Vrishala
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Vrishala (वृषल) were ancient people mentioned in Mahabharata (VIII.30.73). Patanjali always uses the term Vrishala as meaning "Anti-Brahmana".[1]
Variants of name
History
Bhim Singh Dahiya[2] writes .... It is significant that they are called 'Mlecchas'. This is a ready-made test for identifying these people. If they are called 'Mlecchas' or 'Sudras', or Vrishla Asuras-then it is a sure bet that the people named are 'foreigners' and most probably Jats from Central Asia (cf Mauryas). It is the direct result of the "arrogance", noted by Pargiter, which termed all the Punjabis as Mlecchas or Sudras. Incidentally, a people called Melanchlaeni are mentioned as a Scythian nation by Hecataeus, perhaps because they used to wear black clothes. They are also mentioned by Pliny in his Geography.[3] Ptolemy placed them on the Volga,[4] Bhagavata Purana, expressly calls the first king (Simuka) of Satavahana dynasty, as "Vrishalo Bali". Patanjali always uses the term Vrishala as meaning "Anti-Brahmana".[5]
Bhim Singh Dahiya[6] writes....Even the Mauryas were called Asura, Sudra and Varishala. The Yuga Purana called them irreligious. Chaturvarga Chintamani of Hemadri[7] obviously referring to the Mauryas, states "Vrishalah Attradharmika", meaning the Mauryas Varishals were irreligious. That is why perhaps, Patanjali gave the call of Jeyo Varishalan. [8] The meaning of the call was that even though the Vrishala cannot be conquered, conquered he must be! This call of dethroning the Mauryas, has to be understood in the context of his other derogatory remarks against the Mauryas according to which they are called gold-hungry and the like. Perhaps the call was answered by Pushyamitra Sunga, who killed the last Maurya emperor. This is the view of H.P. Sastri, it seems.[9]
Therefore, it is an indication of the identity of these people and as a rule, when the Puranas, etc. call some people by these names, there is a certain probability that they are referring to the foreigners and most probably to the Jats from Central Asia.
जाट-ब्राह्मण संघर्ष
ठाकुर देशराज[10] ने लिखा है.... उधर ब्राह्मण लोग जाटों से उनकी सामाजिक उदारता के कारण असंतुष्ट थे ही। जैन और ब्राह्मणों का जिस समय संघर्ष चल रहा था उस समय तो ब्राह्मणों ने स्पष्ट कह दिया था कि कलयुग में कोई क्षत्रिय नहीं है। क्योंकि जैन लोग आरंभ में केवल तीन ही वर्ण मानते थे: क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बौद्ध लोग भी ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय को ऊंचा समझते थे। यही कारण था कि ब्राह्मणों को क्रोध में वह फतवा देना पड़ा कि कलयुग में क्षत्रिय वर्ण ही नहीं है। किंतु राज शक्ति के बिना धर्म का प्रचार होने में बड़ी कठिनाई थी। अतः पहले तो उन्होंने कई राज्यों को षड्यंत्र द्वारा अपने हाथ में किया। शुंग, चच और कण्व इसके उदाहरण हैं* किंतु कुछ काल बाद अनेकों बौद्ध जैन राजाओं को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया। दीक्षा संबंधी सबसे बड़ा उत्सव आबू का यज्ञ है जिसमें उत्तरी भारत के अनेक वंश आकर दीक्षित हुए थे। चाहू, परिहार, सोलंकी और परमार इन में मुख्य हैं। यहीं से एक तीसरे अग्निकुल की स्थापना हुई। पीछे से ब्राह्मण और अग्निकुल एक हो गए। हो ही जाने चाहिए थे उनकी स्थापना का उद्देश्य ही एक था। इस आंदोलन
* देखो विश्वेश्वरनाथ रेऊ कृत भारत के प्राचीन राजवंशी द्वितीय भाग में शुंग और कण्व वंश का वर्णन।
[पृ.30]:आंदोलन (movement) के मुख्य दो केंद्र थे। आबु और नैमिषारण्य। यह अग्निकुली और ब्रह्मकुली लोग ही आगे चलकर राजपूत के नाम से प्रसिद्ध हो गए और अब क्षत्रिय शब्द का स्थान राजपूत शब्द ने ले लिया। हालांकि राजपूत क्षत्रिय वंशवृक्ष की एक शाखा मात्र थे। बढ़ते बढ़ते एक समय राजपूतों के संगठन में 36 कुल शामिल हो गये थे। इनकी कई बार गणना हुई है। पहले के बाद में जितनी बार भी गणना हुई संख्या बढ़ती ही गई। किंतु नाम 36 ही रहा है। चंद्रबरदाई के बाद कर्नल टोड ने ही शायद इस गिनती को दोहराया था।* यदि आज गिनती की जाए तो यह संख्या अब 200 के करीब पहुंचाएगी क्योंकि तब से कई राज खानदान इस राजपूत संगठन में शामिल हो गए हैं। कपूरथला के अहलूवालिया और पडरौना के कुर्मी तो अभी पिछले 15-20 वर्षों में ही दीक्षित हुए हैं। बस इस संगठन में जो भी क्षत्रिय खानदान शामिल नहीं हुए उन्हें ही क्षत्रीयेतर वृषल और शूद्र तक कहने की धृष्टता की गई। हालांकि खत्री, लुहाना, धाकड़, गुर्जर, रवा और जाट पुरातन क्षत्रियों में से हैं। जाटों ने अनेक प्रकार के कष्ट सहकर भी उन रिवाजों को आज तक नहीं छोड़ा है जो वैदिक काल के उनके पूर्वजों द्वारा निर्धारित की गई थी।
* कर्नल टॉड ने इस 36 कुलों की संख्या में जाटों का भी नाम दर्ज किया है।
[पृ.31]: धार्मिक विद्वेष से बौद्ध काल के बाद के ब्राह्मणों और उनके अनुयायियों ने जाटों को गिराने के लिए ही यह कहना आरंभ किया था कि वे क्षत्रिय नहीं हैं। वरना क्या कारण है कि एक राजपूत प्रमार तो क्षत्रिय है और दूसरा जाट प्रमार क्षत्रीय नहीं है। जबकि वे दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं कि हमारे दोनों के बाप-दादा एक ही थे। जाटों में वे सारे गोत्र मौजूद हैं जो राजपूतों की 36 कुलों में गिने जाते हैं। जाट और राजपूतों में जिनके गोत्र मिलते हैं रक्त का तो कोई अंतर है नहीं। हां रिवाजों का थोड़ा अंतर अवश्य है।
ठाकुर देशराज[11] ने लिखा है....विचार स्वातंत्र्य एक अच्छी बात है किंतु जब यह आजाद ख्याली सांप्रदायिकता का रूप पकड़ लेती है तो विष का काम देने लगती है। इसी सांप्रदायिकता ने ही ईरानी आर्यों को भारतीय आर्यों से असुर कहलवाया। उन्होंने भी इन्हें सुर (ईरानी भाषा में शराबी) कहा। * कहाँ तक कहें अनेकों सूर्यवंशी और चंद्रवंशी खानदानों को वृषल की पदवी से बदनाम किया था:-
शनकैस्तु कियालोपादिमा क्षत्रियजातयः। वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥
[पृ.32]: पौंड्रकाश्चौडद्रिवडाः कम्बोजा: यवनाः शकाः । पारदा पल्हवाश्चीन: किराता दरदाः खशाः ॥
अर्थात् - पौन्ड्र, ओड, द्रविड़, कम्बोज, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश ये क्षत्रिय जातियां हैं किन्तु ब्राह्मणों के दर्शन न करने और क्रियालोप होने से वृषल हो गईं।
In Mahabharata
Karna Parva/Mahabharata Book VIII Chapter 30 gives a brahmanical description blaming the Vahikas and Madrakas. Vrishalas have been mentioned in verse (VIII.30.73). [12]
External links
See also
References
- ↑ Patanjali Kalina Bharat (in Hindi), p. 95.
- ↑ Jats the Ancient Rulers (A clan study)/Jat Clan in India,p.234
- ↑ Pliny, op. cit., VI, 5.
- ↑ Quoted by Rawlinson, in his Herodotus, Vol. III, p. 78.
- ↑ Patanjali Kalina Bharat (in Hindi), p. 95.
- ↑ Jats the Ancient Rulers (A clan study)/The Jats,p.24
- ↑ Part III, Section 2, p. 771.
- ↑ Mahabhashya,l/l/50
- ↑ JASB, 1910, p. 259 ff.
- ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Tratiya Parichhed,p.29-31
- ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Tratiya Parichhed,p.31-32
- ↑ बराह्मं पाञ्चाला कौरवेयाः सवधर्मः; सत्यं मत्स्याः शूरसेनाश च यज्ञः, पराच्या दासा वृषला दाक्षिणात्याः; सतेना बाह्लीकाः संकरा वै सुराष्ट्राः (VIII.30.73)
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