Bharukachchha
Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.) |
Bharukachchha (भरुकच्छ) is an ancient Janapada and a tribe mentioned by Panini and in Mahabharata (II.28.50). Bharukachchha has been identified with Bharuch in Gujarat, India.
Variants
- Bharukachchha (भरुकच्छ) (AS, p.661)
- Bharurashtra (भरुराष्ट्र) (AS p.661)
- Bharurattha (भरुरट्ठ) (=भरुराष्ट्र) (AS, p.661)
- Bhrigukachchha (भृगुकच्छ) = Bhadaunch (भड़ौञ्च), गुजरात, (AS, p.676)
- Po-lu-kie-che-po (Xuanzang)
Mention by Panini
Bhrigukachchha (भृगुकच्छ) is mentioned by Panini in Ashtadhyayi. [1]
History
See Bharuch
Visit by Xuanzang in 640 AD
Alexander Cunningham[2] writes that In the seventh century the district of Po-lu-kie-che-po, or Barukachwa, was from 2400 to 2500 li, or from 400 to 417 miles, in circuit; and its chief city was on the bank of the Nai-mo-tho, or Narmmada river, and close to the sea. With these data it is easy to identify
[p.327]: the capital with the well-known seaport town of Bharoch, under its Sanskrit name of Bhrigu-Kachha as written by the Brahmans, or Bharukachha as found in the old inscriptions. The latter was no doubt the more usual form, as it is almost literally preserved in the ΒαρύΎαξα of Ptolomy, and the 'Periplus'. From Hwen Thsang's measurement of its circuit, the limits of the district may be determined approximately as extending from the Mahi[3] river on the north, to Daman on the south, and from the Gulf of Khambay on the west to the Sahyadari mountains on the east.
According to the text of Hwen Thsang, Bharoch and Balabhi were in Southern India, and Surashtra in "Western India ; but as he places Malwa in Southern India, and Ujain in Central India, I look upon these assignments as so many additional proofs of the confusion which I have already noticed in the narrative of his travels in Western India. I would therefore assign both Balabhi and Bharoch to Western India, as they formed part of the great province of Surashtra. The correctness of this assignment is confirmed by the author of the 'Periplus,' who notes that below Barygaza the coast turns to the south, whence that region is named Dakhinabades, as the natives call the south Dakhanos.[4]
भरुकच्छ
विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है ...भरुकच्छ = भृगुकच्छ (AS, p.661) भड़ौंच का रूपांतरण है. महाभारत सभापर्व 51,10 में भरुकच्छ निवासियों का युधिष्ठिर की राजसभा में गांधार देश के बहुत से घोड़ों को भेंट में लेकर आने का वर्णन है--बलिं च कृत्सनमादाय भरुकच्छनिवासिन, उपनिन्युर्महाराज हयानमाघारदेशजान्' इसके आगे सभापर्व (51,10) समुद्रनिष्कुट प्रदेश के निवासियों का उल्लेख है. समुद्रनिष्कुट कच्छ का प्राचीन अभिधान था. इससे भरुकच्छ का भडौंच से अभिज्ञान पुष्ट हो जाता है. शूर्पारक जातक में भरुकच्छ को भरुराष्ट्र का मुख्य स्थान माना गया है. इस जातक में भरुकच्छ के समुद्र-व्यापारियों की साहसिक यात्राओं का वर्णन है. भरुकच्छ का उल्लेख (एक पाठ के अनुसार) रुद्रदामन् के गिरनार अभिलेख में है--'सुराष्ट्र श्वभ्रभरुकच्छ सिंधु सौवीर कुकुरापरान्त निषादादीनां...।'
भरुकच्छ - भृगुकच्छ
भड़ौंच नगर का प्राचीन नाम है। यहीं महर्षि भृगु का आश्रम था।[6] भरूच प्राचीन काल में 'भरुकच्छ' या 'भृगुकच्छ' के नाम से प्रसिद्ध था। भरुकच्छ एक संस्कृत शब्द है, जिसका तात्पर्य ऊँचा तट प्रदेश है। भड़ौच प्राक् मौर्य काल का एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। इसके बाद के कई सौ वर्षों तक इसका महत्त्व बना रहा और आज भी है। यूनानी भूगोलवेत्ता 'पेरिप्लस ऑफ द इरिथ्रियन सी' के लेखक टॉल्मी ने भरुकच्छ को बैरीगोजा कहा है। उसके अनुसार समुद्र से 3 मील दूर पर नर्मदा नदी के उत्तर की ओर स्थित बैरीगोजा एक बड़ा पुर था।
संदर्भ: भारतकोश-भृगुकच्छ
भरूच
भरूच गुजरात राज्य में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। भरूच प्राचीन काल में भरुकच्छ या भृगुकच्छ के नाम से प्रसिद्ध था। भरुकच्छ एक संस्कृत शब्द है, जिसका तात्पर्य ऊँचा तट प्रदेश है। भड़ौच प्राक् मौर्य काल का एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था, इसके बाद के कई सौ वर्षों तक महत्त्व बना रहा और आज भी है। यूनानी भूगोलवेत्ता पेरिप्लस ऑफ द इरिथ्रियन सी के लेखक टॉलमी ने भरुकच्छ को बैरीगोजा कहा है। उसके अनुसार समुद्र से 3 मील दूर पर नर्मदा नदी के उत्तर की ओर स्थित बैरीगोजा एक बड़ा पुर था।
रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख (150 ई.) में भरुकच्छ का वर्णन है। जातक कथाओं में भरुकच्छ के समुद्र व्यापारियों की साहसिक यात्राओं का विशद् वर्णन है। दिव्यावदान के अनुसार भरुकच्छ घना बसा हुआ एक सम्पन्न नगर था। यह नगर समुद्री व्यापार एवं वाणिज्य का ईसा पूर्व से ही महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा। टॉलमी के अनुसार यह पश्चिमी भारत में व्यापार का सबसे बड़ा केन्द्र था। पाश्चात्य देशों वाले यहाँ से विलासिता के सामान ले जाते थे, जिनमें गंगा के निचले भागों की बनी सुन्दर मलमल भी थी। युवानच्वांग, जो सातवीं शताब्दी में यहाँ आया था, इसकी परिधि 2,400 या 2,500 ली बताई। यहाँ की भूमि लवणयुक्त थी। समुद्री जल को गरम करके नमक बनाया जाता था और लोगों की जीविका का आधार समुद्र था। उसने लिखा है कि यहाँ दस बौद्ध विहार थे, जिनमें महायान स्थविर सम्प्रदाय के 300 भिक्षु रहते थे।
पेरिप्लस में वर्णित है कि बन्दरगाह पर राजा के रनिवास के लिए सुन्दर स्त्रियाँ विदेशों से लायी जाती थीं। उम्मान और अपोलोगस से सोना और चांदी भड़ौंच लाई जाती थी। टिन, तांबा और सीसा भी विदेशों से भड़ौंच लाया जाता था। शीशे के बर्तन विदेशों से भड़ौंच ही लाए जाते थे। इसी ग्रंथ में यह उल्लेख है कि भृगुकच्छ के पास के समुद्र में ज्वार-भाटे के कारण कई नाविकों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। यहाँ चीन और सिंध दोनों ओर से व्यापारिक जहाज़ आते थे।
यहाँ पर लगभग दस देव मन्दिर थे, जिनमें विविध सम्प्रदायों के मतावलम्बी रहते थे। मध्यकाल में भी भड़ौंच एक प्रमुख बन्दरगाह था।
संदर्भ: भारतकोश-भरूच
भरुराष्ट्र
विजयेन्द्र कुमार माथुर[7] ने लेख किया है ...भरुराष्ट्र (AS, p.661) भृगुकच्छ या भड़ौन्च जनपद का नाम है. शूर्पारक-जातक में भरुरट्ठ (=भरुराष्ट्र) का नमोल्लेख इस प्रकार है-- 'अतीते भरुरट्ठे भरुराजा नाम रज्ज कारेसी, भरुकच्छ नाम पट्टनगामो अहोसी'-- अर्थात भरुराष्ट्र में भरुराजा राज करता था जिसकी राजधानी भरुकच्छ में थी. इस प्रदेश के समुद्रवणिकों की साहस यात्राओं का रोमांचकारी वृतांत शूर्पारक जातक में वर्णित है. (देखें भृगुकच्छ)
अग्निमाली
विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है ...अग्निमाली (AS, p.10) शूर्पारक-जातक में वर्णित एक सागर-'यथा अग्गीव सुरियो व समुद्दोपति दिस्सति, सुप्पारकं तं पुच्छाम समुद्दो कतमो अयंति। भरुकच्छापयातानं वणि-जानं धनेसिनं, नावाय विप्पनट्ठाय अग्गिमालीति वुच्चतीति।'
अर्थात् जिस तरह अग्नि या सूर्य दिखाई देता है वैसा ही यह समुद्र है; शूर्पारक, हम तुमसे पूछते हैं कि यह कौन-सा समुद्र है? भरुकच्छ से जहाज़ पर निकले हुए धनार्थी वणिकों को विदित हो कि यह अग्निमाली नामक समुद्र है।
इस प्रसंग के वर्णन से यह भी सूचित होता है कि उस समय के नाविकों के विचार में इस समुद्र से स्वर्ण की उत्पत्ति होती थी। अग्निमाली समुद्र कौन-सा था, यह कहना कठिन है। डॉ. मोतीचंद के अनुसार यह लालसागर या रेड सी का ही नाम है किंतु वास्तव में शूर्पारक-जातक का यह प्रसंग जिसमें क्षुरमाली, नलमाली, दधिमाली आदि अन्य समुद्रों के इसी प्रकार के वर्णन हैं, बहुत कुछ काल्पनिक तथा पूर्व-बुद्धकाल में देश-देशांतर घूमने वाले नाविकों की रोमांस-कथाओं पर आधारित प्रतीत होता है। भरुकच्छ या भडौंच से चल कर नाविक लोग चार मास तक समुद्र पर घूमने के पश्चात् इन समुद्रों तक पहुंचे थे। (दे. क्षुरमाली, बड़वामुख, दधिमाली, नलमाली, कुशमाल)
In Mahabharata
Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 28 mentions Sahadeva's march towards south, kings and tribes defeated. Bharukachchha (भरुकच्छ) is mentioned in Mahabharata (2.28.50). [9].... the virtuous and intelligent 'son of Madri' (Sahadeva) having arrived at the sea-shore, then despatched with great assurance messengers unto the illustrious Vibhishana, the grandson of Pulastya....
References
- ↑ V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.65
- ↑ The Ancient Geography of India/Gurjjara, p.326-327
- ↑ The Mais river of Ptolemy.
- ↑ Peripl. Mar. Erythr., in Hudson's Geogr, Vet., i. 20i
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.661
- ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 557, परिशिष्ट 'क' |
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.661
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.10
- ↑ भरु कच्छं गतॊ धीमान, दूतान माद्रवतीसुतः, परेषयाम आस राजेन्थ्र पौलस्त्याय महात्मने, विभीषणाय धर्मात्मा परीतिपूर्वम अरिंदमः Mahabharata (II.28.50)