Bhangi

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Map of Misls of Sikhs

The Bhangi was one of Misal in Punjab. The leader of this Misal was Sardar Hari Singh Dhillon.

Origin

The Bhangis derive their name from their addiction to 'Bhang'.

Organization

The famous 'Jhanda Bunga' - now demolished. Built by Sardar Jhanda Singh Dhillon of the Bhaangi misl/ State. State (Misl):- Bhaangi. Punjab. Dynasty:- Dhillon Jats.

The capital of this Misal was Amritsar, Poothvar, Jhung, Pindi ghep, Bheerakhusab, Rawalpindi, Hazara, Chiniot, Gujral, Multan, Sharanpure, Jagadhri, Daodkhel, Dholia, Jidran, Dera Ismail Khan, Bhawalpur, Sunehra, Suryati, Beerwal and Karnala were included in his kingdom.

Jhanda Singh son of Hari Singh crossed River Attak and defeated the Pathans. The heavy gun of Ahmed Shah Abdali, which was in the possession of the Subedar of Lahore, was snatched away from the Pathans and was brought to Amritsar. This was called 'Bhangian. The last Chief of this Misal was Sardar Gujar Singh who was defeated by Maharaja Ranjit Singh [Sukarchkia misl].

History

Rajatarangini[1] mentions that One warrior born in the village of Kānḍiletra had begun fasting (magic) at Bhangila, a lonely place ; and Bhikshu, whose men had now come over to Sussala, came with Prithvihara to over-come this man. (VIII,p.80)


According to Rajatarangini[2]this incidence is of the year 1121 AD, when Sussala became king of Kashmir second time.


Rajatarangini[3] tells....Bhaṅgileya and other Damaras meditated an attack on the town of Shankaravarmma from the Kshiptika to the Samala. Trillaka and others calculated that they would reach the banks of the great river, and that the Damaras of Nilashva would commence hostility outside the town. (VIII (ii),p.289)

ठाकुर देशराज लिखते हैं

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि भंगी मिसल के मनुष्य ‘भंग’ का अधिक व्यवहार करते थे, इसलिये ही उन्हें भंगड़ी अथवा भंगी नाम से लोग संबोधित करते थे। अमृतसर से 8 मील के फासले पर पंजवार नाम का एक नगर है। चौधरी छज्जासिह यहां के एक प्रतिष्ठित जाट सरदार थे। जिन दिनों शहीदे-धर्म वीरबंदा का प्रचंड सूर्य चमक रहा था, छज्जासिंह उनकी वीरता और धैर्य पर मोहित होकर उनका शिष्य बन गया। स्वयं सिख बन जाने के बाद उसने भीमसिंह, मालासिंह, जगतसिंह को भी सिख बनाया। इन दोनों ने मिलकर एक छोटा सा दल बना लिया और फिर लूटमार आरम्भ कर दी। क्योंकि वे देखते थे कि असभ्य तातारी लुटेरे सहज में ही शासक बन गये। काबुल के भुक्कड़ पठानों ने भी उनके देखते-देखते ही पंजाब में अनेक छोटे-छोटे राज्य कायम कर लिये। थोड़े ही दिनों में उनकी शक्ति बहुत बढ़ गई, लूट-मार से काफी माल इकट्ठा कर लिया। उनकी संख्या बढ़ चुकी थी। अपने साथियों के लिये लूट का या तो वे कोई हिस्सा देते थे या उनके लिये मासिक वेतन नियुक्त कर रखा था। कुछ दिनों के बाद इस मिसल की सेना में 12000 सवार हो गये थे। छज्जासिंह के बाद भीमसिंह ने जो कि बड़ा योद्धा, शक्तिशाली और चतुर था, इस मिसल को नियमानुसार संगठित किया। चूंकि भीमसिंह के कोई सन्तान न थी, इसलिये उसने हरीसिंह को अपना दत्तक-पुत्र बनाया, जो कि उसका भतीजा होता था। हरीसिंह बड़ा बुद्धिमान, बलवान और दूरदर्शी था। उसने अच्छे-अच्छे जवां मर्द नौकर रखे । बढ़िया किस्म के घोड़े खरीदे, सौ-सौ कोस तक धावा मार करके धन इकट्ठा किया। उसके वक्त में उसके पास इतने सैनिक इकट्ठे हो गये कि उनकी मिसल ज्यादा धनवान बन गई और उसके मेम्बरों की संख्या 20000 तक जा पहुंची। उनकी छावनी गुलवाली में थी। हरीसिंह के समय में इस मिसल के अधिकृत इलाके की सीमा भी बहुत बढ़ गई।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-223


एक ओर स्यालकोट, कृपालु और भीसूपाल उनके कब्जे में आ गये, दूसरी ओर मगध और मालवा पर भी इन्हीं का कब्जा था। चीनोट, झंग तक और दूसरी तरफ पिंडी और डेराजात तक हमला करके लूटमार करते रहे। जम्मू पर भी चढ़ाई की और 12000 सवार लेकर कश्मीर में भी जा घुसे, किन्तु कश्मीर में उन्हें अधिक सफलता नहीं हुई। 1762 ई० में लाहौर से 2 मील तक कोट खोजा सैयद में बहुत सा मेगजीन और सामान इनके हाथ आया। अगले साल हरीसिंह ने कन्हैया और रामगढ़िया मिसलों के साथ मिलकर ‘कसूर’ में लूटमार की। इसके बाद वह अमरसिंह के साथ लड़ता हुआ मारा गया।

हरीसिंह के 5 लड़के थे। मगर मिसल ने हरीसिंह की मृत्यु के पश्चात् सरदारी उनमें से किसी को न दी और महासिंह मिसल का सरदार बना, और हरीसिंह के लड़के सिर्फ घुड़ चढ़े ही बने रहे। किन्तु थोड़े ही दिन के बाद महासिंह मर गया। इस बीच में मिसल के लोगों ने हरीसिंह के लड़कों में वे गुण देख लिए थे जो कि एक योग्य सरदार में होने चाहियें। इसलिए सरदारी हरीसिंह के बेटे झण्डासिंह को दी गई और सारी मिसल ने उनकी ताबेदारी स्वीकार कर ली। चन्दासिंह जो झण्डासिंह का भाई था, उसने बारह हजार सवार लेकर जम्मू के राजा रंजीतदेव के ऊपर चढ़ाई की और भयंकर युद्ध करता हुआ मारा गया। झण्डासिंह का आरम्भ से ही मुल्तान के ऊपर दांत था। वह शीघ्र से शीघ्र मुल्तान को अपने राज्य में मिला लेने की इच्छा रखता था। इसलिए उसने मुल्तान पर चढ़ाई की, किन्तु सन् 1766 और 1767 ई० में उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। तीसरी बात 1772 ई० में लहनासिंह तथा दूसरे सरदारों को साथ लेकर मुल्तान विजय कर ली और सरदार दीवानसिंह को वहां का किलेदार मुकर्रर किया। मुल्तान से वापस लौटते समय उन्होंने झंग, मानखेड़ा और काला-बाग फतेह किये, इससे पहले कसूर पर भी यह अधिकार जमा चुका था। झण्डासिंह ने अमृतसर में ईंटों का एक दुर्ग भी बनवाया, क्योंकि वह चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा प्रदेश पर उसका अधिकार हो। यद्यपि अमृतसर में आज उसके दुर्ग के केवल खंडहर ही पाए जाते हैं, तो भी वह झण्डासिंह की महत्त्वाकांक्षा की सूचना देता है। थोड़े दिन के बाद झण्डासिंह ने रामनगर पर हमला करके दमदमा नामक तोप को प्राप्त किया, जो कि भंगी तोप के नाम से मशहूर है। इसी बीच में जम्मू के राजा रंजीतदेव और उसके बेटे वृजराजदेव में झगड़ा हो गया। कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह और सुरचकिया मिसल के सरदार चड़हटसिंह वजराजदेव की सहायता को गए। झण्डासिंह ने रंजीतदेव का पक्ष लिया। कई रोज तक युद्ध होता रहा। इसी युद्ध में झण्डासिंह एक गोली के निशाने से मारे गये। झण्डासिंह के बाद उसका भाई गण्डासिंह सरदार बना। उसने अमृतसर के बाजारों को बड़े बढ़िया ढंग से सजाया और दुर्ग की दीवारों को मजबूत किया। चूंकि झण्डासिंह जयसिंह के आदमियों के हाथ से मारा


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-224


गया था, इसलिए गण्डासिंह उससे बदला लेने का स्वभावतः इच्छुक था। एक दूसरी वजह से भी उसे कन्हैया मिसल के साथ लड़ाई करने का अवसर मिल गया। उसका एक सरदार जो पठानकोट का अफसर था, मर गया। उसकी स्त्री ने अपनी लड़की कन्हैया मिसल वालों को दे दी और पठानकोट भी दे दिया। गण्डासिंह ने पठानकोट वापस मांगा। इन्कार होने पर चढ़ाई कर दी। दीना नगर में कई दिन तक युद्ध हुआ। गण्डासिंह इसी लड़ाई के अवसर पर बीमार होकर मर गया। उसके साथी लड़ाई छोड़कर भाग गये और उन्होंने गण्डासिंह के भतीजे देसासिंह को अपना सरदार चुना। इसके समय में तैमूरशाह ने पंजाब को वापस लेने का पुनः संकल्प किया और अपने एक मित्र फैजुल्ला को सेना भरती करने के लिये भेजा। खैबर की घाटी में पहुंच कर फैजुल्ला ने बहुतेरे पठान जमा कर लिये, किन्तु पेशावर पहुंच कर वह तैमूरशाह के विरुद्ध हो गया और उसे कत्ल करने का षड्यन्त्र रचने लगा। किन्तु वह और उसका बेटा दोनों पकड़ कर कत्ल कर दिये गए। तैमूरशाह ने मुल्तान पर अपनी सेना भेजी, किन्तु देसासिंह के साथी जाट-सिखों ने उस फौज को पीछे की ओर भगा दिया। अपनी फौज की इस हार से चिढ़कर तैमूरशाह सन् 1778 ई० में स्वयं मुल्तान पर चढ़कर आया। इस युद्ध में बहुत से सिख मारे गये और विजय लक्ष्मी भी उनके विरुद्ध रही। तैमूरशाह ने शुजाखां को मुलतान का गवर्नर नियुक्त किया। 1782 ई० में देसासिंह रणजीतसिंह के पिता महासिंह के साथ मारा गया।

सरदार हरीसिंह का एक जनरल गुरुबक्ससिंह था। इसने लेहनासिंह सिंधानवाला को अपना दत्तक बनाया। गुरुबक्ससिंह के मारे जाने पर लेहनासिंह और गुरुबक्ससिंह के दौहित्र में झगड़ा हुआ। किन्तु समझदार सिखों ने आधी बांट पर दोनों की सन्धि करा दी। इन दोनों ने सरदार शोभासिंह और कन्हैया के साथ मिलकर 1765 ई० में काबुलीमल के भाग जाने पर लाहौर पर अधिकार कर लिया था और अब्दाली के आने पर तीनों सरदार लाहौर खाली कर गए और उसके भारत से वापस होते ही फिर लाहौर पर अधिकार जमा लिया और 30 वर्ष तक लाहौर पर शासन करते रहे। 1793 ई० में काबुल के शाहजवां ने सेना लेकर पंजाब पर चढ़ाई की, किन्तु उसके देश में विद्रोह खड़ा हो जाने से उसे तो वापस लौटना पड़ा, पर उसका सरदार अहमदखां सिखों से युद्ध करने के लिए रह गया। सिखों ने उसे ऐसी परास्त दी कि फिर वह भारत में न ठहर सका। 1796 ई० में शाहजवां भारत की ओर फिर आया। चिनाब को पार करके अमीनावाद के रास्ते, रावी के किनारे, शाहदरा पहुंच कर अपना एक जनरल लाहौर को रवाना किया। सिख सरदार लाहौर के किले की चाबियां मियां चिरागशाह के हवाले करके बाहर चले गए। शाहजवां लाहौर में प्रविष्ट हुआ। उसने सिखों से राजीनामा कर लिया। लेकिन जब वह वापस लौट गया तो लहनासिंह और शोभासिंह ने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-225


फिर लाहौर पर अधिकार कर लिया, किन्तु इसी वर्ष वे दोनों मर गए और उनके बेटे चेतासिंह व मोहरसिंह लाहौर के शासक बने। चूंकि ये कमजोर थे और उधर पंजाब केसरी महाराज रणजीतसिंह का प्रताप बढ़ रहा था, अतः 1799 ई० में उनसे रणजीतसिंह ने लाहौर को छीन कर अपने कब्जे में कर लिया।

देसासिंह की मृत्यु के बाद उसका बेटा गुलाबसिंह सरदार हो गया था। वह पहले कुछ दिनों तक कसूर के पठानों के विरुद्ध लड़ता रहा, किन्तु जब उसने सुना कि महाराज रणजीतसिंह ने लाहौर ले लिया है तो उसको बड़ा दुख हुआ। उसने कुछ पठानों और सिक्खों की शक्ति संचय करके लाहौर पर धावा बोल दिया। भसीन के मैदान में दोनों ओर से लड़ाई हुई। गुलाबसिंह अधिक मदिरापान करने के कारण लड़ाई में ही मारा गया। इसके बाद उसका बेटा गुरुदत्तसिंह भंगी मिसल का सरदार बना। उसकी उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी, किन्तु फिर भी उसकी इच्छा थी कि रणजीतसिंह से बदला लिया जाए। इसी इरादे से वह सेना संग्रह करने लगा। किन्तु रणजीतसिंह को इसका पता लग गया और उससे पहले ही रणजीतसिंह ने अमृतसर पर चढ़ाई कर दी। गुरुदत्तसिंह और उसकी मां भाग कर रामगढ़ पहुंच गए। कहते हैं कि पीछे रणजीतसिंह ने उनके निर्वाह के लिए कुछेक गांव दे दिए थे । पर कुछ दिनों बाद वे भी जब्त कर लिए। यही नहीं, किन्तु जहां-जहां भी भंगी मिसल के अधिकार में इलाके थे, उन सब पर अपना अधिकार कर लिया। करमसिंह को चनोट से, साहबसिंह को गुजरात से निकाल बाहर किया। यह याद रहे लाहौर लेने के बाद गूजरसिंह ने उत्तर की ओर का प्रदेश भी विजय करना आरम्भ कर दिया था। गुजरात को उसने मुबारिकखां गक्कड़ से विजय किया था। इसके अतिरिक्त उसने जम्बू तक कई प्रदेश विजय किए थे। इस तरह से खून बहा कर भंगी सरदारों ने जो विस्तृत प्रदेश अधिकृत किया था, वह महाराज रणजीतसिंह के अधीन हो गया और भंगी मिसल का नाम केवल इतिहास में उल्लेख करने को रह गया। हां, शहर अमृतसर से मोहल्ला तथा किला भांगयान उनके अभ्युदय की अवश्य स्मृति दिलाते हैं।

Notable persons

External links

References

Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII Part I (i) Pages 223-226