Kushasthali
Kushasthali (कुशस्थली) was the ancient name of Dwarka in Gujarat.
Variants
- Kushasthala (कुशस्थल) (AS, p.211)
- Kushasthali कुशस्थली (AS, p.212)
- Kusasthali
History
Some historians opine that the Kushasthali was after a daitya named Kusha who was known here as Kusheshwara Mahadeva. [1]
Anarta's son Revata built a town called Kusasthali in the midst of the sea and from that town ruled Anarta and other lands.
According to the Puranic accounts, this region was ruled by the Sharyata dynasty rulers, who claimed their descent from Sharyati, a son of Vaivasvata Manu. The kingdom was named after Anarta, the son of Sharyati. The capital of this kingdom was Kushasthali (the ancient name of Dwaraka). The last ruler of this dyansty was Kakudmi. After him, it was occupied by the Punyajana Rakshasas.[2] Later, the Yadavas migrated to this region under the leadership of Krishna.[3]
कुशस्थली
विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...
1. कुशस्थली (AS, p.212) द्वारका का ही प्राचीन नाम है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण इसका नाम कुशस्थली नाम पड़ा। पीछे त्रिविक्रम भगवान् कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था। त्रिविक्रम का मंदिर भी द्वारका में रणछोड़ जी के मंदिर के पास है। ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकालकर यह नगरी बसाई थी। हरिवंश पुराण (1.1.4) के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहाँ यादवों ने द्वारका बसाई थी। विष्णु पुराण के अनुसार, आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रोजज्ञे योऽसावानर्त विषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थली मध्युवास अर्थात आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रहकर आनर्त विषय पर राज्य किया। एक प्राचीन किंवदंती में द्वारका का सम्बन्ध पुण्यजनों से बताया गया है। ये पुण्यजन वैदिक पाणिक या पणि हो सकते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि ये प्राचीन ग्रीस के फिनिशियनों का ही भारतीय नाम है। ये अपने को कुश की सन्तान मानते थे। (वेडल: मेकर्स ऑफ़ सिविलाइजेशन पृ.80)
हमारा मत है कि ये पुण्यजन पूनिया जाट ही थे।[5]
इस प्रकार कुशस्थली या कुशवर्त नाम बहुत प्राचीन सिद्ध होता है. पुराणों के वंशवृत्त में शार्यातों के मूल पुरुष शर्याति की राजधानी की कुशस्थली बताई गई है. महाभारत, सभा पर्व 14,50 के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी--'कुशस्थली पुरी रम्यां रैवतेनॊपशॊभिताम्' जरासंध के आक्रमण से बचने के लिए श्री कृष्ण मथुरा से कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने नई नगरी द्वारका बसाई थी. पूरी की रक्षा के लिए उन्होंने अभेद्य दूर्ग की रचना की थी जहां रहकर स्त्रियां भी युद्ध कर सकती थीं--'तदैव दुर्गसंस्कारं देवैर अपि दुरासदम्, स्त्रियॊ ऽपि यस्यां युध्येयुः किंमु वृष्णिमहारथा:'महाभारत, सभा पर्व 14,51.
2. कुशस्थली (AS, p.213) - देखें कुशभवनपुर
3. कुशस्थली (AS, p.213) = कुशावती
कुशेश्वर महादेव मंदिर
कुशेश्वर महादेव मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में कुल बीस मंदिर हैं. मोक्षद्वार से प्रवेश करने पर दाहिने और नवग्रह देवता के यंत्र और समीप कुशेश्वर महादेव शिवलिंग विराजमान है। कहा जाता है कि द्वारका की यात्रा के आधे भाग का मालिक कुशेश्वर महादेव है। एक मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कस्वां और कुश जैसे दोनों गोत्र अब भी भी जाटों में विद्यमान हैं। कुशस्थली नगरी कुश अथवा कस्वां गोत्र के जाटों द्वारा बसाई गयी थी। कृष्ण द्वारा राज्य अधिग्रहण करने के कारण ये वहाँ से चलकर राजस्थान और हरयाणा में आ गए। ठाकुर देशराज[6] लिखते हैं कि आरम्भ में कस्वां सिन्ध में राज्य करते थे। ईसा की चौथी सदी से पहले जांगल-प्रदेश में आबाद हुए थे। इनके अधिकार में लगभग चार सौ गांव थे। सीधमुख राजधानी थी। राठौरों से जिस समय युद्ध हुआ, उसय समय कंवरपाल नामी सरदार इनका राजा था। इस वंश के लोग धैर्य के साथ लड़ने में बहुत प्रसिद्ध थे। कहा जाता है दो हजार ऊंट और पांच सौ सवार इनके प्रतिक्षण शत्रु से मुकाबला करने के लिए तैयार रहते थे। यह कुल सेना राजधानी में तैयार न रहती थी। वे उत्तम कृषिकार और श्रेष्ठ सैनिक समझे जाते थे। राज्य उनका भरा-पूरा था। प्रजा पर कोई अत्याचार न था। सत्रहवीं शताब्दी में इनका भी राज राठौंरों द्वारा अपहरण कर लिया गया। इनके पड़ौस में चाहर भी रहते थे। राजा का चुनाव होता था, ऐसा कहा जाता है। चाहरों की ओर से एक बार मालदेव नाम के उपराजा का भी चुनाव हुआ था।
Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 13
Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 13 mentions that the 18 tribes of Vrishnis fled out of fear of Jarasandha to Kushasthali. .....Kushasthali is mentioned in Mahabharata (II.13.49).[7]
Then, O great king, remembering the conclusion to which we had come of old we became exceedingly cheerless and fled from Mathura. Dividing our large wealth into small portions so as to make each portion easily portable, we fled from fear of Jarasandha, with our cousins and relatives. Reflecting upon everything, we fled towards the west. There is a delightful town towards the west called Kusasthali, adorned by the mountains of Raivata. In that city, O monarch, we took up our abode. We rebuilt its fort and made it so strong that it has become impregnable even to the Gods. And from within it even the women might fight the foe, what to speak of the Yadava heroes without fear of any kind? O slayer of all foes, we are now living in that city. And, O tiger of the Kuru race, considering the inaccessibility of that first of mountains and regarding themselves as having already crossed the fear of Jarasandha, the descendants of Madhu have become exceedingly glad. Thus, O king, though possessed of strength and energy, yet from the oppressions of Jarasandha we have been obliged to repair to the mountains of Gomanta....
External links
See also
References
- ↑ Divya Dwarka, Publisher: Dandi Swami Shri Sadanand Saraswati Ji, Secretary of Shri Dwarkadheesh Sanskrit Academy and Indological Research, Dwarka, Gujarat,p.10
- ↑ Pargiter, F.E. (1922, reprint 1972). Ancient Indian Historical Tradition, New Delhi: Motilal Banarsidass, p.98
- ↑ Pargiter, F.E. (1922, reprint 1972). Ancient Indian Historical Tradition, New Delhi: Motilal Banarsidass, p.282
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.212
- ↑ Laxman Burdak (talk) 05:16, 29 April 2019 (UTC)
- ↑ जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ-620
- ↑ इति संचिन्त्य सर्वे सम परतीचीं थिशम आश्रिताः, कुश स्थलीं पुरीं रम्यां रैवतेनॊपशॊभिताम