Veerbhoomi Haryana/हरयाणा के प्राचीन नाम व स्थान

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हरयाणा इतिहास ग्रन्थमाला का प्रथम मणि


वीरभूमि हरयाणा

(नाम और सीमा)


लेखक

श्री आचार्य भगवान् देव


हरयाणा के प्राचीन नाम व स्थान

हरयाणा प्रान्त के प्राचीन नाम यौधेयों का बहुधान्यक, मयूरभूमि, ब्रह्मर्षि देश, कुरु प्रदेश, कुरु-जांगल, मध्यदेश, ब्रह्मावर्त थे, और 'आर्यावर्त' का यह प्रान्त एक भाग माना जाता है । जैसा कि निम्नलिखित शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध होता है । प्रथम आर्यावर्त के विषय में मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में इस प्रकार है -

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तर गिर्योरार्थावर्तं विदुर्बुधाः ॥
मनु० अ० श्लोक-२२

उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र है । इस देश का वा इस भूमि का नाम आर्यावर्त है, क्योंकि आदि सृष्टि से इसमें आर्य लोग निवास करते रहे हैं, परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक (सिन्धु) और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है । इन चारों के बीच में जितना देश है उसको आर्यावर्त कहते हैं और जो इसमें सदा से रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं । कुछ विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-112


आर्यावर्त का दूसरा नाम ब्रह्मवर्त भी है । इसकी सीमा के विषय में मनु जी महाराज ने लिखा है -

सरस्वती दृषद्वत्योर्देव नद्योर्यदन्तरम् ।
तं देव निर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते ॥
मनु० २।१७॥

अर्थात् सरस्वती पश्चिम में, अटक नदी पूर्व में, दृषद्वती जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़ से निकलकर बंगाल और आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम की ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्रा नदी कहते हैं । और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल कर दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आ मिली है । हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के अन्तर्गत रामेश्वर पर्यन्त, विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त वा ब्रह्मवर्त को देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया । विद्वानों और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त व ब्रह्मवर्त कहलाया ।

विदेशी विद्बान तथा उनका अन्धानुकरण करने वाले कुछ भारतीय विद्वान् भी यह कहते हैं कि 'आर्य' लोग ईरान से आये, इसलिये इन लोगों का नाम आर्य है । इससे पूर्व यहाँ जंगली लोग बसते थे ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-113


आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ तो उन्होंने उसका नाम 'देवासुर संग्राम' कथाओं में ठहराया । विदेशी लोगों की इस प्रकार की कल्पनायें सर्वथा झूठ और निराधार हैं । किसी भी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ में व इतिहास में कहीं भी यह नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों से लड़ कर और विजय पाकर उन्हें निकाल इस देश के राजा हुये । ऐसी अवस्था में इन चालाक विदेशियों का लेख कैसे मान्य हो सकता है । यदि उसमें किञ्चित-मात्र भी सत्य होता तो आर्यावर्त से पूर्व इस देश का क्या नाम था ? यह प्रमाण देकर आज भी कोई विदेशी तथा इस मत वाला लिखने का साहस करे ।

यथार्थ बात यह है कि आर्यों से पूर्व इस देश में कोई नहीं बसता था, अतः इस देश का कोई अन्य नाम नहीं था । आदि सृष्टि में इस पवित्र आर्यावर्त्त के एक भाग तिब्बत में मनुष्य जाति उत्पन्न हुई । यहीं से आर्य लोग सम्पूर्ण आर्यावर्त्त तथा अन्य देशों में भी जाकर बसे । आर्यावर्त्त के बाहर पूर्व, पश्चिम, उत्तर आदि दिशाओं में जो मनुष्य रहते हैं, उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है । जब जब ये असुर लोग हिमालय प्रदेशस्थ


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आर्य लोगों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे तो यहाँ के आर्य राजा उन उत्तरादि दिशाओं में लड़ने के लिये देवता अर्थात् आर्यों की सहायता के लिये जाते थे । इतिहास साक्षी है कि आर्यवर्त्तीय अर्जुन तथा महाराजा दशरथ आदि ने इसी प्रकार के देवासुर संग्रामों में आर्यों की सहायता और रक्षा की तथा असुरों को हराया । इसी आर्यावर्त्त के प्रथम चक्रवर्ती राजा इक्ष्वाकु हुये हैं । इन्होंने तथा इनके पूर्वज ब्रह्मा, विराट्, मनु आदि ने इस आर्यावर्त्त को बसाया था । इसी का नाम ब्रह्मावर्त भी है । क्योंकि इसके ब्रह्म विद्वान् देव लोग बसने बसाने वाले थे । इसी आर्यावर्त्त अथवा ब्रह्मावर्त्त का एक भाग आधुनिक हरयाणा प्रान्त है । यह एक प्रकार से आर्यावर्त्त का हृदय स्थान है और प्राचीन काल से यह देवताओं का स्थान कहलाता है ।

ब्रह्मर्षि देश

इसी हरयाणे प्रदेश को ब्रह्मर्षि देश के नाम से भी कहा गया है । मनु जी महाराज लिखते हैं -

कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसैनिकाः ।

एषं ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मावर्तादिनन्तरः ॥

मनु० अ० २


इस प्रकार ब्रह्मर्षि देश के अन्तर्गत कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल और शूरसेनक - ये चार देश आ जाते


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हैं । ब्रह्मावर्त्त देश से ब्रह्मर्षि देश छोटा है । यह ब्रह्मावर्त्त के अन्तर्गत ही है । जो मनु महाराज ने ब्रह्मर्षि देश बताया है वह हरयाणा और हरयाणे का एक भाग ही है । अतः ब्रह्मज्ञान के तत्त्वतेत्ता ऋषियों का देश यह हरयाणा प्रदेश है । इसी प्रदेश में सारे संसार के लोग आचार की शिक्षा लेने आया करते थे । इस विषय में मनु जी महाराज लिखते हैं -

एतद्‍देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥

- मनुस्मृति


सृष्टि से लेकर पाँच सहस्र वर्ष पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था । मनुस्मृति जो सृष्टि के आदि में हुई है उसका ऊपर प्रमाण दिया है । इसी प्रदेश में आकर चरित्र की शिक्षा लेने का मनु जी ने विधान किया है । आर्यावर्त के भाग इस 'ब्रह्मर्षि देश' अर्थात् हरयाणे में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने-अपने योग्य चरित्रों की शिक्षा और विद्या अभ्यास करें । यह मनु जी महाराज ने


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-116



आदेश दिया है । सारांश यह है कि इस हरयाणा-प्रदेश में ब्रह्मज्ञान और सब प्रकार की विद्याओं के भण्डार ऋषि, महर्षि, सदाचारी विद्वान् ब्राह्मणों के बड़े-बड़े आश्रम, गुरुकुल, महाविद्यालय विद्यमान थे । जहाँ देश-देशान्तर, द्वीप-द्वीपान्तर से सब प्रकार की विद्या पढ़ने और सदाचार की शिक्षा लेने के लिये महाभारत पर्यन्त सभी लोग आया करते थे । सरस्वती के तट पर बहुत भारी संख्या में ऋषियों के आश्रम विद्यमान थे । महाभारत युद्ध के समय योगीराज श्रीकृष्ण के भ्राता हलधर बलराम ने सत्संग की दृष्टि से इन ऋषि-आश्रमों की यात्रा की थी, महाभारत में इसका विस्तार से वर्णन आता है । गदापर्व के अनेक अध्यायों में इसका वर्णन दिया है । सरस्वती के तट पर प्रभास, कुरुक्षेत्र, विनशन आदि बहुत से तीर्थ-स्थानों अर्थात् ऋषियों के आश्रमों में जाकर सत्संग और दान-पुण्य उन्होंने किया है ।


पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः ।

वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः ॥३॥


अर्थात् - प्राचीन काल की सतयुग की बात है, द्विज-श्रेष्ठ आर्ष्टिषेण सदा गुरुकुल में निवास करते हुए निरन्तर वेद-शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते थे ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-117



तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च ।

समाप्तिं नागमद् विद्या नापिवेदा विशाम्यते ॥४॥

स निर्विण्णस्ततो राजंस्तपस्तेपे महावपाः ।

ततो वै तपसा तेन प्राप्य वेदाननुत्तमान् ॥५॥

स विद्वान् वेदयुक्तश्च सिद्धश्चाप्युषिसत्तमः ।

तत्र तीर्थोवरानन्द प्रादात् त्रीनेव सुमहातपाः ॥६॥

अर्थात् गुरुकुल में सदा रहते हुए भी न तो उनकी विद्या समाप्‍त हुई और न वे सम्पूर्ण वेद ही पढ़ सके । इससे महातपस्वी आर्ष्टिषेण खिन्न एवं विरक्त हो उठे । फिर उन्होंने सरस्वती के उसी तीर्थ में जाकर बड़ी भारी तपस्या की । उस तप के प्रभाव से उत्तम वेदों का ज्ञान प्राप्‍त करके वे ऋषिश्रेष्ठ विद्वान् वेदज्ञ सिद्ध हो गये । तदनन्तर उस महातपस्वी ने उस तीर्थ को तीन वर प्रदान किये ।


इससे यही सिद्ध होता है कि सरस्वती नदी के तट पर इस ब्रह्मर्षि देश हरयाणे में ऋषियों के अनेक आश्रम तथा गुरुकुल थे । यहाँ पर विद्या और चरित्र की शिक्षा दी जाती थी । बलराम जैसे योद्धा भी वहां सत्संग करने और शिक्षा लेने के लिये जाते थे ।


सिन्धुद्वीपश्च राजर्षि र्देवापिश्च महातपाः ।

ब्रह्मण्यं लब्धवान्यत्र विश्वामित्रस्तथामुनिः ॥

(महा० शल्यपर्वणि गदा० ३९।३७)

वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-118



अर्थात् राजर्षि सिन्धुद्वीप, महान् तपस्वी, देवापी और महायशस्वी, उग्र तेजस्वी एवं महातपस्वी, विश्वामित्र मुनि ने तपस्या करके ब्राह्मणत्व को प्राप्‍त किया था ।


इससे सिद्ध होता है कि यह प्रदेश ऋषि-महर्षियों की तपोभूमि रहा है । इसी कारण इस हरयाणे प्रान्त का नाम "ब्रह्मर्षि देश" था ।

कुछ सज्जनों ने थानेश्वर के उत्तर-पश्चिम हिमालय पर्वत और चर्मणवती अर्थात् चम्बल नदी के मध्य देश को 'ब्रह्मदेश' माना है ।

तस्मिन्देशे य आचारः पारम्पर्य्य क्रमागतः ।

वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ॥

(मनुस्मृति २।१८)


इस देश में सवर्णों व आश्रमों का आचार जो परम्परा से चला आ रहा है, वह सदाचार कहलाता है । इसी सदाचार की शिक्षा क्रियात्मक रूप में ऋषि-महर्षि लोग संसार के सभी मनुष्यों को इसी प्रदेश में अपने आश्रमों और गुरुकुलों में देते थे ।


यह प्रदेश यज्ञिय था, जिसके लक्षण मनु जी महाराज इस प्रकार करते हैं -

कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः ।

स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशत्वतः परः ॥२३॥


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-119



काला मृग (हरिण) जिस प्रदेश में अपने स्वभाव से निर्भय होकर निवास करता हो वा विचरता हो, वह प्रदेश यज्ञिय अर्थात् यज्ञ करने योग्य है । इससे इतर जहाँ काले मृग का अभाव हो, वह म्लेच्छ देश है ।


इस हरयाणा प्रान्त में सर्वत्र निर्भयता-पूर्वक मृगों (हिरनों) की डारें विचरती थीं, जिनमें कृष्ण मृगों की भी बहुत संख्या होती थी । स्वराज्य प्राप्‍ति के पश्चात् मांसाहारी लोग दूसरे प्रदेशों से यहां आकर बस गये हैं । अतः काले मृगों का क्या, सभी प्रकार के मृगों के इस समय दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं । मनु जी महाराज के शब्दों में मांसाहारी लोगों ने इस यज्ञिय देश को म्लेच्छ देश बना दिया है । ईश कृपा से यह पुनः यज्ञिय देश बने, ऐसे शुभ दिन शीघ्र आयें ।


मध्य देश

यह हरयाणा प्रान्त मध्यदेश का भी भाग रहा है –

हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये यत्प्राग्विनशनादपि ।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्त्तित्तः ॥


हिमालय पर्वत और विन्ध्याचल पर्वत के मध्य विनशन से पूर्व और प्रयाग के पश्चिम में मध्यप्रदेश कहलाता है ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-120



आधुनिक हिन्दी भाषा-भाषी प्रांत सारा हरयाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा बिहारादि सभी हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेश मध्यप्रदेश के अन्तर्गत आ जाते हैं । आजकल के विद्वानों का ऐसा मत है । हरयाणा प्रदेश मध्यप्रदेश का एक भाग है । विनशन स्थान जहाँ सरस्वती नदी समुद्र में गिरती थी, कहीं मरुभूमि (राजस्थान) में था, उस समय वहाँ तक समुद्र था । किसी किसी लेखक ने इस स्थान को हिसार के समीप लिखा है ।


बहुधान्यक

हरयाणा प्रान्त का प्राचीन काल में एक नाम बहुधान्यक भी था । यह नाम बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है और पृथ्वीराज पर्यन्त इस प्रदेश का नाम बहुधान्यक चलता रहा है । सभापर्व में नकुल की पश्चिम दिशा की विजय में इस प्रदेश की राजधानी रोहितक का वर्णन है । उसमें इस प्रकार लिखा है -


ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत् ।

कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत् ॥

तत्र युद्धं महच्चासीत् शूरैर्मत्तमयूरकैः ।

मरुभूमिं च कार्त्स्न्येन तथैव बहुधान्यकम् ॥

(महा० सभापर्व अ० ३२)


नकुल ने बहुत धनधान्य से सम्पन्न गऊओं की बहुलता से युक्त एवं कार्त्तिकेय के अत्यन्त प्रिय


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-121



रमणीय रोहितक पर आक्रमण किया । वहां उनका मत्तमयूर (यौधेय) नाम वाले शूरवीर क्षत्रियों के साथ संग्राम हुआ । नकुल ने इन यौधेयों के बहुधान्यक प्रदेश तथा मरुभूमि को पूर्णतया जीत लिया । इस मरुभूमि के स्थान पर महाभारत में मयूरभूमि भी पाठ आता है, अर्थात् इस बहुधान्यक प्रदेश का नाम मयूरभूमि भी था । इसी कारण यहां के शूरवीर यौधेय मयूरक भी कहलाते थे । क्योंकि इनका राष्ट्रीय-ध्वज मयूर-चिह्न से युक्त होता था । इनकी राजधानी कार्त्तिकेय को बहुत प्रिय थी । वे भी अपने समय में अपना मयूरध्वज धारण किये हुए रोहतक में निवास करते थे । यहाँ के निवासी इनको अपना आदर्श सेनापति इनके समय में मानते थे । उनके पश्चात् अपना पूर्वज मानकर हरयाणा के निवासी वीर यौधेय मयूरध्वजधारी होने से ही मयूरक कहलाये और इनका यह हरयाणा प्रदेश का एक भाग मयूरभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इन मयूरकों के दश (१०) बड़े-बड़े दुर्ग महाभारत के समय में थे । इसीलिये इस प्रदेश का नाम उस समय "दशार्ण" भी था । रोहितक (रोहतक), शैरिषक (सिरसा), महेत्थं (महम) - इन तीन दुर्गों का तो नाम लिख दिया है, शेष सात दुर्ग कौन से थे, यह


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-122



खोज का विषय है । किसी एक दुर्ग का अध्यक्ष उस समय राजर्षि आक्रोश था । उससे नकुल का घोर युद्ध हुआ । उसकी पराजय होने पर ही -


"तान्दशार्णान्स जित्वा प्रतस्थे पाण्डुनन्दनः"।


पाण्डु पुत्र नकुल ने दशार्ण देश को जीत करके आगे प्रस्थान किया । उपर्युक्त सन्दर्भ से यह सिद्ध होता है कि इस हरयाणे प्रदेश के विभागीय नाम महाभारत के समय मयूरभूमि, बहुधान्यक और दशार्ण - ये तीन नाम प्रचलित थे ।


श्री सोमदेव सूरी कृत "यशस्तिलकम्" नामक पुस्तक में यौधेय-प्रदेश के विषय में यह लिखा है कि इस प्रदेश में इतना अधिक अन्न उत्पन्न होता था कि यहाँ के किसान उसको काट नहीं सकते थे । यदि काट लेते तो सारे अन्न को निकाल कर घर पर नहीं ला सकते थे । उनका अन्न खेत अथवा खलिहान में ही रह जाता था । इसका वर्णन उन्हीं के शब्दों में नीचे दिया जाता है –


स यौधेय इतिख्यातो देशः क्षेत्रेऽस्ति भारते ।

देवश्रीस्पर्धया स्वर्गः स्रष्टा सृष्ट इवापरः ॥४२॥

वपत्र क्षेत्रसंजातसस्य संपत्ति बन्धुराः ।

चिन्तमणि समारम्भारम्भाः सन्ति यत्र बन्धुराः ॥४३॥


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लवने यत्र नोप्‍तस्य लूनस्य न बिगाहने ।

विगाढ़स्य च धान्यस्य नालं संग्रहणे प्रजाः ॥४४॥

दानेन वित्तानि धनेन यौवनं यशोभिरायूंषि गृहाणिचार्थिभिः ।

भजन्ति सांकर्यमिनानि देहिनां न यत्र वर्णाश्रमधर्मवृत्तयः ॥४५॥

(यशस्तिलकं चम्पूकाव्य, प्रथम आश्वास)


भारत देश में प्रसिद्ध वह यौधेय देश अत्यधिक मनोहर होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था, मानो ब्रह्मा ने दिव्यश्री से ईर्ष्या करके दूसरे स्वर्ग की रचना कर डाली है ॥४२॥


वहाँ की भूमियाँ अत्यधिक उपजाऊ, खेतों में भरपूर उत्पन्न होने वाली धान्य सम्पत्ति से मनोहर और चिन्तित वस्तु देने के कारण चिन्तमणि के समान आरम्भशाली थी, अर्थात् मनोवाञ्छित फल देने वाली थी ॥४३॥


जहाँ पर ऐसी प्रचुर महती धान्य-सम्पत्ति उत्पन्न होती थी, जिससे प्रजा के लोग बोई हुई खेती को काटने में और काटे धान्य को गाहने में तथा गाहे हुए धान्य के संग्रह करने में समर्थ नहीं होते थे ॥४४॥


जहाँ पर प्रजा-जनों की निम्न प्रकार इतनी वस्तुएं परस्पर के मिश्रण से युक्त थीं, वहाँ धन, सम्पत्ति पात्र, दान से मिश्रित थी अर्थात् वहाँ की उदार प्रजा दान-पुण्य आदि पवित्र कार्यों में पुष्कल


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-124



धन व्यय करती थी । इसी प्रकार युवावस्था धन से मिश्रित थी अर्थात् वहाँ के लोग युवावस्था में न्याय-पूर्वक प्रचुर धन का संग्रह करते थे । इसी से वहाँ की जनता का समस्त जीवन यशोलाभ से मिश्रित था अर्थात् वहाँ के निवासी जीवन पर्यन्त चन्द्रमा के समान शुभ कीर्ति का संचय करते थे । ये कभी भी अपयश का कार्य नहीं करते थे तथा वहाँ के गृह भिक्षुओं से मिश्रित थे, अर्थात् वहाँ के घरों में भिक्षुओं के लिए यथेष्ट भिक्षा व दान मिलता था । वहाँ पर सभी वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और सभी आश्रम - ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी और सन्यासी अपने-अपने नियम और मर्यादा में लीन रहकर अपने-अपने कर्त्तव्य पालन में तत्पर थे अर्थात् एक वर्ण वा आश्रम का व्यक्ति दूसरे वर्ण व आश्रम के कर्त्तव्य (जीविका) आदि नहीं करता था ।"


यह उद्धरण श्री सोमदेव विरचित "यशस्तिलक चम्पू-महाकाव्य" का है । इसी पुस्तक का दूसरा नाम "यशोधर महाराज चरित" भी है, क्योंकि इसमें उज्जयनी के सम्राट् यशोधर के चरित्र का वर्णन है । इस राजा की कथा को आधार बनाकर व्यवहार, राजनीति, दर्शन और मोक्ष सम्बन्धी अनेक विषयों की


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-125



सामग्री इस ग्रन्थ में प्रस्तुत की गई है । इस विद्वान् ने "नीतिवाक्य-अमृत" आदि और भी कई पुस्तकें लिखी हैं । सोमदेव सूरी का समय राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय (९२९ ई० से ९५९ ई० तक) का राजकाल माना जाता है ।


जो प्राचीन काल में यौधेय नाम का जनपद था, उसके राजा व प्रधान मारिदत्त का भी वर्णन इसमें किया गया है । इसी प्रसंग में यौधेय गण के अत्यन्त उपजाऊ बहुधान्यक देश का वर्णन पाठकों की सेवा में किया है ।


महाभारत में बहुधान्यक की राजधानी रोहतक का जो वर्णन ऊपर हमने दिया है, उसी की पुष्टि 'यशस्तिलक' काव्य में की है । उस समय गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियाँ इस प्रदेश में बहती थीं इस कारण जल की कोई न्यूनता न थी । भूमि इस प्रदेश की सदैव से अत्यन्त उपजाऊ है ही । यज्ञीय देश होने से "निकामे-निकामे पर्जन्योऽभिवर्षतु" इस कामना के अनुसार "जब जब करें कामना, जलधर जल बरसावें" ठीक समय पर वर्षा होती थी । सरस्वती नदी का लोप होने से इस प्रदेश में पूर्ववत् प्रचुर मात्रा में तो अन्न नहीं होता, किन्तु अन्य प्रदेशों की


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-126



अपेक्षा तो अब भी अन्न वा धान्य पर्याप्‍त मात्रा में उत्पन्न होता है । अतः हरयाणा-प्रदेश का नाम "बहुधान्यक" "यथा गुण तथा नाम" के अनुसार सर्वथा उचित है ।


यौधेयों की मुद्राओं पर भी "यौधेयानां बहुधान्यके" यौधेयों का बहुधान्यक देश मुद्रित है । आधुनिक इतिहासकार इन मुद्राओं को जिनकी टकसाल रोहतक (यह दुर्ग खोखरा कोट के नाम से प्रसिद्ध है) में थी, ईसा से दो-तीन शती पूर्व मानते हैं । किन्तु हो सकता है कि ये मुद्रायें इससे भी अधिक पुरानी हों । ये मुद्रायें और इनके ठप्पे कई सौ की संख्या में गुरुकुल झज्जर के संग्रहालय में विद्यमान हैं । यही मुद्रायें हमें पर्याप्‍त संख्या में मेरठ जिले के एक ग्राम से मिली हैं । इनके ठप्पे हिसार की एक पुरानी थेह (उज्जड़ खेड़े) से मिले हैं । इसी प्रकार की मुद्रायें हांसी, हिसार, भिवानी और दादरी से भी मिली हैं । इससे बहुधान्यक देश के विस्तार का परिचय मिलता है । यदि हरयाणे के पुराने सभी थेहों अर्थात् उज्जड़ खेड़ों की गहरी खुदाई करवाई जाये तो इसी प्रकार के ठप्पे और मुद्राओं की सर्वत्र मिलने की आशा है । किन्तु हमारी राष्ट्रीय सरकार का इस कार्य की ओर


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-127



बहुत थोड़ा ध्यान है । अंग्रेजी राज्य में ही सन् १९३५-३६ ई० में प्रो० बीरबल 'साहनी' की देखरेख में खोखरा कोट (रोहतक) की थोड़ी सी खुदाई हुई थी । उसके पीछे इस अनेक कोणों में फैले हुए यौधेयों के प्राचीन दुर्ग खोखरा कोट को किसी ने स्पर्श भी नहीं किया । इसमें इस बहुधान्यक प्रदेश की सहस्रों वर्षों की प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री छिपी और दबी पड़ी है । यदि इस सारे स्थल की भली भांति गहरी खुदाई हो जाये तो न जाने कितने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक रहस्यों का उदघाटन हो जायेगा और इस बहुधान्यक वा हरयाणे के इतिहास के प्रकाश में आने से आर्यावर्त देश का नाम सर्वत्र यश और कीर्ति को प्राप्‍त करेगा । क्योंकि हरयाणा वा बहुधान्यक प्रदेश आर्यावर्त का हृदय है । यह आदि सृष्टि से ऋषि-महर्षि और चक्रवर्ती राजाओं का कार्यक्षेत्र रहा है अथवा जन्मभूमि वा कर्मभूमि रहा है ।


कुरु प्रदेश

इस प्रदेश का नाम कुरुक्षेत्र अथवा कुरु-जांगल भी रहा है । यह तो जगत्प्रसिद्ध है ही कि कुरुक्षेत्र नाम का धर्मक्षेत्र स्थान भी इसी हरयाणे प्रान्त का एक भाग है जिसे प्राचीन काल में महाराजा कुरु ने यहाँ के


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-128



जंगल कटवा कर और स्वयं अनेक वर्षों तक अपने हाथों से हल चलाकर कृषि के योग्य बनाया था । जिसका इतिहास महाभारत में कुरुक्षेत्र के प्रकरण में विस्तार से दिया है । इसी प्रकार कुरु की सन्तान युधिष्ठिर, अर्जुनादि पाँचों भाइयों ने योगीराज श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार भारी जंगल को जलाकर (जो खांडव दाह नाम से प्रसिद्ध है) और असुरों का हनन करके इन्द्रप्रस्थ नाम का नगर बसाया था (जो कि उनकी राजधानी उनके कई वंशों तक रही) । उसी स्थान पर दिल्ली नगर तथा नई दिल्ली आज बसी हुई हैं । कुरु और कुरु की सन्तान ने यहां के जंगलों को उजाड़ कर अपनी बस्ती बसाई और इनकी अनेक पीढ़ियाँ इसके कुछ भाग पर राज्य करती रहीं । इसी कारण इस प्रदेश का नाम कुरु-प्रदेश अथवा कुरु-जांगल है ।


बाँगर

जांगल वा बाँगर दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । इसलिये इस प्रदेश का बाँगर नाम होना उचित ही है । क्योंकि इस हरयाणा प्रदेश के कुछ भागों में जंगल था । उसे काटकर हमारे पूर्वजों ने वहाँ बस्ती बसाई । जिन जंगलों को हमारे पूर्वजों ने विनष्ट किया, उनकी


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-129



स्मृति सदा विद्यमान रहे और आने वाली सन्तान इसके लिये कृतज्ञ और ऋणी रहे, इसी दृष्टि से इस प्रदेश का नाम आज तक जाँगल चला आता है ।


कंटक देश कठोर नर भैंस-मूत को नीर ।

कर्मों का मारा फिरे बांगर देश फकीर ॥


यह लोकोक्ति इसी प्रदेश के लिए सन्त गोरखनाथ जी ने कही है । इनकी तपोभूमि कभी रोहतक के निकट थी जहाँ पर आजकल नाथों का मठ बाबा मस्तनाथ जी के नाम से प्रसिद्ध है, जो बोहर-ग्राम (गढ़ी) के पास है । जिस प्रकार रोहितक (रोहिड़े) के जंगल को काट कर रोहितक वा रोहतक नाम हमारे पूर्वजों ने रखा और शिरीष वृक्ष को काट कर "शैरीषक" वा सिरसा नाम रक्खा । यह उपकार वा ऋण प्रकट करने के लिये हमारे पूर्वजों ने स्मारक रूप में वृक्षों के जंगल थे, इनके नाम पर नगरों व प्रदेशों का नाम रख दिया । इसी कारण बाँगर वा जाँगल नाम हरयाणा प्रान्त का अपनी एक पुरानी स्मृति को लिये हुए है और उजड़े हुए जंगल की स्मृति व उपकार को प्रकट कर रहा है ।


वर्तमान उत्तर प्रदेश की तीनों पश्चिमी कमिश्‍नरियों - मेरठ, आगरा और रुहेलखण्ड के विशाल


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-130



भू-भाग में भी वर्तमान पंजाब के सतलुज नदी से यमुना नदी तक के भाग की भाँति "बाँगर" नाम प्रचलित है ।


बांगर के पुनः छोटे-छोटे भागों के अवान्तर नाम बागड़, डाबर, नरदक, खादर, काम्यक, ढैल, और म्यान-ढ़ाबर (दो आबा) और व्रज आदि स्थानीय रूप में प्रचलित हैं ।


इस प्रकार अनेक नाम इस हरयाणा प्रदेश के प्राचीन काल से आज तक प्रचलित हैं । जिसे पाठकों के ज्ञानार्थ थोड़ा सा निवेदन किया है ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-131




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