Kharak Singh
Maharaja Kharak Singh (Hindi:महाराज खड़गसिंह, Punjabi: ਖੜਕ ਸਿੰਘ, February 22, 1801 – November 5, 1840), was a Jat Sikh ruler of the sovereign kingdom of Lahore Durbar Government located in Punjab. He was the eldest legitimate son of Ranjit Singh of Lahore and Maharani Datar Kaur. He succeeded his father in June 1839. He was removed from power on 8 October 1839 and replaced by his son Prince Nau Nihal Singh. Kharak Singh became a prisoner and died from a slow poisoning on 5 November 1840.
Death due to Poisoning
Maharaja Kharak Singh was the first Prince designate of Sandhawalia Jat ruler Maharaja Ranjit Singh and died of slow poisoning on November 5, 1840. He was administered dozes of white lead in wine at the instance of Dhian Singh. The Dogra brothers had hatched a conspiracy to kill all the eligible princes of the Maharaja.
Dhian Singh's record is so dark and dirty in intrigues and murders, that all historians agree on his capability to carry out the same. His keeping even the mother of the prince away from the injured son, throws serious doubts over his credibility.
Kunwar Nau Nihal Singh
November 6, 1840. Kunwar Nau Nihal Singh, Son of Maharaja Kharak Singh of Lahore, and 3rd last Maharaja of Sandhawalia Jat dynasty, died at Lahore. At the cremation of Maharaja Kharak Singh, Prince Nau Nihal Singh, while walking under an archway was seriously injured by falling stones. Udham Singh Dogra, son of Gulab Singh Dogra , walking with him died instantaneously. Dhian Singh who was following them was badly bruised. Prince Nau Nihal Singh died of injuries.
Source - Jat Kshatriya Culture
महाराज रणजीतसिंह की वंशावली
जौनधर (भटिंडा का राजा) → सधवा → सहस्य → लखनपाल → धरी → उदयरथ → उदारथ → जायी → पातु → डगर → करुत (कीर्ति) → वीरा → बध्या → कालू → जोंधोगन → वीतू या सट्टू → राजदेव → वाप्ता → प्यारा → बुद्धा (d.1716) → विद्धा (विधसिंह)/नौध (d.1752) → चरतसिंह (d.1774) → महासिंह (d.1792) → रणजीतसिंह (b.1780-d.1839) →1
1. यह वंश-वृक्ष हमने पंजाब केसरी (ले० नन्दकुमार देव शर्मा) से उद्धृत किया है। पे० परि० (ग पे०) 249-251 ।
इतिहास गुरुखालसा में लिखा है कि महाराज शालिवाहन ने स्यालकोट में राज्य स्थापित किया था। वि० सं० 135 में इसने विक्रमाजीत राजा को देहली में परास्त करके उसका सिर काट था। दिल्ली ही में इसने शक संवत् चलाया था। राजा विक्रम 300 वर्ष जीवित रहे थे, ऐसा कहा जाता है। एक इतिहास में शालिवाहन यदुवंशी था जो कि गजनी से लौट कर आया था, ऐसा लिखा है। एक शालिवाहन दक्षिण के शातिवाहनों में भी था, किन्तु यह शालिवाहन यदुवंशी ही जान पड़ता है। इसी के वंश में पूर्णभक्त और रसालु हुए हैं ।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-302
- खड़गसिंह (d.1840) → नौनिहालसिंह (1840)
- शेरसिंह → बखसिंह + परताबसिंह + देवासिंह + शहदेवसिंह + नारायणसिंह + ठाकुरसिंह + करमसिंह
- दिलीपसिंह → विक्टर
नोट - यह वंशावली जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठ.302-303 से ली गई है.
महाराज खड़गसिंह-नौनिहालसिंह
ठाकुर देशराज [1] ने लिखा है.... महाराज रणजीतसिंह ने खड़गसिंह को अपना उत्तराधिकारी बना तो दिया था, किन्तु वह राज्य-शासन संचालन के सर्वथा अयोग्य साबित हुए। थोड़े ही दिनों पीछे राजा ध्यानसिंह में और उनमें मन-मुटाव हो गया और धीरे-धीरे वे एक दूसरे के प्राण-शत्रु हो गए। दोनों ही महाराज के अन्तिम आदेश को भूल गए। महाराज खड़गसिंह ने अपने कृपा-पात्र चेतसिंह को मंत्री बना लिया और आप ऐश-आराम में फंस गए। राज-भवन में शराब के फव्वारे छूटने लगे। चेतसिंह के मंत्री बनाये जाने के बाद राजा ध्यानसिंह और भी चिढ़ गए और महाराज की अमंगल-कामना के लिए भयानक षड्यंत्र रचने लगे। उन्होंने सिख-सैनिकों और सरदारों में प्रकट किया - महाराज खड़गसिंह ने अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार कर ली है। वे अंग्रेजों को अपनी राज्य-आय में से प्रति रुपया छः आना देंगे। अब पंजाबी सेना में सिखों के स्थान पर अंग्रेजी अफसर और सैनिक रक्खे जायेंगे। सिख अंग्रेजों की वक्र-दृष्टि से शंकित तो थे ही, उसकी यह युक्ति काम कर गई। उन्होंने ध्यानसिंह की बात को सही मान लिया। राजा ध्यानसिंह ने महाराज खड़्गसिंह की रानी और उनके पुत्र नौनिहालसिंह के हृदय में भी यही भाव पैदा कर दिए। अपने बाप की विलासिता से कुंवर नौनिहालसिंह शंकित तो पहले ही से थे, उसकी शंका निर्मूल भी न थी। शेरसिंह इस समय अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने की प्रार्थना इसलिए कर रहे थे कि पंजाब का राज्य मुझे मिले। शेरसिंह का कहना था कि मैं महाराज रणजीतसिंह का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। एक दिन राजा ध्यानसिंह ने कई सरदारों की सहायता से चेतसिंह को मरवा डाला। चेतसिंह था भी दुश्चरित्र और दुष्ट स्वभाव का। महाराज खड़गसिंह को एक तरह से बन्दी बना लिया गया। कर्नल वेड ने इस समय यह दिखाया कि हम महाराज खड़गसिंह के सम्मान की पूर्ण रक्षा करेंगे। वे वास्तव में ऐसी बात सिख-साम्राज्य हित के लिए नहीं, किन्तु अपनी भलाई के लिए कर रहे थे। चेतसिंह को ध्यानसिंह, गुलाबसिंह और सिंधान वाले सरदारों ने जिस समय कत्ल किया, वह छिप गया था पर ढ़ूंढ़ लिये जाने पर स्त्रियों की तरह गिड़गिड़ाने लगा। फिर भी उसे मार डाला गया। महाराज खड़्गसिंह
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-303
को किले के बाहर नजरबन्द करने पर 8 अक्टूबर 1839 को विशाल सिख-साम्राज्य का अधीश्वर उनके बेटे नौनिहालसिंह को बनाया गया। उनकी अवस्था इस समय केवल 21-22 वर्ष की थी। इस प्रवीण युवक महाराज की गम्भीरता देखकर लोगों ने इन्हें दूसरा रणजीतसिंह विचारा था। स्वयं महाराज रणजीतसिंह जी ही इनकी प्रखर बुद्धि और रणकौशल से मोहित होकर कहा करते थे - 'मेरी मृत्यु के बाद पंजाबवासी इस लड़के को ही अपना सच्चा राजा पाएंगे।' युवक महाराज नौनिहालसिंह को राज्य की यह शोचनीय अवस्था देखकर आंसू गिराने पड़े। उन्होंने विचार किया था कि कुटिल मंत्री चेतसिंह और अंग्रेजी स्वार्थ चाहने वाले कर्नल वेड के रहते हुए पिता की गतिमति सुधरने की संभावना नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने विरोधी राजा ध्यानसिंह की शरण ली थी। इस तरह शत्रु से शत्रु का वध कराकर कुमार नौनिहालसिंहजी ने कर्नल वेड को अपने यहां से अलग करने की दरख्वास्त सिखों के जरिये लाट साहब के पास पहुंचाई। लार्ड आकलैंण्ड ने सिखों को खुश रखने की इच्छा से सन् 1840 में कर्नल वेड को वापस बुलाया और मि० क्लर्क को उसकी जगह लाहौर भेज दिया। कर्नल वेड को बदलवाने में भी कुमार नौनिहालसिंह जी ने अपने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया था। लेकिन कर्नल क्लर्क भी वेड की नीति का पालन करने लगा। इससे सिखों ने समझ लिया कि सभी गोरे एक होते हैं। अपने स्वार्थ के लिए वे एक ही नीति पर चलते हैं।
नौनिहालसिंह अपने प्रपिता महाराज रणजीतसिंह जी की तरह ही उच्चाशयी, निडर और सैनिक जीवन में रुचि वाले व्यक्ति थे। उनके दिल में यह पक्का विचार हो गया था कि वह अफगानिस्तान से लेकर बनारस तक राज करेंगे। यहीं तक नहीं, पहले से ही उन्होंने अपने सरदारों को इन इलाकों की मौखिक सनदें दे दी थीं। क्योंकि उनको यह पक्का विश्वास हो गया था कि एक दिन वहां तक उनका राज होगा। अपने पिता पर उन्हें सन्देह था कि वह अंग्रेजों को यहां बुलाना चाहता है। इसलिए अपने पिता खड्गसिंह से उन्हें कोई हमदर्दी नहीं थी। वे अंग्रेजों से दिली नफरत करते थे, क्योंकि वे समझते थे कि एक दिन अवश्य ही ये सिख-राज्य को हड़प कर जाएंगे। महाराज खड्गसिंह नौ माह की बीमारी से 5 नवम्बर सन् 1840 ई० को मर गए। उनके साथ उनकी दो रानियां और 11 दासियां सती हुईं।
कुमार नौनिहालसिंह जिस समय अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार करके लौट रहे थे कि दरवाजा उनके ऊपर गिर पड़ा। मूर्छितावस्था में राजा ध्यानसिंह उन्हें उठाकर अपने मकान पर ले गया। मिलने वाले सरदारों से कहता रहा महाराज नौनिहालसिंह के दिल को चोट पहुंची है, वे अच्छे हो जायेंगे, घबराने की कोई जरूरत नहीं। यहां तक कि इनकी मां चांदकौर को भी उनसे नहीं मिलने
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-304
दिया। तीन दिन के बाद, महारानी को अपने यहां बुलाकर कहा कि कुंवर तो मर गये। अब तुम शासन को संभालो, पर अभी किसी पर यह मत प्रकट करो कि कुंवर मर गये। रानी चांदकौर धोखे में आ गई। इसी समय राजा ध्यानसिंह ने शेरसिंह को लाहौर में बुला लिया जो कि पहले से ही राज का दावेदार बनकर अंग्रेजों से प्रार्थना कर रहा था। लोगों का और कई इतिहास लेखकों का यह भ्रम है कि नौनिहालसिंह को मारने में ध्यानसिंह का हाथ था। कारण कि वह समझता था कि इस योग्य लड़के के आगे वह सिक्ख-राज्य का सर्वेसर्वा नहीं बना रह सकता। नौनिहालसिंह की मृत्यु से सारे पंजाब में शोक छा गया।
शेरसिंह यकरियों से लाहौर की तरफ कुछ फौज लेकर आ गया। वह सुन्दर था, किन्तु सिखों जैसी वीरता से हीन था। मदिरा तथा वेश्याओं का गुलाम था। भला सिख जाति ऐसे अपात्र को नेता स्वीकार कर सकती थी? किन्तु अपना मतलब साधने के लिए ध्यानसिंह उसे राजा बनाना चाहता था। अंग्रेज सरकार ने भी मंजूरी दे दी थी।
इधर रानी ने हरद्वार से सिन्धान वाले सरदार अतरसिंह को बुला लिया, वह स्वयं सिंहासन पर बैठना चाहती थी। उसने घोषित किया कि नौनिहालसिंह की स्त्री हामला है, इसलिये गद्दी की हकदार उसकी संतान ही होगी। शेरसिंह राजा नहीं बनाया जा सकता। राजा ध्यानसिंह ने सिक्खों को समझाया कि स्त्री को इतने बड़े राज्य की बागडोर नहीं दी जानी चाहिये। रानी चांदकौर कैसी भी योग्य हों, आखिर हैं तो स्त्री ही। अधिकांश सिक्ख महारानी के पक्षपाती थे। इसलिये राजा ध्यानसिंह ने दूसरी चालाकी यह चली कि महारानी को पंजाब की अधीश्वर और शेरसिंह को शासन-सभा का प्रधान-मंत्री बना दिया और स्वयं मंत्री बन गया। इस तरह से दोनों पार्टियों में बाहरी मेल करा दिया। महारानी ने सिन्धान वाले अतरसिंह को अपना प्राइवेट मंत्री बना लिया। इतना हो जाने पर राजा ध्यानसिंह बराबर अपने षड्यंत्र में लगे रहे, वे रानी को शासन के अयोग्य एवं शेरसिंह को पूर्ण योग्य सिद्ध करते रहे। धीरे-धीरे सिक्ख-सैनिक और सरदारों को अपने पक्ष में करते रहे। फिर भी इस बीच में खालसा-सेना राजा से स्वतंत्र होकर अपने विरोधियों को जो यत्रतत्र खड़े होते थे, कुचल देती थी। नीलसिंह जो अंग्रेजी सेना को पंजाब में लाने के इरादे में था1, को सिक्ख सेना ने मार डाला। अंग्रेजों ने शेरसिंह को लिखा कि हम तुम्हारी विद्रोही एवं उद्दंड सेना का दमन करने को बारह हजार सैनिक लेकर आने को तैयार हैं, किन्तु इसके बदले तुम्हें 40 लाख रुपया और सतलज के दक्षिण के इलाके हमें देने होंगे। लेकिन शेरसिंह ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए लिखा कि - यदि सिक्खों को यह बात मालूम हो
1. सिख युद्ध पे० 13 (बंगवासी प्रेस द्वारा प्रकाशित)।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-305
गई तो मेरा प्राण लेते उन्हें तनिक भी देर न लगेगी। इसी समय अफगानिस्तान स्थित अंग्रेज ने घोषणा की कि सिक्ख-साम्राज्य से हमारी सन्धि टूट गई। पेशावर को हम अफगानों के सुपुर्द करेंगे। इस समय पेशावर सिखों के अधीन था, वे इस घोषणा से बड़े चकित हुए। राजा ध्यानसिंह इन्हीं दिनों जम्बू चले गये, उन्होंने बीमारी का बहाना किया था। शेरसिंह भी बटाले चले गए थे। रानी चांदकौर माई का खिताब धारण करके पंजाब का शासन करने लगी। उन्होंने चार सरदारों की कौंसिल बनाई। राजा गुलाबसिंह रानी के पक्ष में हो गया। किन्तु लाहौर में राजा ध्यानसिंह के एजेन्ट षड्यन्त्र में लगे हुए थे, उन्होंने बहुतेरे सिख सरदारों को फोड़ लिया और उनसे वचन ले लिया कि जब राजा शेरसिंह और ध्यानसिंह लाहौर पर हमला करेंगे, तो शेरसिंह का वे लोग साथ देंगे। कुछ दिन बाद शेरसिंह तीन सौ आदमी साथ लेकर लाहौर के निकट शालार बाग में आ गया। कुछ सिख सरदारों ने जाकर उसे राजा मान लिया और उसे किले पर चढ़ा लाये। इधर रानी चांदकौर के कहने से राजा गुलाबसिंह ने किले के फाटक बन्द कराकर युद्ध कराया। राजा सुचितसिंह और जनरल वेन्तूरा शेरसिंह से जा मिले, उनकी संख्या सत्तर हजार हो गई। रात में शेरसिंह ने कई दिन की कठिनाई के बाद किले पर कब्जा कर लिया।
18 जनवरी सन् 1841 ई० को शेरसिंह महाराजा बना। सिन्धानवाला सरदार को छोड़कर उसे सबने सलाम किया। इस ताजपोशी में 4786 आदमी 610 घोड़े और पांच लाख रुपयों को स्वाहा करना पड़ा। रानी चादकौर को जम्बू के इलाके में 9 लाख की जागीर दी गई। ध्यानसिंह को प्रधान-मंत्री बनाया गया। अतरसिंह और चेतसिंह अंग्रेजों के पास भाग गये, उनकी जायदाद जब्त कर ली गई। लहनासिंह गिरफ्तार होकर लाहौर लाया गया।
जितना इनाम सैनिकों को रानी चांदकौर के खिलाफ लड़ने पर देने को कहा गया था, जब उन्हें न दिया गया तो वे बागी हो गये, अफसरों को लूटने खसोटने लगे। एक अंग्रेज अफसर कत्ल कर दिया गया, जनरल कोट भाग गया। यह बगावत सूबों में भी पहुंच गई। अयोग्य राजा उन्हें काबू में न ला सका। काश्मीर में जनरल महीसिंह को लूट लिया गया। पेशावर का सूबेदार अवीतापला डर के मारे जलालाबाद भाग गया।
शेरसिंह बड़ा निकम्मा था। मदिरापान खूब करता था। नाच-तमाशे खूब देखता था। उसकी इच्छा थी कि रानी चांदकौर उससे चादर डालकर शादी कर ले। रानी भी तैयार हो जाती, किन्तु गुलाबसिंह ने रानी को बहका दिया। किसी
1. गुलाबसिंह लाहौर को छोड़ते समय 16 छकड़े खजाने से ले गया। तारीख पंजाब पे० 471।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-306
ने शेरसिंह से कहा कि रानी आपसे घृणा करती है। वह कहती है कि आप रणजीतसिंह के औरस पुत्र नहीं हैं। उसने रानी की दासियों को रानी से इस अपमान का बदला लेने के लिए षड्यन्त्र किया और खुद वजीराबाद चला गया। रुपये की लोभिन बांदियों ने रानी का सिर ईंटों से फोड़ डाला। इस तरह रानी चांदकौर का जीवनान्त हो गया। राजा ध्यानसिंह ने इन बांदियों को कोतवाली पर नाक-कान से रहित करा दिया। हाथ भी कटवा दिए। रावी पार निर्वासित कर दिया।1 अंग्रेजों की सिफारिश पर महाराज ने सिन्धान वालों को वापस बुला लिया। वे बड़े चाटुकार थे। जब उन्होंने अपनी चाटुकारी से अंग्रेजों को वश में कर लिया, तो शेरसिंह की तो बात ही क्या थी। थोड़े ही दिनों में शेरसिंह उनकी खुशामद से उन पर लट्टू हो गया। वे दिन-रात उसी के साथ घिरे रहने लगे। राजा ध्यानसिंह को ये बातें बुरी लगतीं थीं, इसलिए वह महाराज रणजीतसिंह के छोटे राजकुमार दिलीप को प्यार करने लगे। सिन्धान वाले दोनों ही से जलते थे। वे चाहते थे कि ध्यानसिंह शेरसिंह दोनों का सर्वनाश हो जाए। एक दिन बातों ही बातों में, उन्होंने शेरसिंह से कहा कि राजा ध्यानसिंह का इरादा अब दिलीपसिंह को तख्त पर बैठाने का है। इसके लिए उसने एक दिन हम से शपथ लेकर कहा था कि शेरसिंह के मारने पर तुम्हें 60 लाख की जागीर दी जा सकती है, किन्तु हम अपने मालिक से दगा नहीं कर सकते हैं। राजा शेरसिंह उनके जाल में फंस गया और उसने हुक्म दिया कि यदि तुम ध्यानसिंह को मार दोगे तो वह उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है। उसने शेरसिंह से हुक्मनामा भी लिखाया। फिर वही हुक्मनामा उन्होंने ध्यानसिंह को जा दिखाया। ध्यानसिंह बड़ा क्रोध में आया और क्रोधावेश में ही उसने भी उनको बड़े लोभ पर शेरसिंह को मारने का वारण्ट लिख दिया।
शुक्र के दिन राजा शहर से बाहर निकला। ध्यानसिंह और दीनानाथ उसके साथ थे। शेरसिंह का साथी बुधसिंह भी उनके संग था। बारहदरी में राजा शेरसिंह मल्लों को इनाम दे रहे थे कि सिन्धान वाले अजीतसिंह ने उस समय उनके पास आकर एक बन्दूक दिखाई और कहा - महाराज! यह मैंने चौदह हजार में खरीदी है और तीस हजार में भी बेचने को तैयार नहीं हूं। महाराज ने उसे देखने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया कि उसने उनको गोली मार दी। वह इतना बोला - यह...के...दगा... और मर गया। बुधसिंह ने लपक कर अजीतसिंह के दो साथियों को मार गिराया, लेकिन उसकी तलवार टूट गई। दूसरी तलवार लेना चाहता था कि उसका पैर फिसल गया और वह भी मार डाला गया। इन कातिलों ने बाग में जाकर शेरसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को, जब कि वह पाठ करके दान-पुण्य
1. तारीख पंजाब पे० 472 ।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-307
कर रहा था, जा घेरा। उसने हाथ जोड़ कर क्षमा चाही, किन्तु उसे भी मार डाला गया। इस समाचार से शहर में सनसनी फैल गई। बाजार बन्द हो गये। दो सरदार अपने दो चार सिपाही लिये हुए आए। रास्ते में अधवर में उन्हें राजा ध्यानसिंह मिला। अजीतसिंह ने उसे बताया, काम तमाम हो गया है। तुरन्त उसे दोनों सिर दिखाये। ध्यानसिंह ने कहा - 'तुमने बच्चे को मार कर अच्छा नहीं किया'। अजीतसिंह ने कहा जो कुछ हो गया सो हो गया, अब क्या है। ध्यानसिंह चिन्तातुर अवस्था में किले में आया। दरवाजे पर पहुंचते ही ध्यानसिंह को रोक दिया गया। ध्यानसिंह को सन्देह हुआ, पीछे फिर कर देखा तो उसके साथी बहुत थोड़े थे। अजीतसिंह ने पास आकर पूछा कि अब राजा किसे बनाया जायेगा? ध्यानसिंह इसके सिवाय क्या कह सकता कि राज्य के हकदार दिलीपसिंह हैं। अजीतसिंह ने इस पर कहा - अच्छा, दिलीप तो राजा हो जाएगा और तुम हो जाओगे मंत्री, हम खाक चाटते फिरें? गुरमुखसिंह ने क्रोध के साथ कहा - इसे भी साफ करो। अजीतसिंह ने इशारा किया, पीछे से सांय-सांय गोली की आवाज हुई। ध्यानसिंह गिर पड़ा। ध्यानसिंह के अर्दली एक मुसलमान ने सामना किया, उसे भी मार कर ध्यानसिंह के साथ तोपखाने में फेंक दिया। जब लहनासिंह आया तो अजीतसिंह की जल्दबाजी पर उसे फटकारने लगा। वह चाहता था कि जम्बू का सारा परिवार जब इकट्ठा होता, तब इनका काम किया जाता, अभी गुलाबसिंह, सुचेतसिंह और हीरासिंह बाकी हैं।
ध्यानसिंह के पुत्र हीरासिंह उस समय पेशावर के हाकिम फ्रांसीसी विटेवल के मकान पर राजा शेरसिंह की हत्या की चर्चा सुनकर दुःख प्रकट कर रहे थे। कुछ ही समय बाद, जब उन्हें अपने पिता के निधन का समाचार मिला तो वह मूर्छित हो गए। पृथ्वी पर लेट कर हाथ-पैर पीट-पीट कर रोने लगे। किन्तु उनके भाई केसरीसिंह ने कहा - क्या बच्चों और रांडों की तरह रोते हो, मर्द बनो और अपने पिता का बदला लो। हीरासिंह के हृदय में प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक उठी। उन्होंने बड़ी प्रार्थना के आथ खालसा सरदारों को अपने स्थान पर इकट्ठा किया। सबके आने पर अपनी गर्दन उनके सामने झुका दी और कहा - या तो मेरी गर्दन काट कर मुझे मेरे पिता के पास पहुंचा दीजिये या पितृ-हन्ता से बदला लेने में मेरी सहायता कीजिये। बालक प्रतापसिंह की हत्या से लोग वैसे ही विचलित थे, वे इस दगाबाजी को महानीचता समझते थे। फिर हीरासिंह की अपील ने उन्हें और भी उत्तेजित किया, वे भड़क उठे और प्रतिज्ञापूर्वक बोले - 'हम तुम्हारी मदद करेंगे, दगाबाज को मजा चखा देंगे।' इधर तो यह हो रहा था, उधर सिन्धान वाले सरदारों ने दलीप को महाराज और अजीतसिंह को मंत्री घोषित कर दिया। साथ ही सरदारों को बुलाकर राजभक्ति की शपथ लेने लगे। किन्तु किले से बाहर निकलना उन्होंने बन्द कर दिया। हीरासिंह के पास चालीस हजार सिख इकट्ठे हो गये।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-308
उसने शाम के चार बजे आकर लाहौर को घेर लिया। सारी रात किले पर गोले बरसते रहे। हीरासिंह ने सरदारों के सामने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं अपने महाराज और पिता के हत्यारों के सिर कटे हुए न देख लूंगा, तब तक अन्न-चल ग्रहण न करूंगा। सैनिकों ने इतने जोर से हमला किया कि विजय प्राप्त हो गई। अजीतसिंह दीवार से उतर कर भागा, लेकिन एक मुसलमान सैनिक ने उसका सिर काट लिया। हीरासिंह की सौतेली मां अजीतसिंह के सिर को देखकर भारी प्रसन्न हुई और अपने पति राजा ध्यानसिंह के शव को लेकर मय दासियों के सती हो गई। वह अब तक इसीलिए रुकी हुई थी कि पति के मारने वालों का नाश देख ले। इसके पश्चात् सरदार लहनासिंह की तलाश हुई। वह तहखाने में छिपा हुआ मिला। उसका सिर काटने वाले को हीरासिंह ने दस हजार रुपया इनाम में दिया। अतरसिंह भाग कर अंग्रेज सरकार की मदद में चला गया, क्योंकि वह उस समय लाहौर में मौजूद न था। शत्रुओं से बदला लेने के बाद हीरासिंह ने महाराज दिलीपसिंह के पैर चूमे और राजभक्ति प्रकट की। खालसा ने हीरासिंह को मंत्री नियुक्त किया और उसे विश्वास दिलाया कि सिन्धान वालों के साथियों को मौत की सजा दी जायेगी। हीरासिंह शिक्षित था, उसने अंग्रेजी भी पढ़ी थी। महाराज रणजीतसिंह खुद उसे बहुत प्यार करते थे। इस समय इसकी अवस्था पच्चीस साल की थी।
पंजाब के राज्य-सिंहासन पर बैठते समय दिलीपसिंह की अवस्था केवल पांच साल की थी। दिलीप महाराज के विषय में अंग्रेज इतिहासकारों ने कहा है कि इनकी पांच वर्ष की अवस्था से ही तेज बुद्धि का परिचय मिलता था। बड़े होकर यदि राज्य करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त होता, तो वह पिता के योग्य पुत्र सिद्ध होते। लेकिन दैव ने उन्हें अवसर ही नहीं दिया। महाराज के बालक होने के कारण उनके राज्य की निरीक्षक महारानी झिंदा, जो उन्हीं की माता थीं, नियुक्त हुईं। वे महाराज रणजीतसिंह की परम प्रिय रानी थीं। वह उनको महबूबा सम्बोधन से सदा सम्मानित करते थे। रणजीतसिंह जी ने उनसे वृद्धावस्था में विवाह किया था। उनके पिता का नाम कन्नासिंह था जो कि महाराज की सेना में घुड़्सवार था। मुसलमान लेखकों के आधार पर कुछ अंग्रेज लेखकों ने भी महारानी झिंदा के आचरण पर सन्देह किया है। किन्तु यह बात इसीलिए तत्कालीन अंग्रेज शासकों तथा मुस्लिम वर्ग की ओर से फैलाई गई होगी कि सिख वीरों के हृदय से उनके प्रति भक्ति कम हो जाए। घर के अनेक खास सिख भी स्वार्थवश महारानी से द्वेष करते थे। किन्तु महारानी झिन्दा पवित्रता की देवी थीं। उनके कट्टर निन्दाकारियों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि महारानी झिन्दा की गम्भीरता के कारण, उन दिनों पंजाब दरबार का रौब खूब जमा हुआ था। यहां तक कि यूरोप की राज-सभाओं में भी उनकी प्रशंसा हुई थी।
राजदरबार में जल्ला नाम के एक पण्डित की भी खूब चलती थी। हीरासिंह
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-309
उसे अपना गुरु समझते थे। सारा कार्य हीरासिंह जल्ला की सम्मति से ही करता था। जल्ला मंत्र-तंत्रों पर भी पूरा विश्वास रखता था। हीरासिंह भी इन मामलों में अन्धविश्वासी था। इस समय पंजाब का शासन अच्छी तरह से होने लगा था, किन्तु पंजाब के भाग्य में सुख-शान्ति न थी। थोड़े ही दिनों में हीरासिंह से भी लोग डाह करने लगे। दलीपसिंह के मामा तथा अचकई सरदारों ने हीरासिंह से मंत्रिपद छीन लेने का चेष्टा की थी। स्वयं हीरासिंह का ताऊ सुचेतसिंह उससे डाह करने लगा। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महारानी झिन्दा की इच्छा भी यही थी कि हीरासिंह की जगह सुचेतसिंह दीवान हो। जवाहरसिंह जो कि रानी झिन्दा के भाई थे, एक दिन राजा सुचेतसिंह को खालसा सेना में महाराज दिलीपसिंह समेत ले गए। वहां सुचेतसिंह की सम्मति से जवाहरसिंह ने खालसा से कहा कि हीरासिंह महाराज को बहुत कष्ट देता है, यदि आप लोग महाराज की रक्षा न करेंगे, तो मैं उन्हें अंग्रेजों की शरण में ले जाऊंगा। हीरासिंह ने पहले ही यह अफवाह उड़ा रक्खी थी कि जवाहरसिंह महाराज को अंग्रेजों के हवाले करना चाहता है। अब जब कि खालसा ने खुद जवाहरसिंह के मुंह से ही यह बात सुनी तो वे आगबबूला हो गए। खालसा सेना ने रात भर जवाहरसिंह समेत सबको पहरे में रक्खा, सवेरे हीरासिंह के पास खबर पहुंचाई। हीरासिंह ने जवाहरसिंह को तो कैद कर लिया और सुचेतसिंह की सेना की दोनों पलटनों जो उस समय किले में कैद थीं, के हथियार छीन कर किले से बाहर निकाल दिया। इस बात से सुचेतसिंह को बड़ा रंज हुआ, लेकिन राजा गुलाबसिंह समझा-बुझा कर अपने साथ जम्बू ले गए। महाराज दिलीप के शहर में आने पर सौ तोपों की सलामी हुई। उस दिन से खालसा सेना राजा सुचेतसिंह को लाहौर दरबार का दुश्मन समझने लगी। इस तरह से हीरासिंह ने जवाहरसिंह और सुचेतसिंह का दमन करके कुछ दिनों के लिए शान्ति स्थापित कर दी, किन्तु अशान्ति की ज्वाला भीतर ही भीतर धधकती रही।
उस समय सिख साम्राज्य के प्रत्येक सरदारों को राज-शक्ति प्राप्त करने की इतनी लालसा लगी हुई थी कि उनके हृदय में भले-बुरे का विचार करने की भी शक्ति का अभाव हो गया था। प्रत्येक सरदार, निज स्वार्थ के लिए, कुछ-न-कुछ ऐसी चाल चलता था, जिससे पुराने बखेड़े शांत होने तो दूर रहे, नए और खड़े हो जाते थे। हीरासिंह के सलाहकार पंडित जल्ला ने एक और षड्यंत्र यह रचा कि दलीपसिंह को राज्य से हटा कर शेरसिंह के पुत्र को पंजाब का महाराज बना दिया जाए। परन्तु महारानी झिन्दा को जल्ला की चालाकी का पता लग गया। उसने महारानी झिन्दा के आचरण पर भी आपेक्ष करने आरम्भ कर दिए।
उधर जम्बू पहुंच कर गुलाबसिंह भी शान्ति से बैठा न रहा। उसने लाहौर दरबार में एक जाली पत्र भिजवाया कि रणजीतसिंह के दोनों पुत्र काश्मीरसिंह
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-310
और पिशौरासिंह सिन्धान वाले अतरसिंह से मिलकर राज्य हड़पने की तैयारी कर रहे हैं। गुलाबसिंह के साथ इस चालाकी में हीरासिंह स्वयं शामिल था। हीरासिंह ने उन दोनों के दमन करने के लिए सेना भेज दी। खालसा सेना महाराजा रणजीतसिंह के लड़कों की इज्जत करती थी। इस खबर को सुनकर एकदम से वह क्रोधित हो उठी। उसने हीरासिंह को उसी के बाप की हवेली में कैद कर लिया। हीरासिंह ने सेना को वचन दिया कि काश्मीरासिंह और पिशौरासिंह दोनों राजकुमारों के प्राण और संपत्ति की रक्षा की जाएगी और आगे से जल्ला पंडित को राजकाज में भाग लेने से अलग कर दिया जाएगा। गुलाबसिंह की सेना ने उधर उन दोनों राजकुमारों के दमन के लिए सेना भेजी किन्तु वे दोनों सेना के हाथ न आए। सेना ने उनकी जागीर जब्त कर ली। थोड़े दिनों बाद, गुलाबसिंह ने उन्हें दम दिलासा देकर जम्बू बुला लिया और कैद कर लिया। साथ ही उनसे कहा कि यदि एक लाख रुपया दो तो तुम्हें छोड़ दिया जाएगा। जब खालसा सेना को इस बात का पता लगा तो उसने राजकुमारों का पक्ष लिया। इसलिए गुलाबसिंह ने दोनों से बीस हजार रुपया लेकर छोड़ दिया। फिर भी खालसा सेना संतुष्ट न हुई।
राजधानी में अराजकता से सूबेदार भी खूब अन्धा-धुन्धी में लगे हुए थे। खुद गुलाबसिंह ने भी पिछले कई वर्ष से राज-कर अदा नहीं किया था। सावनमल का बेटा मुलतान का सूबेदार मूलराज, राजस्त्र-कर देना बन्द कर चुका था। उसने घोषणा कर दी कि मुलतान लाहौर का करद राज्य नहीं, किन्तु स्वतंत्र राज्य है। इस समय तक खालसा सेना को वेतन भी नहीं मिला था। खालसा सेना वेतन न पाने से असंतुष्ट तो थी ही, काश्मीरासिंह और पिशौरासिंह के साथ गुलाबसिंह के किए गए व्यवहार ने उसे और भी असंतुष्ट कर दिया।1 इसलिए उसने सुचेतसिंह को दीवान बनने के लिए तैयार किया। वह तो यह पहले से ही चाहता था। सन् 1843 की 28वीं मार्च को वह थोड़ी सी सेना के साथ शाहदरा के पास पहुंच गया। इस खबर को सुनकर हीरासिंह बहुत घबराया और खालसा सेना में पहुंचकर उसने बड़े मार्मिक शब्दों में भाषण दिया। उसमें उसने सिख सैनिकों से अपील की -
- खालसा सेना के बहादुरो! आपके पुराने मंत्री राजा ध्यानसिंह का पुत्र और आपके श्रद्धेय महाराजा रणजीतसिंह का दत्तक पुत्र आपके सामने खड़ा है। अगर इसने कोई अपराध किया है, यह लो तलवार, इससे इसका सिर अलग कर दो, किन्तु मुझे फिरंगियों के दोस्त सुचेतसिंह के हवाले मत करो। मैं खालसा के बहादुर सैनिकों द्वारा मरना अपने पतित ताऊ सुचेतसिंह के हाथ से मरने की अपेक्षा अच्छा समझता हूं।
इसके अलावा, उसने प्रत्येक सिपाही
1. राज्य की आर्थिक परिस्थिति की जांच के लिए जल्ला पंडित को नियुक्त किया था । उसने कई यूरोपियन कर्मचारियों को अलग कर दिया।
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को सोने का कड़ा और प्रत्येक अफसर को सोने का कण्ठा देने का वचन दिया। खालसा सेना पर उसका यह मोहनी-मंत्र काम कर गया। जो खालसा सेना उसके विरुद्ध थी, अब उसकी सहायक हो गई। सुचेतसिंह के पास खालसा सेना तथा हीरासिंह की ओर से लौट जाने की खबर पहुंचाई गई, किन्तु उसने कहला भेजा कि यदि खालसा मेरे साथ विश्वासघात करना चाहता है तो करे। पहले उसने मुझे बुलाया है, अब इस तरह मेरा अपमान किया जाता है। उसके 400 सिपाहियों में से केवल उसके पास 40 ही रह गए। हीरासिंह ने उसे जहां कि वह एक मस्जिद में ठहर रहा था, चौदह हजार सवारों के साथ घेर लिया। उसके दो साथी, राय केसरसिंह और बसन्तसिंह बड़ी बहादुरी से लड़े।1 जो आशरों पर खेल जाता है, वह सब कुछ कर गुजरता है। 160 सिखों को मारने के बाद, ये 40 आदरी काम आए। लड़ाई खतम होने पर हीरासिंह ने सुचेतसिंह की लाश को ढुंढ़वाया। लाश को देखकर हीरासिंह खूब रोया। उसका सम्मान-पूर्वक दाह-संस्कार किया गया।
राज सुचेतसिंह की मृत्यु के बाद जवाहरसिंह कुछ दिन के लिए दब गया। किन्तु फिर भी पूरी शांति नहीं हुई थी। वह लाहौर में अपना वश न चलता देखकर अमृतसर चला गया। क्योंकि सुचेतसिंह लावारिस मरा था, इसलिए उसकी सम्पत्ति और जायदाद सिख कानून के अनुसार सिख-राज्य में शामिल कर ली गई। किन्तु अंग्रेजों ने बिना ही कारण इस मामले में हस्तक्षेप किया। सिख-दरबार को अंग्रेज सरकार की ओर से कहा गया कि राजा सुचेतसिंह की जायदाद और सम्पत्ति पर दखल पाने न पाने का निबटारा ब्रिटिश अदालत में होना चाहिए। स्वाधीन राज्य के साथ अंग्रेजों की ऐसी लिखी-पढ़ी एकदम अनधिकार चेष्टा थी। सिख-दरबार ने इस हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया। फिर अंग्रेजी अदालत में विचार हुआ। अदालत ने फैसला दिया कि राजा सुचेतसिंह की जायदाद और सम्पत्ति पर कब्जा कर लेने का सिख-साम्राज्य को अधिकार है। फिर हठी अंग्रेज कर्मचारियों ने सिख-दरबार को लिखा कि यदि सुचेतसिंह के भाई राजा गुलाबसिंह और भतीजा हीरासिंह अपनी मर्जी से यह सम्पत्ति महाराज दिलीप को देना चाहते हैं, तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन सिख-दरबार ने इस बेहूदी चिट्ठी का कोई जवाब नहीं दिया। आखिर सुचेतसिंह की जो सम्पत्ति अंग्रेजी इलाके में थी, उसे वे हड़प गए। करीब यह 15 लाख थी। इस बखेड़े के बाद खालसा पर हीरासिंहजी
1. केसरीसिंह ने घायल अवस्था में ही हीरासिंह से जयदेव कहकर पीने को पानी मांगा, किन्तु हीरासिंह ने यह अमानुषी उत्तर दिया कि - “पानी पहाड़ों में से पियो।”
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का अच्छा असर पड़ा, क्योंकि इस बखेड़े में उसने बड़ी दिलेरी के साथ अंग्रेजी हस्तक्षेप का विरोध किया था।
जवाहरसिंह अमृतसर पहुंच कर हीरासिंह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगा। उसने अकाली भैया, बाबा और पुरोहितों तथा गुरुओं से मिलकर षड्यन्त्र की तैयारी की। इस कार्य में लालसिंह भी जो राजा ध्यानसिंह का प्रिय पात्र और हीरासिंह का मित्र था, शामिल हो गया। मित्र के प्रति विश्वासघात करने के लिए लालसिंह की पापी आत्मा ने जवाहरसिंह से सम्बन्ध स्थापित कर लिया। वैसे यह लालसिंह जल्ला पंडित का भी मित्र बन चुका था, पर कपट उसके हृदय में खेलता था।
माझा में एक व्यक्ति बाबा वीरसिंह नामक रहता था। उसने 1500 सवार इकट्ठे कर लिए थे। यह कहता फिरता था कि पंजाब की हुकूमत गुरु गोविन्दसिंह की है, दिलीपसिंह बच्चा है। हीरासिंह भी अयोग्य है। इस साम्राज्य के लिए खालसा को कोई अपना आदमी नियुक्त करना चाहिए। साथ ही सिन्धान वालों के पक्ष में प्रचार आरम्भ किया। इसी उद्देश्य से सब सरदारों को चिट्ठियां भी लिखीं। काश्मीरसिंह और पिशौरासिंह भी इस विद्रोह में शामिल हो गए, क्योंकि वे गुलाबसिंह के दुर्व्यवहार और हीरासिंह की चालाकी से जलते थे। लाहौर दरबार की ओर से इस दल को दमन करने के लिए फौजें भेजी गईं। घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में भाई वीरसिंह, अतरसिंह सिन्धान वाला और काश्मीरसिंह मारे गए। कुंवर पिशौरासिंह घटना से एक दिन पहले लाहौर चले आए थे, इससे वे बच गए। हीरासिंह ने लाहौर में उनका बड़ा आदर-सत्कार किया था। उनकी जागीर वापस कर दी थी। हीरासिंह ने इस बनावटी आव-भगत से लाहौर में रहते समय तक पिशौरासिंह को यह न मालूम होने दिया कि युद्ध में सिन्धान वाले तथा काश्मीरासिंह आदि मारे गए हैं। अपनी वाक्-चातुरी, राजनैतिक बुद्धि से हीरासिंह ने अपने सभी विरोधियों का दमन कर दिया था। खालसा सेना पर भी काफी दिनों तक प्रभाव रक्खा, किन्तु वह समय भी धीरे-धीरे आने लगा, जब हीरासिंह के प्रति असन्तोष की मात्रा इतनी बढ़ गई थी कि उसका दमन न हो सका।
जल्ला, यद्यपि विद्वान् और राजनीतिज्ञ था, वह लाहौर के शासन में विदेशियों का हस्तक्षेप भी नाजायज समझता था, उसने कुछ यूरोपियन कर्मचारियों को भी अलग किया था, किन्तु वह भी गृह-युद्ध में एक पात्र बन गया। यों तो उसने अपने रूखे स्वभाव से सारे सिख-सरदारों को चढ़ा दिया था, किन्तु साथ ही वह महारानी झिन्दा की भी निन्दा किया करता था। आगे चलकर ऐसी अफवाह फैली कि जल्ला पंडित और हीरासिंह दीवान महारानी को व्यभिचार के हेतु अपने चंगुल में फंसाने के लिए उन्हें तंग करते हैं। फिर क्या था, खालसा सेना भड़क उठी। उसने जल्ला पंडित को मारने का निश्चय कर लिया। 18 दिसम्बर सन् 1844 को,
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एक दिन, रात के समय, राजा हीरासिंह दीवान और जल्ला पंडित लाहौर से भागने की तैयारी कर रहे थे कि उन्हें सेना ने गिरफ्तार कर लिया, और दोनों को मार डाला। हो सकता है कि इनके विरोधियों ने यह झूठी अफवाह फैलाई हो, किन्तु यह बात भी सही है कि महारानी झिन्दा इन दोनों ही से खुश न थी। जल्ला का सिर गली बाजार और मुहल्लों में घुमाया गया। फिर उसे कुत्तों को खिला दिया गया। जम्बू के राजा गुलाबसिंह के लड़के मियां सोहनसिंह का सिर मोरी दरवाजे पर और हीरासिंह दीवान का सिर लाहौरी दरवाजे पर टांग दिया गया। कुछ दिन के बाद इन सिरों को राजा ध्यानसिंह की हवेली में फेंक दिया गया।
हीरासिंह की मृत्यु के पश्चात् खालसा ने जवाहरसिंह को मन्त्री बनाया। खालसा और उनके सैनिकों को प्रसन्न करने के लिए जवाहरसिंह ने तोशाखाने के सोने के बर्तनों को गलवा कर कन्धे बनवाकर सिपाहियों में बतौर इनाम के बांट दिए, इसलिए खालसा के सैनिक बड़े प्रसन्न हुए। पिछले कई वर्ष से गुलाबसिंह जम्बू ने खिराज देना बन्द कर दिया था। उसकी तरफ तीस करोड़ रुपये निकलते थे। इसलिए खालसा फौज ने जम्बू पर चढ़ाई कर दी। लड़ाई में सरदार फतेसिंह काम आया। गुलाबसिंह इतना डरा कि हाथ जोड़कर खालसा के सामने हाजिर हुआ और अपने किए के लिए माफी मांगने लगा। तीन लाख रुपया उसने खालसा के सैनिकों में बांटा। इस तरह से खालसा सैनिकों ने अधिक उपद्रव नहीं किया और गुलाबसिंह को लाहौर ले आए। महारानी झिन्दा राजा गुलाबसिंह की खुशामद से प्रसन्न हो गई और उनकी यह भी इच्छा हो गई कि उनको दरबार का मन्त्री बना दिया जाए, किन्तु वह डरता था कि उसकी भी गति ध्यानसिंह और हीरासिंह की सी न हो, इसलिए उसने जम्मू जाना ही उचित समझा। महारानी ने उस पर छः लाख अस्सी हजार रुपया जुर्माना करके जम्बू जाने की आज्ञा दे दी और उसकी बहुत जागीर भी अपने राज्य में मिला ली। यहां से लौटने पर उसने पिशौरासिंह को मन्त्री जवाहरसिंह के खिलाफ उकसाया। जवाहरसिंह भी योग्य आदमी न था, शासन-सूत्र भी उससे चलना कठिन हो रहा था और उधर खालसा की शक्ति बढ़ी हुई थी। रणजीतसिंह के साम्राज्य का कर्त्ता-धर्त्ता खालसा ही था। खालसा जिसे चाहता था, राजा बनाता था और जिसे चाहता मन्त्री। जवाहरसिंह के कुछ एक कृत्यों से खालसा नाराज भी था। क्योंकि एक समय जवाहरसिंह ने महाराजा दिलीपसिंह को अंग्रेजों के पास ले जाने की धमकी दी थी। जवाहरसिंह ने अपनी बहन महारानी झिन्दा के परामर्श से बहुत वायदे करके खालसा को फौरन अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की इसलिए उस समय तो खालसा ने लाहौर आए हुए पिशौरासिंह की कोई मदद नहीं की और उसे अपनी जागीर में जाने को कह दिया। पिशौरासिंह ने लाहौर से चलकर पठानों की मदद से अटक को अधिकार में कर लिया और साथ ही अपने को पंजाब का राजा घोषित कर दिया ।
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सारे पंजाब पर अधिकार करने के लिए वह काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मदखां से लिखा-पढ़ी करने लगा। उसकी ऐसी कार्यवाही देखकर लाहौर से जकसर ने खालसा फौजें उसको दमन करने के लिए भेजीं। लेकिन खालसा ने पिशौरासिंह के खिलाफ लड़ने के लिए इनकार कर दिया। चूंकि वह अपने महाराज रणजीतसिंह के पुत्र पर हाथ उठाना नहीं चाहते थे, तब जवाहरसिंह ने सरदार चरतसिंह अटारी वाले को नौशेरा से और फतहखान बटाना को डेरा इस्माइल खां से पिशौरासिंह के दमन के लिए अटक भेजा। इन लोगों ने मुकाबले की हिम्मत न देखकर सुलह से काम लिया। बहुत सी चिट्ठी-पत्री के बाद निर्णय हुआ कि पिशौरासिंह किला खाली करके बाहर आ जाए तो महारानी झिन्दा से उसे कुछ रुपए की जागीर और दिला दी जाएगी। वह इन लोगों के दम दिलासे में आ गया और किला खाली करके बाहर निकल आया। लेकिन इन लोगों ने विश्वासघात करके उसे कैद कर लिया और गला घोंटकर उसका प्राणांत कर दिया। जब यह खबर लाहौर पहुंची तो जवाहरसिंह ने बड़ी खुशियां मनाईं और तोपों से सलामी दी गई और रात को रोशनी की गई। पिशौरासिंह की मृत्यु के उपलक्ष्य में, जवाहरसिंह द्वारा इस तरह खुशियां मनाए जाने पर खालसा सेना क्रोध से उत्तेजित हो उठी और उसने दूसरे ही दिन किले को घेर लिया। जवाहरसिंह खालसा की नाराजगी से घबरा गया, उसके सैनिकों को बहुत सा इनाम देने के प्रलोभन दिए, परन्तु उसने एक न सुनी। लाचार होकर अपनी बहन की सलाह से, बालक महाराज को साथ लेकर, खालसा सरदारों की सेवा में हाजिर हुआ। सैनिकों ने उसे देखते ही बिगुल बजाना शुरू कर दिया और जबरदस्ती उसे हाथी पर कस लिया। सैनिक इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने जवाहरसिंह की गोद से महाराजा दिलीपसिंह को छीन लिया और उसे संगीनों से छेद डाला और साथ ही उसके सलाहकार रतनसिंह और भाई जद्दू को कत्ल कर दिया। यह घटना 21 सितम्बर 1845 ई० की है।
महारानी के पास से भी बहुत सी नकदी और सोना ले लिया और महारानी को रात भर खेमों में रक्खा। वहां वह रात भर रोती रही। सवेरे उन्हें उनके भाई जवाहरसिंह की लाश दिखलाई। महारानी अपने भाई की मृत्यु से इतनी दुःखी हुई कि अपने सिर के बाल नोचने और अपने शरीर के कपड़े फाड़ने लग गई। बड़ी मुश्किल से लाश उनसे वापस ली गई जिसे भस्ती दरवाजे के बाहर जलाया गया। जवाहरसिंह के साथ उनकी दो रानियां और तीन दासी सती हुईं। रानी नित्यप्रति अपने भाई की समाधि पर जाकर रोती थी। खालसा के सरदारों ने बड़ी प्रार्थनायें और खुशामदें करके उन्हें प्रसन्न किया और यह तय हुआ कि जवाहरसिंह के हत्यारों को महारानी के सुपुर्द कर दिया जाएगा। राजा सुचेतसिंह का मंत्री जवाहरमल जो कि जवाहरसिंह के षड्यंत्र में शामिल था, महारानी के सुपुर्द कर
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दिया गया तथा कुछ और भी डोगरे राजदूत पकड़े गये। इन सबको रात के समय शहर छोड़ने की आज्ञा दी गई।
जवाहरसिंह के मारे जाने के पीछे पंजाब में पूरी अशान्ति छा गई। कोई भी संरक्षक न रहा। गुलाबसिंह और तेजसिंह से मंत्री होने के लिए कहा गया। लेकिन उन्होंने खालसा के डर की वजह से नामंजूर किया। उस समय पंजाब की मन्त्रित्व की कुर्सी तप्त तवे के समान थी। मंत्री वही हो सकता था जिसमें खालसा सेना को वश में रखने की शक्ति हो। समस्त पंजाब में उस समय कोई भी माई का लाल मंत्रित्व ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं दिखाई देता था। लाचार दशहरे के दिन महारानी Regend of State यानी प्रतिपालक नियुक्त हुईं और वे दीवान दीनानाथ, भाई रामसिंह तथा मिश्रलालसिंह आदि के परामर्श से राजकार्य चलाने लगीं। एक बार महारानी ने मंत्री पद के लिए पांच आदमियों के नाम की गोली डलवाई। गोली लालसिंह के नाम की निकली। लेकिन खालसा ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर भी महारानी ने लालसिंह को राजा की उपाधि दी और तेजसिंह को सेनापति बना दिया। लेकिन अन्तिम निर्णय खालसा के हाथ था। अब आगे वह हाल दिया जाएगा जिसमें सिख-साम्राज्य का, गृह-कलह के कारण, नष्ट होने का चित्र है।
References
- Singh, Harbans "The encyclopedia of Sikhism. Vol III." pages 494-495
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- ↑ जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठ.303-316