Bhagatsingh Shahidon Ke Sirmaur

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

For article in English see Bhagat Singh Sandhu

भगतसिंह : शहीदों के सिरमौर

भगतसिंह : शहीदों के सिरमौर

दिन 23 मार्च, साल 1931, वक़्त शाम के लगभग 7:30 बजे। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु- -इन तीनों आज़ादी के दीवानों को अंग्रेज़ी हुक़ूमत द्वारा सुनाई गई फांसी की सज़ा को लाहौर सेंट्रल जेल में क्रियान्वित कर दिया गया। तीनों नौजवानों को शहीदी दिवस पर शत-शत नमन। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इन तीन नौजवानों का बलिदान स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। मुल्क के लिए जीना और मुल्क के लिए मर-मिटना-- शायद यही इन शूरवीरों की ज़िंदगी का एकमात्र मक़सद था।

भगतसिंह की अंतिम इच्छा: उन्हें युद्धबंदी समझा जाए

फांसी के फंदे पर झूलते वक्त भगतसिंह की उम्र महज़ 23 वर्ष थी। 'हमारी जान बख्श दें'- ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी। हां, भगतसिंह ने अंग्रेज सरकार को लिखे अपने पत्र में यह जरूर लिखा था कि उन्हें अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबंदी समझा जाए तथा फांसी देने की बजाय गोली से उड़ा दिया जाए।

इंकलाब जिंदाबाद

भगतसिंह की राजनीतिक विरासत देश को उनके दो परस्पर पूरक नारों में अभिव्यक्त होती है-- 'इंकलाब जिंदाबाद' और 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद'। ये नारे स्वतंत्रता संग्राम में प्रचलित उस समय के लोकप्रिय 'वंदे मातरम' के उद्घोष पर इस तरह छा गए जैसे उमड़ते बादलों पर अचानक बिजली कौंध जाती है। इससे पूर्व 'वंदे मातरम' ही हमारा राष्ट्रीय नारा था। भगतसिंह के साथी विजयकुमार सिन्हा के शब्दों में 'भगतसिंह के नारे ('इंकलाब जिंदाबाद ') ने जनता का ध्यान खींचा क्योंकि इससे बिना समझौता किए, लड़ते रहने का दृढ़ संकल्प तथा दरिद्रता एवं कष्ट को सदा के लिए दूर कर एक नवीन सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने की आशा व्यक्त होती थी।'

साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीय जनता के संघर्ष के नायकों में से भगतसिंह सर्वाधिक प्रिय रहे हैं। उनके लेख मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को केंद्र में रखकर लिखे गए हैं और इसके खिलाफ जनता की लड़ाई को सही दिशा देते हैं। 'इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।' इस शीर्षक से लिखा उनका लेख बौद्धिकता से सराबोर है।

बदलाव व्यवस्था बदलने से ही संभव हो सकेगा

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भगतसिंह उन इक्का-दुक्का क्रांतिकारी विचारकों में से थे जो उस समय ही यह बात जोर देकर कह रहे थे कि केवल अंग्रेजों के भारत से चले जाने से ही आम जनता की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा। बदलाव इस शोषणकारी व्यवस्था/ तंत्र को बदलने से ही संभव हो सकेगा।

भगतसिंह ने जेल की कालकोठरी से अपने साथियों को लिखे एक खत में लिखा ,'देश और इंसानियत के लिए जो कुछ हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवां हिस्सा भी मैं पूरा नहीं कर पाया। अगर जिंदा रह सकता तो शायद उनको पूरा करने का मौका मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय फांसी से बचे रहने के लिए कोई लालच मेरे दिल में कभी नहीं आया।'

भगतसिंह सन 1923 में नेशनल कॉलेज, लाहौर के विद्यार्थी थे। जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब में भी भाग लेते थे। क्रान्तिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आज़ादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं।

देश सेवा के लिए घर छोड़ा

आज़ादी के दीवाने इस किशोर ने कानपुर में गणेशशंकर विद्यार्थी के पास पहुँचकर ‘प्रताप’ समाचारपत्र में काम शुरू कर दिया। वहीं बी.के. दत्त, शिव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा जैसे क्रान्तिकारी साथियों से मुलाक़ात हुई। उनका कानपुर पहुँचना क्रान्ति के रास्ते पर एक बड़ा क़दम बना।

भगतसिंह की शादी किए जाने के मसले पर जब घर में विचार किया जाने लगा तो उन्होंने अपने पिता जी को एक भावपूर्ण पत्र लिखा। अपने देश के लिए खुद को कुर्बान कर देने की कसम खा चुके भगत सिंह ने बहुत ही कम उम्र में शादी से बचने के लिए घर छोड़ दिया था। मात्र 19 साल की उम्र में देश सेवा के लिए घर छोड़कर निकलते हुए, भगत सिंह ने अपने पिता जी को एक चिट्ठी लिखकर स्पष्ट किया –

“मेरा जीवन एक महान उद्देश्य के लिए समर्पित है और वह है देश की स्वतंत्रता। इसलिए कोई भी आराम या सांसारिक सुख मुझे नहीं लुभाता।”

खिदमते-वतन ( देश-सेवा ) के लिए घर को अलविदा कह चुके भगतसिंह ने पिता जी को जो पत्र लिखा, उसमें उस समय किशोरावस्था में इस बालक की निर्णय लेने की क्षमता ( decision making power) पुरजोर तरीके से प्रकट होती है।

नोट: पत्र में उर्दू लफ्ज़ हैं, क्योंकि उस वक़्त पंजाब में उर्दू ज़बान हर जुबां पर थी। पत्र में इस्तेमाल उर्दू लफ्ज़ों का हिन्दी में अर्थ पत्र के नीचे दिया गया है।

घर को अलविदा:

भगतसिंह का पिता जी को लिखा पत्र

पूज्य पिता जी,

नमस्ते।

मेरी ज़िन्दगी मक़सदे-आला(1) यानी आज़ादी-ए-हिन्द के असूल(2) के लिए वक्फ़(3) हो चुकी है। इसलिए मेरी ज़िन्दगी में आराम और दुनियावी ख़ाहशात(4) बायसे कशिश(5) नहीं हैं।

आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक़्त एलान किया था कि मुझे खि़दमते-वतन(6) के लिए वक्फ़ दिया गया है। लिहाज़ा मैं उस वक़्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।

उम्मीद है आप मुझे माफ़ फ़रमायेंगे।

आपका ताबेदार भगतसिह

1. उच्च उद्देश्य 2. सिद्धान्त 3. दान 4. सांसारिक इच्छाएँ 5. आकर्षक 6. देश-सेवा

जब भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में बम फेंका था, तब उन्हें हस्र का पता था। मगर उन्होंने पोलैण्ड के क्रांतिकारियों को स्वर देते हुए कहा था- "बहरों को सुनाने के लिए सन्नाटे की नहीं, धमाके की जरूरत पड़ती है।"

भगतसिंह नाम है अव्वल दर्जे की बौद्धिकता का, तर्कशीलता का, दीवानगी का, बेख़ौफ़ जिंदगी जीने का, क्रान्ति के सोच का, दमित-शोषित की मुक्ति के आंदोलन का, साम्राज्यवादी शक्तियों से टक्कर लेने का, वतन के लिए जिंदगी वक़्फ़ ( दान ) कर देने का, वक़्त आने पर वतन के लिए मर-मिटने का। भगतसिंह बनना आसान नहीं। ये एक आग का दरिया है, जिसमें डूबके जाना है।

मृत्यु के डर पर विजय पा चुके भगतसिंह ने फांसी के फंदे पर चढ़ते वक्त वहां उपस्थित मजिस्ट्रेट को कहा, 'मिस्टर मजिस्ट्रेट, आप बेहद सौभाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फाँसी पर भी झूल जाते हैं।'

भगत सिंह की फाँसी और उनकी अंतिम यात्रा का वर्णन

दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर ने भगत सिंह के जीवन पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखी थी-WITHOUT FEAR- THE LIFE AND TRIAL OF BHAGAT SINGH. इसका हिंदी अनुवाद मृत्युंजय भगत सिंह शीर्षक से मशहूर है। पेश है, 23 मार्च 1931 को भगत सिंह की फाँसी और उनकी अंतिम यात्रा का आंशिक वर्णन जो इसी किताब से लिया गया है।

फांसी से चंद घंटे पहले, भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता को उनसे मिलने की इजाजत दे दी गई। उनकी दरखास्त थी कि वे अपने मुवक्किल की आखिरी इच्छा जानना चाहते हैं और इसे मान लिया गया। भगत सिंह ने मेहता का एक मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लिए ‘दि रैवोल्यूशनरी लेनिन’ नाम की किताब लाए हैं। भगत सिंह ने मेहता को इसकी खबर भेजी थी क्योंकि अखबार में छपे इस किताब की समीक्षा ने उन पर गहरा असर डाला था।

जब मेहता ने उन्हें ये किताब दी, वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास ज्यादा वक्त नहीं था। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या वे देश को कोई संदेश देना चाहेंगे। अपनी निगाहें किताब से बिना हटाए, भगत सिंह ने कहा, "मेरे दो नारे उन तक पहुंचाएं-‘साम्राज्यवाद खत्म हो‘ (Down with Imperialism ) और ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ ( Long Live Revolution )।”

मेहता : "आज तुम कैसे हो?”

भगत सिंह : "हमेशा की तरह खुश हूं।”

मेहता : ”क्या तुम्हें किसी चीज की इच्छा है?”

भगत सिंह : "हां, मैं दुबारा से इस देश में पैदा होना चाहता हूँ ताकि इसकी सेवा कर सकूं।”

भगत सिंह ने मेहता से कहा कि पंडित नेहरू और बाबू सुभाषचंद्र बोस ने जो रुचि उनके मुकदमे में दिखाई उसके लिए दोनों का धन्यवाद करें।

मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारियों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बताया कि उन तीनों की फांसी का वक्त ग्यारह घंटे घटाकर कल सुबह छह बजे की जगह आज शाम सात बजे कर दिया गया है।

तयशुदा वक्त से पहले फाँसी देने आए जेलर को हँसते हुए कहा था-

"दो लम्हे और ठहर जाओ,

एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी से मिल लेने दो।"

फांसी के फंदे की तरफ़ ले जाते समय तीनों के हाथ बंधे हुए थे, वे संतरियों के पीछे लंबे-लंबे डग भरते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे। उन्होंने अपना प्रिय7 क्रांतिकारी गीत गाना शुरू कर दिया:

'कभी वो दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे;

ये अपनी ही जमीं होगी ये अपना आसमां होगा।

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले;

वतन पर मिटने वालों का यही नाम-ओ-निशां होगा॥'

भगत सिंह ने बुलंद आवाज़ में एक भाषण दिया, जिसे कैदी अपनी कोठरियों से भी सुन सकते थे। "असली क्रांतिकारी फौजें गांवों और कारखानों में हैं, किसान और मजदूर। लेकिन हमारे नेता उन्हें नहीं संभालते और न ही संभालने की हिम्मत कर सकते हैं। एक बार जब सोया हुआ शेर जाग जाता है, तो जो कुछ हमारे नेता चाहते हैं वह उसे पाने के बाद भी नहीं रुकता हैं...

पहले अपने निजीपन को खत्म करें। निजी सुख-चैन के सपनों को छोड़ दें। फिर काम करना शुरू करें। एक-एक इंच करके तुम्हें आगे बढ़ना चाहिए। इसके लिए हिम्मत, लगन और बहुत दृढ़ संकल्प की जरूरत है... तकलीफों और बलिदान से आप जीत कर सामने आएंगे और इस तरह की जीतें, क्रांति की बेशकीमती दौलत होती हैं।"

शाम के छः बजते ही कैदियों ने भारी जूतों की आवाज़ और जाने-पहचाने गीत, "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” की आवाज सुनी। तीनों शूरवीरों ने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, ”माई, रंग दे मेरा बसंती चोला।” और इसके बाद वहां ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आजाद हो’ के नारे लगने लगे। सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे।

कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो चुका था। फांसी के बहुत देर बाद जेल वार्डन चरत सिंह फूट-फूट कर रोने लगा। उसने अपनी तीस साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थीं लेकिन किसी को भी हंसते-मुस्कराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा कि उन तीनों ने किया था। देश के तीन फूलों को तोड़कर कुचल दिया गया था। कैदियों को इस बात का कुछ अंदाजा हो गया कि उनकी बहादुरी-गाथा ने अंग्रेजी हुकूमत का समाधि- लेख लिख दिया था।

तीन नौजवान अब फर्श पर पड़े तीन जिस्म थे।अधिकारियों ने जेल की पिछली दीवार का एक हिस्सा तुड़वा दिया और वहाँ से अंधेरा होने पर एक ट्रक लाया गया। तीनों नौजवानों के शवों को उसमें बोरों की तरह फेंक दिया गया। पहले, संस्कार की जगह रावी नदी का किनारा रखा गया था। लेकिन नदी का पानी काफ़ी उथला था। ऐसी स्थिति में सतलुज पर जाने का फैसला लिया गया। जब ट्रक फिरोजपुर सतलुज के पास जा रहा था, तो सफेद पोश सिपाही उसके आगे-पीछे थे। मगर यह योजना भी बेकार हो गई।

शवों का संस्कार ठीक तरह से नहीं हुआ था। गांधासिंहवाला गांव के लोग चिताओं को जलते देखकर दौड़ते हुए वहां पहुंच गए। शव जैसे थे, वैसे ही छोड़कर सिपाही अपनी गाड़ियों की तरफ भागे और वापिस लाहौर भाग गए। गांववालों ने बड़ी इज्जत के साथ उनके अवशेषों को इकट्ठा कर लिया।

फांसी की खबर लाहौर और पंजाब के दूसरे शहरों में जंगल की आग की तरह फैल गई नौजवानों ने सारी रात ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘भगत सिंह जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए जुलूस निकाले।

लगभग दोपहर तक, जिला मजिस्ट्रेट का जारी किया गया नोटिस लाहौर की दीवारों पर चिपका दिया गया था कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार हिंदू और सिक्ख धर्मों के मुताबिक सतलुज नदी के किनारे कर दिया गया था। हांलाकि इस बात को कई सभाओं में चुनौती दी गई और कहा गया कि शवों का संस्कार ठीक से नहीं किया गया था।

फांसी की खबर फैलते ही सारा देश शोक में डूब गया। दुःख जाहिर करने के लिए लोग जुलूस निकालने लगे और अपना काम काज बंद कर दिया। पूरा देश रो रहा था, नौजवानों के गले ‘ भगतसिंह जिंदाबाद’ के गगन-भेदी नारों से बैठ गए थे।

लोग तीनों नौजवानों के अवशेष दाह संस्कार स्थल से इकट्ठा कर लाहौर पहुंच चुके थे। नीलागुम्बद से उनकी शोक यात्रा शुरू हुई, यह जगह, वहां से ज्यादा दूर नहीं थी जहां सांडर्स को गोली मारी गई थी। तीन मील से भी लंबे जुलूस में हजारों हिंदू, मुसलमानों और सिक्खों ने हिस्सा लिया। बहुत से लोगों ने काली पट्टियां बांधी हुई थीं और औरतों ने काली साड़ियां पहनी हुई थीं।

इस जुलूस के लोग ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘भगत सिंह जिंदाबाद’ जैसे नारे लगा रहे थे। सारी जगह काले झण्डों से पटी पड़ी थी। ‘दि मॉल’ से गुजरते हुए जुलूस अनारकली बाजार के बीच में रुक गया। इस एलान के बाद कि भगत सिंह की बहिन फिरोजपुर से तीनों के अवशेष लेकर लाहौर आ चुकी हैं, सारी भीड़ चुप हो गई थी।

तीन घंटों बाद फूलों से सजे तीन ताबूत, जिनके आगे भगत सिंह के माता-पिता थे, जुलूस में शामिल हुए। तेज चीखों से आसमान गूंज उठा। लोग फूट-फूट कर रो रहे थे।

जुलूस रावी नदी के किनारे ही पहुंचा, जहां चौबीस घंटे पहले अधिकारी उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे। लाहौर में एक बहुत बड़ी सभा हुई जिसमें फांसी की आलोचना की गई और इसे गैरकानूनी करार दिया गया। जिस तरह से अधिकारियों ने शवों का अंतिम संस्कार किया था, उस पर भी रोष जताया गया।

आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगतसिंह को आजादी के असली दीवाने के रूप में देखते हुए उन्हें शहीद-ए-आज़म मानती है।

भगतसिंह और सावरकर:भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दो सेनानी

कौन शेर, कौन बिल्ली? कौन दमदार, कौन बेदम? कौन वीर, कौन अवीर? असली देशभक्त कौन? नकली कौन ? ये जानने के लिए अंग्रेज़ी हुक़ूमत को पेश की गई इन दो याचिकाओं को पढ़ लीजिए। याचिका के आधार पर याचिकाकर्ता की शख्सियत का फ़ैसला आप ख़ुद कर सकते हैं।

इस दौर में जब नक़ली को असली घोषित कर हर तरफ़ धूम मचाई जा रही है। असली और नक़ली में भेद करना बेहद जरूरी है।

भगतसिंह और सावरकर (भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दो सेनानी): लेकिन क्या अंतर था, दोनों की विचारधारा में ? 23 वर्षीय भगतसिंह ने ब्रिटिश सरकार को लिखा था कि “उनके साथ युद्धबंदी जैसा ही व्यवहार किया जाए और फांसी देने की जगह गोलियों से भून दिया जाए”. जबकि हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर ने अपील की कि “उन्हें छोड़ दिया जाए तो आजीवन क्रांति से किनारा कर लेंगे.”

नीचे दोनों पत्र दिए जा रहे हैं, जो भगतसिंह और सावरकर ने जेल में बंदी रहते अंग्रेज़ी हुक़ूमत को लिखे थे ....

भगत सिंह की अंतिम याचिका

भगत सिंह की अंतिम याचिका

लाहौर जेल, 1931

सेवा में,

गवर्नर पंजाब, शिमला

महोदय,

उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं-

भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किया था, जिसने 7 अक्तूबर, 1930 को हमें फांसी का दण्ड सुनाया. हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है.

न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं- पहली यह कि अंग्रेज़ जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है. दूसरी यह है कि हमने निश्चित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है. अत: हम युद्धबंदी हैं.

यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया है, तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया है. पहली बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं. हम नहीं समझते कि प्रत्यक्ष रूप में ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई है. हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या है? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक संदर्भ में समझाना चाहते हैं .

हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूंजीपति और अंग्रेज़ या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है. चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता.

यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाए, कुछ सुविधाएं मिल जाएं, अथवा समझौते हो जाएं, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है. हमें इस बात की भी चिंता नही कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथ-भ्रष्ट हो गए हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है.

हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है. उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर दिया. उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है. आपके एजेंट भले ही झूठी कहानियां बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धि को हानि पहुंचाने का प्रयास करें, परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा.

हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे. किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाए. चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा. यह आप की इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी.

इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा. बहुत संभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले. पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता.

निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा. साम्राज्यवाद व पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं. यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा. हमारी सेवाएं इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएंगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है. इनके बलिदान महान हैं.

जहां तक हमारे भाग्य का संबंध है, हम ज़ोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है. आप ऐसा करेंगे ही, आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है. परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं. हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी *हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते.*

हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है. इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं, अत: इस आधार पर हम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों-जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फांसी देने के बदले #गोली से उड़ा दिया जाए.*

अब यह सिद्ध करना आप का काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया है. आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिए. हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए.

आपका भगत सिंह

(स्रोत: भगत सिंह और साथियों के संपूर्ण दस्तावेज, राहुल फाउंडेशन)

वीडी सावरकर की याचिका

वीडी सावरकर की याचिका

सेल्युलर जेल, अंडमान, 1913 V_D_SAVARKAR

सेवा में,

गृह सदस्य, भारत सरकार

मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं:

(1) 1911 के जून में जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया. वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस (ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में नहीं रखा गया. उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया. दूसरे क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया. उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था. उसके बाद मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है. हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया. उस समय से अब तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है.

(2) जब मैंने तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती. जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा, जो दूसरे क़ैदी खाते हैं.’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है.

(3) जब मेरे मुक़दमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख़्वास्त की. हालांकि, मुझ पर अधिक से अधिक दो या तीन बार मुक़दमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार मुक़दमा चला है. मुझे उनके साथ इसलिए नहीं रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ नहीं चल रहा था. लेकिन जब आख़िरकार मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक क़ैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था.

(4) अगर मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफ़ी राहत मिल गई होती. मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझसे मिलने आते. अगर मैं साधारण और सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता. लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर पर लागू हो रहे हैं. जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.

(5) इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था. मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं. मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूं. मियादी क़ैदियों की स्थिति अलग है. लेकिन श्रीमान मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं. मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं, जबकि मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी उम्मीद सबसे हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर सकता है? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां

(ए) सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूं;

(बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा. जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है!

(सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले क़ानूनी अधिकार नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा. या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाज़त दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं. अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों की ग़लती का. यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में जब एक तरफ यहां क़रीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यंवभावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए. अगर ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती.

अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें.

भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते_से_भटका_दिया था.

इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और #अंग्रेज़ी_सरकार के प्रति #वफ़ादार_रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है.

जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.

इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है.

जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. *आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.*

याचिकाकर्ता

वीडी सावरकर

(स्रोत: आर.सी. मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)

Prof. H.R. Isran

Former Principal, College Education, Raj.


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