दी' के सामने सूरजमल के सैनिकों द्वारा की गईं ज्यादतियां फीकी पड़ गई थीं।
सूरजमल ने जब तक अपनी तलवार म्यान में रखने से इंकार कर दिया जब तक कि उसके मित्र सफदरजंग को अवध और इलाहाबाद के उपराजत्व वापस न दे दिए जाएं। अंत में इन शर्तों पर संधि हो गई। सूरजमल ने सफ़दरजंग से मित्रता-धर्म निभाते हुए उसे विनाश से बचा लिया, चाहे इसके कारण उसे गाजीउद्दीन की कट्टर शत्रुता मोल लेनी पड़ी। दिल्ली की हार का बदला लेने एवं सूरजमल को डराने के लिए नवाब गाजीउद्दीन (इमाद ) ने दक्षिण से मराठा मल्हारराव होलकर को सूरजमल पर आक्रमण करने के लिए न्योता दिया।
मुग़ल-मराठा संयुक्त सेना से मुकाबला - 1754
सूरजमल सतर्क एवं चतुर पुरुष था। वह संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को आजमाए जाने के पक्ष में रहता था। वह अपने पांव रखने से पहले जमीन को जांच लेता था। साहस और धैर्य दोनों ही गुण उसमें थे। मराठों के विपरीत, सूरजमल अपनी चादर से बाहर पांव पसारने या अपने सामर्थ्य से अधिक जिम्मेदारी अपने सिर लेने से बचता था।
सूरजमल मराठों के साथ तनातनी से बचने का प्रयास करता रहा। परंतु मराठों के मन में संधि नहीं, लूट का लालच भरा था। फलता-फूलता जाट- राज्य उनकी खीझ व लोभ का कारण बन गया था। मराठों द्वारा सूरजमल को नीचा दिखाने की कुटिल चालें चली जा रहीं थीं। सन 1753 के दिसंबर के अंत में खांडेराव ने दिल्ली में मुगल सम्राट तथा इमाद के सम्मुख यह बात स्पष्ट कर दी थी --'मैं अपने पिता के आदेश से यहां सूरजमल के विरुद्ध आपके अभियान में सहायता देने आया हूं... ।'
सूरजमल के राज्य के केंद्र में स्थित सामरिक महत्व के कस्बे कुम्हेर में मुगल-मराठा की सम्मिलित सेना (80 हजार से अधिक सैनिक जिनमें जयपुर-नरेश द्वारा मल्हारराव के साथ भेजी गई छोटी-सी सेना भी शामिल थी।) ने जनवरी 1754 में घेरा डाल दिया। कुछ समय बाद मीर बख्शी अर्थात मुग़ल सम्राट की सेनाओं के प्रधान सेनापति गाजीउद्दीन खां शाही सेनाओं के साथ मराठों की सहायता के लिए आ पहुंचा। इस विशाल सेना के सम्मुख भी सूरजमल ने हिम्मत नहीं हारी और उसने मई 1754 तक चार माह तक डटकर मुकाबला किया।
सूरजमल संकट और संग्राम की स्थिति में काल और परिस्थिति के हिसाब से चाल चलने में माहिर था। कुम्हेर पर चढ़ाई के दौरान मल्हारराव का रूपवान वीर पुत्र खंडेराव जाटों की एक हल्की तोप के गोले से 17 मार्च 1754 को मारा गया। खाँडेराव का पिता मल्हारराव 'शोक से बिल्कुल पागल सा हो गया और उसने प्रतिज्ञा की कि वह इसका बदला जाटों का समूल नाश करके लेगा।'
मल्हारराव ने आक्रमण का दबाव बढ़ाया। सूरजमल की सहायता के लिए कोई नहीं आया। रानी हंसिया ने मराठा शिविर की फूट और गुटबंदियों की जानकारी प्राप्त कर जयप्पा सिंधिया के पास एक पत्र भिजवाया। जयप्पा सिंधिया और सिनसिनवार शासकों के मध्य हुए इस संपर्क के समाचार का पता चलते ही मल्हारराव होल्कर के हौसले टूट गए। उसने परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए 18 मई 1754 को सूरजमल से संधि कर ली। इस घेरे की समाप्ति के समय सूरजमल का राज्य ज्यों का त्यों था और उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।
"सूरजमल की धाक इस घेरे के दिनों में और भी बढ़ गई थी और सारे हिंदुस्तान भर छा गई थी; अब उसे यह यश और प्राप्त हो गया कि वह उन दो सरदारों से, जो अपनी -अपनी सेनाओं में उसके पद के समकक्ष थे, सौदेबाजी करने में और उनसे अपनी मनचाही शर्तें मनवाने में सफल हुआ।"( फ़ादर वैन्देल , और्म की पांडुलिपि ) कुम्हेर के घेरे से सूरजमल के कुशल और अक्षत बच जाने में चरित्र बल एवं सौभाग्य के साथ-साथ रानी हंसिया के साहसपूर्ण प्रयत्न और उनके सुयोग्य सलाहकार/विश्वसनीय मंत्री रुपराम कटारा के संधि वार्ता कौशल से भी बहुत सहायता मिली।
खांडेराव होल्कर की मृत्यु
17 मार्च 1754 को मल्हार राव होल्कर का इकलौता पुत्र खांडेराव होल्कर पालकी में बैठकर मोर्चे में खाईयों का निरीक्षण कर रहा था। अचानक कुम्हेर दुर्ग से गोलाबारी शुरू हो गई। एक जम्बूरे का गोला लगने से खांडेराव की वहीं मृत्यु हो गई। रघुनाथ राव सहित अन्य सरदारों ने मल्हार राव को धीरज बँधाया। महाराजा सूरज मल ने भी मल्हार राव तथा खांडेराव के पुत्र मालेराव को शोक-सूचक वस्त्र भेजते हुये खेद व्यक्त किया। अहिल्या बाई को छोडकर खांडेराव की अन्य सभी 9 रानियाँ सती हो गई। महाराजा सूरज मल ने खांडेराव का स्मारक वहीं दुर्ग के सामने मैदान में बना दिया (दिल्ली क्रानिकल्स,पृ.48) जो आज भी गांगरसोली (कुम्हेर) में जाट शासकों की सद्भावना के प्रतीक के रूप में विद्यमान है। (तारीखे अहमदशाही, पृ. 117; भाऊ बखर,पृ.5; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ.113-114)
खंडेराव की मृत्यु होने पर युद्ध कुछ दिनों के लिए स्थगित हो गया। 1 अप्रैल को युद्ध पुनः प्रारंभ हो गया। उसी रात्रि को सूरजमल दुर्ग से बाहर निकलकर हरगोविंद नाटाणी के डेरे में गया और लौटकर (संभवत: शत्रु खेमे में शांति की कोई संभावना न पाकर) किले के अंदर से आक्रमण शुरू कर दिया, जिसमें अनेक मराठे मारे गए। मल्हार राव जो अपने पुत्र के अंत्येष्टि कर्म करने मथुरा गया हुआ था, 4 अप्रैल को लौटकर मराठा शिविर में आया। पुत्र के शौक में क्रुद्ध मल्हार राव ने प्रतिज्ञा की कि, "सूरजमल का सिर विच्छेद करके कुम्हेर दुर्ग की मिट्टी यमुना में डालूंगा, तभी मेरा जन्म सार्थक होगा, अन्यथा मैं प्राण त्याग दूंगा। (भाऊ बखर, पृ.5, डॉ. पी.सी. चांदावत,पृ.114)
इस प्रकार प्रतिशोध की ज्वाला में मराठा सेनाओं ने दुगुने वेग से जाटों पर भीषण परिहार शुरू कर दिया। परंतु आगे बताये अनुसार मल्हार राव की प्रतिज्ञा कभी पूरी नहीं हो सकी।
सूरजमल की प्रतिरक्षात्मक कूटनीति की सफलता
डॉ. पी.सी. चांदावत [4] ने महाराजा सूरजमल के मुग़ल-मराठा संयुक्त सेना से मुकाबले के बारे में विस्तार से इस प्रकार लेख किया है, जिसमें उनका राजनैतिक चातुर्य और रणकौशल स्पष्ट झलकता है।
[पृ.115]: यद्यपि सैनिक दृष्टि से जाटों ने विशाल मराठा सेना के मुकाबले में कुम्हेर की प्रतिरक्षा में 3 महीने तक अद्भुत धैर्य एवं साहस का परिचय दिया, तथापि प्रतिशोध की उग्र भावना ने मराठों में नव शक्ति का संचार किया जिसका वजन जाट भी महसूस करने लगे थे।
ऐसे अवसर पर सूरजमल की चतुर पत्नी रानी हंसिया ने अपनी उपाय कुशलता से पति के जीवन में आशा का संचार किया। वह मराठा सरदारों की आपसी स्पर्धा और जयप्पा सिंधिया की विश्वसनीयता से अवगत थी। अतः शत्रु के शिविर में फूट डालने के उद्देश्य से एक रात्रि को उसने रूप राम के पुत्र तेजराम कटारा को, सूरजमल की पगड़ी एवं उसके पत्र के साथ, जयप्पा के पास पगड़ी बदलकर उसकी मित्रता के लिए निवेदन किया। जयप्पा ने सूरजमल की धरोहर को स्वीकार करके एक उत्साहवर्धक पत्र के साथ अपनी पगड़ी भेजी और अपनी सदाशयता के सर्वाधिक पवित्र प्रमाण रूप में बेल भंडार से पुष्प भेजे। (भाऊ बखर, पृ.5-6;गुलगुले दफ़्तर,I, पत्र क्रमांक 212 व 227) इस समाचार के प्रकट हो जाने पर मल्हारराव अत्यंत उदास हो गया
दूसरी ओर सूरजमल ने सियार के लेखक के अनुसार सम्राट एवं वजीर इंतिजाम को पत्र लिखा कि अगर उन्होंने मराठा एवं मीर शहाबुद्दीन (इमाद) को अपनी योजना पर चलने दिया, तो एक समय आएगा जब वह वजीर के पद के साथ-साथ सिंहासन पर भी अपनी आंखें गड़ाएगा और सरकार बदलने का प्रयास करेगा, ताकि नया शासन उसके अनुकूल हो। इसलिए साही हित में वह सलाह देता है कि इन परिस्थितियों में क्या यह उचित नहीं होगा कि सम्राट अपने मंत्री तथा सेना के साथ, शिकार एवं शाही भूमि के निरीक्षण के बहाने से सिकंदरा की तरफ बढ़े, जहां पर शामिल होने के लिए अब्दुल मंसूर खान को बुलाया जाए, जो मराठों व मीर शहाबुद्दीन को नष्ट करने हेतु साथ देने में नहीं चूकेगा। (सियार, III,पृ.336, इलियट, VIII, पृ.289)) सूरजमल की योजना
[पृ.116]: थी कि सम्राट अलीगढ़ पहुंचे और वहां तब तक रुके, जब तक कि नवाब सफदरजंग वहाँ न पहुंच जाए। अवध से आने वाली सेना के पहुंचते ही उसे तेजी से आगरा की ओर प्रयाण करना था, जहां कछवाहा एवं राठौड़ राजाओं को अपनी अपनी सेनाओं के साथ उसके साथ मिलना था। योजना चंबल पर घेरा बनाने की थी, ताकि शत्रु बचकर नहीं जा सके। अगर मराठे कुम्हेर का घेरा उठाकर आगरा पर प्रयाण करते हैं, तो सूरजमल उनके पीछे से आकर सम्राट के साथ सम्मिलित हो जाएगा। (तारीखे मुजफ्फरी,पृ.88)
सूरजमल की यह सलाह सम्राट एवं वजीर द्वारा स्वीकृत कर ली गई। (सियार, III, पृ.336; केंब्रिज हिस्ट्री, पृ.436) जब सभी और से उत्साहजनक जवाब आ गए तो सम्राट 27 अप्रैल को अपने हरम, सेना व तोपखाने के साथ शिकार- ए-काफिले पर राजधानी से रवाना हुआ। (सियार, III, पृ.336) सफदरजंग भी गंगा के किनारे मेहंदी घाट (कन्नौज के नीचे) पहुंचकर सम्राट के अलीगढ़ पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा। परंतु सम्राट जैसा कि निश्चय किया गया था, अलीगढ़ पहुंचकर सुदृढ़ दुर्ग में शरण पाने की अपेक्षा मूढ़तावश सिकंदराबाद (17 मई) के पड़ोस में समय गंवाता रहा।[5] फलस्वरूप वह सफदरजंग के दल से प्रतिकूल स्थिति में हो गया। इस प्रकार सम्राट सूरजमल की सलाह के इस भाग पर विलंब एवं अनिच्छा से कार्य करता दिखाई दिया, जिसे वजीर एवं उसकी माता मलिका जमानी ने भी पसंद नहीं किया।[6]
सम्राट के शिविर की इन मंत्रणाओं और अनिश्चय के समाचार मीर शहाबुद्दीन को मिल गए, जो अत्यधिक सतर्क और अपनी योजना पर ध्येयरत था।[7] इमाद ने इन गतिविधियों का अवलोकन पूरी गंभीरता से किया और होल्कर की सहायता से वह सम्राट को परास्त करने के लिए तैयार हो गया। इसके परिणाम स्वरूप इमाद का ध्यान कुम्हेर से हटकर सम्राट की योजना को विफल करने में लग
[पृ.117]: गया। इसी उद्देश्य से उसने अपने षड्यंत्रकारी दूत अकीबत को सम्राट के शिविर में भेजा।[8] इस प्रकार सूरजमल की उपरयुक्त योजना ने इमाद पर दबाव का काम किया।
उधर भाऊ बखर के लेखक के अनुसार सूरजमल ने जयप्पा सिंधिया को संदेश भेजा। जयप्पा अपने सलाहकारों के साथ मंत्रणा करने के पश्चात रघुनाथराव के पास गया उनको स्थिति समझाई और जाटों के प्रस्ताव पर काम करने का निवेदन किया। बताया कि अगर हम लंबे समय तक यहाँ एक स्थान पर रुके रहे तो भारी पड़ेगा। इस पर रघुनाथ राव बड़ी दुविधा में फंस गया। उसने सखाराम बापू से इस प्रश्न पर सलाह मशविरा किया कि अगर शत्रु जाटों से समझौता करते हैं, तो मल्हारराव को खो बैठते हैं और नहीं करते हैं तो अपनी बातें समाप्त होती हैं। इसका उपाय क्या किया जाए। जब जयप्पा ने अपनी सेना के साथ कूच करने की धमकी दी, तो इस विकट समस्या पर वार्ता करने के लिए रघुनाथ राव होलकर के पास गया और कहा शिंदे तो जा रहा है तुम वरिष्ठ होने के नाते मुझे क्या सलाह देते हो? मल्हारराव ने अनुभव किया कि उसके अकेले दुराग्रह करने पर सारे परिणामों की जिम्मेदारी उसी पर होगी और अगर वह रघुनाथराव की सलाह पर ध्यान नहीं देता है तो यहां भी उसे कोई लाभ नहीं है। यह सोचकर उसने रघुनाथराव से कहा कि वे उसके स्वामी हैं, और जिसमें वह प्रसन्न हैं, वह उसे स्वीकार है। इस प्रत्युत्तर का श्रेष्ठ उपयोग करते हुए रघुनाथ राव जयप्पा के पास आया और उसकी रवानगी को रोककर उसे जाटों के साथ सुलह करने की स्वीकृति दे दी। [9]
इस प्रकार सूरजमल की कूटनीति योजना ने घटनाक्रम को उसके पक्ष में इस तरह मोड़ दिया कि जाट सेना द्वारा कुम्हेर की अभूतपूर्व रक्षा के अंतिम चरण में इमाद व मराठों का सक्रिय दबाव कम होने लगा और जब जाट राजा 30 लाख रूपयों के अतिरिक्त सम्राट को दी जाने वाली पेशकश की राशि इमाद व मराठों को देने को तैयार हो गया, 18 मई 1754 को दोनों पक्षों के बीच तुरंत शांति स्थापित हो गई'। (किन्तु सूरजमल ने इस राशि का भुगतान नहीं किया। पेशवा दफ़्तर,XXI,पत्र 80 व 86)
अहिल्याबाई के निर्माता-निर्देशक पर हो कार्यवाही
अहिल्याबाई के निर्माता-निर्देशक पर हो कार्यवाही और दुबारा नहीं हो इसकी पुनरावृत्ति- सदन में गरजे बेनीवाल: सोनी टेलीविजन द्वारा प्रसारित धारावाहिक ‘अहिल्या बाई’ के दौरान महाराजा सूरजमल की छवि से छेड़छाड़ करने का मामला गुंजा लोकसभा में, सदन में जनता की आवाज बन चुके आरएलपी सुप्रीमो व नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल ने इस मामले को लेकर सदन में जमकर लगाई दहाड़, बेनीवाल ने कहा- ‘सोनी टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक “अहिल्याबाई” में महाराजा सूरजमल जी के इतिहास का प्रसारण जिस प्रकार गलत रूप से किया गया, उससे महाराजा सूरजमल जी में आस्था रखने वाले जाट समाज सहित सर्व समाज के लोगों की भावना को पहुंची है ठेस, अजेय योद्धा महाराजा सूरजमल के इतिहास के साथ छेड़छाड़ किसी भी रूप में नहीं है स्वीकार्य,’ सांसद हनुमान बेनीवाल ने कहा- सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए फिल्मों और धारावाहिक के माध्यम से इतिहास के तथ्यो के साथ किया जाता है छेड़छाड़, जिस पर सरकार को अंकुश लगाने की है जरूरत, अहिल्याबाई धारावाहिक के निर्माता तथा निदेशक के विरुद्ध दर्ज करवाया जाए मुकदमा, और धारावाहिक के प्रसारण पर रोक लगाते हुए महाराजा सूरजमल जी के संबंध में दिखाए गए गलत तथ्यो से जुड़े भाग को हटाया जाए सभी प्लेटफार्म से, यही नहीं सरकार को इस बात की सुनिश्चितता भी देनी होगी कि झूठी टीआरपी बटोरने के लिए कोई भी निर्माता व निदेशक इतिहास के तथ्यों के साथ नहीं करें छेड़छाड़, सूरजमल जी धर्म रक्षक और अजेय योद्धा थे जिन्होंने अपने जीवन काल में कोई युद्ध नही हारा और देश की अखंडता की रक्षा की
यह भी देखें
- He Ruled In An Age Of Treachery - Article by Ahmed Ali, Times of India Delhi, 16 August 1981
- Surajmal, Marathas and Third Battle of Panipat
- Bharatpur
- Maharani Kishori
- The Jat Uprising of 1669
- Lohagarh Fort
- History of Bharatpur
- सूदन कवि का सुजान चरित्र
- Panipat Ke Yuddh Mein Maharaja Surajmal Ki Bhumika
संदर्भ
- ↑ Patrika.25.12.2019
- ↑ Patrika.25.12.2019
- ↑ R.C.Majumdar, H.C.Raychaudhury, Kalikaranjan Datta: An Advanced History of India, fourth edition, 1978, ISBN 0333 90298 X, Page-535
- ↑ डॉ. पी.सी. चांदावत: महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ.115-117
- ↑ फर्स्ट टू नवाब, पृ.237-238; तारीखे अहमदशाही, पृ.127; तारीखे मुजफ्फरी,पृ.89
- ↑ सियार, III, पृ.337
- ↑ सियार, III, पृ.337
- ↑ सियार, III, पृ.337; तारीखे मुजफ्फरी,पृ.90
- ↑ भाऊ बखर,पृ7-11; बर्वे कृत सूबेदार मल्हार राव होल्कर,पृ.71-73
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