Morarji Desai

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Morarji Desai (29 February 1896 – 10 April 1995) was the Prime Minister of India from 1977 to 1979. He was also the first Prime Minister to head India's first non-Congress Government. Earlier, he held many important posts in the Government of India such as: Chief Minister of Bombay State (1952), Home Minister, Finance Minister and Deputy Prime Minister of India.

Morarji Desai remains the only Indian national to be conferred with Pakistan's highest civilian award, Nishan-e-Pakistan, which was conferred on him by Pakistan's President Ghulam Ishaq Khan in 1990.

After Morarji Desai resigned from Prime Ministership in 1979, general elections were held in 1980. He campaigned for the Janata Party in 1980 General Election as a senior politician but did not contest the election himself. In retirement, he lived in Mumbai and died in 1995 at the age of 99. He was much honoured in his last years as a freedom-fighter of his generation.

Morarji Desai was a strict follower of Mahatma Gandhi's principles and a moralist. He was a vegetarian "both by birth and by conviction."

Morarji Desai's differences with Ch. Charan Singh

प्रधानमन्त्री मोरारजी ने मन्त्रिमण्डल के गठन में अपने 7 केबिनेट मन्त्री लेकर तथा जनसंघभालोद को 3-3 स्थान देकर समानुपात के नियम को तोड़ दिया, फिर राज्यपालों और राजदूतों के चयन में घोर पक्षपात किया। इस प्रकार लोकदल घाटे में रह गया। सर्वाधिक लाभ संगठन कांग्रेस को मिला जबकि चौधरी साहब ने उत्तर भारत में टिकट वितरण के समय अपने को घाटे में रखकर भी अन्य घटकों को सन्तुष्ट किया था। फिर विधानसभाओं के मध्यावधि चुनाव और इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी को लेकर भी चौधरी-देसाई विवाद खुलकर सामने आ गये।

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चौ० चरणसिंह अपने गृहमन्त्रालय का कार्य स्वतन्त्र रूप से करना चाहते थे, परन्तु प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई व उनका मन्त्रिमण्डल तथा चन्द्रशेखर उनके रास्ते में रोड़े अटकाते रहे। मोरारजी के इस विवाद से चौधरी साहब सदा बेचैन रहते थे। जून 1978 में चौधरी साहब को पक्षाघात का दौरा पड़ा। अतः वे इलाज के लिए दिल्ली के बड़े अस्पताल में दाखिल हो गये। इस समय मोरारजी ने चन्द्रशेखर से सांठ-गांठ करके राजनारायण व चौधरी साहब से त्याग-पत्र मांग लिए, बस पार्टी के पतन का बीजारोपण आरम्भ हो गया। राजनारायण पर झूठा दोष लगाकर त्याग-पत्र मांग लिया और उसे जून 1978 में मन्त्रिमण्डल से बाहर कर दिया।

प्रधानमंत्री (मोरारजी देसाई) ने 26 जून, 1978 को प्रेस कांफ्रेंस में राजनारायण के जनता पार्टी से त्याग-पत्र के विषय में कहा कि यदि पहले वाले भालोद के अन्य मेम्बर भी अपना त्याग-पत्र दे दें तो भी मेरी सरकार की स्थिरता में कुछ अन्तर नहीं होगा (Blitz weekly, August 4, 1979)।

चौ० चरणसिंह ने 30 जून 1978 को अपने गृहमन्त्री पद से त्याग-पत्र दे दिया। मोरारजी ने अपने स्वार्थ के लिए चौधरी साहब को उनके पद से हटाकर उन पर एक घातक धक्का लगाया। वास्तव में उनका यह त्याग-पत्र नहीं था, बल्कि उनको नीचा दिखाना था। प्रधानमन्त्री ने चौधरी साहब को पत्र भेजकर त्याग-पत्र मांगा था, जिसमें चौधरी साहब पर मिथ्या व बनावटी आरोप लगाये गये थे। चौ० चरणसिंह इलाज के बाद अपनी धर्मपत्नी गायत्री देवी सहित सूरज कुण्ड में जाकर आराम करने लगे।

अनेक मन्त्रियों, राजनैतिक व विद्वानों के कहने पर भी प्रधानमन्त्री मोरारजी ने चौधरी साहब को वापिस अपने मन्त्रिमण्डल में नहीं लिया।

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23 दिसम्बर, 1978 की इस ऐतिहासिक रैली ने चौ० चरणसिंह को विश्व के रंगमंच पर एक


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-963


लोकप्रिय नेता और किसानों का ‘मसीहा’ के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। इस जनशक्ति से भयभीत होकर ही मोरारजी देसाई व चन्द्रशेखर ने चौधरी साहब से मन्त्रिमण्डल में शामिल होने का बार-बार अनुरोध किया। वस्तुतः चौधरी साहब स्वयं मानसिक रूप से मन्त्रिमण्डल में जाने को तैयार न थे किन्तु उनके ऊपर पार्टी की एकता को बनाये रखने हेतु अत्यधिक दबाव पड़ रहा था, जिसके सामने झुकना पड़ा। यद्यपि इससे उन्हें घाटा उठाना पड़ा, क्योंकि वह मन्त्रिमण्डल में न जाकर, बाहर से किसान मजदूरों के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाते तो शायद विश्व के पैमाने पर माओ-त्से-तुंग के बाद दूसरे महान् किसान संघर्षों के नेता कहलाते। यह टिप्पणी बी० बी० सी० लन्दन रेडियो के संवाददाता की है और मैं स्वयं भी इस बात से सहमत हूँ। चौ० चरणसिंह ने मन्त्रिमण्डल से 6 मास 24 दिन बाहर रहकर 24 जनवरी 1979 को उपप्रधानमन्त्री के रूप में शपथ ली और उन्हें वित्त विभाग भी सौंपा गया। बाबू जगजीवनराम को नं० 2 उपप्रधानमन्त्री बनाया। ...... इसी दौरान प्रधानमन्त्री मोरारजी ने चन्द्रशेखर से सांठ-गांठ करके भालोद के तीन मुख्यमंत्री – चौ. देवीलाल, रामनरेश यादव और कर्पूरी ठाकुर - को उनके पद से हटा दिया। दूसरी ओर राजनारायण को अनुशासन कार्यवाही का ढ़ोंग रचकर कार्य समिति से भी पृथक् कर दिया गया। इतने प्रहारों के बाद भालोद घटक पूर्णतया क्रोध में पागल था। चौ. देवीलाल 9 जुलाई 1979 को चौ. चरणसिंह के निवास पर पहुंचे और वहां देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, श्यामनन्दन मिश्र, मधु लिमये ने गोपनीय बैठक कर चौधरी साहब को पार्टी छोड़ने के लिए तैयार कर लिया और समानान्तर जनता पार्टी का गठन कर मोरारजी का तख्ता पलटनी की योजना बनाकर अगुवाई करने के लिए राजनारायण को जिम्मेदारी सौंपी गई। 15 मन्त्रियों के त्यागपत्र प्राप्त कर लिए गए। इसी क्रम में 13 संसद सदस्यों ने 9 जुलाई को और अन्य सदस्यों ने 10 जुलाई 1979 ई० को त्यागपत्र दे दिए और विरोधी दल के नेता यशवन्तराव चव्हाण ने अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया। अतः 11 जुलाई 1979 ई० को अन्य सांसदों से त्यागपत्र दिलाकर सरकार को अल्पमत में खड़ा कर दिया गया। 15 जुलाई तक त्यागपत्रों की संख्या 100 पर पहूंच गई और मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देने पर बाध्य होना पड़ा। इस तरह मोरारजी 2 वर्ष 115 दिन प्रधानमन्त्री रहे और फिर मन्त्रिमण्डल में नहीं लिये गये। अन्त में चौधरी साहब भी बाहर आ गये और समानान्तर जनता पार्टी के सर्वसम्मति से नेता चुन लिए गए तथा समर्थन प्राप्त करके प्रधानमन्त्री बनने में भी सफल हुए।

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जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अल्पमत होने के कारण 15 जुलाई 1979 को अपना त्यागपत्र देना पड़ा। अब इस पार्टी का दूसरा नेता चुनने की दौड़-धूप शुरु हो गई। राष्ट्रपति संजीव रेड्डी ने कांग्रेस के नेता वाई० बी० चव्हाण को अपना बहुमत सिद्ध करने को कहा परन्तु वह असफल रहा। अब मैदान में चौ० चरणसिंह व मोरारजी देसाई थे जो पार्टी के नेता बनने के प्रयत्न कर रहे थे। दोनों ने अपने-अपने लोकसभा सदस्यों की सूची राष्ट्रपति को दी। राष्ट्रपति ने उन सदस्यों से पूछकर अच्छी तरह से जांच करके पता लगाया कि मोरारजी के साथ 236 सदस्य थे जबकि चौ० चरणसिंह के साथ 262 थे, जिनमें इन्दिरा कांग्रेस के 72 सदस्य भी शामिल थे। श्रीमती इन्दिरा ने इस अवसर पर चौधरी साहब का बिना शर्त साथ दिया परन्तु यह कहकर कि मेरी पार्टी का कोई सदस्य आपके मन्त्रिमण्डल में शामिल नहीं होगा। लोकसभा के 538 सदस्यों की संख्या में चौ० चरणसिंह का बहुमत न था जो कि 270 तो होना ही चाहिये था।

चूंकि चौ० चरणसिंह के सदस्यों की संख्या अधिक थी इसीलिए राष्ट्रपति ने उनको 28 जुलाई 1979, बृहस्पतिवार को 5.35 सायंकाल, प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी। साथ ही उनको राष्ट्रपति ने यह आदेश भी दिया कि वे अगस्त 1979 के तीसरे सप्ताह में लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करेंगे।

प्रधानमन्त्री की शपथ लेकर चौ० चरणसिंह नं० 1 सफदरजंग रोड कोठी में आ गये। उन्होंने अपना मन्त्रिमण्डल बनाया।

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चौ० चरणसिंह व उनके मन्त्रिमण्डल का त्यागपत्र - सोमवार 20 अगस्त 1979 को प्रधानमन्त्री चौ० चरणसिंह को लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करना था। शनिवार 8 अगस्त को श्री राजनारायण के साथ बातचीत में इन्दिरा गांधी व संजय गांधी ने चौ० चरणसिंह को सहायता देने हेतु अपना अविश्वास प्रकट कर दिया। .....

उसी समय चौधरी साहब ने अपना त्यागपत्र लिखना शुरु कर दिया। सोमवार को सुबह 10 बजे मन्त्रिमण्डल की बैठक बुलाई गई। एक प्रस्ताव पास करके चौ० चरणसिंह को यह अधिकार दिया गया कि वह मन्त्रिमण्डल के त्यागपत्र राष्ट्रपति को प्रस्तुत कर दे तथा लोकसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव की घोषणा करें। तब चौधरी साहब, जो 24 दिन प्रधानमन्त्री पद पर रहे, राष्ट्रपति भवन में गये और 10-30 बजे त्यागपत्र राष्ट्रपति को सौंप दिये। राष्ट्रपति के साथ 10 मिनट बात करके चौधरी साहब अपने निवास स्थान पर आ गये, संसद भवन में नहीं गए। संसद


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-966


भवन में सब सदस्य पहुंचे हुए थे और देखने वालों की बड़ी संख्या थी। चौधरी चरणसिंह व उसके मन्त्रिमण्डल का इन्तजार हो रहा था। उधर राष्ट्रपति ने मन्त्रिमण्डल का त्यागपत्र स्वीकार करके लोकसभा को भंग कर दिया और मध्यवर्ती चुनाव के आदेश जारी कर दिए। लोकसभा के स्पीकर ने यह सूचना संसद में सुना दी। राजनारायण ने बड़ी प्रसन्नता से वहां भारी भीड़ में सुनाया कि “चौ० चरणसिंह की हार नहीं, परन्तु जीत हुई है।”

एस० एन० मिश्र ने कहा कि “चौ० चरणसिंह के त्यागपत्र से यह प्रमाणित हो गया कि केवल वही एक शुद्ध और प्रजातन्त्रीय प्रधानमन्त्री है जो देश में कुछ ही ऐसे हुए हैं।”

समस्त परिस्थितियों पर जो प्रकाश डाला गया है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जनता पार्टी विघटन के लिए चौ० चरणसिंह नहीं, वरन् मोरारजी देसाई एवं उनकी कुटिल मण्डली दोषी थी।[1]

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Dndeswal (talk) 05:07, 2 March 2017 (EST)

References