Arya Samaj in Suriname
यह पुस्तिका आर्य दिवाकार महासभा द्वारा पारामारिबों में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन (जून 2003) के दौरान बांटी गई थी । मैं स्वयं भी उस सम्मेलन में उपस्थित था । इस पुस्तिका का इलेक्ट्रानिक प्रारूप मैने तैयार किया है ताकि यह सभी के लिए इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध हो । Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
दक्षिणी अमेरिका में दो ऐसे देश हैं जिनमें आर्यसमाज का अच्छा प्रचार है – सूरीनाम और गुयाना । ये दोनों देश दक्षिणी अमेरिका के उत्तरी क्षेत्र में समुद्र के तट पर स्थित हैं । सूरीनाम का क्षेत्रफल १,४२,८२२ वर्ग किलोमीटर है और उसकी जनसंख्या ४ लाख के लगभग है । इनमें से १,४२,००० के लगभग भारतीय मूल के हैं जो प्रधानतः बिहार तथा उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों से वहाँ जाकर बसे थे । सूरीनाम में डच लोगों ने बहुत बड़े परिणाम में ईंख, कॉफी और कोको की खेती प्रारम्भ की थी, और उसके लिए उन्हें जिन श्रमिकों की आवश्यकता थी, उन्हें नीग्रो गुलामों द्वारा प्राप्त किया जाता था । सूरीनाम के बाजारों में गुलामों का क्रय-विक्रय उसी प्रकार होता था, जैसे कि पशुओं का । दासप्रथा के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ होने पर वहाँ भी नीग्रो गुलामों को स्वतन्त्र करना शुरू कर दिया गया, और सन् १८६३ तक वहाँ से इस प्रथा का पूर्ण रूप से अन्त हो गया । डच जमींदारों को खेती के लिए जिस मानव श्रम की आवश्यकता थी, उसे प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा के अधीन एशिया के निर्धन देशों से प्राप्त करना प्रारम्भ किया गया । सबसे पहले सन् १८५३ में चीन से कुछ मजदूर सूरीनाम लाये गये । पर उस देश से अधिक संख्या में मजदूरों को ला सकना सम्भव नहीं हुआ । अफ्रीका और अमेरिका के जिन यूरोपियन उपनिवेशों में दास-प्रथा का अन्त हो जाने के कारण श्रमिकों की समस्या उत्पन्न हो गयी थी, उनमें बहुसंख्यक अंग्रेजों के अधीन थे, और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भारत पर भी अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था । भारत से प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा के अधीन मजदूर प्राप्त कर सकना कठिन था, अतः बहुत बड़ी संख्या में भारतीय मजदूर ब्रिटिश उपनिवेशों में ले जाये जाने लगे । डच और फ्रेंच उपनिवेशों ने भी इस स्थिति से लाभ उठाया और उन्होंने भी भारत से मजदूरों को भरती करके अपने खेतों में कार्य करने के लिए लाना प्रारम्भ कर दिया । सब से पहले जून, सन् १८७३ में “लालारुख” नामक जहाज से ४१० भारतीय सूरीनाम लाये गये और उसके बाद उनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गयी । मई १९१६ तक प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा के अधीन भारतीयों को सूरीनाम लाने का सिलसिला जारी रहा । सन् १८७३ से सन् १९१६ तक ४३ वर्षों में जिन भारतीय मजदूरों को सूरीनाम लाया गया, उनकी कुल संख्या ४४,३०४ थी । इन मजदूरों को ५ साल की नौकरी की शर्त पर लाया जाता था और उन्हें यह अनुमति थी कि ५ साल पूरे हो जाने पर वे भारत वापस जा सकेंगे । पर साथ ही उन्हें यह भी अनुमति थी कि यदि वे भारत वापस न जाकर सूरीनाम में ही बस जाना चाहें तो यहाँ स्थायी रूप से बस सकेंगे । इस दशा में उन्हें १०० रुपये नकद और और ५ एकड़ भूमि बिना मूल्य प्रदान कर दी जाती थी । पाँच साल की अवधि के पूरा हो जाने पर जो भारतीय स्वदेश लौट गये उनकी संख्या ११,५१२ थी । शेष २२,७९२ भारतीय स्थायी रूप से सूरीनाम में बस गये और उन्हें यहीं का नागरिक माना जाने लगा । सूरीनाम में भारतीय मूल के लोगों की जो आबादी है, वह इन्हीं २२,७९२ व्यक्तियों की सन्तान हैं । यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा के अधीन जो भारतीय मजदूरी के लिए विदेशों में भेजे जाते थे, उनमें स्त्रियाँ और पुरुष दोनों होते थे । यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मजदूरी के लिए विदेश जाने वाले भारतीय स्त्री-पुरुषों में पढ़े-लिखे लोग बहुत कम होते थे । ब्राह्मण और क्षत्रिय सदृश उच्च जातियों के व्यक्तियों को मजदूरी के लिए विदेश लाना पसन्द नहीं किया जाता था, क्योंकि वे खान-पान आदि की जातीय मर्यादाओं को बहुत महत्त्व देते थे । इसका परिणाम यह हुआ कि सूरीनाम में आकर स्थायी रूप से बस जाने वाले व्यक्ति न केवल अशिक्षित ही थे, अपितु अपने धर्म व संस्कृति का भी इन्हें समुचित ज्ञान नहीं था । इनके लिए यह सर्वथा स्वाभाविक था कि ईसाइयों के प्रभाव में आकर क्रिश्चिएनिटि को अपनाने लगें । एक रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि सन् १९३० में सूरीनाम में बसे हुए ३६,००० के लगभग भारतीयों में से १४,००० ईसाई मत में दीक्षित हो चुके थे । सम्भव है कि यहाँ के सभी भारतीय ईसाई हो जाते, यदि आर्यसमाज अपने वैदिक धर्म के उदात्त मन्तव्यों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट न करता । आर्यसमाज के प्रचार के कारण सूरीनाम के उन बहुत से भारतीयों ने भी ईसाइयत का परित्याग कर पुनः आर्य-वैदिक धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली जो पहले ईसाई हो गए थे । इसी का यह परिणाम है कि इस देश के १,४०,००० के लगभग भारतीयों में ईसाइयों की संख्या अब केवल दो तीन हजार के लगभग रह गयी है । सूरीनाम में बसे भारतीय मूल के लोगों में जो आज वैदिक धर्म और भारतीय संस्कृति सुरक्षित है, उसका प्रधान श्रेय आर्यसमाज को ही प्राप्त है ।
सूरीनाम की पश्चिमी सीमा के साथ लगा हुआ देश गुयाना है, जो पहले ग्रेट ब्रिटेन का उपनिवेश था । उसे ब्रिटिश गुयाना कहा जाता था । वस्तुतः दक्षिणी अमेरिका का गुयाना परदेश तीन यूरोपियन साम्राज्यवादी देशों (ब्रिटेन, हालैण्ड और फ्राँस) में बंटा हुआ था और सूरीनाम को भी पहले डच गुयाना कहा जाता था । वेस्ट इंडीज के विविध द्वीप भी उस समय अंग्रेजों की अधीनता में थे और उनमें भी भारतीय लोग मजदूरी आदि के लिए अच्छी बड़ी संख्या में बसे हुए थे । ब्रिटिश उपनिवेशों के साथ भारत के पर्याप्त सम्बन्ध थे, और वहाँ से अनेक व्यक्ति व्यापार आदि के लिए इन उपनिवेशों में आते-जाते रहते थे । कतिपय प्रचारकों ने भी धर्म-प्रचार के लिए वहाँ जाना प्रारम्भ कर दिया था । सन् १९११ में डी.ए.वी. कॉलिज लाहौर के भाई परमानन्द ने वैदिक धर्म का प्रचार करते हुए वेस्ट इंडीज और ब्रिटिश गुयाना की यात्रा की । यही समय था जबकि सूरीनाम के भारतीयों को भी विदिक ध्र्म तथा आर्यसमाज के साथ सम्पर्क का अवसर प्राप्त हुआ । सूरीनाम का एक पश्चिमी प्रदेश निकेरी है जो ब्रिटिश गुयाना की सीमा पर स्थित है । स्वाभाविक रूप से वहाँ के निवासियों का ब्रिटिश गुयाना के साथ संबन्ध रहा करता था । निकेरी के पंडित कुंजबिहारी त्रिपाठी का गुयाना में भाई परमानन्द के साथ संपर्क हुआ और उनके प्रवचनों को सुनकर वह वैदिक धर्म के अनुयायी बन गये । इन्होंने ही सन् १९१२ में सूरीनाम में सबसे पहले वैदिक धर्म और आर्यसमाज के प्रचार कार्य का सूत्रपात किया । सन् १९१८ तक निकेरी में आर्यसमाज का प्रचार भलीभांति प्रारम्भ हो गया, यद्यपि वहाँ अभी विधिवत् समाज की स्थापना नहीं हुई थी । सूरीनाम के एक अन्य प्रदेश सरमक्का के निवासी श्री दालसिंगार और श्री कालिका प्रसाद भी ब्रिटिश गुयाना में भाई परमानन्द के संपर्क में आये थे । वे भी महर्षि दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हुए थे और उन्होंने भी सरमक्का आकर आर्यसमाज का प्रचार प्रारम्भ कर दिया था । धीरे-धीरे वैदिक साहित्य वहाँ मंगाया जाने लगा और सन् १९२० में सत्यार्थप्रकाश का भी सूरीनाम में प्रवेश हुआ । आर्यसमाज की पुस्तकों, ट्रैक्टों तथा पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर सूरीनाम के भारत मूल के लोग बहुत प्रभावित हुए और वे वैदिक धर्म की ओर झुकने लगे । इसी बीच पारामारिबो और उसके सीमावर्ती प्रदेश में श्री जगमोहनसिंह और श्री बहावलसिंह ने आर्यसमाज के कार्य का सूत्रपात कर दिया, और सूरीनाम में सर्वत्र महर्षि दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों का प्रचार प्रारम्भ हो गया ।
८ नवम्बर सन् १९२२ को श्री जगमोहनसिंह ने अपने निवास स्थान पर वैदिक विधि से एक यज्ञ का आयोजन किया जिसका जनता पर उत्तम प्रभाव पड़ा । फिर १८ मार्च १९२३ को पण्डित मथुराप्रसाद ने अपने घर पर यज्ञ किया, जिसमें एक ईसाई को शुद्ध कर वैदिक धर्म की दीक्षा दी गयी थी । सूरीनाम में यह पहला शुद्धि संस्कार था । जिससे वहाँ के निवासियों को यह स्पष्ट हो गया कि आर्यसमाज के कारण हिन्दू धर्म के द्वार अब सब के लिए खुल गये हैं । इससे भारतीय मूल के अन्य भी बहुत से ईसाइयों को अपने पुरखाओं के धर्म में लौट आने की प्रेरणा प्राप्त हुई । ये दोनों यज्ञ सूरीनाम के मुख्य नगर पारामारिबो में हुए थे और इनके कारण वहाँ ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि होने लग गयी थी, जो आर्यसमाज के नियमों और मन्तव्यों में विश्वास रखते थे । सन् १९२४ में शिवरात्रि (ऋषिबोधोत्सव) का पर्व पारामारिबो में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया गया । इस अवसर पर वैदिक धर्म की शिक्षाओं तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती के महान् कार्य पर अनेक विद्वानों के व्याख्यान हुए जिनसे लोग बहुत प्रभावित हुए । इस समारोह का आयोजन भी श्री जगमोहनसिंह द्वारा किया गया था । इस समारोह का एक बड़ा आकर्षण वह यज्ञ था, जिसके अनुष्ठान में पूर्ण वैदिक विधि प्रयुक्त की गयी थी । इसी प्रकार का एक समारोह दिसम्बर सन् १९२५ के अन्तिम सप्ताह में श्री शिवराजसिंह द्वारा अपने निवास स्थान पर आयोजित किया गया, जिसमें भाग लेने के लिए कतिपय विद्वान् ब्रिटिश गुयाना से भी आये थे । पण्डित रामचन्द्र शुक्ल, पण्डित चन्द्रशेखर शर्मा तथा पण्डित गणेशदत्त शर्मा ने इस समारोह में अनेक व्याख्यान व उपदेश दिये थे, और विधिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान कराया था । इस प्रकार सूरीनाम में आर्यसमाज के प्रचार में निरन्तर वृद्धि होती जा रही थी और सन् १९२७ तक यह स्थिति आ गयी थी कि आर्यसमाजियों के एक सुदृढ़ संगठन की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जाने लगी थी । इसी का परिणाम यह हुआ कि ४ अगस्त सन् १९२७ को सूरीनाम के विविध स्थानों के आर्यसमाजियों को एकत्र कर उनकी एक सम्मिलित बैठक की गयी, जिसमें आर्यसमाज के एक स्थायी संगठन के निर्माण का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया । प्रस्ताव के स्वीकृत हो जाने पर जिस संगठन का निर्माण हुआ, उसके प्रधान पण्डित मथुराप्रसाद दुबे तथा मन्त्री श्री जगमोहनसिंह थे । कोषाध्यक्ष का पद श्री शिवराजसिंह को दिया गया था और पण्डित रामप्रसाद शुक्ल प्रचार-मन्त्री नियुक्त किये गये थे । इस समय तक सूरीनाम के प्रमुख नगर पारामारिबो और निकेरी, सरमक्का, लैदन, पाद फान वानिका, फेइलान्ड, मेरसोर्ख, मारियमबर्ग, आलक्मार और कोननबर्ग नामक नगरों व प्रदेशों में आर्यसमाज का भली-भाँति बीजारोपण हो चुका था और वहाँ सक्रिय आर्यों की संख्या ६०० से भी ऊपर पहुंच चुकी थी । सन् १९२७ का अन्त होने से पूर्व ही पारामारिबो के कोनेंग स्त्रात (मार्ग) पर एक भवन का निर्माण कर लिया गया, जिसमें रविवार को सन्ध्या, हवन, प्रार्थना और उपदेश नियमपूर्वक होने लगे । अगस्त १९२७ में आर्यसमाज के जिस स्थायी संगठन का निर्माण किया गया था, उसके द्वारा सम्पूर्ण सूरीनाम में वैदिक धर्म का प्रचार करने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया गया । इस प्रायोजन से एक भजनमंडली का गठन किया गया, जिसका कार्य पण्डित सूर्यप्रसाद कौलेशर और श्री काशीप्रसाद प्यारेलाल के हाथों में था । जनता इस मण्डली के भजनों तथा उनके साथ के व्याख्यानों को अत्यन्त रुचिपूर्वक सुनती थी और लोगों पर उनके प्रचार का बहुत उत्तम प्रभाव पड़ता था ।
सन् १९२९ में अमेरिका में वैदिक धर्म प्रचार करते हुए श्री मेहता जैमिनी ब्रिटिश गुयाना भी गये थे । जून मास में वहाँ से वह सूरीनाम भी आये । उनके प्रचार के कारण इस देश में आर्यसमाज की जड़ें और भी सुदृढ़ हो गयीं । स्थान-स्थान पर आर्यसमाज स्थापित होने लगे और लोग बड़े संख्या में उनके सदस्य बनने लगे । इस देश में यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि एक ऐसी केन्द्रीय सभा की स्थापना की जाय, जो सम्पूर्ण सूरीनाम में आर्यसमाज के कार्यकलाप के संचालन करे और जो सब समाजों पर अपना नियन्त्रण भी रख सके । इसी प्रयोजन से २९ सितम्बर १९२९ को “आर्य दिवाकर महासभा” नाम से एक सभा का गठन किया गया और फरवरी १९३० में उसकी औपचारिक रूप से रजिस्ट्री करा दी गई । बाबू हीरासिंह इस सभा के प्रधान निर्वाचित हुए और श्री जगमोहनसिंह मन्त्री । कोषाध्यक्ष के पद पर पंडित मथुराप्रसाद दुबे नियुक्त किये गये । इसी वर्ष पारामारिबो के वानिका स्त्रात पर ४५,००० वर्गगज का एक भूमिखंड महासभा के प्रधान कार्यालय तथा समाज-मन्दिर आदि के लिए क्रय कर लिया गया । इसके लिए धन जुटाने में बाबू बलराजसिंह, पण्डित मथुराप्रसाद और श्री शिवराजसिंह का प्रमुख कर्तृत्त्व था । इन्होंने स्वयं भी उदारतापूर्वक धन प्रदान किया था और जनता से धन एकत्र करने में भी उत्साह प्रदर्शित किया था ।
आर्य दिवाकर महासभा और आर्य प्रतिनिधि सभा सूरीनाम
पारामारिबो में “आर्य दिवाकर महासभा” नाम से आर्यों के जिस केन्द्रीय संगठन का निर्माण हुआ था, वह केवल धर्म-प्रचार के लिए ही प्रयत्नशील नहीं था, अपितु उस के सम्मुख भारतीय मूल के उन व्यक्तियों को पुनः हिन्दू-समाज में सम्मिलित करने की समस्या भी विद्यमान थी, जिन्होंने कि गत वर्षों में ईसाई मत को ग्रहण कर लिया था । इस समय तक ऐसे ईसाइयों की संख्या १४,००० के लगभग हो चुकी थी । सूरीनाम के भारतीयों में ईसाइयत के प्रचार के दो मुख्य कारण थे – (१) देश में सर्वत्र क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा स्थापित स्कूलों की सत्ता और (२) ईसाई अनाथालय, जो भारतीय बच्चे मिशनरी स्कूलों में पढ़ते थे और जिन अनाथ बच्चों का पालन-पोषण ईसाई अनाथालयों में होता था, वे स्वाभाविक रूप से क्रिश्चिएनिटी के प्रभाव में आते थे । इस दशा में पण्डित रामप्रसाद शुक्ल आदि आर्य कार्यकर्त्ताओं ने यह आन्दोलन चलाया, कि सरकार द्वारा भारतीय बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल स्थापित किये जाएँ, जिससे कि उन्हें क्रिश्चियन स्कूलों कें पढ़ाने की आवश्यकता न रहे । यह आन्दोलन सफल हुआ और भारतीय बच्चे ऐसे सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने लगे जिनका वातावरण क्रिश्चियन नहीं था । दूसरी समस्या अनाथों की थी । उसके समाधान का भी निश्चय किया गया । उसके लिए उपयुक्त भवन का निर्माण कर लिया गया और १८ अक्तूबर १९३३ को दयानन्द निर्वाण अर्ध-शताब्दी के अवसर पर अनाथालय का औपचारिक रूप से उद्घाटन भी कर दिया गया । महर्षि दयानन्द सरस्वती के नाम पर इसका नाम “स्वामी दयानन्द अनाथालय” रखा गया । शुरु में इसमें १४ बच्चे दाखिल हुए, पर बाद में उनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गयी और शीघ्र ही वह ४४ तक पहुंच गयी ।
मार्च १९३५ में सूरीनाम में एक ऐसी घटना हुई, जिससे कि वहाँ आर्यसमाज को बहुत बल मिला । ८ मार्च के दिन बकरा-ईद के त्यौहार पर मुसलमानों ने कुर्बानी के लिए एक गाय का जुलूस निकाला और यह नारा लगाया, कि “यह हिन्दुओं की माता है ।“ इससे हिन्दू लोग भड़क गए और सर्वत्र विक्षोभ उत्पन्न हो गया । अब तक पौराणिक हिन्दू आर्यसमाजियों का प्रायः विरोध करते रहते थे, पर उस घटना के कारण वे भी आर्यं के साथ हो गये और सबने मिलकर मुसलमानों के बहिष्कार का निश्चय किया । १३ मार्च १९३४ को आर्य दिवाकर महासभा के मैदान में एक विशाल सभा की गई, जिसमें १४,००० के लगभग हिन्दू उपस्थित थे । कुर्बानी की गाय का जुलूस निकालकर और उसमें अपमानजनक नारे लगाकर मुसलमानों ने जो अत्यन्त अनुचित व घृणास्पद कार्य किया था, सभा में उसका तीव्र रूप से विरोध किया गया । इस आन्दोलन का नेतृत्व आर्य दिवाकर द्वारा किया जा रहा था । अतः स्वाभाविक रूप से सूरीनाम के हिन्दुओं में उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया और उसे न केवल आर्यसमाजियों का ही, अपितु समस्त हिन्दुओं का सशक्त संगठन माना जाने लगा । इसी समय (१ मई सन् १९३४) अमेरिका महाद्वीप में वैदिक धर्म का प्रचार करते हुए पण्डित अयोध्याप्रसाद सूरीनाम आये और छह मास के लगभग यहाँ उन्होंने प्रचार कार्य किया । उनके प्रचार की व्यवस्था आर्य दिवाकर महासभा द्वारा ही की गयी थी । पण्डित जी महासभा के कार्य कलाप से बहुत प्रभावित हुए । उसकी प्रशंसा करते हुए उन्होंने यह सुझाव दिया कि आर्य दिवाकर महासभा को सूरीनाम की आर्य प्रतिनिधि सभा के रूप में परिवर्तित कर दिया जाय और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली से उसका सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाय । पण्डित अयोध्याप्रसाद जी का यह प्रस्ताव सर्वथा उचित था और इसे स्वीकार कर लेने में आर्य दिवाकर महासभा को क्या विप्रतिपत्ति हो सकती थी । पर सार्वजनिक जीवन में जो मतभेद व विरोध उत्पन्न होते रहते हैं, सूरीनाम भी उनसे मुक्त नहीं था । पण्डित रामप्रसाद शुक्ल सूरीनाम के एक प्रतिष्ठित व सुयोग्य आर्यनेता थे । सन् १९२७ में आर्य दिवाकर का निर्माण होने पर वह उसके प्रचार-व्यवस्थापक भी नियुक्त हुए थे । उन्होंने यह संकल्प किया था कि पारामारिबो में आर्य दिवाकर की भूमि पर अपने खर्च से समाज मन्दिर का निर्माण करायेंगे । उनका देहावसान हो जाने पर उनकी पत्नी श्रीमती महादेवी द्वारा यह कार्य किया जाना था । पर उनके सम्मुख कठिनाई यह उपस्थित हुई कि आर्य दिवाकर महासभा उस समय ऋणग्रस्त थी । उसकी भूमि पर जो मन्दिर बनवाया जाता वह भी ऋण के बोझ से ग्रस्त हो सकता था । अतः महादेवी जी की ओर से यह प्रस्ताव पेश किया गया कि आर्य दिवाकर की भूमि के जितने खण्ड पर मन्दिर बने उसे उन्हीं (श्रीमती महादेवी) के नाम पर लिख दिया जाये, ताकि आर्य दिवाकर सभा की ऋणग्रस्तता का समाज-मन्दिर पर कोई प्रभाव न पड़े । पर यह प्रस्ताव आर्य दिवाकर को स्वीकार्य नहीं हुआ । इस पर श्रीमती महादेवी ने अन्य भूमि प्राप्त कर वहाँ मन्दिर बनवाने का निश्चय किया और इसके लिए कार्य भी प्रारम्भ कर दिया ।
सूरीनाम के आर्यसमाजियों में जिस मतभेद व विरोध का इस बात से सूत्रपात हुआ, उसमें निरन्तर वृद्धि होती गयी । आर्य दिवाकर महासभा के संचालन व व्यवस्था के सम्बंध में भी आर्य नेताओं व कार्यकर्त्ताओं में मतभेद विकसित होने लगे । सन् १९३५ में प्रोफेसर सत्याचरण शास्त्री वैदिक धर्म का प्रचार करते हुए त्रिनिडाड आये थे और जुलाई मास के मध्य में सूरीनाम में भी उनका आगमन हुआ था । उन्होंने श्रीमती महादेवी के घर पर निवास किया था और अपने आगमन की सूचना तक भी आर्य दिवाकर सभा को नहीं दी थी । कारण यह था कि सूरीनाम के आर्यों के पारस्परिक विरोध की जानकारी उन्हें त्रिनिडाड में ही प्राप्त हो गयी थी और पण्डित अयोध्याप्रसाद का झुकाव भी उन लोगों के प्रति होने लग गया था, जो आर्य दिवाकर के विरोधी थे । सन् १९३५ के उत्तरार्ध में यह दशा हो गई थी कि सूरीनाम के सब आर्यसमाजों के लिए एक साथ कार्य करना सम्भव ही नहीं रह गया था । आर्य दिवाकर के विरोधियों ने अपने आर्यसमाजों का पृथक् रूप से निर्माण प्रारम्भ कर दिया था । और इन समाजों ने अपने को “आर्य प्रतिनिधि सभा” के रूप में गठित भी कर लिया था । जिन आर्यसमाजों ने इस प्रतिनिधि सभा के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित किया, उनकी संख्या बारह थी और ये पारामारिबो, बेर्खनसोउप, फैदनबर्ग, हानासुलेस, वेलखदाख्त सेइ, क्वाटा वेख, कोनन्बर्ग, आलक्सार, मारियमबर्ग, लिफोर्नो आदि नगरों में विद्यमान थीं । पारामारिबो में समाज-मन्दिर के लिए भूमि प्राप्त कर ली गई थी और श्रीमती महादेवी ने अपने स्वर्गीय पतिदेव के संकल्प को पूरा करने के लिए अठारह हजार रुपये से उस पर मन्दिर का निर्माण भी प्रारम्भ करा दिया था । सार्वदेशिक सभा ने पण्डित अयोध्या प्रसाद की संस्तुति को स्वीकार कर आर्य प्रतिनिधि सभा को सूरीनाम के आर्यसमाजों का केन्द्रीय संगठन स्वीकृत कर लिया था और उसका विश्व की सार्वभौम सभा के साथ औपचारिक रूप से सम्बन्ध स्थापित हो गया था । इस प्रकार सूरीनाम में आर्यसमाज के दो केन्द्रीय संगठन हो गये – आर्य दिवाकर महासभा और आर्य प्रतिनिधि सभा सूरीनाम । विरोधी केन्द्रीय संगठन के स्थापित हो जाने के कारण आर्य दिवाकर को बहुत धक्का लगा, और उसके कार्यकलाप में शिथिलता आने लग गई । इसी का यह परिणाम हुआ कि सन् १९३९ में स्वामी दयानन्द अनाथालय को अनिश्चित काल के लिए बंद कर देना पड़ा । सन् १९३९ में बीसवीं सदी के द्वितीय महायुद्ध का प्रारम्भ हो गया था । हालैंड और उसके साम्राज्य के विविध देश व उपनिवेश इस महायुद्ध के प्रभाव से अछूते नहीं रह सके थे । युद्ध के कारण सूरीनाम में जो परिस्थिति उत्पन्न हुई, उसका प्रभाव आर्यसमाज की गतिविधि पर भी पड़ा और आर्य दिवाकर में शिथिलता आने लग गई । पर यह दशा देर तक कायम नहीं रही । सन् १९४४ में महायुद्ध में जर्मन पक्ष निर्बल होना शुरु हो चुका था और अमेरिका महाद्वीप में युद्ध के प्रसार की कोई सम्भावना नहीं रह गई थी । इस दशा में ७ जनवरी १९४५ को आर्य दिवाकर द्वारा एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें आर्यसमाज के आन्दोलन में नई स्फूर्ति उत्पन्न करने के लिए निम्नलिखित निर्णय किये गये – (१) स्वामी दयानन्द अनाथालय को पुनः खोल दिया जाय, (२) वैदिक धर्म के प्रचार की समुचित व्यवस्था करने के लिए एक पृथक् प्रचारक मण्डल का निर्माण किया जाय, जिसके सदस्य केवल विद्वान व्यक्ति ही हों । (३) जिन आर्यसमाजों का कार्य शिथिल हो गया है, उनमें नवजीवन का संचार किया जाय और नये समाजों की स्थापना की जाय, (४) जो हिन्दी पाठशालायें पिछले दिनों बन्द हो गयीं थीं, उन्हें अब खोल दिया जाय और हिन्दी की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाय । (५) आर्य दिवाकर की भूमि पर एक नये समाज मन्दिर का निर्माण किया जाय । इस सम्मेलन के पश्चात् आर्य दिवाकर महासभा ने पूर्ण उत्साह के साथ कार्य प्रारम्भ कर दिया । पंडित आर. शिवरत्न की अध्यक्षता में एक प्रचारक-मण्डल का गठन किया गया जिसने नये प्रचारकों के प्रशिक्षण के लिए पाठ्यक्रम नियत कर उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था की । इस के द्वारा एक वर्ष के स्वल्प काल में २२ नये प्रचारकों को प्रशिक्षण दिया गया, जिससे सूरीनाम मे विविध नगरों व प्रदेशों में धर्म-प्रचार कार्य में बहुत सहायता प्राप्त हुई । जिन आर्यसमाजों में शिथिलता आ गयी थी, नये प्रचारकों ने उनमें नवजीवन का संचार किया और कितने ही नये समाज स्थापित किये । सन् १९४६ में स्वामी दयानन्द अनाथालय को फिर से चालू कर दिया गया और आर्य दिवाकर पर जो कर्ज था उसे भी अदा कर दिया गया । साथ ही नये समाज-मन्दिर के लिए धन एकत्र कर उसके निर्माण के कार्य को हाथ में लिया गया । सन् १९४८ में इस नये समाज-मन्दिर का विधिवत् उद्घाटन भी कर दिया गया ।
सन् १९४८ में सूरीनाम में “आर्य महिला समाज” की भी स्थापना हुई । शुरू में इस समाज के सदस्यों की संख्या केवल बीस थी । पर इस समाज की महिलाओं में धर्म-प्रचार और समाज-सेवा के लिए अनुपम उत्साह विद्यमान था । इसीलिए दयानन्द अनाथालय का संचालन व प्रबन्ध आर्य दिवाकर द्वारा इसी समाज को दे दिया गया था । महिला-समाज की स्थापना तथा संचालन में श्रीमती देवराजी मंगल का कर्तृत्व सर्वाधिक था । वह एक विदुषी महिला थी, आर्य सिद्धान्तों का उन्हें समुचित ज्ञान था और धर्मोपदेश तथा प्रवचन में भी वह अत्यन्त निपुण थी । उनके अनथक परिश्रम से आर्य महिला-समाज की निरन्तर उन्नति होती गई । सन् १९६० में श्रीमती मंगल सूरीनाम से हालैंड चली गई थी । उनके पश्चात् महिला-समाज का संचालन श्रीमती रुक्मिणी अभिलाख ने अपने हाथों में ले लिया और उन्होंने उसके कार्य में शिथिलता नहीं आने दी ।
इसमें सन्देह नहीं कि महायुद्ध के पश्चात् सूरीनाम में आर्य दिवाकर का कार्य सुव्यवस्थित रूप से प्रारम्भ हो गया था और उसके द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार, हिन्दी की शिक्षा और अनाथों के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त रूप से प्रयत्न भी किया जा रहा था । बहुत से आर्यसमाज भी उसके साथ सम्बद्ध थे । पर उसके समानान्तर रूप में आर्यसमाजों का एक अन्य संगठन भी सूरीनाम में विद्यमान था जिसे आर्य प्रतिनिधि सभा कहते थे और जिसे सार्वदेशिक से मान्यता प्राप्त थी । इन दो आर्य संगठनों में मौलिक भेद क्या था, इस प्रश्न पर सार्वदेशिक सभा के सत्ताईस वर्षीय कार्य-विवरण के निम्नलिखित वाक्यों से कुछ प्रकाश पड़ता है – “आर्य प्रतिनिधि सभा सूरीनाम की स्थापना के पूर्व वहाँ आर्य दिवाकर नामक एक संस्था थी जिसके द्वारा कभी-कभी यत्र-तत्र आर्यसमाज के प्रचार का कार्य किया जाता था परन्तु इस संस्था के अधिकारियों में अधिकांश ऐसे लोग थे जो आर्यसमाज के सिद्धान्तों तथा उसके संगठन के पोषक नहीं थे बल्कि उनका उद्देश्य एकमात्र यह था कि भोली-भाली जनता को धोखे में डालकर अपने स्वार्थ की पूर्ति करें । इस प्रकार इस संस्था की गतिविधि के प्रति वहाँ की आर्य जनता में अविश्वास उत्पन्न हो गया । तब श्री अयोध्या प्रसाद जी ने उचित समझा कि यहाँ के आर्यसमाजों का संगठन सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के नियमानुकूल किया जाय ।” यह स्वीकार करा सकना तो संभव नहीं है कि आर्य दिवाकर का एकमात्र उद्देश्य भोली-भाली जनता को धोखे में डालकर अपनी स्वार्थ-पूर्ति करना था । उसके द्वारा वैदिक धर्म तथा आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के लिए जो कार्य किया जा रहा था उसके महत्त्व को स्वीकार न करना उसके प्रति अन्याय करना है । पर इस संस्था के कार्यकलाप में कुछ बातें ऐसी अवश्य थीं जिन्हें अविकल रूप से आर्यसमाज के मन्तव्यों के अनुरूप नहीं माना जा सकता । उदाहरण के लिए आर्य दिवाकर में पहले केवल वही पण्डित माने जाते थे और केवल उन्हीं को यज्ञ व संस्कार कराने का अधिकार था, जो जन्म से ब्राह्मण हों, यद्यपि धर्म प्रचार सभी जातियों के विद्वान कर सकते थे । सन् १९८५ के प्रारम्भ में आर्य दिवाकर ने इस व्यवस्था में सुधार किया और आर्यसमाज के मन्तव्यों के अनुसार पौरोहित्य के कार्य को ब्राह्मणेतर विद्वानों द्वारा भी कराया जाने लगा । सन् १९३५ में आर्य प्रतिनिधि सभा नाम से सूरीनाम में आर्यों का जो अन्य एक संगठन कायम हुआ, और १३ जनवरी १९३७ को जिसका सार्वदेशिक सभा के साथ विधिवत् सम्बन्ध स्थापित हो गया, उसके पृथक् रूप से निर्माण में जहाँ आर्य नेताओं के व्यक्तिगत विरोध कारण थे, वहाँ साथ ही कतिपय आर्य सिद्धान्तों तथा मन्तव्यों के संबन्ध में उनमें मतभेदों की सत्ता का भी उसमें हाथ था, इससे इन्कार नहीं किया सकता । पर यह भी सही है कि आर्य दिवाकर द्वारा यह प्रयत्न किया जाता रहा कि उसके कार्यकलाप महर्षि दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों के अनुरूप हों और वह कोई ऐसा कार्य न करे, आर्यसमाज की दृष्टि से जिस पर विप्रतिपत्ति की जा सके । इसीलिये जनवरी १९४५ में उसके द्वारा यह निर्णय कर लिया गया था कि यज्ञ-संस्कार आदि पौरोहित्य कार्य वे सब लोग करा सकें जो वस्तुतः विद्वान हों ।
दक्षिणी अमेरिका के विविध देशों में वैदिक संस्कारों के अनुष्ठान की पद्धति में जो कतिपय भिन्नतायें विद्यमान थीं, उन्हें दूर करने के लिए अक्टूबर १९४९ में आर्य दिवाकर ने एक सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें सूरीनाम, ब्रिटिश गुयाना तथा त्रिनिडाड के अनेक विद्वानों ने भाग लिया था । वैदिक संस्कारों और याज्ञिक अनुष्ठान की विधि के संबन्ध में गम्भीर विचार-विमर्श के अनन्तर सम्मेलन इस निश्चय पर पहुंचा था कि संस्कारों और याज्ञिक अनुष्ठान के लिए उसी पद्धति को प्रयुक्त करना चाहिये जिसका विधान महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने “संस्कार विधि” में किया है ।
यद्यपि सूरीनाम में आर्य प्रतिनिधि सभा विद्यमान है, और अनेक आर्यसमाज उसके साथ संबद्ध हैं, पर इससे आर्य दिवाकर महासभा के कार्यकलाप व महत्त्व में कमी नहीं आई है । वर्तमान समय में जो आर्यसमाज उसके साथ सम्बद्ध हैं, उनकी संख्या अनेक हैं । इनमें से कई आर्यसमाजों के अपने मन्दिर भी हैं । आर्य दिवाकर के साथ सम्बद्ध आर्यसमाजों के २०,००० के लगभग सदस्य हैं । आर्य दिवाकर द्वारा स्थापित स्वामी दयानन्द अनाथालय का कार्य भली-भाँति चल रहा है । उसकी अब अपने पृथक इमारत है, जिसमें २०० अनाथ बच्चों के लिए उपयुक्त स्थान विद्यमान है । आर्य दिवाकर महासभा का वार्षिक बजट करोड़ों रुपये का है जिससे उसके कार्यकलाप का अनुमान लगाया जा सकता है । सन् २००० के फरवरी महीना में आर्य दिवाकर ने एक नये भव्य मन्दिर का उद्घाटन किया जिस के निर्माण करने में ५००,००० अमरीकन डालर खर्च हुआ है । इस सुन्दर मन्दिर को देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते रहते हैं । सभा की अधीनता में लगभग ४५ विद्वान प्रचार कार्य में तत्पर हैं । इनमें से ५-७ महिला प्रचारिकायें भी हैं । हिन्दी भाषा की शिक्षा के लिए आर्य दिवाकर द्वारा सूरीनाम में विशेष रूप से प्रयत्न किया जा रहा है । यहाँ पण्डित शिवरत्न शास्त्री द्वारा एक ऐसा मुद्रणालय भी स्थापित है जिसमें हिन्दी भाषा में भी पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं का मुद्रण होता है ।
सूरीनाम के निकेरी प्रान्त में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार का उल्लेख पहले किया जा चुका है । वहाँ समाज के प्रमुख उन्नायक श्री उदयराजसिंह वर्मा थे । वहाँ आर्यसमाज की जड़ इतनी सुदृढ़ थी कि कि सन् १९३९ में समाज-मन्दिर का भी निर्माण हो गया था और उसके साथ एक पुस्तकालय का भी । निकेरी प्रान्त में पाँच आर्यसमाज थे – निव निकेरी, फानद्रेमलन पोल्दर, हास्तन कूर्त पोल्दर, ख्रोत हेइनार पोल्दर और साव्मिल क्रेइक पोल्दर । ये सब आर्य दिवाकर के साथ सम्बद्ध हैं । पर सूरीनाम के आर्यसमाजों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने में एक बाधा यह थी कि वहाँ जाने के लिए समुद्र के लम्बे मार्ग को प्रयुक्त करना पड़ता था । अब तो मोटर गाड़ी से तीन घण्टों में निकेरी आ-जा सकते हैं । पर श्री उदयराजसिंह वर्मा सदृश कर्मठ आर्य नेता के कारण निकेरी प्रान्त में समाज का कार्य भली-भाँति चलता रहा । परन्तु सन् १९४८ में जब वर्मा जी पारामारिबो चले आये, तो निकेरी में समाज के कार्य में शिथिलता आने लगी और वहाँ के आर्य कार्यकर्त्ताओं में अनेकविध विरोध भी उत्पन्न हो गये । इस दशा में आर्य दिवाकर महासभा ने नवम्बर १९५१ में पण्डित शिवरत्न शास्त्री को अपना प्रतिनिधि बनाकर निकेरी भेजा । वहाँ जाकर पण्डित जी ने आर्यसमाज में नवजीवन का संचार किया और एक प्रचारक मण्डल का गठन कर धर्म प्रचार के कार्य को सुव्यवस्थित किया । सन् १९५३ में आर्य दिवाकर द्वारा एक अन्य शिष्टमण्डल निकेरी भेजा गया जिसे वहाँ हिन्दी भाषा के प्रचर आदि की योजनाएँ बनाकर समाज के कार्य को आगे बढ़ाने में अच्छी सफलता प्राप्त हुई ।
आर्य दिवाकर महासभा के समानान्तर रूप से सूरीनाम के आर्यसमाजों का जो अन्य संगठन “आर्य प्रतिनिधि सभा” नाम से सन् १९३५ में स्थापित हुआ था और “श्रीमती प्रान्तिक आर्य प्रतिनिधि सभा” नाम से सन् १९५० में स्थापित हुआ था, वे भी सूरीनाम में सुचारु रूप से सक्रिय हैं । आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान कार्यालय भी पारामारिबो में हैं और इसे केन्द्र बनाकर यह समाज द्वारा सारे सूरीनाम देश में वैदिक धर्म के प्रचार के लिए प्रयत्न किया जा रहा है । श्रीमती प्रान्तिक आर्य प्रतिनिधि सभा का प्रमुख कार्यालय पाद-फान-वानिका प्रदेश में है, जहाँ से इस के द्वारा देश में वैदिक धर्म के प्रचार के लिए सुचारू रूप से कार्य हो रहा है ।
भारत के कितने ही विद्वान, पण्डित, सन्यासी तथा प्रचारक समय-समय पर सूरीनाम में धर्म-प्रचार के लिए आते रहे, जिनमें –
पण्डित जैमिनी (सन् १९२१), पण्डित हरिप्रसाद (सन् १९३२), पण्डित अयोध्याप्रसाद (सन् १९३४), पण्डित सत्याचरण शास्त्री (सन् १९३५), पण्डित भास्करानन्द (सन् १९३६), पण्डित श्रुतिकान्त (सन् १९३६), पण्डित नारायणदत्त (सन् १९३८), प्रोफेसर रामसहाय (सन् १९४४), पण्डित प्रेमानन्द (सन् १९४८), पण्डित ऋषिराम (सन् १९४५), पण्डित उर्षबुध (सन् १९५७), पण्डित देवप्रकाश पातञ्जल (सन् १९५७), महात्मा आनन्द स्वामी (सन् १९६९), पण्डित श्रुतिलाल शर्मा (सन् १९७२), पण्डित श्यामसुन्दर स्नातक (सन् १९७९), पण्डित धर्मपाल शास्त्री (सन् १९९६), स्वामी सत्यम् (सन् १९९८), डॉ० रविप्रकाश आर्य (सन् २००२) के नाम उल्लेखनीय हैं । इतने आर्य विद्वानों का इस सुदूर देश में धर्मप्रचार के लिए आना ही यह सूचित करने के लिए पर्याप्त है कि यहाँ आर्यसमाज का कितना अधिक प्रचार है ।
इस प्रसंग में यह बता देना भी आवश्यक है कि भारत से बाहर सूरीनाम ही ऐसा देश है जहाँ कि सर्वसाधारण जनता की भाषा हिन्दी है, और जहाँ इस भाषा की पढ़ाई की पर्याप्त रूप से समुचित व्यवस्था है । यहाँ आर्यसमाज का एक प्रधान कार्य हिन्दी भाषा का प्रचार भी रहा है ।
साथ ही आर्य दिवाकर की ओर से एक “आर्य दिवाकर सन्देश” नामक मासिक पत्रिका हिन्दी-डच में नियमित रूप से प्रकाशित होती है ।
सूरीनाम में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आर्यसमाज की भूमिका
हमारे पूर्वज सन् १८७३ से १९१६ तक सूरीनाम में लाये गये । इस अवधि में लगभग ३४,००० भारतवंशी यहां आये । जिन्होंने इस देश में रहना पसन्द किया उनको सरकार की ओर से एक टुकड़ा जमीन के साथ सौ रुपये भी दिये गये । इन लोगों में ऐसे व्यक्ति भी थे जिन पर भारत में ही महर्षि दयानन्द के विचारों का प्रभाव पड़ा था । इसलिये इन्होंने उन विचारों को दूसरों तक पहुँचाने के लिए अनेक तरीके अपनाये, जैसे – आर्यभाषा (हिन्दी) के प्रचार-प्रसार हेतु –
- (क) घर में, गाँव में, आपस में अपनी भाषा बोलना,
- (ख) परिवार वालों के साथ बैठकर सुबह-शाम प्रार्थना करना ताकि सब पर अच्छा संस्कार पड़े,
- (ग) हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि जानने वालों को एकत्रित करना तथा अपनी पहली पीढ़ी की सन्तानों के साथ गाँव वालों को भी लिखना-पढ़ना सिखाना,
- (घ) गाँव वालों को संगठित करके छोटे-छोटे समाजों का निर्माण करना, उसके सदस्य बनना और अपने विचारों को इन संगठनों के माध्यम से औरों तक पहुँचाना, प्रार्थना-समाज, स्वाध्याय मंडल, रामायण वाचन, कजरी समाज, नवटंकी नाटक, हिन्दी कक्षाएँ ।
अपने उद्देश्य में सफल होने के लिए स्वामीजी के अनुयायियों ने अति होशियारी से कदम आगे बढ़ाया । वे अपने समाज की सर्वांगीण उन्नति चाहते थे । इसलिए सन् १८९० तक इन्होंने कार्य अपने घरों और गावों से आरम्भ किया तथा अपनी भाषा, धर्म, संस्कृति, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की माँग सरकार से की । वे सफल भी हुए । सन् १८९० में सरकार की ओर से भारतीय मूल वालों के आस-पास की पाठशालाओं में हिन्दी पढ़ाने के लिए अनुमति दी गई । निर्माण किये गये संगठनों में तैयार हुए हिन्दी-देवनागरी तथा उर्दू जानने वाले पढ़ाने के लिए नियुक्त हुए । शिक्षण में श्रवण, भाषण तथा वाचन कौशलों पर अधिक ध्यान दिया जाता था । घरों में, गांवों की झोंपड़ियों में एवं सरकारी पाठशालाओं में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी । हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर इस कार्य को औपचारिक रूप से १९०७ तक और अनौपचारिक रूप से सन् १९३५ तक संभाला । इसके बाद संस्था आर्य दिवाकर और सनातन धर्म महासभा द्वारा सन् १९२९ से आज तक स्वाध्याय मंडलों द्वारा हस्तलिखित मन्त्र (गायत्री, ओ३म् भूर्भुवः स्वः, त्वमेव माता आदि) के पत्र परचे तथा पत्रिकायें वितरित की जातीं थीं । इन मंडलों द्वारा विचार-विमर्श होता रहता था । अन्य धर्म वाले भी इनमें समय-समय पर भारतवंशियों के उपकार के लिए उपस्थित होते थे । उदाहरण –
स्वाध्याय मंडल La Providence, जिला सारामाका । संयोजक थे श्री गोपालराय (बाबा रघुबर), दलसिंहार अभिलाख और पंडित लक्ष्मीप्रसाद बलदेव (बग्घा) । इन लोगों ने सन् १९५५ तक सराहनीय कार्य किया, कक्षाओं के वास्ते पाठ बनाना (प्रश्न-उत्तर, गाँव की समस्या पर, वैदिक विचारधारा पर, खाने-पीने पर, हिन्दी भाषा के महत्व आदि पर) । सन् १९३५ के बाद छात्रों को ‘बहनों की बातें’ और ‘धार्मिक शिक्षा’ नामक पुस्तकों से प्रश्न-उत्तर कंठस्थ कराए जाते थे और उनको मंदिरों में या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता था और परचों आदि के साथ पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था (साइक्लो स्ताइल कर के) । इसके अतिरिक्त आर्यसमाज के दसों नियम, गायत्री मन्त्र अर्थ सहित, भजन और विशेष अवसरों पर संदेश घर-घर पहुँचाया जाता था । आज संस्था आर्य दिवाकर अपनी हिन्दी पत्रिका आर्य दिवाकर संदेश के माध्यम से इस कार्य को करती है । आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं ने गाँव-गाँव में हिन्दी पाठशालायें खोलीं थीं, आज भी हम इसमें लगे हुए हैं । पहले भारत के पंडित-प्रचारक यहाँ आते थे और धार्मिक प्रचारकों के साथ-साथ हिन्दी पढ़ाने वालों को भी प्रशिक्षित करने में सहयोग देते थे । आज भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र, सूरीनाम हिन्दी परिषद और संस्था माता गौरी शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य में हमें सहयोग देते हैं ।
आर्यसमाज द्वारा जनसंचार के माध्यम से और उनकी प्राइमरी तथा सेकंडरी स्कूलों के माध्यम से हिन्दी तथा सरनामी हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार होता है । धार्मिक प्रचार हिन्दी और डच दोनों भाषाओं में होता है ।
सूरीनाम के आर्यसमाज इस देश की हिन्दी संस्थाओं को सहयोग देते हैं और अपने छात्रों को उनकी परीक्षाओं में बैठने को भेजते हैं । हम सूरीनाम के वासी हिन्दी के प्रचार की दिशा में अपनी शक्ति एवं मति के अनुसार प्रयास करते रहते हैं ।
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