Tumba
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Tumba (तुम्बा) (botanical name: Citrullus colocynthis) is a desert viny plant native to the Mediterranean Basin and West Asia, especially the Levant, Turkey (especially in regions such as İzmir), and Nubia. It resembles a common watermelon vine but bears small, hard fruits with a bitter pulp. It originally bore the scientific name Colocynthis citrullus.
Variants
- Citrullus colocynthis
- Colocynthis citrullus
- Gaḍtūmbo (गड़तूम्बो:राजस्थानी)
- Indrayana (इंद्रायन: हिंदी, बँगला, गुजराती)
- Chitrafala (चित्रफल: संस्कृत)
- Indravaruni (इंद्रवारुणी:संस्कृत)
- कडु इंद्रावण (Kaduindravan: मराठी)
- Mitero (मितेरो: सिंधी)
- Gadatumba/Gadumba (गड़तुम्बा,गडूम्बा (लोकभाषाओं में)
- Abu Jahl's melon, (native name in Turkey)
- Colocynth,
- Bitter apple,
- Bitter cucumber,
- Egusi,
- Vine of Sodom,
- Wild gourd,
Description
The vine ranges from 2.4–3 metres (8–10 feet) in length.
Roots and stems: The roots are large, fleshy, and perennial, leading to a high survival rate due to the long tap root. The vine-like stems spread in all directions for a few meters looking for something over which to climb. If present, shrubs and herbs are preferred and climbed by means of auxiliary branching tendrils.
Leaves: Very similar to watermelon, the leaves are palmate and angular with three to seven divided lobes.
Flowers: The flowers are yellow and solitary in the axes of leaves and are borne by yellow-greenish peduncles. Each has a subcampanulated five-lobed corolla and a five-parted calyx. They are monoecious, so the male (stamens) and the female reproductive parts (pistils and ovary) are borne in different flowers on the same plant. The male flowers' calyx is shorter than the corolla. They have five stamens, four of which are coupled and one is single with monadelphous anther. The female flowers have three staminoids and a three-carpel ovary. The two sexes are distinguishable by observing the globular and hairy inferior ovary of the female flowers.
Fruits: The fruit is smooth, spheric with a diameter of 5 to 10 centimetres (2 to 4 inches) and an extremely bitter taste. The calyx englobe the yellow-green fruit which becomes marble (yellow stripes) at maturity. The mesocarp is filled with a soft, dry, and spongy white pulp, in which the seeds are embedded. Each of the three carpels bears six seeds. Each plant produces 15 to 30 fruits.
Seeds: The seeds are gray and 5 millimetres (1⁄4 in) long by 3 mm (1⁄8 in) wide. They are similarly bitter, nutty-flavored, and rich in fat and protein. They are eaten whole or used as an oilseed. The oil content of the seeds is 17–19% (w/w), consisting of 67–73% linoleic acid, 10–16% oleic acid, 5–8% stearic acid, and 9–12% palmitic acid. The oil yield is about 400 L/hectare.[11] In addition, the seeds contain a high amount of arginine, tryptophan, and the sulfur-containing amino acids.[citation needed]
Similar species: It resembles the watermelon, which is in the same genus.
In History
Tumain (तुमैन) is a large village in tahsil and district Ashoknagar in Madhya Pradesh. Earlier it was in Guna district. Tumain is derived from Tumbavana (Tumba Forest). Tumbavana is mentioned by Varahamihira as one of the countries lying to the south of [Madhyadesa]].
The identity of Tumbavana with modern Tumain has been established by the discovery at Tumain of a stone inscription which records the erection of a temple by five brothers during the regin of Kumârgupta I". [1]
The Tumain inscription of 435 AD mentions Prince Ghatotkaca as governing the province of Eran, which included Jambuvana. [2]
इंद्रायन
इंद्रायन की बेल मध्य, दक्षिण तथा पश्चिमोत्तर भारत, अरब, पश्चिम एशिया, अफ्रीका के उच्च भागों तथा भूमध्यसागर के देशों में भी पाई जाती है। इसके पत्ते तरबूज के पत्तों के समान, फूल नर और मादा दो प्रकार के तथा फल नांरगी के समान दो इंच से तीन इंच तक व्यास के होते हैं। ये फल कच्ची अवस्था में हरे, पश्चात् पीले हो जाते हैं और उन पर बहुत सी श्वेत धारियाँ होती हैं। इसके बीज भूरे, चिकने, चमकदार, लंबे, गोल तथा चिपटे होते हैं। इस बेल का प्रत्येक भाग कड़वा होता है।
इंद्रायन का नाम बँगला तथा गुजराती में भी यही है। संस्कृत में इसे चित्रफल, इंद्रवारुणी, मराठी में कडु इंद्रावण, सिंधी में मितेरो, लोकभाषाओं में गड़तुम्बा,गडूम्बा, पापड़, पिंदा आदि नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में कॉलोसिंथ या 'बिटर ऐपल' तथा लैटिन में 'सिट्रलस कॉलोसिंथस' (Citrullus colocynthis) कहते हैं। अन्य दो वनस्पतियों को भी इंद्रायन कहते हैं।
इसके फल के गूदे को सुखाकर ओषधि के काम में लाते हैं। आयुर्वेद में इसे शीतल, रेचक और गुल्म, पित्त, उदररोग, कफ, कुष्ठ तथा ज्वर को दूर करनेवाला कहा गया है। यह जलोदर, पीलिया और मूत्र संबंधी व्याधियों में विशेष लाभकारी तथा धवलरोग (श्वेतकुष्ठ), खाँसी, मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, रक्ताल्पता और श्लीपद में भी उपयोगी कहा गया है।
यूनानी मतानुसार यह सूजन को उतारनेवाला, वायुनाशक तथा स्नायु संबंधी रोगों में, जैसे लकवा, मिर्गी, अधकपारी, विस्मृति इत्यादि में लाभदायक है। यह तीव्र विरेचक तथा मरोड़ उत्पन्न करनेवाला है, इसलिए दुर्बल व्यक्ति को इसे न देना चाहिए। इसकी मात्रा डेढ़ से ढाई माशे तक की होती है। इसका चूर्ण तीन माशे तक बबूल की गोंद, खुरासानी अजवायन के सत्व इत्यादि के साथ, जो इसकी त्व्रीाता को घटा देते हैं, गोलियों के रूप में दिया जाता हैं।
रासायनिक विश्लेषण से इसमें कुछ उपक्षार (ऐल्कलॉड) तथा कॉलोसिंथिन नामक एक ग्लूकोसाइड, जो इस ओषधि का मुख्य तत्त्व है, पाए गए हैं। ब्रिटिश मटेरिया मेडिका के अनुसार इससे ज्वर उतरता है। इसका उपयोग तीव्र कोष्ठबद्धता, जलोदर, ऋतुस्राव तथा गर्भस्राव में भी किया जा सकता है।
लाल इंद्रायन का लैटिन नाम ट्रिकोसेंथन पामाटा है। इसे संस्कृत तथा बँगला में महाकाल कहते हैं। इसकी बेल बहुत लबी तथा पत्ते दो से छह इंच के व्यास के, त्रिकोण से सप्तकोण तक होते हैं। फूल नर और मादा तथा श्वेत रंग के, फल कच्ची अवस्था में नारंगी रंग के, किंतु पकने पर लाल तथा १० नांरगी धारियोंवाले होते हैं। फल का गूदा हरापन लिए काला होता है तथा फल में बहुत से बीज होते हैं। इस पौधे की जड़ बहुत गहराई तक जाती है और इसमें गाँठें होती हैं।
रासायनिक विश्लेषण से इसके फल के गूदे में कॉलोसिंथिन से मिलता जुलता ट्रिकोसैंथिन नामक पदार्थ पाया गया है। लाल इंद्रायन भी त्व्रीा विरेचक है। आयुर्वेद में इसे श्वास और फुफ्फुस के रोगों में लाभदायक कहा गया है।
जंगली या छोटी इंद्रायन को लैटिन में क्यूक्युमिस ट्रिगोनस कहते हैं। इसकी बेल और फल पूर्वोक्त दोनों इंद्रायनों से छोटे होते हैं।
इसके फल में भी कॉलोसिंथिन से मिलते जुलते तत्त्व होते हैं। इसका हरा फल स्वाद में कड़वा, अग्निवर्धक, स्वाद को सुधारनेवाला तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करनेवाला बताया गया है।
तुम्बा के फायदे
तुम्बा को इंद्रायण के नाम से भी जाना जाता है। यह स्वाद में कड़वा होता है। तुम्बा कम पानी वाले स्थानों पर आसानी से मिल जाता है।इसे आचार और औषधि के रूप में काम में लिया जाता है।
1- तुम्बे की जड़ की दातुन करने से दांत मजबूत होते हैं तथा दांतों से खुन निकलना बंद हो जाता है। अगर दांतों में दरद महसूस हो रहा है या किड़ा लग रहा है तो तुम्बे की गिरी का रस एक गिलास पानी में मिलाकर कुल्ला करें ध्यान रहे इस पानी को पेट में ना जाने दें। वरना पेचिश हो सकते है।इसके सुखे फल की ध्वनी को मुंह में ले और मुंह नीचे कर के लार टपकाने से दांत के किड़े बाहर आ जाते हैं।
2- जिन लोगों को शुगर है उनके लिए यह रामबाण औषधि है। तुम्बे में छेद करके गिरी निकालकर अन्दर से खोखला करलो। और इसमें मैथी दाना भरकर छेद को बन्द कर तीन दिन छाया में रख दें। तीन दिन बाद मैथी को निकाल कर छाया में सुखा लें,और सुखने के बाद पाउडर तैयार करें। एक चम्मच सुबह-शाम खाली पेट सेवन करने से शुगर जड़ से खत्म हो जाता है। 15-20 तुम्बों को पैरों से तब तक कुचले जब तक मुंह कड़वा ना हो जाए यह उपाय शुगर, जोड़ दर्द, कमर दर्द, पेट दर्द, मांसपेशियों की ऐंठन, गैस, आदि में फायदा करता है।
3- तुम्बे को गरम करके पेट पर रखने से पेट के कीड़े मर जाते हैं और अपच की समस्या ठीक हो जाती है। तुम्बे को तिल के तेल में डालकर गरम करें और इस तेल की मालिश करने से दरद ,मौच ठीक हो जाता है। माइग्रेन में भी इसका माथे पर मालिश करने से फायदा होता है।तथा नाक में दो बूंद डालने से मिर्गी रोग से मुक्ति मिलती है। तुम्बे को नारियल तेल में डालकर गरम करें और इस तेल को बालों में लगाने से सफेद बाल काले हो जाते हैं और बालों का झड़ना व डेंड्रफ खत्म हो जाता है। और कान में डालने से कान दर्द ठीक हो जाता है।
4- सुखे तुम्बे को चिल्म की तरह पीने से दमा रोग में लाभ होता है। कब्ज होने पर तुम्बे को सुखाकर उसमें हिंग, अजवाइन, नमक, इलायची बराबर मात्रा में मिलाकर एक चौथाई चम्मच पानी के साथ खाने से पहले लें। बवासीर होने पर इसकी जड़ को धूप में सुखाकर चूर्ण बनाकर एक चौथाई चम्मच रोज सुबह शाम सेवन करने से फायदा होता है। तथा इसकी जड़ का रस त्वचा पर लगाने से मच्छर नहीं काटते हैं। और तमाम त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं।
5-आंत के कीड़ो से राहत पाने के लिए इसकी जड़ को धोकर साफ करें और चूर्ण तैयार कर लें। इसे रोज गुनगुना पानी के साथ लें इससे आंत के कैंसर व कीड़े, पेट की गैस दूर हो जाती है। तथा हर प्रकार की सुजन दूर करता है। तुम्बे की गिरी को रात में सोते समय तलवों पर बांधने से गठीया रोग व तलवों की जलन दूर हो जाती है।
6- इसका अचार भी बहुत ही लाभकारी है। तुम्बे का अचार डालने के लिए तुम्बे के चार टुकड़े करें। और चुने के पानी में सात से आठ दिन डालकर छोड़ दे। आठ दिन बाद में निकाल कर साफ पानी से साफ कर धुप में सुखा लें और आचार डालें यह बहुत ही लाभदायक होता है।
आय का अच्छा जरिया
बहुत कम बारिश होने की वजह से किसनों के लिए रेगिस्तान में जहां एक ओर फसल उत्पादन करना बहुत कठिन कार्य है, वही दूसरी तरफ खरीफ फसल में खरपतवार ने नाम से जाने वाला तुम्बा आजकल आय का अच्छा जरिया बन रहा है। सूखे क्षेत्रों में पशुपालन ही अधिकतर किसानों का जीवनयापन करने का एकमात्र साधन है। हरे एवं सूखे चारे के अभाव की वजह से पशुपालकों को अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ता है। रेगिस्तान में तुम्बा आसानी से पनपने की वजह से किसानों के लिए एक अतिरिक्त आय का साधन बन सकता है। तुम्बा का छिल्का पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के साथ साथ देशी एवं आयुर्वेदिक औषधीयों में काम आता है। इसके अलवा गाय, भेड़, बकरी व ऊंट आदि में होने वाली बीमारियों के उपचार में काम आता है। इसकी पत्तियां बकरियों के पौष्टिक चारे के रूप में काम आती है तथा उनका दूध बढ़ाती है। तुम्बा पशुओं में थनों पर सूजन को कम करने वाला, कृमि को निकालने में मददगार, पशु की पाचन शक्ति को बढ़ाने वाला और रक्त को शुद्ध करने का कार्य करता है। पशु आहार के साथ एक तुम्बा पशु को रोज खिलाने से पशु स्वस्थ एवं बीमारियों से दूर रहता है। रेगिस्तान में किसान तुम्बा को खरपतवार के तौर पर देखा करते थे। लेकिन आजकल इसकी मांग औषधीयों गुणों से भरपूर होने की वजह से बाजार में अधिक होने के कारण अच्छे दामों पर बिक्री हो जाती है। तुम्बा का अचार, केंडी, मुरब्बा और चूर्ण बना कर घरेलू उपयोग के साथ साथ बाजार में बेचकर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। शुष्क और अतिशुष्क क्षेत्र में तुम्बा जैसी फसल को अपनाया जाना आवश्यक हो गया है जो बहुत ही कम वर्षा व व्यय में संभव है। यह खरीफ के मौसम की फसल होने साथ ही भू-संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पेट साफ करने, मानसिक तनाव, पीलिया, मूत्र रोगों में लाभदायक है। तुम्बा को इंद्रायण, सिट्रलस कॉलोसिंथस एवं बिटर ऐपल इत्यादि नामों से जाना जाता है। इसके फल के गूदे को सुखाकर औषधि के लिए काम में लाते हैं।
तुम्बे का आचार व केंडी
सर्वप्रथम तुम्बे का छिलका उतारकर चुने के पानी में सात से आठ दिनों तक भिगोकर रखा जाता है ताकि यह मीठा हो जाए। एक किलो चूना प्रति चार किलो तुम्बा के लिए पर्याप्त होता है। इस चूने को उपयोग में लाने से पूर्व दस लीटर पानी डालकर रात भर के लिए रखने के पश्चात चूने के पानी को निथारकर कपड़े से छानकर इसको अलग करके इसमे तुम्बे को साथ से आठ दिनों तक के लिए डाल दिया जाता है। इसके बाद में इसको साफ पानी से धोया जाता है। अब इसको धूप में सुखाया जाता है, ताकि इसकी नमी पूरी तरह से खत्म हो सके। इसके बाद में सूखे हुए तुम्बे में हल्दी, राई, मेथी, सौंफ, जीरा, हिंग, सरसों का तेल डाल दिया जाता है। सुखाने के बाद की प्रक्रिया ठीक उसी तरह रहेगी जैसे की साधारण आचार बनाने की होती है। यदि इस सूखे हुए तुम्बे को चीनी की चासनी में उबालकर रख दिया जाय तो यह केंडी बन जाती है। पौष्टिक एवं स्वादिष्ट तुम्बे का अचार बाजार में 400 रूपये किलो तक बिकता है जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है
आय का अच्छा जरिया
बहुत कम बारिश होने की वजह से किसनों के लिए रेगिस्तान में जहां एक ओर फसल उत्पादन करना बहुत कठिन कार्य है, वही दूसरी तरफ खरीफ फसल में खरपतवार ने नाम से जाने वाला तुम्बा आजकल आय का अच्छा जरिया बन रहा है। सूखे क्षेत्रों में पशुपालन ही अधिकतर किसानों का जीवनयापन करने का एकमात्र साधन है। हरे एवं सूखे चारे के अभाव की वजह से पशुपालकों को अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ता है। रेगिस्तान में तुम्बा आसानी से पनपने की वजह से किसानों के लिए एक अतिरिक्त आय का साधन बन सकता है। तुम्बा का छिल्का पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के साथ साथ देशी एवं आयुर्वेदिक औषधीयों में काम आता है। इसके अलवा गाय, भेड़, बकरी व ऊंट आदि में होने वाली बीमारियों के उपचार में काम आता है। इसकी पत्तियां बकरियों के पौष्टिक चारे के रूप में काम आती है तथा उनका दूध बढ़ाती है। तुम्बा पशुओं में थनों पर सूजन को कम करने वाला, कृमि को निकालने में मददगार, पशु की पाचन शक्ति को बढ़ाने वाला और रक्त को शुद्ध करने का कार्य करता है। पशु आहार के साथ एक तुम्बा पशु को रोज खिलाने से पशु स्वस्थ एवं बीमारियों से दूर रहता है। रेगिस्तान में किसान तुम्बा को खरपतवार के तौर पर देखा करते थे। लेकिन आजकल इसकी मांग औषधीयों गुणों से भरपूर होने की वजह से बाजार में अधिक होने के कारण अच्छे दामों पर बिक्री हो जाती है। तुम्बा का अचार, केंडी, मुरब्बा और चूर्ण बना कर घरेलू उपयोग के साथ साथ बाजार में बेचकर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। शुष्क और अतिशुष्क क्षेत्र में तुम्बा जैसी फसल को अपनाया जाना आवश्यक हो गया है जो बहुत ही कम वर्षा व व्यय में संभव है। यह खरीफ के मौसम की फसल होने साथ ही भू-संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पेट साफ करने, मानसिक तनाव, पीलिया, मूत्र रोगों में लाभदायक है। तुम्बा को इंद्रायण, सिट्रलस कॉलोसिंथस एवं बिटर ऐपल इत्यादि नामों से जाना जाता है। इसके फल के गूदे को सुखाकर औषधि के लिए काम में लाते हैं।
तुम्बे का आचार व केंडी
सर्वप्रथम तुम्बे का छिलका उतारकर चुने के पानी में सात से आठ दिनों तक भिगोकर रखा जाता है ताकि यह मीठा हो जाए। एक किलो चूना प्रति चार किलो तुम्बा के लिए पर्याप्त होता है। इस चूने को उपयोग में लाने से पूर्व दस लीटर पानी डालकर रात भर के लिए रखने के पश्चात चूने के पानी को निथारकर कपड़े से छानकर इसको अलग करके इसमे तुम्बे को साथ से आठ दिनों तक के लिए डाल दिया जाता है। इसके बाद में इसको साफ पानी से धोया जाता है। अब इसको धूप में सुखाया जाता है, ताकि इसकी नमी पूरी तरह से खत्म हो सके। इसके बाद में सूखे हुए तुम्बे में हल्दी, राई, मेथी, सौंफ, जीरा, हिंग, सरसों का तेल डाल दिया जाता है। सुखाने के बाद की प्रक्रिया ठीक उसी तरह रहेगी जैसे की साधारण आचार बनाने की होती है। यदि इस सूखे हुए तुम्बे को चीनी की चासनी में उबालकर रख दिया जाय तो यह केंडी बन जाती है। पौष्टिक एवं स्वादिष्ट तुम्बे का अचार बाजार में 400 रूपये किलो तक बिकता है जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है
तुंबवन
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है.... तुंबवन (AS, p.407) परगना अशोक नगर ज़िला, मध्य प्रदेश का प्राचीन स्थान था। अशोक नगर स्टेशन से पांच मील की दूरी पर स्थित 'तुमैन' ही गुप्त काल के अभिलेखों में वर्णित 'तुंबवन' था। गुप्त काल में तुंबवन एरण प्रदेश में सम्मिलित था। यहाँ से गुप्त संवत 116=435 ई. का कुमारगुप्त के काल का एक अभिलेख प्राप्त हुआ था, जिसका संबंध गोविंदगुप्त नामक व्यक्ति से है। इस अभिलेख में घटोत्कचगुप्त का भी उल्लेख है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार यहाँ राजा मकरध्वज की राजधानी थी। गुप्त कालीन इमारतों के कई अवशेष यहाँ आज भी स्थित हैं।
References
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