Pushkararanya

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(Redirected from Pushkaravana)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Pushkararanya (पुष्करारण्य) is a Forest/Tirtha mentioned in Mahabharata (I.32.3). It has been identified with Pokaran (पोकरण), Jaisalmer, Rajasthan.

Origin

Variants

History

In Mahabharata

Pushkararanya (पुष्करारण्य) (Forest/Tirtha) is mentioned in Mahabharata (I.32.3)

Adi Parva, Mahabharata/Mahabharata Book I Chapter 32 mentions many names of Nagas incapable of being easily overcome and their deeds after the curse. Pushkararanya (पुष्करारण्य) (Forest/Tirtha) is mentioned in Mahabharata (I.32.3).[1]....The illustrious Sesha (I.32.2) amongst them, of great renown, leaving his mother practised hard penances, living upon air and rigidly observing his vows. He practised these ascetic devotions, repairing to Gandhamadana (I.32.3), Badari (I.32.3), Gokarna (I.32.3), the woods of Pushkara Pushkararanya (पुष्करारण्य) (I.32.3), and the foot of Himavat (I.32.3).

पुष्करण = पुष्करारण्य

विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ..... 2. पुष्करण (AS, p.571): पुष्करारण्य: मारवाड़ का प्रसिद्ध प्राचीन स्थान है. श्री हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार महरौली (दिल्ली) के प्रसिद्ध लोहा स्तंभ पर जिस चंद्र नामक राजा की विजयों का उल्लेख है वह पुष्करण का चंद्रवर्मन् है. यह चंद्रवर्मन् 404-405ई. के मंदसौर अभिलेख में उल्लिखित है. श्री शास्त्री के अनुसार समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति का चंद्रवर्मन् भी यही है. यह नरवर्मन् का भाई था और यह दोनों मिलकर मालवा तथा परिवर्ती प्रदेश पर राज्य करते थे. पुष्करण या पोखरण कर्नल टॉड के समय (19 वीं सदी का प्रथम भाग) तक मारवाड़ की एक शक्तिशाली रियासत थी. (देखें अनाल्स ऑफ राजस्थान, पृ. 605). पोखरण का प्राचीन नाम पुष्करण या पुष्करारण्य था. इसका उल्लेख महाभारत में है.... सभा पर्व है 32,8-9 इस स्थान पर पुष्करारण्य का उल्लेख माध्यमिका या चित्तौड़ के पश्चात होने से इसकी स्थिति मारवाड़ में सिद्ध हो जाती है. यहां के उत्सवसंकेत गणों को नकुल ने दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में हराया था.

External links

References

  1. गन्धमादनम आसाद्य बदर्यां च तपॊ रतः, गॊकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस तटे (I.32.3)
  2. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.570-571