Saraneshwara

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Saraneshwara Mahadeva (सारणेश्वर महादेव) is a temple of Shiva in Sirohi district in Rajasthan.

Founder

Saraneshwar Temple

Saraneshwar Temple is Kuldev of Royal Family of Sirohi. Saraneshwar temple is dedicated to Lord Shiva, situated on the western slope of Siranwa (सिरण्वा) hill and is now managed by Sirohi Devasthanam. It is Kuldev of Deora Clan of Chauhans of Sirohi. The temple seems to be built in Parmara Dynasty rule because its structure and layout is similar to other temples constructed by Parmar rulers. A temple may be renovated time to time but the major renovation was carried on in 16th century. In 1526 V.S. Apurva Devi, the queen of Maharao Lakha established Hanuman Idol outside the main gate of the Sarneshwar Mahadeva temple. The temple was decorated by Maharao Akheyraj in 1685 V.S. In the campus of the temple there are idols of lord Vishnu, A plate consisting of 108 Shiv Lingas. The temple is surrounded by two courtyards , one is attached to main temple and second is around the whole area, which carries Burj and Chaukis, which represents this temple as fort. Actually this temple is fort temple. Outside the main gate of the temple, there are three decorated huge elephants made of lime & bricks and painted with a colourful look. There was a Mandakini Kund in front of the main temple, which was used by the pilgrims for taking holy bath on kartik purnima, chetra purnima and vaisakh purnima.

A famous festival of Devothani Akadesi, in every Bhadrapada month of V.S. is arranged here by the followers and on second day a huge fair of rabbaries is also celebrated, in which nobody except rabbarries is allowed. The cenotaphs of the royal family is another attraction in the premises of Sarneshwar temple.

Saraneshwar in Jodhpur district

In Jodhpur district also there is a Sirohi town where temple of Saraneshwar is there.

Saraneshwara & Saran clan

It is a subject of research to find connection between Saraneshwara & Saran clan, Saran is an ancient clan. Saran is one of the Jat clans as described by Megasthenes with 300 cities as the Syrieni (Saran). They are mentioned by Cunningham in an inscription at the Buddhist Stupa of Sanchi of the Ashoka period. They were rulers in Jangladesh prior to the rule of Rathores. Deora Clan of Chauhans has probably emerged from Saran clan.

Saraneshwara Temple Inscription of 953 AD

सारणेश्वर (सांडनाथ) प्रशस्ति ९५३ ई.

यह प्रशस्ति वि.सं. १०१० (९५३ ई.) की भूरे रंग के पत्थर पर खुदी हुई है और उदयपुर के श्मशान के सारणेश्वर[1] नामक शिवालय के सभामण्डप के पश्चिमी द्वार के छबने पर लगी है. आरम्भ में यह प्रशस्ति उदयपुर से डेढ मील दूर पूर्व स्थित आहड़ गांव के किसी वराह मन्दिर में लगी होगी. उक्त वराह मन्दिर के गिर जाने पर वहां से हटाकर वर्तमान सरणेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय सभा मंडप के छबने के काम में लेली होगी. यह पुरातत्ववेताओं के लिये सन्तोष की बात है कि यह नष्ट नहीं हुई. इस काल की आहड़ से मिलने वाली प्रशस्तियों में केवल यही सुरक्षित है. भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है.

११वीं शताब्दी के मेवाड़ और राजस्थान के इतिहास के लिये यह महत्वपूर्ण है. गुहिलवंशी मेवाड़ के राजा अल्लट का इस प्रशस्ति से समय स्थिर होकर उसकी माता महालक्ष्मी तथा पुत्र नरवाहन के नाम स्पष्ट हो जाते हैं. इसमें मुख्य-मुख्य कर्मचारियों के नाम उनके पद सहित उल्लेखित किये गये हैं. उक्त लेख से पाया जाता है कि अल्लट का आमात्य (मुख्यमंत्री) मंमट, सांधिविग्रहिक (संधि और युद्ध का मंत्री) दुर्लभराज, अक्षपटलिक (आय-व्यय का अधिकारी) मयूर और समुद्र, बंदिपति (मुख्य भाट) नाग और भिषगाधिराज (मुख्य वैद्य) रूद्रादित्य था. इन नामों के अतिरिक्त उस वराह मन्दिर से सम्बन्धित गोष्टियों की बड़ी नामावली दी है जिसमें वणिक देवराज, श्रीधर, हूण तथा कुशराज के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं.

मन्दिर के निर्वाह के लिये वहां से गुजरने वाले पशुओं पर कर निर्धारण किया गया है. व्यापारियों और किसनों पर भी कर निर्धरण किया गया है. वहां रहने वाले अनेक व्यापारी जो कर्णाटक, मध्य प्रदेश, लाट (गुजरात और आस-पास का भाग), और टक्क (पंजाब का एक भाग) से आकर यहां बस गये थे उन्होने भी मन्दिर को अपनी ओर से दान दिया था. इससे स्पष्ट है कि आहड़ उस समय एक सम्पन्न नगर था. यहां देश-विदेश से आकर लोग व्यापार करते थे और नगर की स्थिति भी व्यापारिक मार्ग पर थी. इसी स्थिति के कारण कर की व्यवस्था की गयी थी. यहां के मंत्री मंडल के गठन से भी आहड़ का उस समय राजधानी होना प्रमाणित होता है. अथवा राजधानी यदि नागदा भी रही हो तो अल्लट आहड़ में तीर्थस्थल तथा प्रधान नगर होने के कारण वहां रहता हो, इस मन्दिर का निर्माण उत्तम सूत्रधार अग्रट ने किया और इसमें वराह मूर्ति की स्थापना वैषाख शुक्ला सप्तमी वि.सं. १०१०, तदनुसार २३ अप्रेल ९५३ ई. में हुई. प्रशस्ति के लिपिकार कायस्थ पाल और वेलक थे.

External links

References

  1. डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ.61-63

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