Rajasthan ke Gramy jivan ki Jhanki

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(Redirected from Rural Rajasthan)
लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

राजस्थान के ग्राम्य जीवन की झाँकी

The Glimpses of Rural Rajasthan
ऊंट का हळ जोतना
लेव देना
छान घालना

The Glimpses of Rural Rajasthan

(A Case Study of the Village Meghsar)
A farmer of Yesteryear

Rural Rajasthan has its own unique charm beyond exact expression in words. The curious amalgamation of history, geology, cruel climatic conditions and way of life is the thing that makes Thar desert unique in relation to other parts of Rajasthan. Braving the bluntness of the desolate land, the rustic people in desert districts of Rajasthan are accustomed to surviving even in the most difficult situations and adverse conditions of life.

The order generation of the agrarian society in the Thar desert is known for being extremely eco-friendly, hardworking, frugal and tender-hearted. The rural folk still follow simple living pattern but in the recent century it has been contaminated by certain flaws of city life-style. Almost till the end of the 20 the century most of the rural folk lived in circular huts, the most Eco-friendly dwelling shelters which are made with what is available at hand in the fields and grazing land. They are covered with thatched roofs and its walls covered with hay, plaster of clay and cow dung. From transport to ploughing, the villagers depended on camel, popularly known as the ship of the desert. An assortment of people from different communities living in the villages are divided on the basis of their profession.

The article based on the case study of a particular village seeks to enlighten the younger generation about the self-reliant Eco-friendly life-style of the older generation living in the lap of nature. The study stresses the points that have general implications, and it moves from what is particular to what is general. In general, it explores the rustic side of life in the desert area of Rajasthan, and sheds light on genuine innocence, good will, mutual cooperation and warm hospitality of the villagers. The dictum Atithi Devo Bhavo constitutes a part of the Rajasthani Culture in villages. It means our guests are no less than gods, so we should treat our guests as we would certainly treat gods.

The article dealing with rural vistas has a lot to offer to the younger generation about diverse dimensions of the rural life in days of yore. It is to be noted that women of the older generation in rural Rajasthan have lived a life that revolves around diverse forms of strenuous and prolonged household tasks involving working in the family fields, and at the same time raising children in the social system of joint family prevalent in the olden days.

The article touches upon the numerous social, economic, cultural and environmental outcomes of successive adverse conditions of life in the countryside of the Thar desert. It discusses the transformation of the ecosystem of the Thar Desert by drawing the outlines of the recent environmental hazards posed by the modern life- style that promotes the policy of 'use and throw'. Moreover, it reveals how the successive use of tractors in ploughing fields have led to wiping out certain flora from the fields that were recognized as sand binders. The meanings and subjectivities with which rural Rajasthan is endowed and which constitute the identity of the agrarian society have also been painted out through the examination of the cultural constructions of rural Rajasthan.

गाँव 'तब' और 'अब'

ज़िंदगी की सायंकालीन पारी में यादों की जुगाली करना ख़ूब रुचता है। जैसे-जैसे जीवन का सूरज पश्चिम की ओर खिसकता जाता है, त्यों-त्यों हमें अपने अतीत की खूबियाँ ख़ूब याद आने लगती हैं। बीते दौर की बातों की जुगाली कर मन को बहलाना अच्छा लगता है। 'अब' से 'तब' की ओर के सैरसपाटे का मज़ा ही कुछ और है!

मेरे गाँव के बारे में कुछ लिख रहा था तो बीते जमाने के गाँव और रहन-सहन का चलचित्र स्मृति के पटल पर घूमने लगा। उस चलचित्र के कुछ दृश्यों को शब्दों की लड़ियों में पिरो कर मय चित्रावली आपसे साझा करने का मन हो गया। इसी सिलसिले में फ़ैज़ साहब का एक शेर पेश है: "कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब, आज तुम याद बे-हिसाब आए "

लगभग 1960 से 80 व उसके अगले दशक तक मेरे गाँव मेघसर (तहसील-जिला चूरू) में रहन-सहन की जो तस्वीर यादों की गलियों में चहलकदमी करती हैं, उनसे रूबरू करवाना चाहता हूँ। ये वो बातें हैं जो बचपन-लड़कपन में आँखन देखी हैं और अभी भी स्मृति के तलघर में यथावत विराजमान हैं। ये तस्वीरें उन सबके मन में रची-बसी है जो साठ के बाद के ठाठ में जी रहे हैं। इसके मर्म को समझेंगे भी वही क्योंकि ये बात उन बीते दिनों की है। तो आओ, पधारो सा म्हारे बीते दिनों के गाँव मेघसर।

'अब' का रहन-सहन 'तब' के रहन-सहन से बहुत बदल गया है। मोटा धान खाना, मोटे कपड़े से तन ढकना, परिवार का पेट पालने के लिए शरीर से ख़ूब 'पचना' ( अर्थात जी-तोड़ मेहनत करना ) - उस दौर में यही कहानी थी अधिकांश ग्रामवासियों के जीवन की। मिट्टी, अनाज, पानी, पशु, पक्षी और इंसान के वे कद्रदान थे। आब- ओ-हवा सिर्फ शुद्ध ही नहीं बल्कि उसमें प्रेम भी घुलामिला हुआ था। चार विशेषणों में उस दौर की जीवन शैली को समाहित कर कहा जाए तो ये कहूंगा कि उस दौर के लोग इकोफ्रेंडली, मितव्ययी, परिश्रमी एवं हमदर्द थे।'बदलो, डटे रहो, भागो नहीं', ये उनके जीवन का मूलमंत्र था।

रहवासी कच्चे घर के थे पर दिल के सच्चे और बात के पक्के; रास्ते सब कच्चे थे पर उस पर चलने वाले राही सब तन-मन से एकदम पक्के-- ऐसे थे उस दौर के लोग। भावों से भरे दिल वाले थे पर अभावों ( संसाधनों की कमी) से हर ओर घिरे रहते थे। धन के दर्शन से बहुत दूर। चमड़ी पर मौसमों की मार की परवाह नहीं करते हुए मिट्टी में ख़ूब 'पचते' रहते थे पर दमड़ी के दर्शन दुर्लभ होते थे। किसी दूसरे से दमड़ी उधार लेने का मतलब उसकी बेगार की हामी भर लेना होता था। कंगाली के हालात से जूझते हुए आगे बढ़ने की सनक सवार रहती थी। कंगाली से घिरे रहने के कारण काया को ख़ूब कष्ट देने को मजबूर थे पर अपणायत, आपसी हेत, सहयोग, सौहार्द के मामले में ख़ूब अमीर थे।जेब से तंगहाल पर ज़मीर से खुशहाल और ज़ुबान के पक्के। उनके हाथ का हुनर कमाल का था।

घर-बार (आवास व्यवस्था )

कच्चे घर

जागीरदारी वाले घरों और कुछ ख़ास आमदनी वाले चार-पांच घरों को छोड़कर औरों के घरों में रहवास के लिए झौंपडे, गोबर से लिपी-पुती कच्ची खुड्डी, कच्चा कोठा बने हुए थे। ऊपर होती थी कूंचों की गूँथ कर कारीगरी से बांधी गई छान/ छप्पर। कुछ घरों में लोहे के टैणों (टिन) से छायी गई 'साळ'(लंबा खिड़कीविहीन कमरा) भी होती थी।

रहवासीय झौंपडे, खुड्डी, कच्चे कोठे से कुछ दूरी पर घर के बुज़ुर्ग व पावणों/मेहमानों के लिए अलग से झौंपडा होता था। आज़ादी के बाद घरों में कच्ची तिबारी या पौळी बनाने की आंशिक हैसियत हासिल हुई। यह असल में घर के बुज़ुर्ग व घर आए पुरुषों/ पावणों की बैठक होती थी। पौळी घर पर आए-गए पङौसियों, गांववासियों, पावणों/ मेहमानों के लिए आरक्षित होती थी। खेती की रुत के बाद सांझ ढले व देर रात तक पौळी के बाहर के कच्चे चबूतरे पर बस्ती के बड़े-बुजर्गों का जमावड़ा लगता। चिलम-हुक्के का दौर चलता, एक-दूजे से किस्से-कहानियाँ सुनकर मन बहलाते और तेरी-मेरी से लेकर गांव-बस्ती, सगे-संबंधियों व देश-प्रदेश के मुद्दों पर ख़ूब चर्चा करते।

आवास के एक कोने में पानी के छोटे-बड़े घड़ों का जमघट होता था जिसे परिंडा कहते थे। ये घर का पवित्र स्थान माना जाता था। मांगलिया ( छोटा घड़ा जिससे बच्चे पानी ढोकर ला सकें ) भी घर में जरूर होता था। परिंडा अक्सर ऊपर छोटे छप्पर से ढका हुआ होता था। परिंडे में मिट्टी के घड़े गोरी मिट्टी/ बालू रेत बिछाकर उस पर रखे जाते थे। जिन जातियों में पर्दा प्रथा नहीं थी उनमें कूएँ के पनघट या फिर वर्षात के बाद के कुछ महीनों में जोहड़े से घड़ों में पानी भरकर उन्हें अपने सिर पर रखी 'इंडी/ईन्डूणी' (कपड़े का बना गोलाकार छल्ला) पर रखकर अक्सर महिलाएं ढोकर लाती थीं। कुछ जवान या अधेड़ उम्र के लोग कंधे पर पानी से भरा घड़ा रखकर लाते थे। बलिष्ठ युवक दोनों कंधों पर दो घड़े/दोघड़ रखकर लाते थे।

पशुओं को बांधने और चारा-लकड़ी आदि के 'जाब्ता' (संग्रह) रखने हेतु खुले छप्पर का एक ठौर (नियत स्थान ) बना होता था। पशुओं को बांधने के स्थान को ठाण कहते थे। बकरियों के बच्चों को एक जगह बंद कर रखने और कुत्ते-बिल्लियों के प्रहार से उनकी सुरक्षा करने के लिए चिकनी मिट्टी का बनाया गया कोठरीनुमा छोटा सा ढांचा होता था, जिसे बकराड़िया कहते थे, जिसे छोटी खिड़की से बंद कर दिया जाता था।

घर की सीमा के चारों ओर खेत में पनपी झाड़ियों के कांटों की 'बाड़' (fence) बनाई जाती थी ताकि गुवाड़ी की सीमा भी निर्धारित रहे और आवारा जानवर अंदर नहीं घुस सकें। एक-दो साल में इसकी मरम्मत (mending) की जाती थी। घर की बाड़ में बने निकास व प्रवेश-द्वार पर इरणाअलॉय (खेतों की सींव/सीमा पर उगे झाड़ीनुमा पौधे) की टहनियों का गूंथा हुआ फळसा होता था, जिसे सरका कर खोला या बंद किया जा सकता था। 'फळसे' के बीच में मोटी लकड़ी का सपोर्ट लगा रहता था, जिसके आगे के छोर का इस्तेमाल हत्थे के रूप में करके फलसे का खोला- बंद किया जाता था। फळसे के बीचों-बीच दण्डवत/ हॉरिजॉन्टल लगे लकड़ी के इस सपोर्ट को झाटा कहते थे।

घर की आम जरूरत की चीजें

अनाज पीसने की हाथ-चक्की, दूध-दही व रोटियों को बिल्ली-कुत्तों की लालची नज़रों से बचाने के लिए लोहे की मजबूत ताडियों का बना हवादार पिंजरा, रोटियों व दही को कमबख्त कीड़ियों के हमले से बचाने के लिए खुड्डी या कोठे के बळे (लकड़ी का गर्डर) से लटकता छींका, दैनिक उपयोग के अनाज व आटा रखने के लिए कागजों को गलाकर बनाए गए ठठिया, झावला/झावली (पिसा हुआ आटा रखने की कलात्मक हांडी), औरतों के बैठने के लिए पीढ़ा या मुढ़ी/मूढा( सरकंडों का गूंथा हुआ गोलाकार स्टूल टाइप बैठने का आसन), कताई के लिए चरखा (अक्सर दहेज़ में दिया जाने वाला आइटम), दूध गर्म करने के लिए कढावणी, दही बिलोने के लिए बिलोवणी, बिलोवन के लिए झेरणा - झेरणी व नेतरा( चमड़े की चपटी रस्सीनुमा डोरी जो झेरने के ऊपरी हिस्से के मध्य लपेटी जाती थी ) , अनाज कूटने के लिए ऊंखली-मूसल, घी जमा रखने के लिए पारी (बड़ी हांडी), दैनिक उपयोग हेतु घी रखने की घिलोड़ी (छोटा कुलड़िया ), उसमें सदा सुहागन की तरह घी में डूबी हुई मिरकली (लुहार से बनवाई गई लोहे की खड़ी चम्मच), हांडी में पकाए धान को उससे निकालने के लिए डोई व 'डोईया' (wooden spoon लकड़ी का बना बड़ा व छोटा चम्मच), सर्दियों में पानी गर्म करने का अनावड़ा( मिट्टी का छोटा घड़ा ) स्पेयर ईंधन को सुरक्षित रखने के लिए गोबर की थेपड़ी थाप कर उन्हें अक्सर पिरामिडीय आकृति में एक दूजे पर सलीक़े से व्यवस्थित कर उसके ऊपर गोबर का मोटा लेप किया गया बटोड़ा या परांवडा, अनाज के सुरक्षित रखरखाव के लिए चिकनी मिट्टी से बनाए गए डमरुकार कोठलिया और एक ओबरा या ओबरी हर किसान-मजदूर के घर की पहचान होती थी, या यों कहें कि ये उस जमाने में उनके घरों की शान होती थीं।

लौहे के कड़ाहे - ये लोहे के बने होते हैं। इन्हें बनाने वाले स्थानीय कारीगर ही हुआ करते थे। इनको बनाने के लिए लोहे की छोटी छोटी आयताकार चद्दरों को जोड़कर पहले एक रिंगनुमा कड़ा बनाया जाता था। फिर एक के ऊपर दूसरी रिंग जोड़कर उन्हें कड़ाहे का आकार दिया जाता था। ये छोटे टुकड़े हस्तनिर्मित कीलों से जोड़े जाते थे जिन्हें मेख कहा जाता है। हाल ही तक, ऐसे कारीगर उपलब्ध थे जो घी चढ़े हुए तपते कड़ाह में भी उखड़ी मेख को वापिस लगा सकते थे। इन कड़ाहों का उपयोग बड़े आयोजनों में मिठाई रांधने के लिए किया जाता था। सात कड़े वाले कड़ाह का अर्थ था, उसमें सात रिंग्स होते थे। बीस से तीस कड़ों वाले भी कड़ाह होते थे। इनमें तीन से चार मण (एक मण 40 kg का होता है) गेहूँ की लापसी या हलवा पकाया जाता था। ऐसे कड़ाह भी थे जिनमें नौ मण तक दलिया या आटा सेका जाता था। इन विशाल कड़ाहों में चार चार बलिष्ठ व्यक्ति खुरपा घुमाते थे। चार से पांच गज के खुरपे बलपूर्वक जब फिसलते थे तो उनकी घमक तीन कोस तक सुनाई देती थी। इन खुरपों को चाठुआ कहा जाता है, इन्हें एक विशेष लय से घुमाना होता था। ये आगे से लोहे के बने होते थे। कड़ाह के कड़े इस प्रकार से फिक्स होते थे कि वे जाते समय ठीक से फिसल सकें और किसी मेख को क्षतिग्रस्त न करें। यूँ तो हलवा शब्द से ही हलवाई बना है, लेकिन उस समय प्रायः सामान्य जन ही यह कार्य करते थे। यह हलवा अथवा लापसी, शुद्ध घी और गुड़ से बना होता था, जिसे जीमने के लिए पूरी न्यात बुलाई जाती थी। जैसा ठोस आहार होता था वैसे ही जीमने वाले भी होते थे। पांच सेर लापसी खाने वाले लोग भी थे, एक बार खा लिया तो पांच दिन बिना खाए भी रह जाते थे। लौह तत्व रक्तवृद्धि के लिए उत्तम रहता है। कई बार उसमें से घी झरता रहता था। वह घी भी वास्तव में घी था, वह बल भी बल ही था। शुद्ध खान पान का ही असर था कि ऐसे आयोजन में गांव के गांव, दल बल सहित आठ कोस तक पैदल चलकर खाने के लिए पहुँचते थे। हलवा या लापसी के साथ कई बार चना-चावल भी बनते थे। खडीनों के चने और सिंध के चावल की बात ही कुछ और थी। उन मसालों की महक भी अब तो कहीं खो सी गई है। गली के नुक्कड़ पर उपेक्षा से औंधे पड़े प्राचीन कड़ाह तिल तिल होकर जंग खा रहे हैं। वे धीरे धीरे मर जाएंगे पर मानव जाति उससे भी तीव्र गति से अपनी बर्बादी की योजना खुद बना रही है।

चर्खी: मूंज की जेवडी़ को चर्खी से बल लगाया जाता है फिर उस रस्सी से चारपाई बुनी जाती है। चरखी से बल देते समय एक आदमी चरखी को छोटी रस्सी से चलाता है और बटी जाने वाली रस्सी को दूसरी साइड से हाथ में पकड़ा जाता है ताकि पूरी रस्सी में बल विस्तार हो सके।

घर में एक कोने की ओट में कूरिया (अंडरग्राउंड भट्टिनुमा गोलाकार चूल्हा) चिकनी मिट्टी के गोबर से लीपकर बनाए जाते थे। कुरिया दो तरह के होते थे। एक मिट्टी के हांड को भट्टिनुमा चूल्हे पर सेट कर उसे मिट्टी-गोबर से लीप देते थे ताकि उसमें ताप हरदम बरक़रार रहे। इस भट्टिनुमा चूल्हे के मौखे से उसमें ईंधन के रूप में छाणा या थेपड़ियाँ डाल दी जाती थीं। रात को सोते समय इस कूरिये में आग का खीरा (ambers अंगारा ) डाल देते थे। धीरे-धीरे आग सुलग जाती, परवान चढ़ती, रात भर जलती रहती और उपर के मीट्टी के हांड में गाय-भैस के लिये बंटा/ बांटा (उबला हुआ ग्वार) पक जाता था। सामान्य कूरिया गोलाकार होता है और ऊपर से एकदम खुला। ऐसे कूरिये में हांडी रखकर उसमें खिचड़ी, खीर, लापसी, चावल या फिर थोड़ी मात्रा में 'बंटा' पकाया जाता था।

ओबरा/ ओबरी/ कुठला

'तब' गाँवों के प्रायः सभी घरों में घरेलू स्तर पर स्थानीय संसाधनों से अक़्सर औरतों द्वारा बनाया गया एक तरह का स्ट्रॉन्ग_रूम जरूर होता था, जिसे ओबरा/ ओबरी/ कोठा/ कोठी/ बुखारी कहा जाता था। बड़े आकार का ढांचा ओबरा और छोटे आकार का ओबरी कहलाता था।

ओबरा अनाज को सुरक्षित रखने और घी, गुड़-शक्कर आदि रखने की सबसे सुरक्षित और उपयुक्त जगह होती थी। अनाज के अलावा घर का जो छोटामोटा क़ीमती सामान, नक़दी और गहने आदि भी ओबरे में भरे बाजरे के बीच में कहीं छुपा कर रखे जाते थे। पूंजी के नाम पर घर में जो कुछ होता था, वो सब इसमें बाजरे के बीच किसी कोने में छुपाकर रखा जाता था। उस जमाने में घरों में पुख्ता संदूकों का प्रचलन नहीं था। रहवास के लिए झौंपड़े व खुड्डी होते थे उनके गेट भी कमजोर होते थे। गुजरे जमाने में गाँवों में स्ट्रांग रूम के रूप में ओबरे ही होते थे।

निर्माण-कला ओबरा निर्माण की सारी सामग्री घर-खेत-जोहड़े से जुटाई हुई होती थी। क्या चाहिए होता था? चिकनी मिट्टी, गोबर, मूँज के रेशे और साथ में कई दिनों की मेहनत और धीरज। पूरा ढांचा इकोफ्रेंडली होता था।

चिकनी काली मिट्टी और गोबर का गाढ़ा घोल बनाकर उसमें मूँज के रेशे मिलाए जाते थे। गाँवों में मूंज की पिंडी ( गड्डी roll ) बनाने में इस्तेमाल होने वाली मूंज को कूटने पर उसके जो रेशे टूट जाते थे उन्हें अलग कर लिया जाता था। इन रेशों को पुंजवाळ कहा जाता था। चिकनी मिट्टी व गोबर के गाढ़े घोल में पूंजवाळो को इसलिए मिलाया जाता था ताकि लोथड़े में मिट्टी की पकड़ मजबूत बनी रहे।

ओबरे का ढांचा तैयार करने के लिए पहले चार- पांच छोटे पाए(आधार स्तम्भ/ pillars ) खड़े किए जाते थे। इनके सूखने पर इनके ऊपर गोलाकार या आयताकार कच्ची छत डाल दी जाती थी और उसे काली मिट्टी और गोबर के लोथड़ों से बनाई गई दीवारों से आपस में जोड़ दिया जाता था। चारों ओर की दीवार बनाने के लिए भी चिकनी काली मिट्टी और गोबर का गाढ़ा घोल बनाकर उसमें मूँज के रेशे मिलाए जाते थे। फिर उन लोथड़ों को थाप कर उन्हें दिवारनुमा आकृति दी जाती थी। कई दिनों की मेहनत से आखिरकार ओबरे का निर्माण हो पाता था। महिलाओं की हस्तकला का ये एक नायाब नमूना हुआ करता था।

ओबरे को ऊपर से कूंचों के तिनकों से बने कूंपले (नुकिला टोपीनुमा छप्पर) से ढका जाता था। ओबरे के बीच में बनाई गई किंवाड़ी पर ताला लगाकर बंद रखा जाता था।

कोठलिया: बाजरा, मोठ, मूंग, ग्वार आदि खेतों में निपजै धान/ अनाज को चिकने मिट्टी के बने कोठलियों व ओबरियों में भरकर रखा जाता था, जिन्हें अंदर व बाहर से गोबर से लीप दिया जाता था। कोठलियों को धान से भरकर उसके ऊपरी भाग में आक व नीम की डालियां मय पत्तों के रख दी जाती थीं या फिर कुछ राख नीचे व ऊपर डाल दी जाती थी ताकि अनाज को कीड़े (इल्ली, खप्परिया, घुण आदि) के प्रकोप से बचाया जा सके। सारा उपचार इकोफ्रेंडली होता था। कोठलिये को ऊपर से प्याणिया (चिकनी मिट्टी के बने गोलाकार चपटे ढक्कन) से बंद कर गोबर से लीप दिया जाता था। कोठलिये के ऊपर कूँचे/ खींप के बने छतानुमा छप्पर को कूंपली कहते थे। कोठलियों के नीचे के भाग में एक मौखा (गोलाकार छेद) रखा जाता था जिसे स्याणा कहा जाता था। इसी मौखे से जरूरत के हिसाब से अनाज निकालकर उसे भी तत्काल मिट्टी-गोबर से लीप दिया जाता था।

घर में मिट्टी के बर्तनों की भरमार होती थीं। रोटी बनाने के लिए आटा गूंथने हेतु मिट्टी की परात, खिचड़ी, राबड़ी, खीर आदि पकाने के लिए हांडी, यहाँ तक कि सब्जी पकाने हेतु भी छोटी हांडी इस्तेमाल की जाती थी। पीतल के बर्तन ख़रीदने के हैसियत नहीं होती थी। सस्ते दाम पर एल्युमिनियम के बर्तन उपलब्ध होने के कारण सन 1965 के बाद गाँव के घरों में एल्युमिनियम के टोपिया, डेगची आदि का इस्तेमाल किया जाने लगा। स्टील के बर्तनों कीगांव में एंट्री 1980 के दशक में हुई। खाना खाने के लिए अक्सर कांसे की थाळी, कांसे का बाटका या कचोळा और पानी पीने के लिए पीतल या कांसे के लोटे का इस्तेमाल होता था।खान-पान के लिए थाली पर्याप्त थी। कटोरियों का इसमें कोई झमेला नहीं होता था। वैसे कटोरियाँ व गिलास बिरले घरों में ही होते थे। चूल्हे की राख से ही बर्तन मांजे जाते थे। साबुन-तेल का इस्तेमाल ख़ास मौक़ों पर ही होता था। बाल छाछ में नमक डालकर या मेट ( खड़िया या मुलतानी मिट्टी) के घोल से धोए जाते थे और बहुत मुलायम हो जाते थे। स्कूल जाने वाले बच्चे अपने बालों में घी लगाकर कंघी कर लेते थे। सब्जी में झोंक भी घी का लगाते थे। बाद में मीठा तेल (तिल का तेल) प्रयोग में लाया जाने लगा।

शौचालय उस समय गाँव में या घरों में नहीं हुआ करते थे। गांव में कोई निर्जन स्थान या गाँव के पास स्थित खेड़ों का इस्तेमाल खुले में शौच जाने के लिए किया जाता था, जिसे शिष्ट उक्ति (euphemism ) में जंगल जाना कहते थे। घर से लोटे में पानी भरकर ले जाते थे। शौच से निवृत होकर उसे रेत से माँजते थे और घर आकर साफ़ रेत से हाथों को रगड़कर धोते थे।

चिमनी की चमक

चिमनी

रात को रोशनी का प्रावधान कुछ विशेष परिस्थितियों में ही अनुमत था। इसके लिए केरोसिन तेल की चिमनी जलाई जाती थी। बहुत से घरों में जुगाड़ से घर पर हस्तनिर्मित होती थी। बस कहीं से एक छोटी शीशी कबाड़ लेते, उसके ढक्कन में सूए से छेद कर फटे कपड़े की लीर को बंट कर बाती बना लेते और इस तरह चिमनी तैयार। न हींग लगी, न फ़िटकरी और रंग भी चौखा चढ़ जाता था। दो-चार घरों में लालटेन होती थी, उनकी चर्चा-ए-आम होती थी। चिमनी की रोशनी में पढ़ने वाले बच्चों के नथुनों में कालिख़ जमा होना लाज़िम था, जिसका इज़हार सुबह नाक साफ करते समय हो जाता था। चिमनी को प्रज्ज्वलित करने के लिए चूल्हे में जल रही लकड़ी का सहारा लिया जाता था क्योंकि माचिस हर समय हर घर में सुलभ नहीं होती थी। चूल्हे या कूरिये (खिचड़ी व पशुओं के लिए गंवार का 'बंटा' पकाने हेतु एक क़िस्म का गोलाकार चूल्हा) में आग ओटकर 24 घण्टे सुरक्षित रखी जाती थी। कभी लापरवाही से बुझ जाती थी तो पड़ौसी के घर से कुड़छी में रखकर लाई जाती थी।

गुदड़ा निर्माण

एक कहावत प्रचलित थी, "गुदडे़ के पूर सूं मत खो देना," अर्थात किसी भी चीज को ऐसे 'बरतो' (इस्तेमाल करो) कि उसकी टूट-फूट होने के बाद भी उसका दूसरे रूप में समुचित उपयोग किया जा सके। पहनने के सूती कपड़े घिसकर तार-तार होने पर उनके अन्य उपयोग का रास्ता साफ होता था। इस्तेमाल कर किसी भी चीज को फेंकने की अय्याशी कोई नहीं करता था। फटने-घिसने के बाद जब कपड़े पहनने के क़ाबिल नहीं रह जाते थे तो उनका इस्तेमाल गुदडे़ बनाने में होना सामाजिक रूप से तय था।

औरतें "गुदड़े" बड़ी चतुराई से बनाती थीं। मर्दों की पुरानी पड़ चुकी धोती का इस्तेमाल गुदडे़ के कवर के रूप में किया जाता था। उसमें फटे-कटे कपड़ों की सलीक़े से परतें बनाकर गुदडे़उपरांथ बनाने की जुगत कर ली जाती थी। मोटी सुई में दोलड़ा या एकलड़ा गुदड़िया धागा (मोटा धागा) पिरोकर सिलाई का काम किया जाता था। सुई-धागे गाँव में फेरी लगाने वाले गिवांरिये या गिवांरणी (nomadic sellers) से अनाज के बदले प्राप्त किए जाते थे।

ज्यों ही औरतों के हाथ सुई-धागे से लैस होते, वे गुदडे़ के कवर के चारों तरफ आमने-सामने मुँह करके बैठ जाती थीं। फिर बस क्या था? ज़ुबान व्यस्त हो जाती थी तेरी-मेरी, आपबीती, परबीती, ससुराल-पीहर की बातों में और हाथ बड़ी तेजी से गुदड़े बनाकर ही दम लेते थे। किसी घर में स्पेयर माचा/ चारपाई व गुदडे़ सुलभ होना उस घर की समृद्धि परिचायक माना जाता था।

एक गुदड़े की उम्र आज के जमाने के स्लीपवैल या स्प्रिंग्वैल के दस हजार रुपये के गद्दे से कई गुना ज्यादा होती थी। अंतराल के बाद इन गुदडो़ं को कुएं पर ले जाकर पत्थर की चौकी पर रखकर पानी से धोया जाता था और फिर इन्हें धूप से तपती गोरी रेत पर बिछा दिया जाता था। सूखने पर धूल आसानी से छिटक जाती थी।

सिलाई का सारा काम हाथ से किया जाता था। गाँव में कुछ औरतें हाथ से सिलाई, बुनाई-कढ़ाई, कशीदाकारी में निपुण होती थीं, जिन्हें 'चतर' औरत कहा जाता था।सिलाई मशीन 1975 तक किसी घर में नहीं थीं और ना ही किसी महिला को मशीन चलानी आती थी। सन 1980 से गाँव में बदलाव की बयार होले-होले बहने लगी और घर की पहचान बनी हुई ये वस्तुएं घर से धीरे-धीरे ग़ायब होने लग गईं।

झौंपडे प्रचलन में क्यों?

झौंपडा

पुराने जमाने में आवास के ठौर पर लगभग सभी घरों में मौसमों की मार से बचने या सर छुपाने के लिए झौंपडा होता था। इसको बनाने में दमड़ी कुछ लगती नहीं थी। हाँ, मेहनत की लागत होती थी। लाचार लोग करते भी क्या? उनकी जेब दमड़ी से गर्म कभी होती ही नहीं थी।

झौंपडे का पाल (टहनियों की बनी दीवार) रोहिड़े की टहनियों को आपस में सलीक़े से सेट कर तैयार कर लिया जाता था। लगभग एक हाथ की ऊंचाई पर रोहिड़े, इरणा, आक व अलाय (खेत की सींव पर उगे दरख्तों ) की मजबूत तड़ियों को आपस में गूँथळों (खींप/सिणिया से गूँथ कर बनाए रस्से) से गूँथ कर बात्ती (बंधन/लपेटा) बांध दी जाती थी। गूँथले खींपों के तिनकों को बंटकर तैयार किए जाते थे। सारा कच्चा माल खेत व जोहड़ों से सुलभ हो जाता था। झोंपड़े की पाल ( बांठों को गूंथकर बनाई हुई दीवार) के उपरी भाग की मण्डाई( structure of covering ) के काम में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बांठ-झाड़ का इस्तेमाल किया जाता है। ढांचा तैयार करने में रोहिड़ा, देसी बबूल आदि की मजबूत टहनियाँ तथा बीच- बीच में आक, फोग की टहनियाँ एवं ऊपर के छावण( thatching ) में कूंचों के पुळों या खींप और सिणियों से किया जाता है। भीतरी ढांचे और ऊपर की छवाई के जोड़ों को मजबूती प्रदान करने के लिए इन पर मूंज की जेवड़ियों ( रस्सियों ) का जूण ( बंधन ) लगा दिया जाता है। झोंपड़े के भीतरी भाग की छत को सुन्दर रुप देने के लिए सरकण्डों का उपयोग किया जाता है। झौपड़े का फर्श परम्परागत रुप से कच्चा रखा जाता है और उसे गोबर से लीपा जाता है। जीरो-बज़ट के इस झोंपड़े के निर्माण में भरपूर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।

झौंपडा वृताकार होता है जिसका सामान्यतः वृत लगभग 12 फीट होता है। आकार जरूरत के हिसाब से कम-ज्यादा संभव है। बता दें, रेगिस्तान में आंधी और वायु की तीव्रता को झेलने के लिए झौंपडे की वृताकार बनावट उसे तेज आंधी में उड़ने से बचाव करती है। अतिवृष्टि व भूकंप की मार से इसके ढहने और जानमाल की हानि का कोई ख़तरा नहीं होता। एक प्रवेश-निकास के अलावा और कोई खुलावट इसमें नहीं होती। इसकी टॉप (छत) व पाल से पर्याप्त रोशनी व हवा आती रहती है।

झौंपडे की छत कोण के आकार की होती है। यह छत आकड़े, अरणी, फोग व आक की मजबूत टहनियों को गूँथले से बांधकर तैयार की जाती थी, जिसे कूंचों के पूळों से या फिर खींप से छाया जाता था। इसके छप्पर की मरम्मत व नवीनीकरण साल-दर-साल होता रहता था तथा पाल/दीवारों पर गोबर और चिकनी मिट्टी के मिश्रण का लेप होली-दिवाली से पहले किए जाने का रिवाज़ था।

झौंपडे की दीवार पर घरेलू सामान रखने के लिए चिकनी मिट्टी के आळे (open cupboard ) भी बनाए जाते थे। बाहर गोबर, मिट्टी, पत्थर का चबूतरा भी बनाया जाता था, जिस पर घर के सदस्य बैठे रहते थे। झौंपडों की छान(ढलवां छप्पर) का निर्माण करने वाले कारीगर की गाँव में ख़ूब पूछ होती थी। कुशल कारीगर की चर्चा दूसरे गाँव से आए मेहमान भी झौंपडा देखने के बाद करते थे। खेतों में बने झोंपड़े अक़्सर ऊंचाई वाले स्थान या धोरे पर स्थित होते हैं क्योंकि इनका स्थान तय करते समय खेतों की रखवाली को विशेष तौर से ध्यान में रखा जाता है।


'लाय' और गाँव

चूंकि गाँव में छप्पर से छाए गए कच्चे आवास होते थे और घर चारों ओर 'भींटकों' ( खेत में उगी बेर की कांटेदार झाड़ियों की टहनियों ) की बनी होती थी, अतः आग से सब कुछ तबाह होने का खतरा बना रहता था। इसलिए आंधी का अंदेशा होते ही चूल्हे लोहे की परात तथा कूरिये को 'दबणे' ( फूटे हुए घड़े के गलकंठ समेत ऊपरी हिस्से पर मिट्टी- गोबर का मोटा लेप कर बनाए गए ढक्कन ) से तत्काल ढक दिया जाता था। सभी को हिदायत रहती थी कि आग की चिंगारियां चूल्हे / कुरिये से बाहर भड़कनी नहीं चाहिए। जब कभी खाना पकाते या किसी की लापरवाही से कच्चे आवास में आग लग जाती थी तो जोर से हाका किया जाता था कि 'लाय' ( आग ) लग गई है। सुनते ही सारा गाँव- छोटे- बड़े सब- पानी और धूल से 'लाय' को बुझाने में लग जाता था। लगी 'लाय' को बुझाने में सहयोग देना ज़रूरी फ़र्ज़ माना जाता था। 'लाय' शब्द से गांववासी बहुत डरते थे। 'लाय लगाना' एक मुहावरे के रूप में भी प्रचलित था, जिसका मतलब होता है सब कुछ तबाह/ बर्बाद करना। एक कबूतर द्वारा चोंच में पानी भरकर आग में डालकर उसे बुझाने में सहयोग करने की कहानी और उसमें निहित सीख शायद ऐसी ही किसी घटना से उपजी है।


दही जमाने का ग्राम्य तरीका

दही जमाने का ग्राम्य तरीका

पैकेट वाली दही के जमाने में लोग क्या जानेंगे असली ग्राम्य दही कैसी होती थी. पुराने समय में जब दिसंबर की ठंड शुरू होती थी तब दही आसानी से नही जमती थी. फिर दादी और नानी एक बड़े बर्तन में दूध को उबलने के लिए विशेष बर्तन, जो मिट्टी का बना होता था, खास तौर पर मिट्टी का मटका और अब इसे एक कंडे (उपले) की भट्टी (कूर्या) पर रखा जाता था. कंडे की भट्टी की आंच एकदम धीमी होती और इस आंच को कम रखना भी अपने आप में एक कला होती थी जो तजुर्बे के साथ ही आती थी. किसी के पास कोई सेट फॉर्मूला नही होता था इसे सही से करने का. इसी आंच पर दूध सुबह से लेकर शाम तक पकता और पकते-पकते लाल हो जाता. शाम को भट्टी की गुनगुनाहट में इसमें दही का 'जामन' डाला जाता और इसे ऐसे ही छोड़ देते हैं पूरी रात. सुबह जो चीज निकल के आती है उसे बोलते हैं सजाव दही. आज का जनरेशन पैकेट वाले दूध और पैकेट वाले दही के आगे इसे नही जानेंगे. इनका दुर्भाग्य है कि इतने बेहतरीन स्वाद वाले खाने को इन्होंने कभी चखा नही जिसके स्वाद को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बताया नही जा सकता. अगर आपने कभी खाई है तो आप किस्मत वाले हैं कि आपने एक धरोहर को टेस्ट किया है.

पीने के पानी की व्यवस्था

एक पुराना कुवा

आज की पीढ़ी को बता दें कि गाँव मेघसर के मुख्य कूएँ पर 24 मार्च 1977 को बिजली का कनेक्शन लेने से पहले के वर्षों में वर्षात होने के बाद खेती का काम होने तक (लगभग माह जून से नवंबर तक) तक कुएँ का गाँव के सामूहिक स्तर पर परिचालन स्थगित रहता था। इस अवधि में गांववासी पानी गाँव के बाहर स्थित पक्के जोहड़ से कंधों पर ढोकर लाते थे। कारण था कि ऊंट को जोतकर कुएँ से पानी निकालने के काम में लगे लोग खेती की रुत (ऋतु) में खेती के काम में व्यस्त हो जाते थे। इसलिए उस अवधि में कुएँ का परिचालन स्थगित रहता था।

अक़्सर दिसंबर से जून तक कुएँ से ऊंट के ज़रिए पानी कैसे निकाला जाता था, ये जान लीजिए। इसके लिए मोटे चमड़े की ढोलनुमा आकृति वाले चड़स को लाव (सण से बने मोटे रस्से ) से जोड़कर भूण के ऊपर से उसे कूएँ में उंड़ेलकर, फिर उसे ऊंट से किली में जोतकर कूएँ से पानी निकाला जाता था। कूएँ की मुंडेर या ढाणा पर खड़ा रहकर इस श्रमसाध्य काम को अंजाम देने वाला व्यक्ति बारिया (पानी के चड़स का परिचालन करने वाला) कहलाता था। कीलिया या कीली हाँकने वाला व्यक्ति ऊंट का परिचालक करता था और जब सारण के अंत तक पहुँचता तब पानी से भरा चड़स कुए की ढाण के पास आता था। उस समय वह कीलिया लाव पर बैठकर मचोळा देता था। तब बारिया चड़स को पकड़कर अपनी तरफ खींचकर उसे ढाणे में पानी खाली कर लेता था। बारिया का काम काफी तकनीकी और खतरेवाला होता था। बारिया और कीलिया को मासिक मेहनताना अदा करने के लिए गांव में प्रति व्यक्ति व प्रति पशु के हिसाब से आँगा (यूनिट) तय कर हर घर से आँगा के हिसाब से धनराशि वसूल की जाती थी। सारण या गूण में आंधी से रेत और वर्षा का पानी भर जाने की स्थिति में कूएँ का परिचालन बंद हो जाता था। एक-दो महीने के अंतराल में कूएँ के गूण (ऊँट के चलने के लिए बनाई गई ढालदार गलीनुमा जगह) से जूल निकालने, पानी संचित करने के कोठे, जातीय आधार पर निर्धारित घड़ोईयों व पशुओं के पानी पीने के लिए नीचे बनी 'खेलों' व कुए के आसपास की समुचित साफ-सफाई गांववासी सामुहिक रूप से करते थे।

'आलपोस ( नया चड़स ) - कुएँ से पानी निकालने का पशुओं के चमड़े का चड़स जब फट जाता था तो कस्बे से आलपोस (नया चड़स) खरीदकर लाते थे। नया होने के कारण इस पर रोंए होते थे और रंग भी लालिमा लिए हुए होता था। इसे नरम करने और इस पर जो रोएं होते थे उनको हटाने के लिए इसे तेल से ख़ूब चोपड़ा जाता था। कुँए से पानी निकालने के लिए जब इस नए चड़स का इस्तेमाल शुरू किया जाता था तो शुरू के दो-तीन दिन पानी का रंग किंचित लाल रहता था और उस पर तेल व रोंए तैरते रहते थे। इस पानी का इस्तेमाल पशुओं के लिए तो होता था पर पीने के लिए ये पानी उपयुक्त नहीं होने के कारण पहले से ही गाँव में घोषणा करवा दी जाती थी कि अमुक दिन आलपोस होने वाला है। गांववासी अपने घरों में पानी का स्टॉक करने के लिए मिट्टी के कई घड़े रखते थे, इसलिए वे आगामी दो-तीन दिन के लिए पीने के पानी का पर्याप्त स्टॉक कर लेते थे। 'जल ही जीवन है', इस उक्ति का मर्म उस बीते दौर के लोग ही जानते थे।

कृषि कार्य

ऊँट के हल से जुताई

खेती की रुत (ऋतु): खेती की रुत जुलाई माह से प्रारंभ होती है। मई-जून के माह में बहुत गर्मी पड़ती है जो लोगों के लिए और पशु-पक्षियों के लिए बहुत कष्ट-दायक होती है। इस तपती गर्मी में किसान अपने खेत में पक्षियों के लिए तगरे (ऊपर से फूटे घड़े का नीचे का गोलाकार खुला भाग) में घर से पानी ले जाकर उसे भरकर आते थे। पक्षियों के प्रति उनके अगाध प्रेम का यह एक उदात्त उदाहरण है।

सूड़ काटना: 'मेह' (वर्षात) के महीने की दस्तक होने के साथ या कभी-कभी पहले ही मई के महीने में ही खेत को जुताई के लिए तैयार करने हेतु सुबह-शाम खेत में जाकर बोजा (अवांछित झाड़-झंखाड़) काटने का काम किया जाता था। इसे सूड़ काटना कहते थे। कूँचों को जला दिया जाता था जिससे वर्षा होने के बाद ये हरे निकलते थे। जब से जुताई ट्रैक्टर से होने लगी है तब से खेतों में पनपने वाले झाड़-झंखाड़ में अत्यधिक कमी हो गई है। इसलिए अब बहुत से खेतों में तो 'बोजा' काटने की जरूरत ही नहीं होती। खेत की 'फाड़' (जमीन को पोली करने के लिए की गई जुताई) भी कर ली जाती थी। ट्रेक्टर की जुताई से पर्यावरणीय हानि होने लगी है। जमीन की सतह पर उगे इन प्राकृतिक पौधों के स्थाई रूप से नष्ट होने का ख़तरा हो गया है।

हळसोतिया: 'मेह' (वर्षात) होते ही 'हळसोतिया' ( वर्षात के बाद खेत में बिजाई/ बुवाई का शुभारंभ = Inauguration of the sowing operation in the field after rains) के साथ ही जुताई करने की जुगत में सब लग जाते थे। ज्येष्ठ मास में ऋतु की प्रथम वर्षा अत्यन्त शुभ मानी जाती है। प्रथम वर्षा होते ही गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’ या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी होती थी। प्राचीन काल से यह परंपरा थी की वर्षात होने पर गण या कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे। गणराज्यों के काल में हलजोत्या की शुरुआत गणपति द्वारा किए जाने की व्यवस्था अति प्राचीन थी। ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर (हळसौतिया) स्वयं किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था।[1] राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण सर्वज्ञात हैं, क्योंकि सीता उनको हल जोतते समय उमरा (संस्कृत में सीता) में मिली थी इसीलिए नाम सीता पड़ा । बुद्ध के शासक पिता शुद्धोदन के पास काफी जमीन थी। शुद्धोदन तथा बुद्ध स्वयं हल जोता करते थे। बोद्ध काल में यह परंपरा वप्रमंगल उत्सव कहलाता था जिसके अंतर्गत धान बोने के प्रथम दिन हर शाक्य अपने हाथ से हल जोता करते थे।[2]

स्यावड़ माता को राजस्थान के किसान याद करने के पश्चात ही बाजरा बीजना प्रारंभ करते हैं। बैल के हल जोड़कर खेत के दक्षिण किनारे पर जाकर उत्तर की तरफ मुंह कर हळसोतिया कर प्रथम बीज डालने के साथ ही स्यावड़ माता को इस प्रकार याद किया जाता है:-

स्यावड़ माता सत करी

दाणा फाको भोत करी

बहण सुहासणी कॅ भाग को देई

चीड़ी कमेड़ी कॅ राग को देई

राही भाई को देई

ध्याणी जवाई को देई

घर आयो साधु भूखो नी जा

बामण दादो धाप कॅ खा

सूना डांगर खा धापै

चोर चकार लेज्या आपै

कारुं आगै साथ नॅ देई

मंगतां कॅ हाथ नॅ देई

कीड़ी मकोड़ी कै भेलै नॅ देई

राजाजी कै सहेलै नॅ देई

सुणजै माता शूरी

छतीस कौमां पूरी

फेर तेरी बखारी मैं उबरै

तो मेरै टाबरां नॅ भी देई

स्यावड़ माता गी दाता

अर्थात सभी संबंधियों, जानवरों, साधु, देवी-देवताओं, राहगीरों, ब्रामण, राजा, चोर-चकार, भिखारी आदि सभी 36 कोमों के लिये अनाज मांगता है और बचे अनाज से घरवाले काम चलाते हैं।

तेजा गीत: जुताई के समय किसान तेजा गीत गाते थे--'गाज्यौ-गाज्यौ जेठ'र आषाढ़ कँवर तेजा रॅ, लगतो ही गाज्यौ रॅ सावण-भादवो'.... तेजाजी के गीत सुरीली आवाज और मस्ती भरे अंदाज में गाये जाते थे। आजकल ट्रैक्टर से कुछ घण्टों में या फिर अधिकतम एक-दो दिन में खेतों की जुताई हो जाती है। ऊँटों से जुताई करने के उस दौर में दूर-दूर स्थित खेतों में जुताई में महीना-भर गुज़र जाता था।

निनाण (निराई-गुड़ाई)

निनाण: फ़सल 'उमरों' (furrow खाँचेदार हल-रेखा ) से बाहर आते ही निनाण (निराई-गुड़ाई) के काम में सारा परिवार लग जाता था। खेत में काम करने वालों के लिए घर से महिला खाना पकाकर छाक (रोटी-लगावण) लेकर आती थी।

सिट्टे चाबना बाज़रे के सिट्टे निकलने के बाद खेत में काम करने वाले दोपहर को कच्चे सिट्टे तोड़कर उन्हें आग में सेककर बाज़रे के डंठल का छोटा V-आकार का अंकुड़िया बनाकर सिट्टे से उसका मोरण (बाज़रे के सीके हुए दाने) निकालकर उसे चाव से चबाते और साथ में काकड़िया-मतीरा का ख़ूब चस्का लेते थे। उस महीने-दो महीने तन पर पणत (चमक) आ जाती थी। दिन छिपने पर जब खेतिहर लोग घर आते थे तो रास्तों के दोनों ओर पली-बढ़ी खींपों व सींव के पौधों में छुपी भिम्भरीभींग (gnats स्वर-लहरी बिखेरने वाला रात्रिचर कीट) की गुनगुनाहट उस वक्त पसरे सन्नाटे में सुहाना विघ्न डालती थी, जिसे सुनकर राहगीर मंत्रमुग्ध हो जाते थे। थकावट की कसक कुछ दूर हो जाती थी।

बाजरे के सीटे की पूंजळी

लावणी: फ़सल पकने पर 'लावणी' ( harvesting फसल की कटाई ) का काम दिवाली से पहले आसोज व कार्तिक मास में शुरू हो जाता था। बड़ा कष्टसाध्य काम होता था पर घर के सभी सदस्य मिलकर मनोयोग से उसे पार लगा लेते थे। जब कोई गांववासी लावणी के काम में पिछड़ जाता था तो हर घर से एक आदमी उसके खेत में जाकर लावणी करने में सहर्ष सहयोग देते थे। इस परिपाटी को ल्हास (collective harvesting सामुहिक लावणी) कहते थे। बाज़रे के सिट्टे तोड़ने वाले कमर पर डोवटी (मोटा सूती कपड़ा ) की झोली बांधकर उसमें सिट्टे इकट्ठे करते चलते और भरने पर एक जगह उड़ेल देते। फिर उन्हें 'खारी/ खारिया' में भरकर पूंजळी (सिट्टों के ऊंचे गोलाकार ढेर) लगाने के स्थान पर लाया जाता था। लाटा करना, पचासी देनी, मोठ व ग्वार उपाड़ कर जेट बनाना और उनको इकट्ठा कर उनकी ढूँगरी देना --ये सब काम घर के सदस्य मिलकर करते थे।

खळा: फिर उपक्रम होता था 'खळा' (winnowing धान को सिट्टों/ फलियों से बरसाकर उसे अलग करना )। पूंजळी को खळे (खेत की कुछ पक्की-सी जमीन ) पर छितराकर गाठा ( सिट्टे व फलियों के ढेर पर ऊँटों को घुमाकर उनके पैरों से उसे गाहने (कुचलवाकर दानों (grains ) को अलग करने की प्रक्रिया) में ऊँटों का सहारा लिया जाता था। ग्वार का 'खळा' सम्पन्न होने में कई बार होली आ जाती थी।

खळा निकालते समय भी स्यावड़ माता को याद किया जाता है। 'काँस' या 'डाभ' नामक घास की स्यावड़ बनाई जाती है। इसको कपड़े नहीं पहनाते हैं परंतु डाभ से बनी स्यावड़ माता के लोह की बसत बांधते हैं। इसको बाजरे के ढेर में रखते हैं। बरसाये हुये बाजरे की ढ़ेरी को 'रास' बोलते हैं। अन्न के ढेर को कपड़े से ढ़क देते हैं जिसका मूंह दक्षिण की तरफ रखते हैं। अन्न निकालने वाला उत्तर की तरफ मुँह रखता है। जब धान बोरों में भरते हैं तो जब तक पूरा धान नहीं भरा जाता सब मौन रहते हैं। एक जणा लगातार अन्न की ढ़ेरी को देखता रहता है। खळा सळटने के बाद स्यावड़ माता के नाम से अन्नदान किया जाता है। जब इस अनाज को घर ले जाते हैं तो पहले इस स्यावड़ माता को लेजाकर ओबरी में रखते हैं.

पाला: खेत में निपजै धान को घर पर ऊँटों से ढोने के बाद पाला (बेर की कंटीली झाड़ियां) काटते थे, सूखने पर उसे छाज से बरसाकर पत्तियां एवं बोरिया (बेर) अलग किए जाते थे। पाला/ पत्तियां पशुओं के पोष्टिक चारे के रूप में इस्तेमाल होती थीं। फोग की पत्तियों को सुखकर बनाये गए चारे को ल्हासू कहते हैं जो बहुत पौष्टिक चारा माना जाता है।

जांटी छांगना: खेत की जांटियों या खेजड़ियों की छंगाई (lopping) नवम्बर-दिसंबर में पतझड़ शुरू होने के पहले की जाती थीं। जांटी छंगारा पेड़ पर चढ़ कर कुल्हाड़ी से पतली डालियों को काटकर नीचे गिराता था और दूसरा व्यक्ति इनको एकत्र कर उनका मिरडा़ (ढेर) लगाता था। हर मोटी शाखा पर एक बिना छंगे हरी डाळी छोड़ी जाती है जिसको 'तुरंगिया' कहते हैं. यह पेड़ को बढ़ने में सहायता करता है. कुछ दिनों बाद पत्ते सूखने पर उनकी लूंग (जांटियों की पत्तियां) झड़का कर अलग की जाती थीं। ऊंट और पशुओं के लिए ये कीमती चारा होता था। लकड़ियां साल भर ईंधन के रूप में इस्तेमाल होती थीं। इस प्रक्रिया में न तो पर्यावरण को कोई हानि होती थी और न ही पशुओं के लिए चारा और मनुष्यों के लिए जलाऊ लकड़ी की कमी रहती थी।

खेती के किसी काम में मशीनरी का कहीं कोई उपयोग नहीं होता था। सब कुछ किसान अपने जिस्म की ताकत और हुनर से करता था।

पशु-धन

ग्रामीण राजस्थान में खेती के साथ पशुपालन करना किसानों का पारंपरिक काम रहा है। खेती और पशुपालन एक दूजे के पूरक माने जाते रहे हैं। बीते ज़माने में धन के नाम पर किसान के पास पशु होते थे, इसीलिए इसे पशु-धन कहा जाता था। किसान की आर्थिक समृद्धि उसके घर में मौजूद सेहतमंद पशुओं की संख्या के आधार पर तय होती थी। आमजन में इसकी चर्चा भी आमतौर से होती रहती थी।

मरुस्थलीय इलाक़े की विषम परिस्थितियों में जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाने में पशुपालन का ख़ास महत्व रहा है क्योंकि मानसून यहाँ मनमर्ज़ी का मालिक है। वर्षाभाव के कारण अक्सर कम उपज और उस दौर में औद्योगिक रोजगार के नगण्य अवसर के कारण गांववासी पशुपालन को अपनी जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा मानते थे। घर के सदस्यों का पशुओं के प्रति अगाध प्रेम और उनके प्रति भावनात्मक लगाव होता था। उनकी सार-संभाल परिवार के सदस्य के रूप में की जाती थी। जरूरत आन पड़ने पर पशु को बेचने या उसके मरने पर उससे बिछुड़ने के गम में घर के सदस्य-- छोटे-बड़े सब कई दिन ग़मगीन रहते थे।

गाँव के आदमी आपस में या कहीं किसी सगे- संबंधियों से मिलते या ठिकाणे (रिश्तेदारी) में कहीं जाते तो कुशल- क्षेम (राजी-ख़ुशी के समाचार) पूछकर झट से अगला सवाल ये हो होता:' धीणो क्यां को है?' किसान के घर धीणु (दुधारू पशु) के रूप में गाय-भैंस, भेड़-बकरियाँ और परिवहन के लिए कोई भैंत (ऊंट/ ऊंटनी/ बैल) होना जरूरी समझा जाता था। दुधारू पशुओं से दूध-दही, घी आदि सुलभ हो जाते थे और ऊंट/ ऊंटनी से परिवहन आसान हो जाता था। इसलिए उन दिनों लड़की के विवाह में दहेज़ में दुधारू पशु गाय-भैंस और टोरड़ा/ टोरड़ी दिए जाने का रिवाज़ था।

घर पर ऊंट/ ऊंटनी के बांधने के स्थान को झौक, गाय/भैंस के बांधने के स्थान को ठाण कहा जाता था। बकरियों व भेड़ों को एकत्रित कर उनकी बाड़ेबंदी करने की जगह को राड़ा (बाड़ा: fold), बकरियों के बच्चों को सुरक्षित रूप से बंद रखने के दड़बेनुमा कोठरी को बकराड़ियाकहा जाता था।

धीणु या धीणा: दुधारू पशु धीणा अर्थात गाय-भैंस जरूर होते थे। किसी के हाल-चाल पूछने पर ये सवाल जरूर पूछा जाता था,'घर में धीणो है कि नहीं?' माना भी यही जाता था कि 'बिना धीणो क्यां को जीणो'। सदियों के संचित पारंपरिक अनुभव-जनित ज्ञान (collective wisdom of ages or indigenous knowledge) से उपजी कैबत (कहावत) ये भी थी, 'धीणों धिराणी सेती; खेती धणयाँ सेती 'अर्थात घर में काम करने वाली मालकिन के बिना दुधारू पशु पालना और खेत में ख़ुद मालिक के काम करे बैग़ैर खेती संभव नहीं होती।

भैत: खेती के बोझिल काम को सुगम बनाने और परिवहन के वास्ते घर में 'भैत' (ऊंट/ ऊंटनी/ बैल) रखना जरूरी था। जैसे आजकल घरों में बाइक, कार, पिक- अप आदि देखने को मिलती हैं, ठीक उसी तरह उस दौर अक़्सर हर घर में ऊंट/बैल दिखाई देते थे।सांड (ऊँटनी) के ब्याने (प्रसव) होने के छः दिन बाद छठ की जाती थी। इस अवसर पर बाज़रे की रोटियों को चूर कर उसमें गुड़ मिलाकर चूरमे के पिंडियों बनाकर दावत/पार्टी दी जाती थी। चूंकि कई घरों में खेती के काम के लिए सांड रखी जाती थी, इसलिए सांड के प्रसव के बच्चे बेसब्री से इंतज़ार करते थे। कारण कि किसी सांड के प्रसव के छः दिन बाद छठ के आयोजन पर चूरमा खाने को मिलता था। उन दिनों की दावत या पार्टियां यही होती थीं। छठ के रस्म को नवजात टोरड़े (male baby of camel) या टोरड़ी (female baby of camel) का नामकरण संस्कार माना जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि किसान ऊंट/ ऊँटनी को अत्यंत सम्मान प्रदान करते थे।

'तब' किसान के जीवन में ऊँट के ख़ास अहमियत होने के कारण ऊँट के मालिक को इसकी चोरी का डर सैदव सताता रहता था। रात को ऊँट को न्यौळ (लोहे का भारी ताला) से बांधते थे और मालिक उसके पास ही चारपाई लगाकर पर सोता था। थोड़ी सी लापरवाही का फ़ायदा उठाकर कोई तीख = मनमुटाव/ ख़ूनस (animosity/envy) रखने वाला व्यक्ति तत्समय चोरी करने में कुख्यात जाति के किसी चोर से संपर्क साधकर ऊँट की चोरी करवा देता था। चोरी करवाने वाला इसे किसान की रड़क निकलवाना कहता था। चोरी करने से पहले चोर रैकी करता था। गाँव में किसी के घर चोरी हो जाने पर खोजा ( फुटप्रिंट्स देखकर राहगीर की निशानदेही करने वाला व्यक्ति) की सहायता लेकर चोर की पहचान करने की कोशिश की जाती थी। हर गाँव में एक-दो खोजा जरूर होते थे और उनकी ख़ूब पूछ रहती थी। उनकी नज़रें इतनी तीक्ष्ण होती थी कि वे गाँव के लगभग सभी लोगों के चलते समय उनके पाँवों की मरोड़ व चलने की स्टाइल की विशिष्टता को अपने दिमाग़ में फीड कर लेते थे। रेत पर चलते समय किसी की जूतियों के बने निशान को देखकर वह बता देने में सक्षम होता था कि ये फुटप्रिंट्स किस गांववासी के हैं।

ऊँट पर बैठने के आसनों के कई नाम थे, यथा डोल( दो सवारियों के बैठने के लिए चमड़े का बना आसन), पलाण (ऊँट पर सवारी हेतु लकड़ी का बना हुआ सामान्य आसन) व जीन = काठी/ ऊँट पर बैठने का चमड़े का गद्दी दार आसन (saddle) होता था।

ऊंट/ऊंटनी की जट (ऊंट के बाल) को चरख़े से घर पर कताई कर 'बुनकर' (कपड़ा बुनने वाली जाति के लोग) से उसका भाखला (ऊंट की जटा के रेशे व सूती धागे से बुना गया मोटा कपड़ा ) बनवाया जाता था, जो ओढ़ने व दरी के रूप में बिछाने के काम में लिया जाता था। इक सांसी जट (ऊँट/ ऊँटनी की पहली कतराई की जट) का भाखला नरम होता था। इसलिए ऐसे भाखले की मांग ख़ूब होती थी।

भेड़ों की 'ल्याणी (ऊँन) कतरने के दिन अलग ही नज़ारा नज़र आता था। भेड़ो को कुँए पर पशुओं के पानी की खेलों पर ले जाकर उनमें उनको नहलाया जाता था ताकि उनकी ऊँन नरम हो जाए। फिर खुले मैदान में ले जाकर कतराई करने में चतुर लोग उनकी कतराई करते थे। चूंकि ये ख़ास आयोजन होता था, इसलिए इस दिन रेवड़ के मालिक के घर सामुहिक भोज का आयोजन होता था। ऊँन के व्यापारी वहाँ से ऊँन की खरीद कर बड़े -बड़े बोरों में भरकर बीकानेर ले जाते थे। मरुस्थलीय इलाके के हर गांव में तीन-चार परिवार भेड़-पालन को एक व्यवसाय के रूप में अपनाते थे। इसीलिए ऊँन की सबसे बड़ी मंडी बीकानेर की मानी जाती थी। भेड़ों की नरम और गर्माहट कायम रखने वाली ऊँन के महत्व को ध्यान रखते हुए ही यह कहावत प्रचलित हुई कि 'भेड़ की ल्याणी कोई न छोड़े अर्थात सुखद या क़ीमती वस्तु को झपटने के लिए सब लालायित रहते हैं। निहितार्थ यह है कि जो कमज़ोर है, उनकी सुख-सुविधाएं ताकतवर छीन लेते हैं।

चारागाह/अड़ावा: लड़कपन में गाँव में हर किसी का ग्वाल (Shepherd) बनना तय था। गाँव के अक्सर चहुँ ओर सार्वजनिक उपयोग के लिए छोड़े गए जोहड़े या बणी में वर्षात के बाद घास लहलाते ही पशुओं को वहाँ ग्वाले की देखरेख में चराने भेजा जाता था। जिस गाँव में चारागाह के लिए जोहड़े की जमीन नहीं होती थी, वहाँ गाँव की सीमा के अंदर चारों दिशाओं में पशुओं के चराई के लिए कॉमन जमीन छोड़ी जाती थी। इस भूमि का उपयोग सर्वहित के लिए ही किया जाता था। इसमें व्यक्तिगत हित साधन करना वर्जित था।

खेतों में रोटेशन से बदल-बदल कर जिस हिस्से को बिना जुताई रखकर पशुओं के चराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उसे 'अड़ावा' = चारागाह (grazing land) कहा जाता है। दो-तीन साल बाद पहले के 'अड़ावे' की जुताई कर खेत के दूसरे हिस्से में अड़ावा' छोड़ने का रिवाज़ रहा है। 'अड़ावे' की जुताई करने पर उसमें कार्बनिक खाद की बहुतायत होने के कारण धान की पैदावार ज़्यादा होती है।

पशुपालन से जुड़ा वर्तमान संकट: गौरक्षा की आड़ में सन 2014 से सरकार द्वारा गाय-बछड़ों को खरीदकर उन्हें बाहर ले जाने पर थोपी गई क़िस्म-क़िस्म की पाबंदियों तथा गौपालन व पशुपालन से कभी कोई सरोकार नहीं रखने वाले स्वघोषित 'गौभक्तों' की चल रही सरकारी संरक्षण में गुंडागर्दी के कारण गौपालन पर विपरीत असर दृष्टिगोचर हो रहा है। पहले गाय बछड़े को जन्म देती थी तो किसान यह सोचकर खुश होता था कि इसे बेचने से कुछ आमदनी हो जाएगी। इसलिए ये कहा जाता था, 'जिंको भाग आछयो, बिंकी गाय ल्यावै बाच्छो।' अर्थात भाग्यशाली लोगों की गाय बछड़े को जन्म देती है।

परंतु देखते-देखते अब हालात कितने बदल चुके हैं? सरकारी पाबंदियों व छद्म गौभक्तों की गुंडागर्दी के कारण अब गाय व उनके बछड़ों का कोई खरीददार ही नहीं है। मजबूरन लोग गौवंश को इधर- उधर भटकने के लिए खुला छोड़ रहे हैं। नतीज़तन गौवंश रोजाना गांव-गली-सड़क पर लट्ठ खाते फिर रहा है और दुर्गति का शिकार हो रहा है। इस दौर से पहले बूढी या फिर गर्भधारण की क्षमता खो चुकी गाय को कटवां में बेचने से प्राप्त छोटी-मोटी आमदनी में कुछ और राशि जोड़कर किसान नई गाय खरीदने की जुगाड़ कर लेता था।

भेड़-बकरी पालन: भेड़-बकरियों के खासा महत्व को ध्यान में रखते हुए मरुस्थलीय इलाके में भेड़-बकरी पालन की परम्परा शुरू से रही है। वक़्त-बेवक़्त तात्कालिक जरूरत के हिसाब से कहीं भी, कभी भी बकरी का दूध दुहने की सुगमता के अलावा भी बकरी के अन्य कई फ़ायदे रहे हैं।

बकरी-भेड़ उसके पालक के हाथों का एक क़िस्म का एटीएम कार्ड रहा है। कैसे? ये भी जान लीजिए। हारी-बीमारी, बहन-बेटी के लिए बेस-गाबा/ 'तीवळ' (महिला परिधान), बच्चे की पढ़ाई की फीस,भात-छुछुक, जंवाई-जुंहारी आदि के लिए यकायक कैश की जरूरत आन पड़ने पर किसान अपने इस बकरी-भेड़ रूपी एटीएम कार्ड का इस्तेमाल करता है और तुरंत कुछ नगद राशि हासिल कर लेता है। तब हर गाँव में दो-तीन दिन में कोई न कोई बकरा-बकरी का खरीददार (अक़्सर कसाई) आता रहता था और नकद राशि का जरूरतमंद परिवार अपने पाले हुए बकरे-बकरी ख़ूब राड़ाजीगद(मोलभाव) कर उस खरीददार को बेच देता था तथा उससे कैश का जुगाड़ कर लेता था।

कुछ परिवार रेवड़ (flock सैंकड़ों की संख्या में भेडों का झुण्ड) रखते थे। खेतों में बुवाई हो जाने के बाद रेवड़ को बाहरी राज्यों व पहाड़ी इलाकों में चराई के लिए ले जाते थे। भेळवाड़ ( Stubblefield फ़सल कटाई के बाद फ़सल के डंठलों से पटा हुआ खेत) के बाद भेडों के 'रेवड़' को गाँव के खेतों में चराने के लिए लाते थे। भेडों व उरणियों (भेड़ के बच्चों) व भेडों की ऊँन बेचकर कमाई करते थे। हर गाँव में कुछ परिवारों द्वारा रेवड़ रखने के ही फलस्वरूप बीकानेर की ऊँन मंडी देश में विख्यात थी।

निःसंदेह ग्रामीण राजस्थान में पशुपालन को खेती-किसानी की रीढ़ माना जा सकता है। यहाँ की मानसूनी वर्षा आधारित खेती में कम उपज तथा अकाल की स्थिति में जीवन निर्वाह करने का एकमात्र ज़रिया पशु ही रहे हैं। दैनिक जीवन का प्रमुख अंग, जीविकोपार्जन का सहज उपलब्ध आधार, रोजगार का सहज साधन भी पशु ही रहे हैं।

खान-पान

अनाज: यहाँ अनाज के रूप में मुख्यरूप से बाजरा, मोठ और गंवार पैदा होते हैं. इनके साथ ही कम मात्र में चंवला, मूंग, और तिल की पैदावार होती है. इसलिये खान-पान में इन उपजों की बहुतायत रहती है.

बाज़रे की रोटी: घरों में खान-पान बेहद सादा था परन्तु था शुद्ध। ख़ुराक में शामिल थी बाजरे की रोटी, छाछ-राबड़ी व दूध-दही। बाजरा और मोठ मुख्य खाद्यान्न में शामिल था। प्राथमिकता बाज़रे की रहती थी। बाजरे की अनेक किस्म थी परन्तु सुलखनिया बाजरा जल्द बोई जाने वाली बाजरे की किस्म थी। यह शुष्क और अर्ध-शुष्क दोनों क्षेत्रों के लिए बेहतर थी। यह किस्म सूखा-सहिष्णु है और शुष्क मौसम का लंबे समय तक सामना कर सकती थी। इसमें सामान्य रूप से बोई जाने वाली अन्य क़िस्मों से अधिक पैदावार होती थी और यह स्वादिष्ट भी अधिक था। पिछले वर्षों में अधिकतर किसानों ने बाजरे की अन्य प्रजातियाँ बौनी शुरू करदी जिससे सुलखनिया बाजरा प्रजाति विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गई है।

मिसी रोटी: कम उपज के कारण साल भर के उपयोग के लिए बाजरा कम होता था तो उसमें मोठ मिलाकर मीसा खाद्यान्न के रूप में पीसकर रोटियां पकाई जाती थीं। उस जमाने में 'मिसी' रोटी घर पर बनना आर्थिक कमज़ोरी का द्योतक माना जाता था। हालात देखते-देखते कितने बदल गए हैं। अब 'मिसी' रोटी खाना शान का द्योतक है।

खिचड़ी: शाम के खाने में ज्यादातर घरों में मोठ-बाज़रे की खिचड़ी पकाई जाती थी। खिचड़ी पर घी और शक्कर डालकर खाया जाता था अथवा इसको कढ़ी के साथ भी खाते थे।

राबड़ी: सुबह अमूमन छाछ-राबड़ी-दही का कलेवा किया जाता था। राबड़ी मुख्य पेय था। राबड़ी भी कई क़िस्म की बनाई जाती थी, जैसे गर्मियों में ओळेड़ी राबड़ी या खाटे की राबड़ी (मोठ के आटे से किण्वन की विधि से तैयार), कूटेड़ी राबड़ी या कुट्टा राबड़ी (बाज़रे को ऊंखळी में कूट कर उसे छाछ में गर्म कर बनाई गई), छाछ की राबड़ी या सादा राबड़ी (बाज़रे के आटे को छाछ में गर्म कर बनाई गई)। घर पर आए मेहमान या राहगीर को कलेवे में छाछ-राबड़ी-दही और रात की बनी बासी रोटी परोसी जाती थी। लू के थपेड़ों में भी लोग इसको पी कर दोपहर में आराम से सोते थे। यह गरमी के मौसम में अधिक प्रयोग की जाती थी। किसी के बड़बोलेपन या अनुचित बात की खिल्ली उड़ाने के लिए कहा जाता है कि 'राबड़ी कैवे मनै ई दांता सूं खावो' अर्थात राबड़ी का कहना है कि मुझे भी दाँतों से खाओ।

आजकल राबड़ी पाँच सितारा होटलों मे भी उपलब्ध है और विदेशी पर्यटक बड़े चाव से राबड़ी का लुत्फ उठा रहे है। इस राबडी के साथ बाजरे की रोटी चूर कर खा सकते हैं या ठंडी राबडी में छाछ या दही और जीरा मिलाकर पी सकते हैं।

पकवान: होली-दीवाली के त्योहारों पर पकवान के नाम पर चावल पकाकर घी-शक्कर के साथ परोसा जाता था।त्योहार पर मिष्ठान के नाम पर पकवान देशी ही बनते थे। होली- दीवाली चावल का पकवान तय था तो संक्रांति पर अक्सर घी में या कभी-कभार तेल में तले चीला/ चीलड़े व गुलगुले, गणगौर पर बाज़रे के आटे के ढोकला बनाए जाने का रिवाज़ था। कतार पर या दूर की यात्रा पर जाना होता तो रास्ते में खाने के नाम पर कसार( आटे को भूनकर उसमें थोड़ा घी व शक्कर डला पकवान) व ख़ुरमे/ खुरमले बनाकर उसे कपड़े में बांध कर साथ में ले जाने के लिए दे दिए जाते थे।अपने-अपने कुल देवता को धोक लगाने की तिथि पर गुड़ डला मीठा बाजरा और बाजरे के आटे की खीर - ये पकवान बनता था। परमिट के जरिए जब गाँव में गेहूं की धमाकेदार एंट्री हुई तो इन अवसरों पर गेहूं के आटे की खीर और लापसी बनाई जाने लगी। हाँ, 1970 के दशक के शुरू में टूटे-फूटे चावलों की खीर बनाई जाने लगी पर चावल की बचत करने की जुगत में उसमें भी गेहूं का कुछ आटा मिला दिया जाता था।

चाय: चाय का कोई प्रचलन नहीं था। गाँव मे गुड़ की चाय का प्रचलन 1970 के बाद शुरू हुआ। कुछ वर्षों बाद चीनी का उपयोग होने लगा।

साग-सब्जी: अगस्त से अक्टूबर तक खेतों से उपलब्ध टिंडसी, लोया, ग्वार व मोठ की फलियां, काचरा या मटकाचर आदि की सब्जी का उपयोग भरपूर होता था। बीच-बीच में घर-खेत में निपजी तोरई व कोहले की सब्जी की बात कुछ निराली होती थी। दिवाली के बाद खेतों से सब्जी की आवक बंद हो जाने के बाद घरों में सब्जी कुछ दिनों के अंतराल से बनाई जाती थी और वो भी सूकेड़ी (सूखी सब्जी) जो घर पर खेती की सब्जी को सुखाकर तैयार किए गए जैसे सांगरी, गवार फली, काचरी, फोफलिया, खेलरिया, कैरिया, खिंपोळी, फोगला आदि। सूकेड़ी के अलावा मोठ-मूंग को दाल की दलकर घर पर बनाए गए पापड़, मंगोड़ी आदि की सब्जी भी बनाई जाती थी। कढ़ी-दाल भी बनाई जाती थी। मार्च-अप्रेल में खींपों से तोड़कर लाई गई खिंपोलियों की सब्जी शौक से बनाई जाती थी। मई-जून में जांटी से तोड़ी गई हरी सांगरी की सब्जी बनाई जाती थी। सांगरी को सुखाकर सालभर इसकी सूखी सब्जी भी बनाई जाती थी। उसी समय गर्मी में कैर भी आते थे जिनकी सब्जी बड़े चाव से खाई जाती थी। उस जमाने में जोहड़ों में बहुतायत में उपलब्ध 'फोग' के पौधों के मार्च के महीने में आए हुये फूल चूंट कर इकठ्ठा किए गए फोगला या फोगलिया का रायता अक्सर गर्मियों में बनाने का प्रचलन था। चूरू व बीकानेर जिलों में फोग की बहुतायत होने के कारण शेखावाटी के लोग नाक-भौं सिकोड़ते हुए इसे 'फोगलिया धरती' कहते थे। अब देखिए, बालू रेत को बांधे रखने वाले फोग यहाँ से विलुप्त हो गए हैं। खींप भी विलुप्ति के कगार पर है।

फल: यहाँ पर चौमासे में फलों के रूप में काकड़ी, मतीरा और बेर होते हैं. देश नै चालोजी ढोला मन भटके काकड़िया मतीरा खास्यां डट डटके. राजस्थान के लोग जो इस समय प्रदेश से बाहर रहते हैं उनको यह गाना जरूर याद आता है. गर्मी के मौसम में पके हुये कैर को फल के रूप में खाया जाता है जिसको ढालू बोलते हैं. खेजड़ी के गर्मी में फलियों के रूप में सांगरी आती हैं. हरी सांगरी की सब्जी बनती है और पकने पर उनको खोखा बोलते हैं जिनको फल के रूप में खाया जाता है.

ग्रामीण राजस्थान का 'तब' का लोक परिधान

'तब ऐसा था गाँव में रहन- सहन' की निरन्तरता में यादों की गलियों में घूमकर अब उस दौर के पहनावे पर दृष्टि केंद्रित करते हैं। युवा पीढ़ी पढ़ेगी तो जानेगी। प्रतियोगी परीक्षाओं में ग्रामीण संस्कृति से संबंधित प्रश्न भी पूछे जाते रहे हैं।

पहनावा

हर इलाक़े व जात-बिरादरी का पहनावा और रीति- रिवाज अलग-अलग देखने को मिलते हैं। पश्चिमी देशों में प्रचलित परिधान के यहाँ पैर जमने से पहले किसी व्यक्ति के पहनावे के प्रकार, रंग और पहनने का ढंग देख कर हम पहचाने जाते थे कि वह किस इलाक़े व जाति से ताल्लुक रखता है। बीते दिनों में पोशाकों का सीधा संबंध त्योहारों, परंपराओं और रीति-रिवाज़ों और इलाक़े के क्लाइमेट से भी था। शुष्क उष्ण कटिबंधीय इलाक़े में खुले और ढीले वस्त्र पहनने की परंपरा रही है। सहज और सरल पहनावा यहाँ की ख़ासियत रही है।

मैं यहाँ मेरे गाँव मेघसर (तहसील-जिला चूरू) व उसकी खेतिहर-मजदूर जातियों के पहनावे का शब्द-चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो बालकपन में मेरा खुद आँखन देखा है। वैसे आसपास के इलाक़ों के थळी-शेखावाटी के सभी गाँवों में रहवास करने वाली अधिकांश जातियों में ऐसा ही पहनावा था। पुरुषों व बच्चों का पहनावा तो सभी बिरादरियों में लगभग एक समान था।

पुरुष-पहनावा

1980 के दशक तक गाँव की सभी खेतिहर- मजदूर जातियों के पुरुष सफ़ेद मोटे सूती कपड़े की धोती( अधोवस्त्र ) बांधते थे और बदन पर डोवटी की बंडी ( मोटे कपड़े की सिली हुई बनियान जिसके आगे पेट के पास अंदर बड़ी जेब होती थी) पहनते थे। हाथ से सिलाई की गई ऐसी बाजूदार बनियान को बुगतरी कहते थे। उस दौर में कामगार लोगों के लिए जितना तन ढकने के लिए ज़रूरी होता था, बस उतना ही पहनावे में शुमार था। बड़े किफ़ायतशार थे। किफ़ायती (frugal) जीवन जीने की मजबूरी भी थी और उस दौर की परिस्थितियों के हिसाब से ज़रूरत भी। ठीकठाक कमीज़ या कुर्ता कम लोगों के पास ही होता था। विशेष अवसरों पर या कहीं मेहमान बनकर जाना होता था तभी उसे पहनते थे। कुटुंब में किसी के पास ढंग का सिला हुआ कुर्ता होता तो अन्य सदस्य भी उसे ब्याव-शादी के मौके पर मांगकर ले जाते और फिर उसे यथावत लौटा देते थे।

सर्दियों में बड़े-बुज़ुर्ग जो कोट पहनते थे वह ऊँट की जट से घर पर कताई किए गए महीन धागों व सूती धागों के ताने -बाने से बुनकर द्वारा बुने गए कपड़े से सिलवाया हुआ होता था। कुछ लोग जो 'देशी वूलन कोट' पहनते थे वह भेड़ की ऊँन से घर पर कताई किए गए धागों से बुनकर द्वारा बुने गए कपड़ेनुमा लोई का होता था। शादी में कानों में सोने का गुरदा या मुरकी' या लूंग (कानों में पहनने का आभूषण) पहनते थे। विवाह में ससुराल पक्ष की ओर से वर को ये गिफ़्ट के रूप में पहनाए जाने का रिवाज़ था।

सिर पर अंगोछा बांधते थे या फिर फीन्टा (साफा/पगड़ी) पहनते थे। फीन्टा/पगङी देखकर भौगोलिक भूभाग की पहचान भी हो जाती थी। अलग-अलग इलाके के लोगों की पगड़ी का रंग और उसे बांधने का स्टाइल भी अलग होता था। पगड़ी के रंग से जाति की पहचान हो जाती थी। 'थली-शेखावाटी' के गांवों में खेतिहर-मजदूर जातियों के पुरुष अक़्सर सफेद साफा/पगड़ी बांधते थे। अभिजात वर्ग के शहरवासी पुरुषों की पगड़ी का रंग और उसके बांधने की स्टाइल किसान वर्ग से अलग थी। एक वर्ग/ बिरादरी की पगड़ी की स्टाइल की नकल करना सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं था। कमर पर काली डोरी की तागड़ी बांधना पहनावे में आवश्यक रूप से शामिल था।

उस दौर में बनियान व अंडरवेअर पहनने का न तो रिवाज़ था और घर की तंगहाली भी इसकी इजाज़त नहीं देती थी। धोती-कमीज़ कहीं से फट जाती थीं तो उस पर तत्काल घर की औरतों से टांका (stitch) लगवा लिया जाता था। छेद हो जाने पर उस पर कारी(रफू darning/ mending) लगाई जाती थी। ऐसा इसलिए कि उनका इस कहावत में अटूट विश्वास था: "A stitch in time saves nine." अर्थात वक़्त रहते बिगड़ी बात/हालात को सुधार लिया जाए तो होने वाले बड़े नुकसान से बचा जा सकता है।

महिला-परिधान

राजस्थानी महिला के संपूर्ण आभूषण

विवाहित औरतों को ससुराल में बड़े-बुज़ुर्गों का कांण-कायदा रखते हुए घूँघट प्रथा का पालन करना ज़रूरी माना जाता था। गाँव में मुख्य रूप से कृषि कर्म से जुड़ी हिन्दू जातियों (ख़ासतौर से जाट व मेघवाल आदि) की औरतों के पहनावे में बंधेज बंधे पोमचे को लीलगर/रंगरेज़ द्वारा रंग कर बनाए गया ओढ़णा/ चालका व आंगी/कांचली (सूती रंगीन कपड़े के टुकड़ों से घर पर महिलाओं द्वारा हाथ से सिलाई किया गया वक्ष-स्थल पर पहनने का ब्रा नुमा अंग-वस्त्र ), और उस पर कुर्ती या दोलड़े कपड़े की अंगरखी तथा घाघरा शुमार था। अधेड़ उम्र की औरतें काठळिया लुगड़ा(मोटे कपड़े का ओढ़णा जिसे जाटा ओढ़णा भी कहते हैं) ओढ़ती थीं। किशोरावस्था में लड़कियां जो लुगड़ा ओढ़ती थीं, उसे धणकिया कहते थे। ज्यादातर महिलाएं घर-बार व लेन-देन के लिए जरूरी कपड़ों की ख़रीददारी पास के क़स्बे से गाँव में फेरी लगाने आने वाले खटीक (caste engaged in cloth vending फेरी लगाकर कपड़े बेचने वाली जाति) से करती थीं।

आंगी को सजावटी स्वरूप प्रदान करने के लिए उस पर बेलबूटे के रूप में लाख की बिंदियाँ लगाकर उन पर चमकीले पन्ने को काटकर उसकी छोटी- छोटी चिन्दियाँ बनाकर चिपका दी जाती थीं। इस तरह डिज़ाइनर आंगी घर पर तैयार।

ओढ़णा

नव विवाहिता औरतें पोमचाचुनड़ी ओढ़ती थीं। पीला पोमचा को बोचचाल की भाषा में पीला कहा जाता है। यह लाल किनारों के बीच बंधेज पर रंग पीले रंग से रंगाई वाला ओढ़णा होता है। यह जापा (बच्चे के जन्म) होने पर जच्चा (शिशु की मां) के लिए मातृ पक्ष/पीहर की और से गिफ़्ट के रूप में प्रसूता को ओढ़ाये जाने का रिवाज़ है। कूँआ पूजन के लिए शिशु की माँ पीला ओढ़कर जाती है। भात नूतण (निमंत्रण) जाते समय भी महिला पीला ओढ़कर जाती है। इस ओढ़णे में राजस्थानी संस्कृति के चित्र, फूलकारी व कसीदाकारी होती है।

औरतें ख़ुद की हस्तकला से ओढ़णे को डिज़ाइनर ओढ़णे का रूप दे देती थीं। कैसे? ये भी जान लीजिए।ओढ़णे के सिर वाले हिस्से व उसके पल्लों (sides) पर कोर-किनारी (गोटा) हाथों से जड़ती थीं। ओढ़णे के बीच में जगह-जगह कोर / गोटे के फूलों को महीन सुई में महीन धागा पिरोकर महीन धागे से जड़ती थीं। कुछ ओढ़णों पर गोटा व तारे डिज़ाइन में जड़ती थीं। तारा भांत की ओढ़णी भी औरतें ओढ़ना पसंद करती थीं। तीज के त्योहार पर लहरिया पहनने की ललक रहती थी।

हाथ से कढ़ाई-सिलाई-जड़ाई आदि काम औरतें खेती की रुत के बाद ठालप (free time) में करती थीं। पास-पड़ौस की औरतें समूह में बैठ जाती थीं, नज़रें टिकी होती थीं ओढ़णें पर की जाने वाले गोटे की जड़ाई पर या फिर घाघरे की कसीदाकारी पर। लेकिन ज़बान पर होती थीं मेरी-तेरी, आप बीती, पर बीती, घर-गाँव की बातें। नणद-भौजाई, पीहर-ससुराल के बारे में भी खूब चर्चा होती थी। कहा ये जा सकता है कि ये ही उनके लिए राष्ट्रीय और अन्तर्राष्टीय मुद्दे होते थे।

घाघरा

घाघरा नाम इसके घेरदार घेरे के कारण पड़ा है। 1980 के दशक में छींट (मिल में तैयार बेलबूटेदार रंगबिरंगा कपड़ा) के घाघरे फ़ैशन में आने से पहले घाघरे के दो मॉडल सर्वप्रिय थे। अधेड़ व उम्रदराज औरतें खारिया/खारा (करघे पर कताई किए नीले व लाल मोटे सूती धागों से बुनकर द्वारा बुने गए कपड़े से सिला गया बिना कली का घाघरा) पहनती थीं। इसके नीचे लावण की कढ़ाई करती थीं। खारिया घाघरा को कलात्मक स्वरूप प्रदान करने के लिए उस पर कमाल की कसीदाकारी कर उस पर कांच के अनेक गोलाकार टुकड़ों को रंगीन धागों से जड़ती थीं। ऐसे कांच जड़े व कसीदाकारी किए घाघरे को फ़िकरा घाघरा कहा जाता था। बड़ा झुंझा काम होता था ये। एक घाघरे पर सैकड़ों कांच जड़े होते थे। ये उनका डिज़ाइनर घाघरा होता था। यही उनका रत्न-जड़ित या हीरे-मोती जड़ा परिधान था। इन्हें पहनकर वे ख़ूब इठलाती थीं, मटकती थीं। फेरों के वक्त वधू पटोळी या पटोळिया घाघरा पहनती थी।

सर्दियों में औरतें धाबला (भेड़ की ऊँन से कताई कर उसे रंगवाकर बुनकर द्वारा बुने गए ऊनी कपड़े का घाघरा) पहनती थीं। उसके भी लावण की कढ़ाई की जाती थी। कसीदाकारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती थी। सर्दियों में घर-गुवाड़ी में खुले में काम करते समय ऐसा घाघरा औरतों को सर्दी से बचाने में सहायक होता था। इसलिए उस दौर की हर औरत की ख़्वाहिश रहती थी कि उसके लिए उसका पति सर्दियों में ऐसे घाघरे का इंतज़ाम करे। कई बार पति को ऐसा घाघरा अपनी पत्नी को सुलभ करवाने की जुगत बिठाते-बिठाते होली का त्योहार आ जाता था। शायद ऐसी ही किसी स्थिति में ये कहावत प्रचलित हुई थी: "होली फेर धाबलो, मार कसम के मुंड"। अर्थात सर्दी की रुत ख़त्म होने पर होली के बाद धाबळे घाघरे की भेंट का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। मारवाड़ में नवेली वधू को आगाह करते हुए एक कहावत कही जाती थी, "पीहर के भरोसे धाबलो मत बाल दिज्ये।" इसमें यह चेतावनी निहित है कि धाबला कीमती परिधान है, इसकी पूरी सार-संभाल करना। पहले वाला धाबला लापरवाही से आग से जल जाने पर पीहर पक्ष द्वारा आसानी से दूसरे धाबले की व्यवस्था करना मुश्किल हो जाएगा।

स्पष्ट है कि कहावतें हमारे लोकजीवन की सदियों से अनुभवजनित ज्ञान को समाहित किए हुए हैं। लोक के जीवन-दर्शन को समेटे हुए हैं।

भेड़ की ऊन की कताई कर उसके धागों को लाल रंग से रंगकर बुनकर द्वारा बुना गया लुंकार/ नुकार/ ऊँकार भी विवाहित बेटी को उसकी माँ गिफ्ट में देती थी। रंग इसका लाल पर चारों किनारे के रोंए काले रंग के होते थे। खालिश देशी ऊँन का होने के कारण के ख़ूब गर्म रहता था। ससुराल जाने वाली बेटी को उसकी माँ रंगबिरंगे कपड़े की हाथ से सिलाई कर तीन कूंट की डिज़ाइनर कोथळी (cloth bag कपड़े का बैग) बना कर देती थी जिसमें बेटी कपड़े वैगरह रखकर ससुराल जाती थी। बता दें कि 'तब' गाँव के घरों में लोहे की पेटी (संदूक) या अटैची ख़रीदने का न तो शौक था और न ही आर्थिक हैसियत।

गहने

विवाहित औरतें ससुराल द्वारा विवाह में प्रदत्त गहने पहनती थीं। इसमें सिर पर बोरला, टीका, शीशफूल, नाक में नथ, गले में हंसली, कंठी, गलपटिया, गलसरी, मेहल, मादलिया,कानों में बाली, झुमका, बाजू में टड्डे/ टडिया, बाजूबंद, कमर में तागड़ी/ करघनी, हाथों में चूड़ियाँ, हाथ की अंगुलियों में बींटी (अंगूठी) पैरों में टखनों से ऊपर मोटी कड़ी, छलकड़े, चौड़ी पाती, झांझण, पायजेब, पैर की अंगुलियों में बिछुड़ी आदि शामिल था। गले, कमर व नाक-कान में पहने जाने वाले गहने सोने के और बाजू व पैरों में पहनने के गहने चांदी के होते थे।

लड़कों का पहनावा

70 के दाशक के लगभग स्कूल जाने वाले लड़के बनियान व पट्टे (चौड़ी धारीदार सूती कपड़ा) का कच्छा पहनकर ख़ूब इतराते घूमते थे। स्कूल में अक्सर सूती कपड़े का कमीज़/बुशर्ट व सफ़ेद सूती कपड़े का पायजामा पहनकर जाते थे। ये ही गाँव के आम छात्र की स्कूल ड्रेस होती थी। उस दौर में खाकी कमीज़ और निकर पहनने वाले लड़के की मरोड़ व ठसक कुछ अलग ही होती थी।

टेरिलीन के धागों के वस्त्रों ने 1970 के दशक के अंत में गांवों में दस्तक देनी शुरू की। ड्रेस के नाम पर आम छात्र के पास एक जोड़ी बुशर्ट व पायजामा होता था उसकी धुलाई का दिन रविवार नियत था। इस ड्रेस की उम्र में इज़ाफ़ा करने की जुगत में घर पर आते ही उन्हें उतारकर घर पर पड़े फटे-टांका लगे हुए पुराने कपड़े पहन लेते थे।कहीं फट न जाए, इसलिए इस स्कूल ड्रेस को समुचित सावधानी से धोते थे। सूखने के बाद घर में आमतौर पर उपलब्ध समतल पेंदे के पीतल के लोटे में आग के अंगारे भरकर उससे उस ड्रेस की प्रेस करके अगले दिन प्रफुल्लित मुद्रा में स्कूल जाते थे। बदलते मौसम से निरपेक्ष रहते हुए सर्दी-गर्मी यही ड्रेस पहनी जाती थी। प्राइमरी स्कूल के बाद गाँव से पास के क़स्बे में पढ़ने जाने वाले बालक स्कूल से आते-जाते रास्ते में पायजामा उतारकर कंधे पर डालने और जुतिया हाथ में लेकर नंगे पांव चलने में कोई झिझक नहीं करते थे। चीजों का उपयोग अपरिहार्य परिस्थितियों में करना आदत में शुमार था।

सर्दी सहन करने की क्षमता उस दौर के बालकों में ख़ूब थी। सर्दी अवरोधक पर्याप्त कपड़े नसीब नहीं होने के बावजूद कभी भी कड़कड़ाती सर्दी में स्कूलों में कलक्टर पॉवर की छुट्टियाँ घोषित नहीं होती थीं। अखबारों के ज़रिए इसकी कोई मांग भी नहीं उठती थी। 'अब' सर्दी के बचाव के सारे कपड़े धारण करने की हैसियत हासिल हो जाने के बावजूद भी सर्दी का प्रकोप बढ़ते ही कलक्टर अंकल से स्कूलों में छुट्टियां घोषित करने की मांग मीडिया के माध्यम से जोरशोर से उठाई जाने लगती है।

'तब' गाँव के बिरले बालकों को ही स्कूल की पढ़ाई तक स्वेटर पहनने का सुख मिलता था। कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद ही कामचलाऊ पेंट पहनने का अवसर सुलभ होता था। तब तक तो पेंट पहनने वाले को देखकर नज़रें ललचाती थीं और ऐसे ख़ुशनसीब सहपाठी से रश्क़ होता रहता था।

बच्चों का पहनावा

छोटे बच्चें चार-पांच साल तक गर्मियों में नंग-धड़ंग, नंगे पैर गुवाड़-गली में धूम मचाते रहते थे। छोटे बच्चों के पहनावे में सूती कपड़े के झुगला/ चोलिया व टोपी व टॉपलिया शुमार थे। बच्चे के पिता की बुआ-बहिन भतीजे के लिए 'नेखलिया/ मेखलिया - टॉपलिया या झुगला-टोपी ( छोटे बच्चों की ड्रेस ) गिफ़्ट में देने का रिवाज़ रहा है। बदले में भौजाई उनको बेस (स्त्री परिधान) देती थी। सर्दियों में तीन से सात-आठ साल के बच्चे टोपला/टॉपलिया (ऊपर टोपी से जुड़ा हुआ दोलड़े सूती कपड़े का रेनकोट टाइप बॉडी कवर) पहनते थे। सर्दियों में सूती कपड़े या फलालेन (रोंएदार गर्म कपड़ा) का घर पर हाथों से सिलाई किया हुआ चोलिया (शर्ट ) होता था। बच्चों को सिर पर पहनाने के लिए कई रंगों के कपड़ों को एकजुट कर हाथों से सिली हुई रंगबिरंगी टोपी घर पर बनाई जाती थी। बच्चे के छुछक में ननिहाल की ओर से बच्चे के पैरों में पहनने के लिए चांदी का कड़िया या पैंजनिया गिफ़्ट किए जाने का रिवाज़ था। बच्चे- बच्चियों के कान जरूर छिदवाए जाते थे, जिसमें शुरू में नीम का तिनका फंसा कर रखा जाता था और बाद में उनमें चांदी की कुड़कली पहनाई जाती थीं। इस कुड़कली का नीचे का नुकीला छोर कई बार सोते समय गुदडे़ के कपड़े में उलझकर परेशान करता था। खैर, ये सब सहन करते थे क्योंकि बालपन का ये गहना था।

सर्दी से बचाव के लिए बड़े बच्चे चोटिया (ऊंट की जट/ भेड़ की ऊँन की कताई के धागे व सूती धागों के ताने-बाने से बुनकर द्वारा हस्तनिर्मित रेनकोट टाइप परिधान) पहनते थे। पुरुष भाखला (ऊँट की जट की कताई व सूती धागों के ताने- बाने से बुनकर द्वारा ओढ़ने के लिए बुना गया चादर नुमा वस्त्र) या भेड़ की ऊँन की कताई से बुना गया कम्बल या सूती खेसला (करघे पर कताई किए गए मोटे सूती धागों से बुनकर द्वारा बुनी गई चादर) ओढ़ते थे। अंगोछा, खेसला, लुकार आदि के छोरों पर लटकते रेशों का डिज़ाइनदार फ़लवा गूंथकर सुंदर झालर (frill) बना देते थे। स्पष्ट है कि जो कुछ उन्हें उपलब्ध था उसे वे कलात्मकता रूप देने की भरपूर चेष्टा करते थे।

फुटवियर

औरत-पुरुष अपने पैरों में मरे हुए पशुओं की खाल/ चमड़े से रैगर/ मोची द्वारा हस्तनिर्मित जूतियां पहनते थे। बच्चों के लिए फुटवियर के नाम पर चमड़े के जुतिया (छोटी जूती) होते थे। पुरुषों-औरतों के लिए जूतियाँ ही खेत-खलिहान व उबड़- खाबड़ रास्तों पर चलने का पुख़्ता फुटवियर था। जूतियों की ख़ूब सार-संभाल की जाती थी। खरीद कर लाते ही घर पर उन्हें नरम करने और उनका टिकाऊपन बढ़ाने के लिए उन पर तिल का तेल चोपड़ (लेपना) लिया जाता था। औरतों के बालों के गुच्छे को तेल में डुबोकर उनसे जूतियाँ चोपड़ने का काम बड़े चाव से किया जाता था। शुरू-शुरू में चमड़े की ये हस्तनिर्मित नई जूतियाँ पैरों को खूब काटती थीं। पैर छिल जाते थे पर नई जूतियां हासिल होने की खुशी में सब सहन कर लिया जाता था। जूतियों का जो हिस्सा कुछ कठोरपन की वजह से पैरों को काटता था, वहाँ कपड़े का छोटा टुकड़ा फंसा दिया जाता था। अंग्रेज़ी की एक कहावत याद आती है: "Only the wearer knows where the shoe pinches." मतलब यह है कि कष्ट सहने वाला ही भलीभांति जानता है कि कोई चीज़ कहाँ से व कैसे कष्ट पहुंचाती है। जिसने ख़ुद कोई कष्ट नहीं सहा, उसे दूसरों के कष्ट की कोई समझ नहीं होती। इस कहावत का हिंदी रूपांतर अक्सर यह किया जाता है:" जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई?"

जूतियां कहीं से मामूली सी फट जाती थीं तो उन्हें मोची से गंठवाया जाता था ताकि उन जूतियों की उम्र में इज़ाफ़ा हो जाए। अगर रास्ता कांटों से मुक्त होता और मौसम की चुभन कम होती तो जूतियां पैरों से उतारकर उभाणा (नंगे पैर) चलना 'तब' के लोगों की आदत में शुमार था। 1960 के दशक में टायर की चप्पलें चलन में आईं। लड़के इन्हें पहनने के लिए लालायित रहते थे। ज्यों -ज्यों लोग आरामपसंद होते चले, बाजार में रबड़ की चप्पलों की बाज़ार में धमक छा गईं और टायर से बनी चप्पलें चलन से बाहर हो गईं।

'अब' बदलाव की आंधी का असर हर तरफ़ साफ़ नज़र आ रहा है। पहनावे पर फ़ैशन हावी हो गया है। नई पीढ़ी शोरूम से ख़रीदे गए सिंथेटिक धागे से निर्मित रेडीमेड टाइट ड्रेस (बुशर्ट-पेंट) पहनना पसंद करती है। वैसे हर तबक़े में टी- शर्ट व जीन्स पहनने का क्रेज़ ख़ूब बढ़ा है। नई पीढ़ी की औरतें सलवार सूट, जीन्स, टी- शर्ट आदि पहनने लगी हैं। निःसंदेह, 'तब' और 'अब' के पहनावे में ख़ासा बदलाव आ चुका है। अब बाज़ार में पोशाक की क़ीमत और टिकाऊपन (durability) के बारे में नहीं पूछा जाता है। अब पूछ सिर्फ फ़ैशन और भड़किलेपन की होती है। 'काम में लो और फेंकों' के इस बाज़ारवाद व उपभोक्तावाद के दौर में दुकानों पर एक तख़्ती लटकी देखते हैं, जिस पर लिखा होता है: "फ़ैशन की दुनिया में टिकाऊपन की मांग नहीं करें।

उच्च मानवीय मूल्य

मिनखपणा, अपणायत और साझापन

गांववासियों के घर और दिल के दरवाज़े सबसे लिए खुले रहते थे। राहगीर, चाहे अनजान क्यों न हो, उसे रोटी-पानी की जरूर पूछते थे और खुद कम खाकर राही को भूखा नहीं जाने देते थे। खुद को चाहे राबड़ी पीकर या बचा-खुचा खाकर काम क्यों न चलाने पड़े पर घर आए मेहमानों की अपने बूते से बाहर आवभगत करते थे। घी से चुपड़ी रोटी और यथासंभव उस पर शक्कर/खाण्ड' घी से तर कर परोसते थे।

ग्राम्य जीवन में घरेलू व सामाजिक 'ठिंचों'( विवाह आदि उत्सवों ) के आयोजन में आपसी सहयोग व सद्भाव लाजवाब होता था। ऐसे आयोजन गांव की सामूहिक जिम्मेदारी थी और उसमें साझेपन का भाव बहुत मजबूत था। धन की बज़ाय पारिवारिक व सामाजिक एकता का दिखावा होता था। लेन- देन में इसकी पुख़्ता झलक मिलती थी।

गाँव में किसी भी घर में मौत- मैयत या हादसे के समय सारा गाँव दौड़ा चला आता था और दुख साझा करते थे। रोटी-पानी की व्यवस्था आस- पड़ोस के लोग स्वतःस्फूर्त करते थे। किसी परिवार विशेष का दुःख गाँव का दुःख समझा जाता था। सच्चे सौहार्द, सद्भाव, हमदर्दी की सच्ची परिभाषा ऐसे मौकों पर स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती थी।

गांव की पारंपरिक न्याय व्यवस्था में सामन्ती तत्व का पुट होने के बावजूद वह सामाजिक मूल्यों एवं नैतिकता पर आधारित थी। ख़ास बात ये थी कि गाँव/बस्ती को आम जन भगवान और मां के समकक्ष दर्जा देते थे क्योंकि वे मानते थे कि बस्ती में बसने से ही जीवन की सुरक्षा और विकास संभव हो पाता है। सब गांववासियों में -- जाति-धर्म से परे-- दादा- दादी, 'बड़ा-बड़िया' ( ताऊ-ताई ) काका-काकी, भाई-बहिन का रिश्ता मानते थे और इसी रिश्ते से उन्हें पुकारते थे तथा उसे हर हाल में निभाते थे।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे बुज़ुर्ग जेब से कंगाल जरूर थे पर अपणायत, आपसी हेत, सहयोग, पारिवारिक - सामाजिक सौहार्द के साथ- साथ मिनखपने में ख़ूब मालामाल थे।

मल्टीटास्किंग ग्रामीण महिलाएं

छोटी-सी उम्र से बुढ़ापे में निढ़ाल होने तक महिलाओं के कंधे विविध प्रकार के कार्यों के बोझ से दबे रहते थे। बिना किसी शिकवे-शिकायत वे चूल्हे-चौके, घर-गुवाड़ी, खेत-खलिहान, बच्चों की परवरिश और दुधारू पशुओं की देखभाल आदि से संबंधित बहुआयामी कार्यों को वे बख़ूबी अंजाम देती थीं।

रात को आसमान में तारों के उगने-छिपने व उनकी स्थिति के आधार पर रात के पहर को भांपने वाली उस पीढ़ी के औरतें अल सुबह जागकर पत्थर की हाथ-चक्की चलाकर रोटी बनाने के लिए हर दिन एक -दो घण्टे बाज़रे की पिसाई का काम करती थीं। खेती की रुत में जोहड़े से व बाकी अवधि में कुएँ पर 'बारिये' की आवाज़ सुनते ही पनघट से पानी के घड़े भरकर परिंडे की रौनक़ बढ़ाती थीं। सारे घर-आँगन की कूँचे के तिनकों से बनी 'भारी'( झाड़ू ) से तथा गुवाड़ी व पशुओं के 'ठाण' ( बांधने के स्थान ) से 'छाले' ( कूँचे के डोकों/मजबूत डंठलों से निर्मित इको- फ्रेंडली कंटेनर ) या लोहे की परात में गोबर उठाकर नियत स्थान पर डालती, 'ठाणों' व गुवाड़ी की साफ-सफाई 'भूंगरे' ( 'खरीन्टी' या रोहिड़े की टहनियों से बना मजबूत झाड़ू ) से करती। पशुओं को 'नीरती'( चारा डालती ), उन्हें पानी पिलाती, दुधारू पशुओं का दूध निकालती, बिलोवणा बिलोती, उसमें से 'चुंटिया' ( कच्चा घी ) निकालकर उसे नियत 'ठाँव' ( बर्तन) में रखती, बीच-बीच में बच्चों को बहलाती और उनकी परवरिश का काम करती, सबको कलेवा कराती, रोटी बनाती, घर के फुटकर काम करती, गोबर से 'थेपड़ियाँ' थापती, खेत में काम करने गए घरवालों के लिए सिर पर 'खरला' ( कूँचे के मोटे 'डोकों'/ डंठलों से बना आयताकार कन्टेनर ) में सलीक़े से रखकर 'छाक' (रोटी-लगावण ) लेकर जाती, गोद में अक़्सर बच्चा होता और आस-पड़ौस की औरतों के साथ बतियाती घर से लगभग तीन-चार किलोमीटर दूर स्थित खेतों में हर हाल में छाक लेकर 'छाकां' ( छाक के वक़्त अर्थात सुबह 9-10 बजे के लगभग ) पहुंच जाती। खेत में सबको खाना परोसती, छोटे बच्चों को दरख़्त की छाया में बिठाकर या सुलाकर ख़ुद खेती के काम में हाथ बंटाती, शाम को पशुओं के लिए 'जुचाबड़ी' ( पशुओं का घास ) 'उपाड़ती'/ खोदती, घर पर चूल्हे के ईंधन के लिए लकड़ियों के 'मिरडे़' ( लकड़ियों का ऊंचा ढेर ) से लकड़ी इकट्ठा करती, 'अड़ावे'( खेत में पशु चारागाह ) में से 'छाणे' ( गोबर के सूखे उपले ) चुगती/ इकट्ठे करती, फिर उन्हें 'खरले' में खाली बर्तनों के ऊपर रखकर थकी-हारी घर की ओर बढ़ चलती।

दिन छुपे घर आते ही पशुओं की सार- संभाल करना, दूध दुहना, उनके लिए गंडासे से 'कुत्तर'( बाज़रे के डंठलों को महीन- महीन रूप ) काटना, उन्हें नीरना, जोहड़े या कुएँ से पानी ढोकर लाना, शाम का खाना बनाना, सबको खाना परोसना आदि कामों में जुट जाती। सबके खाना खाने के बाद ख़ुद को अंत में बचा-खुचा खाना खाकर लेटने का मौका मिलता था। थकावट से निढ़ाल काया लेटते ही नींद के आगोश में समा जाती थी।

होली-दिवाली घर- आँगन को गोबर से लीपती, आवश्यकतानुसार कोठलियों का नवनिर्माण करती, दोपहर में चरख़े से ऊंट की जट या भेड़ों की ऊन की कताई करती, सिलाई का सारा काम हाथ से करती, 'आंगी' ( ब्रा ), घाघरा आदि घर के वस्त्र हाथ से सीलती, ओढ़नी पर 'कोर' व तारे जड़ती, खारिया घाघरे के 'लावण' ( embroidery कसीदाकारी ) करती--ऐसे कई तरह के काम करना औरतों की दिनचर्या में शामिल था।

बड़ा कष्टसाध्य जीवन जीती थीं उस दौर की गांव की औरतें। असली भारत माता की रूप तो वे औरतें थीं। वो नहीं जो सुंदर परिधान पहने, गहनों से लदी, सिर पर मुकुट पहने, हाथों में हथियार लिए खड़ी है।

मनोरंजन और खेलकूद

ग्राम्य खेलकूद

उस दौर में गाँव में बच्चों व नौजवानों द्वारा खेले जाने वाले सारे खेल गाँव में ईज़ाद किए हुए एवं स्थानीय संसाधनों से निर्मित खेल-सामग्री से खेले जाने वाले होते थे। बच्चे 'गट्ठे' ( पांच गोल कंकडों को उल्टी हथेली पर रखकर उन्हें हथेली में 'गूपने'/ कैच करने का खेल ) खेलना, ऊंट के मिंगणों से 'तुग्गा' ? खेलना, चरभर खेलना, फटे हुए कपड़े की 'गिंडी'/ बॉल बनाकर 'गेड़ियों' (खेत की लकड़ी से बनी स्टिक ) से गिंडी अर्थात होकीनुमा खेल खेलना, गिंडी से 'हरदडा़' खेलना, 'मारधड़ी' खेलना, 'गुत्था' खेलना, जमीन पर मामूली सा खड्डा खोदकर लकड़ी से गिल्लिडंडा खेलना, कुश्ती, कब्बडी, ऊंची कूद, लंबी कूद, दौड़, लुका-छिपी, पेड़ पर चढ़कर उनकी मजबूत डालों से झूलना, छूने वाले से बचने के लिए पेड़ की एक डाल से दूसरी डाल पर फुर्ती से चढ़ जाना, गूँथलों से झूला बनाकर उससे झूलना आदि-आदि खेल मनोरंजन के सबल साधन थे।

मनोरंजन

किसी के घर पर कुलदेवता/ देवी का 'जम्मा' ( जागरण ) लगाने, ऊँटों के देवता पाबूजी की फड़ बंचवाने आदि में गांववासी जोशोखरोश से रातभर मौजूद रहते थे। इकतारे और हारमोनियम पर भजनों की प्रस्तुति पर ख़ूब वाहवाही करते थे। भजनोपदेशक की ख़ूब पूछ होती थी।

रूखा-सूखा खाकर और दिन भर मेहनत करके होली से पहले गाँव के गुवाड़ में फागुन के महीने में चंग बजाते, हास्य की फुलझड़ियां बिखेरने के लिए 'सांग' (वेश धारण कर स्वाँग रचना) निकालते, कमाल की धमाल गाते, रोमांटिक लोकगीतों की झड़ी लगाते, गींदड़ खेलते और लोक कला का बेहतरीन प्रदर्शन करते थे। जाति-धर्म से परे हटकर सब इसमें भागीदारी निभाते। अब फागुन में उन बीते दिनों की सिर्फ रस्मअदायगी होती है। वो जोश, वो जुनून , वो रोचकता ग़ायब हो चुकी है।

गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है

चूल्हे पर बनती बाजरे की रोटी

गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है...!

जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है...!

बेचा है ईमान धरम तब, घर में शानो शौकत आई है...!

संतोष बेच तृष्णा खरीदी, देखो कितनी मंहगाई है...!

बीघा बेच स्कवायर फीट, खरीदा ये कैसी सौदाई है...?

संयुक्त परिवार के वट वृक्ष से, टूटी ये पीढ़ी मुरझाई है...!

रिश्तों में है भरी चालाकी, हर बात में दिखती चतुराई है!

कहीं गुम हो गई मिठास, जीवन से कड़वाहट सी भर आई है...!

रस्सी की बुनी खाट बेच दी, मैट्रेस ने वहां जगह बनाई है...!

अचार, मुरब्बे आज अधिकतर, शो केस में सजी दवाई है...!

माटी की सोंधी महक बेच के, रुम स्प्रे की खुशबू पाई है...!

मिट्टी का चुल्हा बेच दिया, आज गैस पे कम पकी खीर बनाई है...!

पहले पांच पैसे का लेमनजूस था, अब कैडबरी हमने पाई है...!

बेच दिया भोलापन अपना, फिर चतुराई पाई है...!

सैलून में अब बाल कट रहे, कहाँ घूमता घर- घर नाई है...!

कहाँ दोपहर में अम्मा के संग, गप्प मारने कोई आती चाची ताई है...!

मलाई बरफ के गोले बिक गये, तब कोक की बोतल आई है...!

मिट्टी के कितने घड़े बिक गये, अब फ्रीज़ में ठंडक आई है...!

खपरैल बेच फॉल्स सीलिंग खरीदा, जहां हमने अपनी नींद उड़ाई है...!

बरकत के कई दीये बुझा कर, रौशनी बल्बों में आई है...!

गोबर से लिपे फर्श बेच दिये, तब टाईल्स में चमक आई है...!

देहरी से गौ माता बेची, अब कुत्ते संग भी रात बिताई है...!

ब्लड प्रेशर, शुगर ने तो अब, हर घर में ली अंगड़ाई है...!

दादी नानी की कहानियां हुईं झूठी, वेब सीरीज ने जगह बनाई है...!

बहुत तनाव है जीवन में, ये कह के मम्मी ने भी दो पैग लगाई है...!

खोखले हुए हैं रिश्ते सारे, कम बची उनमें कोई सच्चाई है...!

चमक रहे हैं बदन सभी के, दिल पे जमी गहरी काई है...!

गाँव बेच कर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है...!

जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है...!

कीमत बड़ी चुकाई है , कीमत बड़ी चुकाई है...!!

गाँव की चौपाल

वैवाहिक परम्पराएं

विस्ताराधीन
  • सगाई - बच्चों की सगाई पुराने जमाने में छोटी उम्र में ही हो जाती थी. बड़े-बुजुर्ग ही सगाई तय कर देते थे. कभी-कभी तो जन्म से पहले ही सगाई सशर्त तय हो जाती थी.
  • भात नूतना - अपने बच्चों की शादी से पहले बहिन पीहर जाकर भाई को और अन्य परिजनों को शादी के लिए न्यौता देती है. पीहर पक्ष के लोग भात लेकर आते हैं जो प्राय: बारात के बराबर संख्या में होते हैं.
  • मुगदणा
  • बान बैठाना
  • पीठी लगाना
  • बनोरी
  • रातिजका
  • मेहन्दी लगाना
  • खीचड़ी
  • मेळ
  • मांडा रोपना
  • चाक पूजा
  • सेळा
  • तोरण मारना
  • हथलेवा
  • गंजोडा
  • फेरा
  • कन्या दान
  • बान
  • थापा लगाना
  • कंवर कलेवा
  • समटुणी
  • झूंआरी
  • कांकड़ डोरड़ा
  • द्वार रुकाई
  • गृह प्रवेश
  • चँदवा ताणना
  • मूह दिखाई
  • मेल - शादी के अगले दिन दुल्हा दुल्हन के बीच की शरम या झिजक को खोलने के लिये उनके बीच कुछ खेळ करवाये जाते है! उनमे परमुख है सुटकी खेलना इस खेल के लिये ज़ाल के पेड की लकडी ले कर एक दूसरे को सात सात सुटकी मारते है!
  • पेसगारा
  • मुकलावा
  • सिंझारा
  • आंखड़ली गीत
  • बधावा गीत
  • जाखड़ी गीत

ग्रामीण अर्थव्यवस्था

विस्ताराधीन

स्वावलंबन

गाँव में रोकड़ की किल्लत और बाज़ार के प्रति अरुचि के कारण घरेलू जरूरत की अधिकांश चीजें खेत-जोहड़ों से जुटाई जाती थीं, या फिर यहां-वहां से कच्चा माल हासिल कर हस्तनिर्मित होती थीं। अनाज के बदले कुछ जरूरी चीजें खरीदी जाती थीं।

बाज़ार से पर्याप्त दूरी बनाकर रखे जाने की मजबूरी भी थी तो इसमें समझदारी भी थी। जानते थे कि कुछ खरीदने का मतलब लुटना है। अनपढ़ होने के कारण बाज़ार उनके भोलेपन का भरपूर फ़ायदा उठाता था। साल में दो-चार बार विशेष अवसरों पर ही पास के शहर के बाज़ार का रुख मजबूरी में किया जाता था।

घर पर बैठने-सोने के लिए आमतौर पर खेत के रोहिड़े या जांटी की लकड़ी के गाँव के खाती से बनवाए गए माचे (चारपाई) का इस्तेमाल होता था। ये माचे अक्सर मूँज के बुने हुए होते थे। बाद में घर पर ढेरे पर कताई की गई सूत की डोरियों से बुने जाने लगे। कुछ घरों में इक्का-दुक्का डहला (ऊंचा माचा) होता था, जिसके नीचे घर-खेती का सामान पड़ा रहता था। घर में सीमित संख्या में साधारण माचे (खाट) होते थे और उन पर बिछाने के लिए घर में हस्तनिर्मित गुदड़े-गुदड़ी होते थे। दो-तीन मेहमान आने पर आस- पड़ोस से माचे व गुदड़ों की व्यवस्था करनी पड़ती थी। गाँव के कुछ घरों में खासतौर पर मेहमानों के लिए सोड़िया (गद्दा) और रजाई का प्रचलन सन 1970 के बाद के वर्षों में शुरू हुआ।

चीजों का हर संभव सदुपयोग

वर्तमान में प्रचलित 'काम में लो और फेंकों' की प्रवृत्ति से उस दौर के लोग कोसों दूर थे। नवाचार ( innovation ) करने में माहिर थे। उनके नवाचारों/ जुगाड़ को देखकर यह कहावत याद आती है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। किसी चीज़ का ख़ास मक़सद के लिए उपभोग करने के बाद उसके आवरण/ खोल का भी भरपूर उपयोग करना वो बख़ूबी जानते थे। इस बात का मर्म समझने के लिए एक मिसाल पेश है। नारियल को किसी देवता के नाम चढ़ाने के बाद उसके कठोर खोल को सलीक़े से काटकर उसे अंडाकार आकृति में द्विभाजित कर लेते थे और फिर उसका इस्तेमाल टोकसी ( दही/ छाछ की हांडी से दही/ छाछ को परोसने की इकोफ्रेंडली कटोरी ) के रूप में करते थे। उसे देखकर यही कहने को जी चाहता था कि 'हींग लगी ना फ़िटकरी, रंग भी आया चोखा'। हर चीज़ का अधिकतम उपयोग करने के तरीक़े वो बख़ूबी जानते थे। रात- दिन इस्तेमाल से घिसने से जब घड़े के पेंदे में कोई सुराख हो जाता था तो लाख( sealing-wax ) या सीमेंट-गुड़ का लेप कर उस सुराख़ को बंद कर उस घड़े को फिर इस्तेमाल के क़ाबिल बना लेते थे। ऐसे कई इनोवेटिव आइडियाज को वो कार्यरूप में परिणित करते रहते थे।

कूँचे के तिनकों को मोगरी से कूटकर उसे रेशों में तब्दील कर मूँज की रस्सी बंटी जाती थी जिसको समेटकर पिंडी बनाई जाती। इस रस्सी का उपयोग खाट बनाने में और कच्चे झोंपड़ा-छान आदि के निर्माण में किया जाता था।

अकूळा: आकड़े की सूखी टहनियों के ऊपर से अकूळा (सूतिया रेशे) को उतारकर उसे कूटकर उससे पतली रस्सी और मोटे रस्से बंट लिए जाते थे। यह मूँज की रस्सी से नरम होता है। इसकी पतली रस्सी का उपयोग पशुओं को बांधने, छींकी बनाने, दावणा बनाने आदि में किया जाता था। मोटे रस्से की लाव बनाई जाती थी जिसका उपयोग कुएं से पानी निकालने में किया जाता था।

गोल बर्तनों व हांडियों को टिकाने के लिए खींप को गूँथ कर बनाई गए गूँथळों से अलग-अलग आकार की हारी का इस्तेमाल होता था। डेगचियों, घड़ों व हांडियों को अंदर से साफ करने के लिए जुचाबडी (वर्षा के बाद खेतों में उगने वाला एक क़िस्म का घास) के सूखकर कठोर बनी जड़ों को एक साथ बांधकर तैयार की गई उगसणी को काम में लिया जाता था। दूध या खिचड़ी की हांडी में नीचे पैन्दे पर चिपकी खुरचन को लोहे के बने खुरचणे से रगड़ कर उतारा जाता था।

झाड़ू के अनेक नाम थे यथा- 'भारी', 'बुहारी' 'भूंगरा' आदि जो सब खेत में उगे पौधों से घर पर ही निर्मित किए जाते थे। मूँज की पानी की बुहारी बनाई जाती थी। भूंगरा रोहीडा की कच्ची डालियों से, खींप अथवा खरीण्टी से बनाया जाता था।

खेत से या दूर-दराज से अनाज या चारा ढोकर लाने के लिए बकरियों के बालों की ढेरे पर कताई कर बनवाया गया बड़ा मजबूत बोरा होता था, जिसे छाट्टी कहते थे। छाट्टी का उपयोग अनाज ढोने में किया जाता था। पशुओं के लिए चारा, जिसे फूस कहते थे, लाने के लिए सलिता का उपयोग किया जाता था। ज्यादा मात्रा में चारे के परिवहन के लिए ऊँट-गाड़ी पर जाळ का प्रयोग किया जाता था।

अकाल में अनाज की किल्लत को दूर करने के लिए ख़ास तौर से किसान गाँव से समूह में अपने ऊँटों को लेकर ढिगावा मंडी (हरियाणा), अबोहर, फाजिल्का आदि कस्बों में जाते और वहाँ से बाजरा खरीद कर उसे छाट्टियों में भरकर ऊँट पर लादकर लाते थे। उन्हें कतारिया कहा जाता था। भूखे-प्यासे, रास्ते में ऊँटों की चराई का जुगाड़ करने, पुलिसिया धौंस से बचने की जुगत करने को मज़बूर। खूब कष्ट सहने होते थे और कभी-कभी जानलेवा हादसा भी घटित हो जाता था। गाँव के बुज़ुर्ग कहते हैं कि गाँव के श्री बुधराम रणवां की जान ऐसे ही एक कतार के दौरान सर्पदंश से चली गई थी।

सर्दियों में ओढ़ने के लिए घर पर चरख़े से कताई की गई ऊंट की जट से बुनकरों द्वारा बुना हुआ भाकला, बच्चों का चोटिया आदि का प्रयोग किया जाता था। भेड़ों की ऊन की कताई कर उससे पुरुषों के लिए कंबल और स्त्रियों के लिए लूंकार और धाबळा बनाया जाता। फटे-कटे कपड़ों की कई परतों से सिलाई कर बनाई गई उपरांथ शर्दी में ओढ़ने के काम ली जाती थी। शर्दी ज्यादा होने पर उपरांत के अंदर खेसला की मूसेड़ लगाई जाती थी। खेसला सूत कातकर बनाया जाता था। इन घरेलू उपयोग की बहुतेरी चीजें सभी जातियों को घरेलू स्तर पर समता के भाव से जोड़ती थीं।

जल की एक-एक बूंद और भोजन के एक-एक कण की क़ीमत को हमारे बुज़ुर्ग बख़ूबी समझते थे क्योंकि उसे कमाने/ अर्जित करने के लिए उन्हें अपना पसीना बहाना पड़ता था। घर का पानी घर की गुवाड़ी द्वारा ही सोख लिया जाता था। वर्षात के अलावा पानी घर की सीमा को लांघकर आम रास्ते में बह कर कभी नहीं आता था। थाली में परोसे गए भोजन को अंगुली की मोड़ का सहारा लेकर उसके अंतिम कण तक को पेट के हवाले करना उनकी आदत में शुमार था। किसी भी वस्तु की बर्बादी को पाप माना जाता था। हर चीज का पूर्ण सदुपयोग उसके जीर्ण-शीर्ण होने तक किसी न किसी रूप में इस्तेमाल करते हुए किया जाता था।

इन सब कामों में पारस्परिक सहयोग व तालमेल की दरकार होती थी। 'तूं तेरे, मैं मेरे' वाली नीति पर चलना मुमकिन नहीं होता था। अन्योन्याश्रित (interdependent) जीवन की कड़ी से आपस में सब बंधे हुए थे।

ग्राम्य अर्थव्यवस्था के बदलते स्वरूप

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पर्यावरण और ग्रामीण लोक संस्कृति

ग्रामीण लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी है और इसमें मानव की भूमिका प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक के रूप में मानी गई है तथा पर्यावरण के साथ उत्तम सामंजस्य रखने की सीख दी गई है। इसमें पेड़ों की पूजा करने से लेकर धरती व नदियों को मां के पवित्र सम्बोधन से नवाजने का संस्कार भी है। हमारी ग्रामीण लोक संस्कृति के सभी घटकों में प्रकृति और पर्यावरण के प्रति प्रेम और श्रद्धा का भाव झलकता है। विस्तृत लेख यहाँ पढ़ें - पर्यावरण और ग्रामीण लोक संस्कृति

सामान्य बातें

  • वैसे ये किस्सा अकेले मेरे गाँव का नहीं बल्कि हर गाँव-ढाणी का है। बानगी के तौर पर पेश ख़ास में आम की छवि दिख जाती है। वस्तुतः ये स्थितियां 1980 तक आमतौर से राजस्थान के हर गाँव में किसी न किसी रूप में विद्यमान थीं। पश्चिमी राजस्थान में तो ये हालात इस सदी के अंत तक बरक़रार थे।
  • बीते ज़माने के ग्रामीण जीवन को स्मृति में तरोताज़ा करने एवं युवा पीढ़ी को उस ज़माने से रूबरू करवाने के लिए कुछ फ़ोटो ऐड कर रहा हूँ। ये सब इधर-उधर से कबाड़ी हुई हैं। सभी फ़ोटो खीँचकों के प्रति आभार। ये फ़ोटो हमें गुज़रे ज़माने की हक़ीक़त से रूबरू करवाती हैं। वक़्त का हसीन सितम झेलते हुए अब ये सब फ़ोटो के रूप में किताबों में कैद होने की कगार पर हैं।
  • शब्दांकन में जरूर कुछ कमियां रही हैं। राजस्थानी के शब्दों को लिखने में अशुद्धियां हुई हैं। कुछ बातें विस्मृत भी हुई हैं। विवरण में सुधार की गुंजाइश है। अतः आवश्यक संशोधन सुझाने की आपसे गुज़ारिश है।
  • 19 अक्टूबर 2019 को शाम 4. 35 जब मैंने मेरी फ़ेसबुक वॉल पर बीते दिनों के रहन- सहन पर लिखे इस आलेख के कुछ हिस्से पोस्ट किए थे, तब से यह पोस्ट ताबड़तोड़ शेयर की जा रही है। इसे अप्रत्याशित सराहना मिल रही है। सभी का शुक्रिया!!
  • हैरानी की बात है कि अनगिनत लोगों ने इस पोस्ट को मेरी फ़ेसबुक वॉल से और कुछ व्हाट्सएप ग्रुप्स से कॉपी कर मेरा नाम डिलीट कर ख़ुद के नाम से सोशल मीडिया पर इसे ख़ूब ठेला है। 'शिष्टाचार' निभाने वाले ऐसे सज्जनों को भी प्रणाम।
✍️✍️ हनुमाना राम ईसराण
H R Isran
रिटायर्ड प्रिंसीपल, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

यह भी देखें

ग्रामीण राजस्थान की विविध चित्र-गैलरी

बाहरी कड़ियाँ

संदर्भ

  1. श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ): लेखक - संत श्री कान्हाराम, मो: 9460360907, प्रकाशक: श्री वीर तेजाजी शोध संस्थान सुरसुरा, अजमेर, 2015, pp.37, 211-217
  2. आनंद श्रीकृष्ण:भगवान बुद्ध, समृद्ध भारत प्रकाशन, मुंबई, अक्टूबर 2005, ISBN 80-88340-02-2, p. 2-3