Shyam Singh Atariwala

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श्यामसिंह अटारीवाला

Sham Singh Atariwala (d.1846) (सरदार शामसिंह अटारीवाला), a Brar Gotra Sikh Jat and prominent zamindar from Atari village between Amritsar and Lahore, was one of the generals in the army of Maharaja Ranjit Singh. He sacrificed his life in the the Battle of Sobraon in 1846. He also participated in Afghan-Sikh Wars, the Battle of Attock, Battle of Multan, Battle of Peshawar, and the 1819 Kashmir expedition. His daughter was married to Prince Nau Nihal Singh (son of Maharaja Ranjit Singh).

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज

(जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठ 334-338)

.... सिख अलीवाल युद्ध में अपनी पराजय के कारण तिलमिला रहे थे। सर्वस्व अर्पण करने पर भी पराजय होते देखकर निराशा-सागर में डूबे हुए थे, किन्तु एक जाट केसरी ने सिंह-गर्जन करके उन्हें फिर उत्साहित किया। वह महाराज रणजीतसिंह के बचपन के साथी तथा वीर-श्रेष्ठ कुं० नौनिहालसिंह के श्वसुर श्यामसिंह जी अटारी वाले थे। बुढ़ापे में भी सरदार श्यामसिंह की सूखी हड्डियों में अपनी जन्मभूमि की स्वाधीनता की रक्षा के लिए खून दौड़ने लगा। उन्होंने ओजस्वी वाणी से सिख वीरों को सम्बोधित करते हुए कहा - “आओ वीरो! आओ। खालसा के वीर सरदारो आओ!! मातृभूमि की स्वाधीनता की रक्षा के लिए फिरंगियों से तुम्हारे साथ लड़कर तथा प्राण देकर मैं भी स्वर्ग सिधारूंगा। हृदय के गर्म-गर्म लहू को बहाकर गुरु गोविन्दसिंह की आत्मा को प्रसन्न करूंगा और खालसा का गौरव बढ़ाऊंगा।” साथ ही सरदार श्यामसिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ-साहब को छूकर प्रतिज्ञा की कि प्राण रहते कभी भी युद्ध-स्थल से पीछे नहीं हटूंगा। इस भीषण प्रतिज्ञा के बाद उन्होंने रणभूमि की तैयारी की। उनकी सफेद दाढ़ी, सफेद मूंछ, साथ ही अंगरखी और पगड़ी भी सफेद थी। यही क्यों, जिस समय वे सफेद घोड़ी पर सवार हुए, उनकी सुन्दरता जाग उठी। युद्ध को प्रस्थान करते हुए उन्होंने खालसा सेना से कहा - आओ खालसा के पुत्रो! पराधीन होने की अपेक्षा अस्त्र-शय्या पर सदा के लिए सो जायें। खालसा-सेना के हृदयों को यह मार्मिक अपील पार कर गई। वे सिंहनाद से गर्जते हुए उठ खड़े हुए। उन्होंने भीम-गर्जन के साथ ‘वाह गुरु की फतह’ के नारे लगाये।

सिखों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध करने के लिए सोवरांव पर दखल करके सुदृढ़ व्यूह बना लिया। 67 तोपों के साथ 15 हजार सिक्ख मर मिटने के लिए तथा मार-काट करने के लिए अंग्रेजी सेना के आने की प्रतीक्षा करने लगे। ....


....उन्हें यकीन हो गया था कि सिक्खों से मुकाबले में फतह नहीं पा सकते। इसलिए (9 फरवरी सन् 1846 ई० की रात को) चुपके से सिक्ख-सेना पर आक्रमण किया, फिर मुठभेड़ होते समय तक सूर्य निकल आया। सदा के फुर्तीले सिक्खों ने तुरन्त रणभेरी बजा दी। ठीक साढ़े छः बजे अंग्रेजों की सैंकड़ों तोपें सिखों पर गोले बरसाने लगीं। कभी सिखों की हथियारों से भरी हुई गाड़ियां तोपों के गोलों से नष्ट होती थीं, कभी बालू से बनाई उनकी दीवार गिरती थी। कभी गोले फटकर पृथ्वी में दरारें कर देते थे। सिखों की लोथों पर लोथ बिछ रही थीं, किन्तु इस पर भी सिख वीरों का धीरज न छूटा।

खालसा सेना अंग्रेजों के प्रत्येक आक्रमण का उत्तर स्वाभाविक फुर्ती से देकर अंग्रेजी सेना में प्रतिक्षण हाहाकार मचा देती थी। भारत में अंग्रेजों को अनेक युद्ध करने पड़े हैं। किन्तु अन्यत्र कहीं भी सोवरॉय की भांति दुर्ज्जय वीरों की भीषण समर-लीला देखकर कहीं इतना भयभीत नहीं होना पड़ा।

..... इन दोनों सेनाओं ने सिक्खों की कई तोपों को छीन लिया। इसी समय हैरी-स्मिथ-सेना ने भी सिक्खों पर आक्रमण किया। शत्रुओं के इस भीषण आक्रमण का उत्तर देने के लिए सिक्ख सिंहों की भांति अंग्रेजी दल पर झपटे। अगणित अंग्रेज सैनिक उन्होंने काट कर गिरा दिये। आगे की सेना पीछे वालों पर गिरने लगी। पर इतनी हानि होने पर भी गिलवर्ट-सेना ने डिक की सेना के सहारे सिक्ख-सेना पर हमला किया। यह दृश्य अपूर्व था। कभी अंग्रेजी सेना सिक्खों को भगाकर आगे बढ़ती, कभी सिक्ख सेना अंग्रेजी-सेना का ध्वंस करती। इसी तरह की कश्मकश में अंग्रेजों की सेना एक बार के हमले में सिक्ख-सेना के भीतर घुस गई और उसके दायें-बायें अंश अंग्रेज-सेना ने घेर लिए। इसी समय अंग्रेजी तोपों ने सिक्ख-व्यूह की दीवार पर गोले बरसाने आरम्भ कर दिये। थोड़ी देर में दीवार गिर पड़ी और अंग्रेजी सेना ने सिक्खों पर चारों ओर से हमला कर दिया। यही अवसर सेनापतियों के रण-कौशल दिखाने का था। किन्तु बेचारी सिक्ख-सेना के सेनापति तो विश्वासघातक थे। उन नराधमों ने गोलन्दाजों को बारूद देना बन्द कर दिया। जो तोपें कुछ समय पहले अग्नि वर्षा करके अंग्रेजों के दिल दहला रही थी, वे अब बिना बारूद के दगने से बन्द रह गईं। अंग्रेज सैनिक उन पर कब्जा करने लगे। उनकी नीचता की हद यहीं खतम नहीं हुई। स्वजाति-द्रोही तेजसिंह ने एक बड़ी सेना के साथ भागना शुरू कर दिया, उसने सतलज के पुल को भी तुड़वा दिया। वह चाहता था कि भागकर भी सिक्ख-सेना प्राण न बचा सके। अब सिक्ख-सेना इसके सिवाय क्या कर सकती थी कि जन्मभूमि के हित डटकर लड़े और लड़ते-लड़ते ही प्राणों का उत्सर्ग करे। उनके लड़ने के भी साधन नष्ट किए जा चुके थे। गोला-बारूद के बिना तोप-बन्दूकें बेकार साबित हो रहीं थीं। अब सिखों ने अपनी चिर-संचिनी तलवार को सम्भाला और अटारी के भीम-विक्रमी बूढ़े सरदार श्यामसिंह की उत्तेजना से, मदमत्त हस्तियों की भांति, अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया। सरदार श्यामसिंह सेना के प्रत्येक भाग में आक्रमण करके अपने साथियों का उत्साह बढ़ाने लगे। अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब सर्वनाश होने में देरी नहीं है, तब उन्होंने सिख-वीरों से ललकार-पूर्वक कहा - 'क्षत्राणियों के पुत्रो! आओ कुछ करके मरें। अंग्रेजों की 50वीं रेजीमेंट पर आक्रमण करो।' वे बड़े वेग से हवा में तलवार घुमाते हुए घोड़े को एड़ लगाते हुए अंग्रेजी रिसाले पर टूट पड़े। 50 अन्य सिख वीरों ने भी प्राणों का कुछ मोह न करके श्यामसिंह का साथ दिया। अंग्रेज सैनिकों के गोल ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। श्यामसिंह के सात गोलियां शरीर में लगकर पार हो गईं। किन्तु प्राण रहने तक श्यामसिंह लड़ते रहे। वे अंग्रेज-सिक्ख वीरों की लाशों के ढ़ेर के ऊपर सदैव के लिए सो गए।

सिख-सेना पीछे हटी, किन्तु बड़ी सावधानी के साथ। उसने पीठ न फेरी। अंग्रेजी फौज के सामने मुंह करके लड़ती हुई उल्टे पैरों वापस लौटी। यदि सतलज का पुल उसके विश्वासघाती सेनापतियों ने तोड़ न दिया होता, तो सिख वीर लड़ते हुए भी अपने इलाके में पुल पार करके वापिस पहुंच जाते। उन दिनों सतलज चढ़ी हुई थी। अब इसके सिवा उपाय ही क्या था। या तो वे नदी में कूदकर प्राण दें अथवा शत्रु के सामने छाती अड़ाकर अपने जीवन का निर्णय करें। वे तलवार के सहारे ही शत्रुओं का सामना करते हुए लड़कर मरने लगे। अंग्रेज आश्चर्य करते थे। इस तरह जीवन से निराश होने पर भी, उनमें से एक भी सिख, माफी मांगने के लिए तैयार नहीं है। उस सम्पूर्ण सिख-दल के रक्त से सतलज का जल रक्त-वर्ण हो गया। पानीपत के युद्ध के बाद, इतनी नर-हत्या सोमरांव युद्ध में ही हुई थी। प्रायः 8 हजार सिख उस दिन मां की आजादी की रक्षा के लिए रणखेत में शत्रु के हाथों से वीरगति को प्राप्त हुए। इतना होते हुए भी उन्होंने अंग्रेजी-सेना के दो हजार चार सौ तिरासी आदमियों को इस लोक से विदा कर दिया था। अंग्रेजों की विजय हुई। पर क्या कोई अभिमानी योद्धा यह कह सकता है कि सिख अंग्रेजों से हार गये थे?

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Sikh Philosophy Network

Battle of Sobraon

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