Jetavana

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(Redirected from Jetarama)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Gonda District Map

Jetavana (जेतवन) was one of the most famous of the Buddhist monasteries or viharas in India (present-day Uttar Pradesh). The remains of Jetavana and Sravasti were locally known as Sahet-Mahet, a village is in Gonda district in Uttar Pradesh.

The monastery was given to him by his chief male lay disciple, Anathapindika. Jetavana is located just outside the old city of Savatthi. There was also an important vihara named Jetavana in Sri Lanka.

Location

Jetavana is located at Coordinates: 27°30′34″N 82°02′24″E.

Variants

History

Jetavana was the second vihara donated to Gautama Buddha after the Venuvana in Rajgir. Jetavana was the place where the Buddha gave the majority of his teachings and discourses, having stayed at Jetavana nineteen out of 45 vassas, more than in any other monastery.[1] It is said that after the Migāramātupāsāda, a second vihara erected at Pubbarama close to Savatthi was built by the Buddha's chief female lay disciple, Visakha, the Buddha would dwell alternately between Jetavana and Migāramātupāsāda, often spending the day in one and the night in the other (SNA.i.336).

The vihāra is almost always referred to as Jetavane Anāthapindikassa ārāma (Pali, meaning: in Jeta Grove, Anathapindika's Monastery). The Commentaries (MA.ii.50; UdA.56f, etc.) say that this was deliberate (at the Buddha's own suggestion pp. 81–131; Beal: op. cit., ii.5 and Rockhill: p. 49), in order that the names of both earlier and later owners might be recorded and that people might be reminded of two men, both very generous in the cause of the Religion, so that others might follow their example. The vihāra is sometimes referred to as Jetārāma (E.g., Ap.i.400).

The remains of Jetavana and Savatthi were locally known as Sahet-Mahet. Alexander Cunningham used the ancient (6th century AD) accounts of Chinese pilgrim-monks to determine that Sahet-Mahet actually referred to Jetavana and Savatthi.[2]

Jetavana is currently a historical park, with remains of many ancient buildings such as monasteries, huts (such as the Gandhakuti and the Kosambakuti) and stupas. In Jetavana is also located the second-holiest tree of Buddhism: the Anandabodhi Tree.

A visit to Savatthi and Jetavana is part of the Buddhist pilgrim route in North-India. The most revered place in Jetavana is the Gandhakuti, where Buddha used to stay.

जेतवन

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...जेतवन (AS, p.369) बुद्ध काल में श्रावस्ती का प्रसिद्ध विहार-उद्यान जहां गौतम बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात प्राय: ठहरते थे. अश्वघोष ने बुद्धचरित, सर्ग 18 में, इस वन के अनाथपिंडद सुदत्त द्वारा राजकुमार जेत से खरीदे जाने की कथा का वर्णन किया है. इस आख्यायिका का पाली बौद्ध साहित्य में भी वर्णन है जिसके अनुसार सुदत्त ने इस मनोरम उद्यान को इसकी पूरी भूमि में स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर खरीदा था और फिर बुद्ध को संघ के लिए दान में दे दिया था. राजकुमार जेत ने इस धनराशि से सात तलों का एक विशाल प्रासाद बनवाया था जो, चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार, बाद में जलकर भस्म हो गया था. जेतवन के अवशेष, ढूहों के रूप में, वर्तमान सहेत-महेत (जिला गोंडा, उत्तर प्रदेश) के खंडहरों में पड़े हुए हैं. (देखें श्रावस्ती)

जेतवन परिचय

जेतवन तथा पुब्बाराम भगवान बुद्ध के जीवन-काल में श्रावस्ती के दक्षिण में स्थित दो प्रसिद्ध वैहारिक अधिष्ठान एवं बौद्धमत के प्रभावशाली केंद्र थे। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार जेतवन का आरोपण, संवर्धन तथा परिपालन जेत नामक एक राजकुमार द्वारा किया गया था। (तंहि जेतेन राजकुमारेन रोपितं संवर्द्धिंत परिपालित। सो च तस्सि सामी अहोसि, तस्मा, जेतवने ति वुच्चति॥ पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 60) राजगृह मे वेणुवन और वैशाली के महावन के ही भाँति जेतवन का भी विशेष महत्त्व था। इस नगर में निवास करने वाले अनाथपिंडक ने जेतवन में विहार (भिक्षु विश्राम स्थल), परिवेण (आँगनयुक्त घर), उपस्थान शालाएँ ( सभागृह), कापिय कुटी (भंडार), चंक्रम ( टहलने के स्थान), पुष्करणियाँ और मंडप बनवाए।[4] अनाथपिंडक के निमंत्रण पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती स्थित जेतवन पहुँचे। अनाथापिण्डक ने उन्हें खाद्य भोज्य अपने हाथों से अर्पित कर जेतवन को बौद्ध संघ को दान कर दिया। इसमें अनाथ पिंडक को 18 करोड़ मुद्राओं को व्यय करना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि इस घटना का अंकन भरहुत कला में भी हुआ है।[5]तथागत ने जेतवन में प्रथम वर्षावास बोधि के चौदहवें वर्ष में किया था। इससे यह निश्चित होता है कि जेतवन का निर्माण इसी वर्ष (514-513 ई. वर्ष पूर्व) में हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि जेतवन के निर्माण के पश्चात् अनाथपिण्डक ने तथागत को निमंत्रित किया था।

जेतवन विहार से उत्तर-पश्चिम चार ली की दूरी पर ‘चक्षुकरणी’ नामक एक वन है, जहाँ जन्मांध लोगों को श्री बुद्धदेव की कृपा से ज्योति प्राप्त हुई थी। जेतवन संघाराम के श्रमण भोजनांतर प्राय: इस वन में बैठकर ध्यान लगाया करते थे। फाह्यान के अनुसार जेतवन विहार के पूर्वोत्तर 6.7 ली की दूरी पर माता विशाखा द्वारा निर्मित एक विहार था।[6]

फाह्यान पुन: लिखता है कि जेतवन विहार के प्रत्येक कमरे में, जहाँ कि भिक्षु रहते है, दो-दो दरवाज़े हैं; एक उत्तर और दूसरा पूर्व की ओर। वाटिका उस स्थान पर बनी है जिसे सुदत्त ने सोने की मुहरें बिछाकर ख़रीदा था। बुद्धदेव इस स्थान पर बहुत समय तक रहे और उन्होंने लोगों को धर्मोपदेश दिया। बुद्ध ने जहाँ चक्रमण किया, जिस स्थान पर बैठे, सर्वत्र स्तूप बने हैं, और उनके अलग-अलग नाम है। यहीं पर सुंदरी ने एक मनुष्य का वध करके श्री बुद्धदेव पर दोषारोपण किया था।[7] फाह्यान आगे उस स्थान को इंगित करता है जहाँ पर श्री बुद्धदेव और विधर्मियों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। यहाँ एक 60 फुट ऊँचा विहार बना हुआ था।

ह्वेनसांग के अनुसार जेतवन मठ के पूर्वी प्रदेश-द्वार पर दो 70 फुट ऊँचे प्रस्तर स्तंभ थे। इन स्तंभों का निर्माण अशोक ने करवाया था। बाएँ खंभे में विजय प्रतीक स्वरूप चक्र तथा दाएँ खम्भे पर बैल की आकृति बनी हुई थी। ह्वेनसांग आगे लिखता है कि अनाथपिंडाद विहार के उत्तर-पूर्व एक स्तूप है, वह यह वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने एक रोगी भिक्षु को स्नान कराकर रोग-निवृत्त किया था।

संदर्भ: भारतकोश-जेतवन श्रावस्ती

External links

References

  1. DhA.i.3; BuA.3; AA.i.314
  2. Arch. Survey of India, 1907-8, pp.81-131
  3. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.
  4. विनयपिटक (हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ 462; बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 240; तुल. विशुद्धानन्द पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 61
  5. बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31
  6. जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवल्स आफ फाह्यान, पृष्ठ 59
  7. जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स आफ फाह्यान, पृष्ठ 60