Moti Singh Khichar

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कामरेड मोतीसिंह

कामरेड मोतीसिंह का जीवन परिचय

कामरेड मोतीसिंह खीचड़ का जन्म सन 1919 में झुंझुनू जिले के गाँव दूलपुरा में हुआ था. इनके पिता अगर राम ने दो शादियाँ की थी. पहली पत्नी से दो पुत्र हुए- लाला राम और नारायण राम . प्रथम पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की. मोतीसिंह और श्रवण राम दो ही बेटे दूसरी पत्नी की कोख से पैदा हुए. दूलपुरा गाँव मलसीसर ठिकाने के अधीन था. मोती सिंह के दादा चार भाई थे जिनमें एक मलसीसर ठिकाने का चौधरी था. [1]

मोतीसिंह ने मलसीसर स्कूल में अपना नाम मोती राम के स्थान पर मोतीसिंह लिखवाकर अपने मन के विद्रोह को प्रकट कर दिया था. सन 1933 में चौदह साल की उम्र में ही उनका विवाह कर दिया एवं बाद में 1936 में गौना किया था. [2]

प्रारंभिक शिक्षा

मोतीसिंह ने मलसीसर स्कूल में चौथी कक्षा तथा अलसीसर से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की. तत्पश्चात चिड़ावा से दसवीं परीक्षा उत्तीर्ण की. उसी वर्ष सन 1939 में पिता अगराराम का निधन हो गया. मोतीसिंह के दोनों बड़े भाई गोद चले गए थे. एक ताऊ सुख राम के तो दूसरा चाचा इन्द्राराम के. इस लिए स्वयं की जमीन और घर का भार मोतीसिंह पर आ गया था. वे आगे नहीं पढ़ सके. वे आर्य समाज में इतना रंग चुके थे की भारी दबाव के बावजूद पिता का मृत्युभोज नहीं किया. [3]

मोती सिंह मलसीसर ठाकुर की आँख की किरकिरी बने हुए थे. उन्होंने मोती सिंह को गंगा राम के हत्या के प्रकरण में फसा दिया और उन पर धरा 302 के अंतर्गत मुक़दमा चला. उनको जयपुर जेल में डाला गया जहाँ से वे 15 अगस्त 1947 को रिहा हुए. जेल से रिहा होने पर झुंझुनू रेलवे स्टेशन पर घासीराम चौधरी ने उनका स्वागत किया और इस साहसी युवक को अपने गाँव बास घासीराम ले गए. वहां उसने स्कूल में पढ़ते बच्चों को देखा.[4]

राजगढ़ तहसील के गाँव सांखू फोर्ट में किसानों ने एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया. यह गाँव दूलपुरा के निकट ही है. इसमें झुंझुनू जिले के और राजगढ़ तहसील के किसान नेता एकत्रित हुए थे. मोहरसिंह जैतपुरा ने अपने जोशीले गीतों से समां बांध दी. उन्होंने मोती सिंह की तुलना भगत सिंह और चन्द्र शेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों से की. सरदार हरलाल सिंह ने मोती सिंह को अद्भुत जीवत वाला व्यक्ति माना और घासीराम चौधरी ने मोती सिंह को वीरता की प्रतिक तलवार भेंट की. [5]

मोतीसिंह यह सब शांत भाव से देख रहे थे. उन्हें लगा कि उनकी सात वर्ष के बंदी जीवन का कलंक और पीड़ा धुल गयी. और जब वे बोलने खड़े हुए तो पहली बार सार्वजनिक मंच से ऐसा प्रभावशाली भाषण दिया, जैसा अभीतक किसी ने नहीं दिया था. उन्होंने कहा,

'मेरा जीवन अब गाँव के गरीबों और किसानों के लिए है. मेरा घर आप सबके लिए खुला है. जब तक जुल्म होते रहेंगे, शोषण होगा, इस क्षेत्र में कभी शांति नहीं रह सकती. हमारा दुर्भाग्य है कि अंग्रेज चले गए लेकिन उनको पालने पोषने वाले जागीरदार अभी तक हमारी छाती पर मूंग दल रहे हैं. प्रजातंत्र का मतलब उस समय तक बेमानी है जब तक गाँव के अंतिम आदमी को न्याय न मिले, उसे सामान अवसर न मिलें.' [6]

सन्दर्भ

  1. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 79
  2. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 81
  3. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 81
  4. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 85
  5. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 86
  6. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 86