Sahasi Rai II
Sahasi Rai II (साहसीराय द्वितीय) was an Jat ancient King of Ray Dynasty in Sindh, Pakistan.
Rai Dynasty
The Rai Dynasty rulers of Sindh were Buddhists of the Mauryan clan Jats. Rai was their title. Their capital was at Alor.
Jat Gotra
Sahasi (साहसी) is gotra of Jats in Rajasthan[1] who are descendants of ancestor named Sahasi.[2]
Territory
Their state extended from Kashmir and Kannauj in the east, Makran and Kewal port in the west, Surat port in south, Kandahar, Sistan, Suleyman, Ferdan and Kekanan hills in the north.
History
The chronology of Rai rulers of Sindh is as under[3]:
Rai Meharsan II had a war with Badshah Nimroz of Iran in which he was killed. After him Rai Sahasi II became the king. Once Sahasi Rai second fell ill. He called his minister to see the letters. The minister sent his munshi Chach for this purpose. The wisdom of Chach influenced the king and he appointed Chach to look after the palace. This way he got free entry into the palace. Chach developed illigal relations with the queen Suhanadi. Chach conspired with the Rani Suhanadi and killed Raja Sahsi Rai second and married with the queen and became ruler of Sindh starting a line of Brahmin rulership in samvat 689 (632 AD).[4]
Rana Maharath, the ruler of Chittor, was brother-in-law of Raja Sahasi Rai. Rana Maharath attacked Chach but Rana was killed in the war in 632. After Chach his son Chandra became king of Sindh. Later after death of Chandra Raja Dahir became the ruler of Sindh.
Qanungo[5] writes that Brahmans in Sindh prospered under the patronage of the native Jat princes till they became so powerful that about 10 A.H. Chach, the Brahman father of Dahir, - usurped the throne of his master, King Sahasi Ray II through the influence of the fair but faithless queen Suhandi, who had fallen in love with him. He married the widowed queen formally and reigned vigorously for 40 years, leaving behind him the reputation of a wise and enlightened prince. But he was an implacable foe of the Jats, the bulk of whom were reduced to serfdom He degraded the Jats and Luhanas and bound over their chiefs. He took hostages from them and confined them in the fort of Brahmanabad.
साहसीराय द्वितीय
ठाकुर देशराज लिखते हैं कि यह मौर्य-वंश के जाट थे। इनके मरने के बाद जाट और लुहानों पर भारी आपत्तियां आईं। इनके पूर्वज और वंशज सबकी उपाधि राय थी। ये लोग राय के नाम से मशहूर थे। इनकी राजधानी अलोर में थी। इनका राज्य पूर्व में कश्मीर और कन्नौज तक और पश्चिम में मकरान तथा समुद्र के देवल बन्दर तक, दक्षिण में सूरत बन्दर तक, उत्तर में कंधार, सीस्तान, सुलेमान, फरदान और केकानान के पहाड़ों तक फैला हुआ था।
- (1) राय देवाज्ञ नाम का सरदार इन लोगों में सबसे बड़ा, पहला ज्ञात पुरुष था,
- (2) राय महरसन,
- (3) राय साहसी,
- (4) राय महरसन द्वितीय,
- (5) राय साहसी द्वितीय नाम के राज राजवंश में हुए।
राय महरसन द्वितीय को ईरान के बादशाह नीमरोज से लड़ना पड़ा था। गले में तीर लग जाने के कारण राय महरसन की मृत्यु हो गई। इसकी मृत्यु के बाद इसका बेटा राय साहसी राजा बनाया गया। इसने पहले तो अपने राज्य की सीमाओं का प्रबन्ध किया और फिर प्रजा को हुक्म दिया कि एक वर्ष के लगान के बदले में माथेला, सिवराय, मऊ, अलोर और सेबिस्तान के किलों की मरम्मत कर दी जाए। प्रजा ने ऐसा ही किया । इस तरह इसके राज्य का विस्तार भी होने लगा। सारी प्रजा प्रसन्न थी। कोई खिन्न था।
इसके यहां राम नामक एक वजीर था और इसी नाम का एक ड्योढ़ीदार। एक समय शालायज्ञ नाम के ब्राह्मण का एक लड़का जिसका नाम चच था, इस
- 1. डिस्ट्रीब्यूशन आफ दी नार्थ वैस्टर्न प्रोविन्सेज आफ इण्डिया। लेखक - सर हेनरी एम. इलियट के. सी. वी.
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-700
ड्योढ़ीदार राम से आकर मिला। ड्योढ़ीदार ने उसे मंत्री के यहां नौकरी करा दिया। एक समय राजा साहसीराय बीमार हुआ तो उसने मंत्री को इस वास्ते महल में ही बुलाया कि देश-प्रदेश से आई हुई चिट्ठियों को सुना दे। मंत्री ने अपने मुंशी चच को भेज दिया। राजा साहसीराय चच की विद्वता को देखकर प्रसन्न हुआ और उसे ड्योढ़ीवान बना दिया। वह बे रोक-टोक जनाने में जाता था। राजा साहसी की स्त्री सुहानदी की नीयत में फर्क आ गया और उसने चच से अनुचित सम्बन्ध कर लिया और चच ने नमकहरामी करके रानी की मदद से राज्य को हड़प लिया। साहसीराय के मरने पर चच ने उस रानी से शादी कर ली।
चच की इस धोखेबाजी के समाचार जब साहसीराय के दामाद राणा महारथ जो कि चित्तौड़ का शासक था1 ने सुने तो वह क्रोध से जल गया और सेना लेकर उसने चच पर चढाई कर दी। चच पहले तो घबरा गया, किन्तु रानी सुहानदी के साहस दिलाने पर उसने लड़ाई की तैयारी की। यहां भी चच ने धोखे से काम लिया और यह तय होने पर कि राणा और चच दोनों एक-दूसरे को निपट लें, बिना बात हजारों आदमियों का खून क्यों हो। चच ने राणा के साथ विश्वासघात करके मार डाला, यह घटना संवत् 689 सन् 632 ई० की है।
Dalip Singh Ahlawat writes:
....इसी तरह सिन्ध् पर जाटों का राज्य काफी समय से चला आ रहा था। इसका अन्तिम सम्राट् साहसीराय द्वितीय था जिसको उसका ब्राह्मण वजीर चच षडयंत्र से मारकर, स्वयं राजा बन बैठा। इसने 40 वर्ष सिन्ध पर शासन किया। वहां पर जाटों की बड़ी भारी आबादी थी। इसने जाटों पर बड़े-बड़े अत्याचार किए। जाटों को दास व गुलाम बनाकर रक्खा। उनकी आत्मिक, मानसिक, आर्थिक स्थिति व स्वतन्त्रता को बुरी तरह से कुचल दिया गया। इनकी भावनाओं को कुचलकर रख दिया और जाटों को घृणा की निगाह से देखा गया। चच के मरने पर उनके बेटे दाहिर को यह राज मिला। उसने भी जाटों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया।[6]
जीरादेई
विजयेन्द्र कुमार माथुर[7] ने लेख किया है ...जीरादेई (AS, p.367) या 'जीरादेयु' छपरा ज़िला, बिहार (वर्तमान सिवान जिला) का एक ग्राम है। यह ग्राम जीरादेई के नाम पर प्रसिद्ध है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार जीरादेई ईरान विजेता राजा रतिबलराय की पुत्री थीं। जीरादेई का विवाह मकरान नरेश राजा सहसराय के पुत्र सुबलराय से हुआ था। (हिस्ट्री ऑव परशिया-स्मिथ) सुबलराय की मृत्यु हो जाने के बाद जीरादेई सती हो गईं। जीरादेई ग्राम के पास सुबलराय ने 'सुरबल' या 'सुरौल' नामक एक गढ़ बनवाया था, जो अब भी विद्यमान है। सुबलराय आठवीं शती ई. में शासनरत थे।
References
- ↑ जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ-695
- ↑ Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998, p. 282
- ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas, Delhi, 1934, p.700
- ↑ Thakur Deshraj : Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 2nd edition 1992, p.700-701
- ↑ History of the Jats:Dr Kanungo/Origin and Early History, p.16
- ↑ Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter II (Page 141)
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.367
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