Pahar Singh

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Genealogy of the Fridkot rulers

Pahar Singh (b.1800 - d. 1849) (r.1827 - 1846) was Barar-Jat Raja of erstwhile Faridkot State. He was awarded title of Raja and ruled as Raja Pahar Singh (s.a.) (r.1846 - d. 1849).

History

Lepel H. Griffin[1] writes as under:

Raja Pahar Singh

Sirdar Pahar Singh, his character and administration - The new Chief was a liberal-minded and able man, and immensely improved his territory, more than doubling the revenue in twenty years. He founded many new villages, and the lightness of the assessment and his reputation for justice and liberality induced large numbers of cultivators to emigrate from Lahore and Pattiala to his territory.

The larger portion of the State was desert when he acquired it, and the journal of Captain Murray written in 1823, describes the country at sun-rise, as presenting the appearance of a vast sea of sandy with no vegetation except Pilu or other desert shrubs which added little to the life of the landscape. But the soil, although sandy, only required water to produce magnificent crops of wheat. In old days a canal from the Satlej had been dug by one Firu Shah from near Dharamkot, half way between Firozpur and Ludhiana, and, passing by Kot Isa Khan at Mudki, had irrigated the country to some distance south of Faridkot, where it was lost in the sand. Sirdar Pahar Singh was not rich enough to make canals, but he dug many wells and induced the peasants to dig others, and set an example


* Resident Dehli to Captain Murray, 6th and 20th September 1827. Captain Murray to Resident Dehli, 16th September I827.
† Traces of this canal are still to be seen. The tradition in the country is that an ancient Chief of Faridkot had a daughter of great beauty whom he declared be would only give to a man who should come to Faridkot riding on a wooden horse. This Firu Shah accomplished by digging a canal and coming to win the beauty in a boat. On his return journey with the lady, he asked her for a needle, which she was unable to give him, and suspecting that she would not prove a good housewife he left her at Mudki on the banks of the canal, where a large mound of earth is supposed to convince the skeptical of the troth of the story.

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of moderation and benevolence which might have been followed with great advantage by other and more powerful Chiefs.

His family

Sahib Singh, his second brother, died soon after he assumed the Chiefship; and to Mehtab Singh, the son of Mohr Singh's divorced wife, he gave a village for his maintenance. He married four wives, the first of whom, Chand Kour, was the daughter of Samand Singh Dhalwal of Dina, and became the mother of Wazir Singh the present Raja. His second wife Desu, was the daughter of a Gil zamindar of Mudki, and bore him two sons Dip Singh and Anokh Singh, who both died young. He married the third time, by chaddar dalna, the widow of his brother Sahib Singh ; and lastly Jas Kour, daughter of Rai Singh of Kaleka, in the Pattiala territory.

The first years of Pahar Singh's Chiefship were not by any means peaceful, and, according to the custom of the family, his brother Sahib Singh took up arms against him and gave him so much trouble that the Chief begged for the assistance of English troops to restore order, and, failing to obtain these, was compelled to accept assistance from the Raja of Jhind, although such procedure was highly irregular, one of the conditions of British protection being that no State should interfere in the internal affairs of another.* However, on the death of Sahib Singh, everything went on well and the Sirdar was able to carry out his reforms without any further interruption, excepting occasional quarrels with the


*Mr. F. Hawkins, Agent Resident Dehli to Captain Murray, 22nd September 1829. Captain Murray to Mr. Hawkins, 27th September 1829.

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officer of the Lahore Government commanding at Kotkapura, which was only six or seven miles to the south of Faridkot, and which, as the ancestral possession of his family, Pahar Singh would have been very glad to obtain.*

An opportunity for attaining this, the great desire of his heart, at last arrived, and Pahar Singh, like a wise man,seized it without hesitation. When the war with Lahore broke out in 1845, and so many of the Cis-Satlej Chiefs were indifferent or hostile, he attached himself to the English and used his utmost exertions to collect supplies and carriage and furnish guides for the army. On the eve of the battle of Firushahr he may have shown some little vacillation, but that was a critical time, when even the best friends of the English might be excused for a little over caution, and after it was fought, though neither side could claim it as a victory and the position of the English was more critical than ever, he remained loyal and did excellent service, He was rewarded by a grant of half the territory confiscated from the Raja of Nabha, his share, as estimated in 1846, being worth Rs. 35,612 per annum.

The ancestral estate of Kotkapura was restored and he received the title of Raja. In lieu of customs duties, which were abolished, he was allowed Rs. 2,000 a year, and an arrangement was made by which the rent-free holdings in the Kotkapura ilaqua should


* Captain Murray to Resident Dehli, 26th December 1829.
† Report of Colonel Mackeson to Government 27th Jaly 1846, and of Mr. &. Cust 7th March 1846.
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lapse to the Raja instead of the British Government, a corresponding reduction being made in the commutation allowance.*

Raja Pahar Singh died in April 1849, in his fiftieth year, and was succeeded by his only surviving son Wazir Singh, then twenty-one years of age.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज

पहाड़सिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।

अतरसिंह, पहाड़सिंह

गुलाबसिंहजी के बाद फरीदकोट की गद्दीनशीनी का सवाल उठा। साहबसिंह और पहाड़सिंह चाहते थे कि वे राज के मालिक बनें। फौजूसिंह चाहता था कि उसका अधिकार व रौव-दौव पूर्ववत् बना रहे। प्रकट में वह दोनों को दिलासा देता रहा कि वह उनके ही लिए कोशिश करेगा, किन्तु छिपे-छिपे वकील के द्वारा एजेण्ट


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-460



साहब से यह हुक्म मंगवा लिया कि गद्दी के मालिक स्वर्गवासी सरदार गुलाबसिंह के नाबालिग पुत्र अतरसिंह हैं। साहबसिंह और पहाड़सिंह चाहें तो अपने गुजारे के लिए अलग जागीर ले सकते हैं और चाहें तो नाबालिग रईस के भरोसे रह सकते हैं। ऐलान के दिन तक दोनों राजकुमार धोखे में थे। अतरसिंह रईस फरीदकोट बना दिए गए और फौजूसिंह मुख्तार-आम। वह नाबालिग रईस को दरबार में बिठा लेता था और कुल कामकाज खुद करता था। दोनों भाई कुढ़ते थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार के फैसले के विरुद्ध कर क्या सकते थे? फौजूसिंह अपनी सफलता पर फूला न समाता था, लेकिन दैवयोग से उसकी खुशी रंज में परिणत हो गई। राजकुमार अतरसिंह का माह अगस्त सन् 1827 में अचानक देहान्त हो गया। एक साल भी न हुआ था कि गुलाबसिंह का पौधा विनष्ट हो गया। फौजूसिंह की सारी उमंगें खाक में मिल गईं। उसने एजेण्ट साहब को कहला भेजा कि अतरसिंह की अचानक मृत्यु में उसके दोनों चाचाओं का हाथ है। उन्होंने कोई जादू-टोना कराया है। साहबसिंह ने वकील बूटासिंह के द्वारा एजेण्ट के पास खबर भेजी कि फौजूसिंह ने बेकसूर कन्हैयासिंह को काठ में देकर कोठे में बन्द कर दिया। फौजूसिंह अधिक आपत्ति आती देखकर फरीदकोट को छोड़कर दूसरी जगह चला गया। फिक्र इस बात की हुई कि राज किसके हाथ पड़े। रानी साहिबा चाहती थीं कि वह राज की मालिक बनें और दोनों कुंवर अपनी फिक्र में थे। कुछ ही दिनों में एजेण्ट का बुलावा भी उन्हें अम्बाला आने के लिए मिला। वे पहले से ही तैयार थे। रानी साहिबा भी पधारीं। महताबसिंह ने भी साहब के पास उजरदारी की कि मैं भी साहबसिंह और पहाड़सिंह की तरह राज पाने का अधिकारी हूं। फर्क इतना है कि मैं दूसरी रानी की औलाद हूं। एजेण्ट ने सब लोगों की अलग बातें सुनीं और सारे हालात तथा अपनी राय रेजीडेण्ट साहब देहली को लिख भेजीं। वैसे एजेण्ट साहब ने पहाड़सिंह को यकीन भी दिलाया था कि उनके ही ऊपर ईश्वर की कृपा होगी। फौजूसिंह मय अपने साथियों के वापस लौट आया। पहाड़सिंह इस बीच तीर्थयात्रा के लिए चले गए। जब यात्रा से लौटे तब तक रेजीडेण्ट का हुक्म भी आ चुका था। एजेण्ट ने कुंवर पहाड़सिंह को फरीदकोट का उत्तराधिकारी मान लिया।

पहाड़सिंह

पहाड़सिंह सन् 1827 में फरीदकोट की गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपनी विधवा भाभी तथा भाई साहबसिंह और महताबसिंह के गुजारे के लिए प्रबन्ध कर दिया था। लेकिन फौजूसिंह प्रजा तथा भाइयों में अशांति के बीज बोने लगा। सरदार पहाड़सिंह ने फौजूसिंह को हुक्म दे रक्खा था कि दिन को वह फरीदकोट रहे और रात को मौजा-नूआं किला अपने घर चला जाया करे। हां, उसे कतई अलग न


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किया था। लेकिन फौजूसिंह राज-काज में दखल चाहता था। पहाड़सिंह उसकी चालाकियों को तो समझ रहे थे लेकिन वह चाहते थे कि पहले रियासत का प्रबन्ध ठीक कर लें, तब इसे और इसके साथियों को बाहर निकालने की चेष्टा करेंगे। फौजूसिंह बड़ा घाघ था। उसने साहबसिंह को भड़का दिया और साहबसिंह यहां तक बहके कि एक दिन पहाड़सिंह के सामने रियासत को आधी बांट देने का दावा पेश कर दिया। पहाड़सिंह ने समझाया भी कि आजकल रियासतें बंटती नहीं हैं, जमाना अंग्रेजी इकबाल का है। लेकिन साहबसिंह किसी भी भांति न समझे। लाचार पहाड़सिंह ने अपने वकील बूटासिंह के द्वारा, सारे समाचार पोलीटिकल एजेण्ट मि० मरे के पास भेजे। मि० मरे ने साहबसिंह को अम्बाला बुलाकर उसकी सारी शिकायतें सुनीं। साथ ही समझाया कि रियासत का बंटवारा न हो सकेगा। तुम फरीदकोट जाकर अपने भाई के साथ मेल से रहो। भाई की बगावत को दबाने के लिए पहाड़सिंह ने एजेण्ट साहब से सैनिक सहायता मांगी। किन्तु एजेण्ट ने 'मौका नहीं है' कहकर सहायता देने से विवशता प्रकट की, किन्तु जीन्द से सहायता मिल जाने पर साहबसिंह की बगावत दबा दी गई। इतने पर साहबसिंह निराश न हुआ। अम्बाले में एजेण्ट के पास जाकर अपना दावा फिर पेश किया और कहा कि पंचायत द्वारा मेरा फैसला होना चाहिए। एजेण्ट ने पंचायत बिठाने से तो मना कर दिया, किन्तु एक पत्र पहाड़सिंह को लिखा कि किस भांति साहबसिंह से तुम्हारा सलूक हो सकता है। इसी बीच साहबसिंह अचानक बीमार हो गया। उसके बचने की कोई आशा न रही। एजेण्ट ने उसे फरीदकोट को वापस किया। जब कि वह राह में पटियाले के राज्य को पार कर रहा था, बीमारी की भयंकरता से मर गया। उसकी लाश फरीदकोट लाई गई और वाकायदा संस्कार हुआ। राजा, प्रजा सभी ने साहबसिंह की मृत्यु पर शोक प्रकट किया, किन्तु साहबसिंह के मरने से फरीदकोट के निजी झगड़े भी मिट गए।

लार्ड एमहर्स्ट ने एक घोषणा-पत्र निकालकर अपने अधीनस्थ तथा मित्र राजा रईसों को चेतावनी दे दी थी कि वे आपस में झगड़ा-फिसाद न करें और न एक-दूसरे पर कब्जा करें। इसी घोषणा-पत्र के अनुसार अम्बाला स्थित एजेण्ट ने पंजाब के राजा और जागीरदारों की रियासतों की सीमा नियत कराने में रईसों को सहयोग दिया था। सरदार पहाड़सिंह जी ने भी एजेण्ट साहब के परामर्श से सीमा बन्दी का पक्का कार्य कर लिया। फौजूसिंह जो कि लम्बे अरसे से राज्य का काम सम्भाल रहा था, अब उसकी हरकतें यहां तक पहुंच गईं थीं कि सरदार पहाड़सिंह को यह चिन्ता हुई कि इसे किसी भांति निकाल देना चाहिए। उसका निकालना कोई बड़ी बात न थी। हिसाब के मामले में उसकी भारी गड़बड़ी थी। उसने काफी गबन किया था। इसलिए उसकी इस धोखेबाजी के लिए जांच आरम्भ हुई।


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पर उस समय राज्यों के बाकायदा हिसाब नहीं रखे जाते थे, हिसाबों के कागजात भी न रक्खे जाते थे, तलाशी में उसके घर कुछ निकला नहीं। आखिर सरदार पहाड़सिंह ने पोलीटिकल एजेण्ट से सलाह ली। उस समय एजेण्ट मि० रसल क्लार्क थे। एजेण्ट साहब के आदेशानुसार सन् 1836 ई० में उसे राजकाज से अलग कर दिया गया, किन्तु कष्ट इसलिए नहीं दिया गया कि गबन का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ।

इनके सरदारों व दरबारियों में सरदार महासिंह, सैयद अली, अकबरशाह, सरदार कूमांसिह आदि बड़े योग्य और नेक आदमी थे। राज्य के बड़े-बड़े काम इन्हीं के सुपुर्द थे। एजेण्ट साहब के पास राज्य की ओर से भी खास मौकों पर यही सरदार भेजे जाते थे। इनकी संतान के कुछ लोग तो फरीदकोट सरकार के मुलाजिम थे। उन दिनों माल का महकमा दीवान के मातहत रहता था। वास्तव में दीवान ही महकमा था और उसका घर ही माल का दफतर। वसूली का जो रुपया आता, वह नगर के प्रसिद्ध महाजन के यहां जमा होता था। जमींदार को दीवान के दस्तखत का पर्चा मिलता था। वह उसी पर्चे के आधार पर महाजन के यहां जमा कर देते थे। महाजन अपनी बहियों में जमा कर लेता था। जब खर्च की जरूरत होती, राजा के हुक्म से दीवान महाजन के यहां से मंगाकर खर्च करता था। उस समय न तो बजट बनाये जाते थे और न सिलसिलेवार और सही हिसाब रक्खा जाता था। यह फरीदकोट ही नहीं, सारे भारत के रजवाड़ों का हाल था। हां! महाराज रणजीतसिंह के यहां अवश्य कुछ नियम इस सम्बन्ध में थे। मालगुजारी अधिकांश में बंटाई के नियम पर उगाही जाती थी। उगाही में जो अनाज आता, वह कोठे और खत्तियों में जमा किया जाता था। ऐसे कोठे और खत्ती राजधानी और देहात दोनों में ही होते थे। इसी गल्ले से राज-परिवार और फौज का खर्च चलता था और आवश्यकता पड़ने पर बेच भी दिया जाता था। अधिकांश भाग अनाज के लिए सुरक्षित रक्खा जाता था। अकाल के समय में इसी में से प्रजा को भी सहायता दी जाती थी।

फौजदारी के मामलात में जो जुर्माने होते, वे वर्षों तक उधार भी चले जाते थे। माफ भी हो जाते थे। न्याय के लिए अदालतें तो थीं, किन्तु दीवानी, फौजदारी के सारे मामलों के फैसले जबानी होते थे। फायल न रक्खी जाती थी। कोर्टफीस लेने का भी कायदा न था। अपील होती थी और अन्तिम निर्णय महाजन के हाथ रहता था। न्याय के समय पक्षपात करना पाप समझा जाता था। कैदखाने भी थे, किन्तु खास कैदियों को उसमें रक्खा जाता था। न्याय जुर्म की तौल पर न्याय के अनुपात में ही होता था। कानून के अनुसार उस समय न्याय न था। कानून और न्याय का घनिष्ठ सम्बन्ध वास्तव में है भी नहीं। मनुस्मृति और पुरानी स्मृतियों के आधार पर दण्ड देने की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी शासन में बहुत हल्की की जा रही थी।


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सारांश यह है कि सरदार पहाड़सिंह जी के राज्य में वे ही नियम-विधान पाए जाते थे, जो अन्य हिन्दू राज्यों में थे।

18 अक्टूबर सन् 1838 ई० में जब आकलैण्ड गवर्नर ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की तो फरीदकोट की ओर से भरसक सहायता अंग्रेज सरकार को दी गई। ऊंट, छकड़े, खलासी, गल्ला, बैल-गाड़ियां जो भी कुछ एजेण्ट ने मांगा, पहाड़सिंह जी ने दिया। यही क्यों, जब आजादी के मतवाले खालसा वीरों की सन् 1845 ई० में अंग्रेजों से लड़ाई हुई और खालसा सेना ने लिटलर को फीरोजपुर के किले में घेर लिया, तो अपनी अक्ल पहाड़सिंह ने अंग्रेजों के पक्ष में खर्च की। अपने दो सरकारी एजेण्ट मि० बराडफुल की सेवा में इसलिए दे दिए कि जब राज्य से किसी भांति की सहायता की जरूरत पड़े तो एजेण्ट साहब इनके द्वारा फरमाइश करें। सुल्तानवाला स्थान पर अंग्रेजी फौज के लिए काफी सामान रसद का जमा कर लिया था और भी जो बन पड़ा, अंग्रेजी सहायता की। अपने बड़े लड़के वजीरसिंह की मातहती में फौज का दस्ता भी अंग्रेजी सहायता के लिए भेजा था। इन्हीं जबरदस्त सेवाओं से खुश होकर मुदकी के मुकाम पर गवर्नर-जनरल ने सरदार पहाड़सिंह को राजा का खिताब देने की घोषणा की और साथ ही यह भी कहा कि जो इलाके कोट-कपूरा आदि पहले फरीदकोट के हाथ से निकल गए हैं और अब सरकार अंग्रेज के कब्जे में आ गये हैं, बाद लड़ाई के उन्हें फरीदकोट को वापिस करने का विचार किया जायेगा। मि० बराडफुट ने उन तमाम सेवाओं को नोट किया था जो कि फरीदकोट की ओर से लड़ाई में की गई थीं। किन्तु वे लड़ाई में मारे गये। फिर लड़ाई के बाद अंग्रेज सरकार ने राजगी की सनद और खिलअत अपने वायदे के अनुसार फरीदकोट के रईस को दिए जिसकी नकल नीचे दी जाती है -

नकल

सनद राजगी मुहरी व दस्तखती जनाब नवाब मुअले अल्काव लार्ड सर हेनेरी हार्डिंग साहब बहादुर गवर्नर जनरल मुमालिक हिन्दुस्तान मुवर्रिंख 24 मार्च सन् 1846 ई०।
रफअत पनाह, सदाकत दस्तगाह, राजा पहाड़सिंह बालिये फरीदकोट की खालिश अकीदत व फर्मावर्दारी सच्ची इरादत और वफाशआरी अम्दः खैरख्वाही और अच्छी खिदमतगुजारी सरकार दौलतमन्द कम्पनी अंग्रेज बहादुर की निस्वत पाना सबूत को पहुंच चुकी है। इसलिए उनके इकबाल के चमनिस्तान की तरफ महरवानियों की नीम इस अच्छे वक्त में पहुंची है और निहायत महरवानी से राजगी का खिताब मय आखिरा खिलअत के इस सनद के साथ अता होता है। मुनासिब है कि इस अताये शाही के मुकाबले में आइन्दः दौलत ख्वाही और

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खैरन्देशी में जियादः मुस्तैदी और सरगर्मी दिखाकर अपना फखर व अगरज और हमसरों में इज्जत व इम्तयाज बढ़ायेंगे।

यह सनद आदि फरीदकोट के रईस को दी गई और वह राजा कहलाने लगे। इनके चार रानियां थीं, संतान केवल दो से हुई। एक से वजीरसिंह पैदा हुए और दूसरी से दीपसिंह तथा अनौखसिंह। पहाड़सिंह ने राज्य की खूब उन्नति की थी, अंग्रेजों ने भी कुछ खिराज का इलाक दे दिया था। सती-प्रथा बन्द करने, कन्या-वध रोकने और अनुर्वर भूमि को उर्वर बनाने में राजा साहब ने बड़ी रुचि ली। खालसा के विरुद्ध अंग्रेजों की मदद करने से राजा साहब को अंग्रेजों की सहायता मिली और फरीदकोट की खूब उन्नति हुई। माह अप्रैल 1849 में महाराज पहाड़सिंह का स्वर्गवास हो गया।


References


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