Nagarjunakonda

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Guntur district map
Nagarjunakonda on Map of Andhra Pradesh

Nagarjunakonda (नागार्जुनकोंड), meaning Nagarjuna Hill, is a historical town, now an island located near Nagarjuna Sagar in Guntur district of the Indian state of Andhra Pradesh, near the state border with Telangana. It is 160 km west of another important historic site Amaravati Stupa.

Origin

It is named after Nagarjuna (c. 150 – c. 250 CE).

Variants


History

The ruins of several Mahayana Buddhist and Hindu shrines are located at Nagarjunakonda.[2] It is one of India's richest Buddhist sites, and now lies almost entirely under the Nagarjunasagar Dam. It is named after Nagarjuna, a southern Indian master of Mahayana Buddhism who lived in the 2nd century, who is believed to have been responsible for the Buddhist activity in the area. The site was once the location of many Buddhist universities and monasteries, attracting students from as far as China, Gandhara, Bengal and Sri Lanka.

Because of the construction of the Nagarjuna Sagar Dam, the archaeological relics at Nagarjunakonda were submerged, and had to be excavated and transferred to higher land on the hill, which has become an island.

In Mahabharata


Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 255 describes Karna's victory march and countries subjugated. Shri/ (Shrishaila) (श्रीशैल) is mentioned in Mahabharata (3-255-14a).[3].... Having met with Rukmi (रुक्मि) (3-255-14a), Karna (कर्ण) (3-255-14a), repaired to Pandya (पाण्ड्य) (3-255-14a) and the mountain, Shri (Shrishaila) (श्रीशैल) (3-255-14a). And by fighting, he made Kevala (केवल) (3-255-15a), king Nila (नील) (3-255-15a), Venudari's (वेणुदारि) (3-255-15b) son, and other best of kings living in the southern direction pay tribute.

Jat History

Bhim Singh Dahiya[4] writes....The Nagarjunakonda Buddhist complex and monastery was built by "Yakshas" under the directions of Nagarjuna himself as per Korean traveller Hui-Chao's account of the eighth century A.D. [5] It was destroyed by the followers 0f Sankaracharya in the same century after flourishing for 700 year.[6]


Bhim Singh Dahiya[7] writes: Inscription found at Varanama in former Baroda state speaks of a minister of Moda (Jat clan) family. [8] In the South, coins of Maan kings, a Jat clan considered as Sakas, have been found in Konkan area. Nagarjunikonda inscriptions refer to a Saka, named Moda. (EI, XX, p. 37. ) This and many other pieces of evidence point to the extension of the Sakas in the South and their extensive settlements there.[9]

नागार्जुनीकोंड

विजयेन्द्र कुमार माथुर[10] ने लेख किया है ...नागार्जुनकोंडा (AS, p.488) आंध्र प्रदेश राज्य के गुंटूर ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यहाँ का स्तूप 1926 ई. में खोजा गया था। हैदराबाद से 100 मील (लगभग 160 कि.मी.) दक्षिण-पूर्व की ओर यह एक अति प्राचीन नगर है। यह बौद्ध धर्म की महायान शाखा के प्रसिद्ध आचार्य नागार्जुन (दूसरी शती ई.) के नाम पर प्रसिद्ध है।


प्रथम शती ई. में तथा उसके पूर्व नागार्जुनकोंडा का नाम 'श्रीपर्वत' था, जिसका वर्णन महाभारत, वनपर्व, तीर्थ यात्रा के प्रसंग में है- 'श्रीपर्वतमासाद्य नदीतीरमुपस्पृशेत्' महाभारत, वनपर्व, 85, 11. श्रीमद्भागवत 5, 18, 16 में भी श्रीशैल या श्रीपर्वत का उल्लेख है- 'देवगिरि र्ऋष्यमूक: श्रीशैलो वैंकटो महेन्द्रो वारिधारो विंध्य:'।

प्रथम शती ई. में यहाँ सातवाहन नरेशों का राज्य था। 'हाल' नामक शातवाहन राजा ने जो प्राकृत के प्रसिद्ध काव्य 'गाथासप्तमी' के रचयिता कहे जाते हैं, नागार्जुन के लिए श्रीपर्वत शिखर तक एक विहार बनवा दिया था, यहाँ ये रसविद् आचार्य अपने जीवन के अंतकाल में रहे थे। उनके यहाँ रहने के कारण यह स्थान महायान बौद्ध धर्म का केन्द्र बन गया। जिससे भारत तथा बृहत्तर भारत में महायान के प्रचार में योगदान मिला। उस समय यहाँ एक बौद्ध महाविद्यालय स्थापित हो गया था। नागार्जुन का नाम तिब्बत तथा चीनी बौद्ध साहित्य में भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि तीसरी या चौथी शती ई. में एक अन्य तांत्रिक विद्वान् नागार्जुन भी यहाँ रहे थे। सातवाहनों (आंध्र नरेशों) के पश्चात् नागार्जुनकोंडा में इक्ष्वाकु नरेशों ने राज्य किया और वे आंध्र प्रदेश की राजधानी अमरावती से यहीं ले आए। उस समय नागार्जुनकोंडा को 'विजयपुर' या 'विजयपुरी' कहते थे। इक्ष्वाकु नरेश हिन्दू मतावलंबी होते हुए भी बौद्ध धर्म के संरक्षक थे, यहाँ तक कि कई राजाओं की रानियाँ बौद्ध थीं और इस मत के प्रचार में क्रियात्मक रूप से भाग लेती थीं। संसार के इतिहास में धार्मिक सहिष्णुता का यह अपूर्व उदाहरण है।

नागार्जुनकोंडा (विजयपुर) इक्ष्वाकुओं के शासन काल में बहुत सुंदर नगर था। कृष्णा नदी के तट पर स्थित तथा चतुर्दिक पर्वत मालाओं से परिवृत यह नगर प्राकृतिक सौंदर्य से समन्वित होने के साथ ही दुर्भेद्य दुर्ग की भांति सुरक्षित भी था। विजयपुर के आस्थान से नौ बौद्ध स्तूपों के खंडहर लगभग चालीस वर्ष पूर्व उत्खनित किए गए थे, जो इस नगर के प्राचीन गौरव तथा ऐश्वर्य के साक्षी हैं। आठवीं शती में बौद्ध धर्म को, अन्य कारणों के अतिरिक्त महामनीषी शंकराचार्य के प्राचीन हिन्दू धर्म के पुनर्रजीवन के लिए किए

[p.489]:गए भागीरथ प्रयत्न के परिणामस्वरूप बड़ा धक्का लगा और इसकी दक्षिण भारत में अवनति के साथ ही नागार्जुनकोंडा का महत्त्व भी घटने लगा।

नागार्जुनकोंडा को शंकराचार्य ने अपने प्रचार का मुख्य केन्द्र बनाया था, जिसका परिचायक 'पुष्प गिरिशंकर मठ' है। इस स्थान के खंडहर नल्लमलाई की पहाड़ियों के क्रोड़ में स्थित थे। अब यहाँ एक विशाल बाँध बनने के कारण यह सारा क्षेत्र जल मग्न हो गया है। केवल पुरातत्त्व विषयक सामग्री पहाड़ी पर बने एक संग्रहालय में सुरक्षित कर दी गई है। यहाँ के ध्वंसावशेष वनाच्छादित स्थली तथा पहाड़ियों के बीच पड़े हुए हैं। उत्खनन द्वारा एक महाचैत्य तथा बारह स्तूपों के अवशेष मिले। इनके अतिरिक्त चार विहार, छ: चैत्य और चार मंडपों के अवशेष भी उत्खनन द्वारा प्रकाश में लाए गए। महाचैत्य का उत्खनन लांगहर्स्ट ने किया था। इस स्तूप में बुद्ध का एक दांत (बाम श्वदंत) धातु मंजूषा में सुरक्षित पाया गया था। मंजूषा पर अभिलेख था- 'स्म्यक् संबुद्धस धातुवर परगहित महाचैत्य।'

आचार्य नागार्जुन के विहार का पता यहाँ के खंडहरों में नहीं लग सका है। इसके विषय में युवानच्वांग ने लिखा है कि इस विहार के बनवाने में पहाड़ी के अंदर सुरंग बनानी पड़ी थी। लंबी वीथियों के बीच में बने हुए इस भवन पर पांच मंजिले बनाई गई थीं और प्रत्येक पर चार शिलाएं तथा विहार थे। प्रत्येक विहार में बुद्ध की मानवाकार स्वर्णालंकृत प्रतिमाएं स्थापित थीं। ये कला की दृष्टि से बेजोड़ थीं। तीसरी शती ई. में इक्ष्वाकु नरेशों की रानियों ने यहाँ पर अनेक बौद्ध विहारादि बनवाए थे। रानी शांतिश्री ने यहाँ महाविहार तथा महाचैत्य बनवाए थे। दूसरी रानी बोधिश्री ने सिंहल, कश्मीर, नेपाल और चीन के भिक्षुओं के लिए चैत्य गृहों का निर्माण करवाया था। (अंतिम खुदाई में एक पहाड़ी पर सिंहल विहार के खंडहर मिले भी थे)।


इस समय नागार्जुनकोंडा वास्तव में बौद्ध धर्म का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बना हुआ था। इस स्थान से इन भवनों के अतिरिक्त छ: सौ बड़ी तथा चार सौ छोटी कलाकृतियों के अवशेष भी प्राप्त हुए थे। नागार्जुनकोंडा की वास्तु शैली निकटवर्ती अमरावती की कला से बहुत मिलती-जुलती है और दोनों को एक ही नाम अर्थात् 'कृष्णा घाटी की शैली' से अभिहित किया जा सकता है। यहाँ का मुख्य स्तूप जो 70 फुट ऊँचा और 100 फुट चौड़ा है, ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ था, जिस पर ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ भी बनी थीं। यहाँ की 'आयक वेदियाँ' तथा उन पर पतले स्तम्भों की पंक्तियाँ और सादे प्रवेश द्वार या तोरण जिनकी रक्षा करते हुए सिहों की मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं, ये यहाँ के स्तूपों की विशेषताएं आंध्र में अन्यत्र अप्राप्य हैं। स्तूपादिक

[p.490]:के पत्थरों की तक्षण कला या नक़्क़ाशी इस कला का बेजोड़ उदाहरण है।

हल्के हरे रंग का पत्थर, जिसका अधिकांश में यहाँ प्रयोग किया गया है, जीवन के विविध भावदृश्यों के अंकन के लिए विशिष्ट रूप से उपयुक्त था। इन पत्थरों पर उकेरे हुए चित्रों के आधार पर तत्कालीन (दूसरी तीसरी शती ई.) बौद्ध धर्म तथा कला के अध्ययन में बहुत सहायता मिल सकती है। इनमें अंकित अनेक दृश्य संस्कृत बौद्ध साहित्य की कथाओं तथा घटनाओं से लिए गए हैं। इनके अतिरिक्त अनुराधापुर (श्रीलंका की भांति) ही यहाँ भी अनेक बौद्ध मूर्तियों को स्मारकों के आधारों के चतुर्दिक प्रतिष्ठापित करने की प्रथा पाई गई है। यहाँ के शिल्प में स्तम्भों की पंक्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, क्योंकि यही विशिष्टता आंध्र प्रदेश में परिवर्ती काल में बनने वाले मंदिरों की कला का भी एक भाग है।

नागार्जुनकोंडा के अभिलेखों की भाषा अर्धसाहित्यिक प्राकृत है, जो इस प्रान्त के द्रविड़ भाषा-भाषियों की बोली थी। सातवाहनों के समय में इस भाषा (या महाराष्ट्री प्राकृत) का काफ़ी सम्मान था, जैसा कि हाल नरेश द्वारा रचित प्रसिद्ध प्राकृत काव्य ग्रंथ 'गाथा सप्तशती' से सूचित होता है। अभिलेखों से तत्कालीन इतिहास तथा सामाजिक अवस्था पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है।

1954 में नागार्जुनकोंडा से दो संगमरमर के मूर्तिपट्ट प्राप्त हुए थे, जिन्हें भारत शासन ने सिंगापुर के संग्राहालय में भेजा है। इनमें एक पट्ट के बीच में बोधिद्रुम अंकित है, जिसे बौद्ध त्रिरत्न के साथ दिखलाया गया है। दूसरे पट्ट पर संभवत: मगध के राजा बिंदुसार की बुद्ध से भेंट करने की यात्रा का अंकन किया गया है। इसमें राजा को चार घोड़ों के रथ में आसीन दिखाया गया है। रथ के आगे कुछ पैदल सैनिक चले रहे हैं। ये दृश्य बड़े मनोरंजक हैं तथा इनका चित्रण बहुत ही स्वाभाविक रीति से किया गया है।

श्रीनग - श्रीशैल

विजयेन्द्र कुमार माथुर[11] ने लेख किया है ... श्रीनग (AS, p.919) अथवा 'श्रीशैल' (श्रीपर्वत)। जैन तीर्थ के रूप में इसका उल्लेख 'तीर्थमालाचैत्यवंदन' में है- 'विंध्यस्थंभन शीट्ठमीट्ठ नगरे राजद्रहे श्रीनगे।'.

विजयपुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[12] ने लेख किया है ... 1. विजयपुर (AS, p.853)= विजयपुर आंध्र प्रदेश के इक्ष्वाकु नरेशों की प्रख्यात राजधानी 'नागार्जुनकोंडा' का प्राचीन नाम है। इसे विजयपुरी भी कहा जाता था।

2. विजयपुर (AS, p.853)=विजयनगर-2

External links

References

  1. Rajatarangini of Kalhana:Kings of Kashmira/Book IV (p.83)
  2. T. Richard Blurton (1993). Hindu Art. Harvard University Press. pp. 53–54. ISBN 978-0-674-39189-5.
  3. समेत्य रुक्मिणा कर्णः पाण्ड्यं शैलं च सोगमत् (3-255-14a)
  4. Jats the Ancient Rulers (A clan study)/Porus and the Mauryas,p.145
  5. JIH, 1970, p. 415.
  6. ibid, p. 421; R.C. Mitra, The Doctrine of Bu1dhism in India, 1954. p. 130, L. Joshi, Studies in Buddhist Culture of India, 1967, p. 396.
  7. Jats the Ancient Rulers (A clan study)/Porus and the Mauryas,p.144
  8. Inscriptions of Northern India, S.No. 436.
  9. IHQ, Vol. xxxvm, 1962, p. 208, note 27.
  10. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.488-490
  11. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.919
  12. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.853