Ghori Palwal
Ghori (घोडी) is a village in Palwal tahsil of Palwal district of Haryana.
Location
It is close to Yamuna river bank, about 11 km. away from Palwal town.
Origin
Jat Gotras
History
कप्तान सिंह देशवाल लिखते हैं -
गाँव घोड़ी के पूर्वज गाँव दुल्हेड़ा से सन् 1270 में गाँव मिर्जापुर में आये थे। यह कबीला पानी की और उपजाऊ भूमि की तलाश में गाँव दुल्हेड़ा से आया था। पहले जमीन का कोई भी स्थाई मालिक नहीं होता था। जितनी जमीन पर कहीं जाकर कब्जा कर लिया वह उसी की होती थी। कई बार तो ताकतवर कबीले दूसरे गाँव व उपजाऊ जमीन पर कब्जा कर लेते थे।
इस गाँव में देशवाल व्यक्तियों का परिवार 100 वर्षों तक शांति से रहा था। गाँव मिर्जापुर में दूसरे गौत्र के जाट भी रहते थे। इन दोनों कबीलों का कई बार आपस में झगड़ा हुआ था। एक बार झगड़ा ज्यादा उग्र रूप ले गया। इस झगड़े में देशवाल गौत्र की विजय हुई थी। दूसरा गौत्र गाँव में तेवतिया गौत्र के जाट थे। झगड़े में विजय होने के बाद एक समझदार ब्राह्मण ने कहा कि देशवाल गौत्र को यह गाँव छोड़ देने में ही भलाई है। ब्राह्मण के पत्रे के अनुसार पण्डित जी ने कहा कि आप अपनी घोड़ी को छोड़ दो। जहाँ पर घोड़ी रुक जाये, वहाँ पर अपना गाँव बसा लेना, वह जगह शुभ होगी।
बुजुर्ग स्वतन्त्रता सेनानी चौ. किशोरीलाल और चौ. जसवन्त सिंह देशवाल ने गाँव के बारे में और देशवाल गौत्र की बहादुरी के बारे में अति खुश दिल से बताया कि दादा चौ. मालदे राम देशवाल ने सन् 1370 में जहाँ पर घोड़ी खड़ी हुई वहीं पर जमना जी (यमुना) के किनारे पर यज्ञ हवन और भण्डारा करके दादा जी ने अपना नया गाँव बसा दिया। घोड़ी की बताई हुई जगह (जमीन) के कारण इस गाँव का नाम घोड़ी रखा गया। यह गाँव पहले किसी और नाम से छोटा-सा मुसलमानों का गाँव था। इस गाँव के बारे में एक मत यह है कि यह मुसलमानों से खरीदा गया था। मुसलमान यहाँ पर नहीं रहना चाहते थे क्योंकि चारों तरफ हिन्दुओं के गाँव थे। हिन्दुओं से ये डरते थे। हिन्दू इनके साथ अक्सर झगड़ा करते रहते थे। मुसलमानों को यहाँ से खदेड़ा गया और दादा मालदे राम देशवाल के परिवार की पहले भी बहादुरी की चर्चा थी। अतः यहाँ के मुसलमान डर के मारे कुछ पहले ही गाँव छोड़कर भाग गये। अपने नये गाँव का नाम घोड़ी रख दिया।
पिछले गाँव मिर्जापुर में आज भी देशवालों के द्वारा बनाई गई चौपाल, कुआँ, मन्दिर और प्याऊ हाजिर है। इस गाँव मे देशवाल गौत्र का कोई भी घर नहीं है। यहाँ के लोग इसे देशवाल का खेड़ा भी मानते और कहते हैं।
विशेषताऐं -
- घोड़ी गाँव में नौ पट्टी जाटों की हैं। यहाँ पर हमारे गाँवों की तरह पान्ने नहीं हैं। ये लोग ठोळे को पट्टी के नाम से पुकारते हैं। टडेरे, बुचेरा, पटमा, निचले, पछियाँ, मुतेरे, धनेरे, जिन्दा और खटिकरे के नाम से प्रसिद्ध हैं। दयाल के पुत्र बुचेरा और पटमा से दो पट्टी बनी। पटमा से आशाराम और देवलाल हुए।
- इस गाँव की कुल जमीन 25000 पक्का बीघा है। हरयाणा में देशवाल गौत्र के इस गाँव में सबसे ज्यादा जमीन है। इतनी जमीन किसी भी गाँव में नहीं है।
- यह गाँव यमुना (जमना-जी) पर बसा हुआ है।
- पलवल से यह गाँव 11 किलोमीटर पर पूर्व दिशा यमुना पर आबाद है।
- पं. भगंडे और अन्य देशवाल जाट हर रोज मुसलमानों का सिर काट कर यमुना नदी में फेंक देते थे। ये लोग वीर बहादुर थे।
- इस गाँव में गोरधन सत्य पुरुष हुए हैं। पं. जमनी, ननूवा जाट अपने समय के प्रसिद्ध कवि होते थे।
- भरतपुर नरेश जवाहरसिंह ने दिल्ली पर चढ़ाई करते समय गाँव घोड़ी में सेना सहित पड़ाव डाला था। सारी सेना का और घोड़े, हाथियों के भोजन का प्रबन्ध गाँव की तरफ से नि:शुल्क था। यहाँ पर एक तपस्वी साधु ने जवाहरसिंह को मुहूर्त देखकर विजय का आशीर्वाद दिया था। दिल्ली तोड़ी गई। वापिस आते समय जवाहरसिंह ने यहाँ पर एक मन्दिर बनवाया था। नोट - दिल्ली की लड़ाई के बारे में आपको विस्तार से देशवाल गौत्र की उत्पत्ति भाग नं. 1 पुस्तक में पढ़ने को मिलेगा। इस लड़ाई में घोड़ी गाँव के 600-700 देशवाल किसानों ने भाग लिया था। पाँच पहलवान भी गये थे। ऐतिहासिक लड़ाई में 4800 देशवाल जवान थे, 2200 तनख्वाह पर बाकी बिना वेतन के युद्ध करने गये थे।
- यहाँ पर बाबा लचरदास की मान्यता है। शिव और हनुमान जी के अलावा अन्य देवी-देवताओं के मन्दिर भी हैं। लोगों की इन सबमें आस्था भी है। लेकिन बाबा लचरदास के बारे में कहते हैं कि यह बाबा जी तपस्वी था, इसने गाँव के मन्दिर में सदा के लिए लोगों को उत्साहित किया था। मन्दिर में भंडारा चलाने के लिए हर गाँववासी अपनी फसल का (अनाज) दसवाँ हिस्सा मन्दिर में देता था। यह परम्परा आज भी गाँव में चली आ रही है। तपस्वी बाबा के आशीर्वाद से गाँव में कोई भी प्राकृतिक आपदा नहीं आती है। ओलावृष्टि आदि का आज तक कोई भी नुकसान नहीं हुआ है। आदमियों व पशुओं में किसी भी किस्म की खतरनाक बीमारी का प्रकोप नहीं होता। दिल्ली की ऐतिहासिक लड़ाई के बारे में देशवाल गौत्र की पंचायत ने महाराजा जवाहरसिंह की सहायता में 2600 जवान बिना वेतन के सदा मदद के लिए घोषित किये थे। लड़ाई के समय पर ये जवान युद्ध करते और खाली समय पर अपने घर आ जाते थे। अस्त्र-शस्त्र राजा के होते थे। राजा के पास 2200 देशवाल जवान पक्के सैनिक थे।
- इस गाँव में पहलवान बहुत हुए जो भरतपुर राजा की फौज में रहे हैं। श्यामसिंह पहलवान हुए हैं। कल्लुमल पहलवान के बारे में सुना है कि किसी भी पहलवान ने इसको अखाड़े में चित (हराना) नहीं किया। यह पहलवान हर रोज यमुना नदी में स्नान करने जाता था। एक दिन जिस समय वह यमुना नदी में स्नान कर रहा था, वहाँ पर एक मगरमच्छ आ गया। मगरमच्छ ने कल्लुमल का हाथ पकड़ लिया। दोनों में जोर आजमाईस शुरु हो गई। मगरमच्छ कल्लुमल को गहरे पानी में ले जाकर अपना शिकार करना चाहता था। कल्लुमल किनारे की तरफ खींच रहा था। पहलवान कल्लुमल ने दूसरे हाथ की मदद से उस मगरमच्छ को जोर से पकड़ कर आखिर में किनारे पर खींच लिया। कल्लुमल ने उस मगरमच्छ को बाहर निकाल कर मार दिया। उस मगरमच्छ का आकार लगभग 15 फुट और वजन 4 क्विंटल के करीब बताया जाता है। मगरमच्छ का मुख दोनों हाथों से चौड़ा करके उसके सब दांत तोड़ दिये थे जिसके कारण अत्यधिक खून निकलने के कारण और उसका मुख तोड़ने (फाड़ने) के कारण वह किनारे पर मर गया। आज भी गाँव और आस-पास के क्षेत्र में किसी बात को लेकर यह आम कहावत बन गई है कि तुम क्या कल्लुराम पहलवान बन गए हो।
- इस गाँव में चौ. रामचन्द्र देशवाल सुपुत्र गुटिया, रामचन्द्र, लोहरे और चौ. किशोरी लाल पोस्ट क्लर्क मुख्य स्वतन्त्रता सेनानी हुए हैं। चौ. किशोरी लाल देशवाल की आयु 100 वर्ष से ऊपर है और ये वर्तमान में (पुस्तक लिखे जाने तक) हाजिर हैं। इन्होंने आजादी की लड़ाई के बारे में और अपने साथियों के साथ जो दुर्दशा का वृत्तान्त व यातनाओं के बारे में बताया, यह सब दिल को दहलाने वाली घटना है। चौ. किशोरी लाल देशवाल ने बताया कि देश में आजादी की लड़ाई पूरे यौवन में थी। उस समय पर हर छोटा-बड़ा पुरुष व महिला अपने देश के लिए मर मिटने के लिए पूरी तरह से तैयार था। मैं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की सेना में था। मुझे पकड़ कर 6 महीने के लिए सैन्ट्रल जेल दिल्ली में डाल दिया। जेल से निकलने के बाद हमारे अनेक साथी नेताजी की सेना में जा मिले। जेल के अन्दर हमें अनेक यातनाऐं सहनी पड़ीं। हमारे साथियों को एक दूसरे का पेशाब पिलाया गया। उल्टे लटकाकर हंटर व बैंतों से पिटाई हर रोज होती थी। भोजन में कंकर, नीम के पत्ते और अन्य गला-सड़ा खाने को मिलता था। कई बार तो हमें भूखा रखा जाता था। नेताजी के गुम हो जाने से आजाद हिन्द फौज तितर-बितर हो गई। लेकिन संघर्ष फिर भी चलता रहा। हमारा देश स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष से व अन्य भारत माँ के सपूतों की कुर्बानियों से आजाद हुआ है। गर्म-दल की ही देन है जो आज हम आजाद हैं। अंग्रेज शान्ति से देश से निकलने वाले नहीं थे। देश आजाद होने से पहले हम लाहौर में थे। अंग्रेज हमारा पीछा कर रहे थे। हमारे साथियों ने अनेक अंग्रेजों को आगे-पीछे से मौत के घाट उतारा। आजादी के बाद मुझे पोस्ट आफिस में नौकरी मिल गई। मैंने निष्ठा और ईमानदारी से अपना काम किया जिसकी वजह से इतनी बड़ी उम्र में मैं ठीक हूँ। पिछली यातनाओं को बताते समय चौ. किशोरीलाल जी भावुक हो गए थे।[1]
Population
Notable Persons
External Links
References
- ↑ कप्तान सिंह देशवाल : देशवाल गोत्र का इतिहास (भाग 2) (Pages 96-101)
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