Kurukshetra

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(Redirected from Kuru-kshetra)
Map of Kurukshetra District
Gita Dwar, Kurukshetra

Kurukshetra (Hindi: कुरुक्षेत्र) is the name of a city in Kurukshetra District of the Indian state of Haryana हरियाणा. The name literally means "Land of the Kaurava" after the Kuru clan. It is supposed to be the site of the Mahabharata War or Kurukshetra War, described in the epicMahabharata.

Variants

  • Kurukshetra कुरुक्षेत्र (जिला कुरुक्षेत्र, हरयाणा) (AS, p.207)

Location

In the epic times (final centuries BC), the region between the triangle of Thaneshwar, Hissar and Hastinapur was distinguished by three different names:

Tahsils in Kurukshetra district

Kurukshetra University Logo

Kurukshetra district was created out of district Karnal in the year 1973. Later on, some areas of the erstwhile district were transferred to Kaithal and Yamuna Nagar Districts when these two districts were created. Kurukshetra district forms a part of Ambala division. At present, Kurukshetra district is divided into 2 Revenue Sub Divisions namely Thanesar & Pehowa. Thanesar Sub Division comprises of Thanesar and Shahabad tehsils and Ladwa, Babain Sub Tehsils. Pehowa Sub Division includes Pehowa tehsil and Ismailabad Sub Tehsil.[1]

Mention by Panini

Kurukshetra (कुरुक्षेत्र) is mentioned by Panini in Ashtadhyayi. [2]

History

V. S. Agrawala[3] writes that Ashtadhyayi of Panini mentions janapada Kuru (कुरु) (IV.1.172) - It was known to Panini as a janapada and a Kingdom. Hastinapura (VI.2.101) was its capital. The region between triangle of Thanesar, Hisar and Hastinapur was known by three different names. Kururashtra proper between Ganga River and Yamuna with its capital Hastinapur; Kurujangala equal to Rohtak, Hansi, Hisar; and Kurukshetra to the north with its centres at Thaneswar, Kaithal, Karnal.


Thanesar or Sthaneswar, a historical town is located adjacent to what is now newly created Kurukshetra city. Local hearsay identifies the legendary "Kurukshetra" with a nearby obscure hamlet, and with the active abetment of the state government, it is presently experiencing a tourist boom.


A few kilometeres from Kurukshetra is the village, Amin where there are remnants of a fort and it is said to be Abhimanyu's fort.


Kurukshetra town is situated 160 km north of Delhi on the national highway NH1. Other towns of the district are Pehowa, Ladwa, Ismailabad and Shahabad. The total area of Kurukshetra district is 1,682 sq kms and its population is 6,41,000. Total area under cultivation is 1,68,000 hectares out of this, 1,47,000 is irrigated area. The Kurukshetra district lies between latitude 29o-52' to 30o- 12' and longitude 76o-26' to 77o-04' in the North Eastern part of Haryana State. The district has a total of 419 villages. Ghaggar, Markanda and Saraswati are the important rivers of the district.

कुरुक्षेत्र

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...कुरुक्षेत्र (जिला कुरुक्षेत्र, हरयाणा) (AS, p.207). महाभारत के युद्ध की प्रसिद्ध रणस्थली. महाभारत में वर्णित अनेक स्थल यहां आज की वर्तमान हैं.

यहां का प्राचीनतम स्थान ब्रह्मसर सरोवर है. शतपथ ब्राह्मण के एक कथानक के अनुसार राजा पुरू को अपनी खोई हुई प्रेयसी अप्सरा उर्वशी इसी सरोवर के कमलों पर क्रीड़ा करती हुई मिली थी. वायु पुराण में वर्णित है की कुरुक्षेत्र के सरोवर के तट पर सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने एक यज्ञ किया था जिससे इसका नाम ब्रह्मसर हुआ. इसके बीच में 'चंद्रकूप' नामक कूप स्थित है. ब्रह्मसर में एक प्राचीन मंदिर है जहां पहुंचने के लिए अकबर ने एक पुल बनवाया था जो अब जीर्ण-शीर्ण हो गया है. ब्रह्मसर के स्नानार्थी यात्रियों पर औरंगजेब ने कर लगा दिया था और उसके कर्मचारी यहां पास ही स्थित गढ़ी में रहते थे. ब्रह्मसर को द्वैपायनह्रद और और रामह्रद भी कहते हैं.

कुरुक्षेत्र का दूसरा सरोवर ज्योतिसर है. कहा जाता है कि यह वही पुण्यस्थान है जहां भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता सुनाई थी.

एक छोटा तड़ाग सैन्यहत या सन्निहित कहलाता है. सन्निहिती सरोवर (III.81.167) का उल्लेख महाभारत वन पर्व 83, 195 में है. यह सरोवर भी है जहां [p.208]: दुर्योधन अंत समय में छुप गया था और भीम ने गदा युद्ध में मारा था. यह तालाब मिट्टी और वनस्पतियों से ढक गया है.

कुरुक्षेत्र से थोड़ी दूर पर बाणगंगा है जहां भीष्म पितामह के आहत होने पर उनके लिए अर्जुन ने भूमि से बाण तथा जलधारा प्रकट की थी. वामन पुराण 39, 6-7-8 में कुरुक्षेत्र की 7 नदियां बताई गई हैं-- 'सरस्वती नदी पुण्या तथा वैतरणी नदी, आपगा च महापुण्या गंगा मंदाकिनी नदी. मधुस्रवा-अम्लुनदी कौशिकी पाप-नाशिनी, दृषद्वती महापुण्या तथा हिरण्यवती नदी'.

कुरुक्षेत्र परिचय

कुरुक्षेत्र हरियाणा राज्य का एक ऐतिहासिक नगर और ज़िला है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुवा है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर ज्योतिसर नामक स्थान पर दिया था। यह ज़िला बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।

कहा जाता है कि यहाँ स्थित विशाल तालाब का निर्माण महाकाव्य महाभारत में वर्णित कौरवों और पांडवों के पूर्वज राजा कुरु ने करवाया था। कुरुक्षेत्र नाम 'कुरु के क्षेत्र' का प्रतीक है। कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, पानीपत और जिंद का क्षेत्र सम्मिलित हैं।

कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद 10.33.4 में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' अथर्ववेद 20.127.8 में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.13 में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता (मैत्रायणी संहिता 2.1.4, 'देवा वै सत्रमासत्र कुरुक्षेत्रे) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण (तैत्तिरीय ब्राह्मण 5.1.1, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्') का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद 10.90.16 में आया है- 'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'

महाभारत एवं कुछ पुराणों में कुरुक्षेत्र की सीमाओं के विषय में एक कुछ अशुद्ध श्लोक आया है, यथा- तरन्तु एवं कारन्तुक तथा मचक्रुक (यक्ष की प्रतिमा) एवं रामह्रदों (परशुराम द्वारा बनाये गये तालाबों) के बीच की भूमि कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक, एवं ब्रह्मा की उत्तरी वेदी है। (तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामह्रदानां च मचक्रुकस्य। एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते॥ वनपर्व (83।208), शल्य पर्व (53।24)। पद्म पुराण (1।27।92) ने 'तरण्डकारण्डकयो:' पाठ दिया है (कल्पतरु, तीर्थ, पृ0 171)। वनपर्व (83।9-15 एवं 200) में आया हे कि भगवान् विष्णु द्वारा नियुक्त कुरुक्षेत्र के द्वारपालों में एक द्वारपाल था मचक्रक नामक यक्ष। क्या हम प्रथम शब्द को 'तरन्तुक' एवं 'अरन्तुक' में नहीं विभाजित कर सकते? नारदीय पुराण (उत्तर, 65।24) में कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत 'रन्तुक' नामक उपतीर्थ का उल्लेख है (तीर्थप्र0, पृ0 464-465)। कनिंघम के मत से रत्नुक' थानेसर के पूर्व 4 मील की दूरी पर कुरुक्षेत्र के घेरे के उत्तर-पूर्व में स्थित रतन यक्ष है।) इसका फल यह है कि कुरुक्षेत्र कई नामों से व्यक्त हुआ है, यथा- ब्रह्मसर, रामह्रद, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहती। (तीर्थप्रकाश, पृ0 463)

कुरुक्षेत्र की सीमा के लिए देखिए कनिंघम[5], जिन्होंने टिप्पणी की है कि कुरुक्षेत्र अम्बाला के दक्षिण 30 मीलों तक तथा पानीपत के उत्तर 40 मीलों तक विस्तृत है। प्राचीन काल में वैदिक लोगों की संस्कृति एवं कार्य-कलापों का केन्द्र कुरुक्षेत्र था। क्रमश: वैदिक लोग पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़े और गंगा-यमुना के देश में फैल गये तथा आगे चलकर विदेह (या मिथिला) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया

वैदिक संस्कृति: कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण (18.4.1) में आया है कि कुरु-पांचाल शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया। (ऐतरेय ब्राह्मण 8.1 या 2.19) एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण 35।4=7।30 में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है। ऐतरेय ब्राह्मण, 38.3=8.14 तैत्तिरीय आरण्यक ( तैत्तिरीय आरण्यक, 5.1.1) में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था। (देवा वै सत्रमासत। ... तेषां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्ध्नमुत्तरार्ध:। परीणज्जधनार्ध:। मरव उत्कर:॥ तैत्तिरीय आरण्यक (तैत्तिरीय आरण्यक 5.1.1) क्या 'तूर्घ्न' 'स्त्रुघ्न' का प्राचीन रूप है? 'स्त्रुघ्न' या आधुनिक 'सुध' जो प्राचीन यमुना पर है, थानेश्वर से 40 मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम 10 मील पर है।) उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन (12.6) , लाट्यायन 10.15 एवं कात्यायन 24.6.5 के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से सरस्वती निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।

छान्दोग्य उपनिषद 1.10.1 में उस उषस्ति चाक्रायण की गाथा आयी है जो कुरु देश में तुषारपात होने से अपनी युवा पत्नी के साथ इभ्य-ग्राम में रहने लगा था और भिक्षाटन करके जीविका चलाता था।

निरुक्त 2.10 ने व्याख्या उपस्थित की है कि ॠग्वेद 10.98.5 एवं 7 में उल्लिखित देवापि एवं शन्तनु ऐतिहासिक व्यक्ति थे और कुरु के राजा ऋष्टिषेण के पुत्र थे। पाणिनि (4.1.151 एवं 4.1.172) ने व्युत्पत्ति की है कि 'कुरु' से 'कौरव्य' बना है; पहले का अर्थ है 'राजा' और दूसरे का 'अपत्य'।

महाभारत ने कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में बहुधा उल्लेख किया है। इसमें आया है कि सरस्वती के दक्षिण एवं दृषद्वती के उत्तर की भूमि कुरुक्षेत्र में थी और जो लोग उसमें निवास करते थे मानों स्वर्ग में रहते थे।--दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च। ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे॥ वन पर्व (वन पर्व, 83.3, 204-205)।

वामन पुराण (86।6) में कुरुक्षेत्र को ब्रह्मावर्त कहा गया है। वामन पुराण के अनुसार सरस्वती एवं दृषद्वती के बीच का देश कुरु-जागल था। किन्तु मनु 2.17.18 ने ब्रह्मावर्त को वह देश कहा है जिसे ब्रह्मदेव ने सरस्वती एवं दृषद्वती नामक पवित्र नदियों के मध्य में बनाया था। ब्रह्मर्षिदेश वह था जो पवित्रता में थोड़ा कम और कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल एवं शूरसेन से मिलकर बना था। इन वचनों से प्रकट होता है कि आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वोत्तम देश था और कुरुक्षेत्र भी बहुत अंशों में इसके समान ही था। (सरस्वतीदृषद्वत्योरन्तरं कुरुजांगलम्। वामन पुराण (22.47); सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते॥ कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चाला: शूरसेनका:॥ एष ब्रह्मर्षिदेशों वै ब्रह्मावर्तादनन्तर:॥ मनु (2.17 एवं 19)। युग-युग में देशों के विस्तार में अन्तर पड़ता रहा है। पंचाल दक्षिण एवं उत्तर में विभाजित था। बुद्ध-काल में पंचाल की राजधानी कन्नौज थी। शूरसेन देश की राजधानी थी मथुरा। 'अनन्तर' का अर्थ है 'थोड़ा कम' या 'किसी से न तो मध्यम या न भिन्न'। नारदीय पुराण (उत्तर, 64।6)।) हमने यह भी देख लिया है कि ब्राह्मण-काल में अत्यन्त पुनीत नदी सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी और जहाँ यह मरुभूमि में अन्तर्हित हो गयी थी उसे 'विनशन' कहा जाता था और वही भी एक तीर्थस्थल था।

यज्ञिय वेदी: आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली। (आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदा: स्मृता:। कुरुणा च यत: कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्॥ वामन पुराण (22.59-60)। वामन पुराण (22.18-20) के अनुसार ब्रह्मा की पाँच वेदियाँ ये हैं- समन्तपञ्चक (उत्तरा), प्रयाग (मध्यमा), गयाशिर (पूर्वा), विरजा (दक्षिणा) एवं पुष्कर (प्रतीची)।

'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) विष्णु पुराण (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।)

कुरु नामक राजा के नाम पर ही 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा है। कुरु ने इन्द्र से वर माँगा था कि वह भूमि, जिसे उसने जोता था, धर्मक्षेत्र कहलाये और जो लोग वहाँ स्नान करें या मरें वे महापुण्यफल पायें। (यावदेतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्रं तदस्तु व:। स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह॥ वामन पुराण (वामन पुराण, 22.33-34) मिलाइए शल्य पर्व महाभारत (शल्यपर्व, 53.13-14) कौरवों एवं पाण्डवों का युद्ध यहीं हुआ था। भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में 'धर्मक्षेत्र' शब्द आया है। वायु पुराण 7.93 एवं कूर्म पुराण 2.20.33 एवं 37.36-3 में आया है कि श्राद्ध के लिए कुरुजांगल एक योग्य देश है। सातवीं शताब्दी में हुएनसांग ने इस देश की चर्चा की है जिसकी राजधानी स्थाण्वीश्वर (आधुनिक थानेसर, जो कुरुक्षेत्र का केन्द्र है) थी और जो धार्मिक पुण्य की भूमि के लिए प्रसिद्ध था। वन पर्व 129.2 एवं वामन पुराण 22.15-16 में कुरुक्षेत्र का विस्तार पाँच योजन व्यास में कहा गया है। (वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात्पञ्चयोजना। कुरोर्वै यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मन:॥ वनपर्व 9.129.22); समाजगाम च पुनर्ब्रह्मणो वेदिमुत्तराम्। समन्तपरंचकं नाम धर्मस्थानमनुत्तमम्॥ आ समन्ताद्योजनानि पञ्च पञ्च च सर्वत:॥ वामन पुराण (22.15-16)। नारद पुराण(उत्तर, 64.20)में आया है- 'पञ्चयोजनविस्तारं दयासत्यक्षमोद्गमम्। स्यमन्तपञ्चकं तावत्कुरुक्षेत्रमुदाहृतम्॥')

कुरुक्षेत्र की महत्ता: महाभारत एवं पुराणों में वर्णित कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में हम यहाँ सविस्तर नहीं लिख सकते। वन पर्व 83.1-2 में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।'(ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम्। पापेभ्यो विप्रमुच्यन्ते तद्गता: सर्वजन्तव:॥ कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्। य एवं सततं ब्रूयात् सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ वनपर्व (83.1-2)। टीकाकार नीलकण्ठ ने एक विचित्र व्युत्पत्तिदी है। (वनपर्व 83.6)- 'कुत्सितं रौतीतिकुरु पापं तस्य क्षेपणात् त्रायते इति कुरुक्षेत्रं पापनिवर्तकं ब्रह्मोपलब्धिस्थानत्वाद् ब्रह्मसदनम्।' 'सम्यक् अन्तोयेषु क्षत्रियाणां ते समन्ता रामकृतरुधिरोदह्रदा:, तेषां पञ्चकं समन्तपञ्चकम्।' देखिए तीर्थप्र0 (पृ0 463)।) इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है।कुरुक्षेत्रसमा गंगा, वनपर्व 85.88 नारदीय पुराण ( 2.64.23-24) में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते। (ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद् भयम। कुरुक्षेत्रमृतानां तु न भूय: पतनं भवेत्॥ नारदीय पुराण (उत्तर, 2।64।23-24), वामन पुराण (33।16)।)

तीर्थों का उल्लेख: यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन' (वनपर्व 83.11) एवं 'सरक' (जो ऐतरेय ब्राह्मण का सम्भवत: परिसरक है) के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात् का है। नारदीय पुराण (उत्तर, अध्याय 65) ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे। ( वनपर्व 83।85, वामन पुराण 49।38-41, नारदीय पुराण, उत्तर 65.95) ऐंश्येण्ट जियाग्राफी ऑफ इण्डिया (पृ0 334-335) में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था।

कुरुक्षेत्र युद्ध: वामन पुराण 25.50-55 ने सविस्तार वर्णन किया है और उसका कथन है कि यह आधा योजन विस्तृत था। चक्रतीर्थ सम्भवत: वह स्थान है जहाँ कृष्ण ने भीष्म पर आक्रमण करने के लिए चक्र उठाया था।42.5, 57।89 एवं 89.3 व्यासस्थली थानेसर के दक्षिण-पश्चिम 17 मील दूर आधुनिक स्थली है जहाँ व्यास ने पुत्र की हानि पर मर जाने का प्रण किया था। (वनपर्व 84.96; नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 65.83 एवं पद्म पुराण 1.26.90-91) अस्थिपुर ( पद्म पुराण, आदि, 27।62) थानेसर के पश्चिम और औजसघाट के दक्षिण है, जहाँ पर महाभारत में मारे गये योद्धा जलाये गये थे। कनिंघम (आर्क्यालॉजिकल सर्वे रिपोर्टस आफ इण्डिया, जिल्द 2, पृ0 219) के मत से चक्रतीर्थ अस्थिपुर ही है और अलबेरूनी के काल में यह कुरुक्षेत्र में एक प्रसिद्ध तीर्थ था।

तीर्थ-स्थल एवं वन: पृथूदक, जो सरस्वती पर था, वनपर्व (83.142-149) द्वारा प्रशंसित है-'लोगों का कथन है कि कुरुक्षेत्र पुनीत है, सरस्वती कुरुक्षेत्र से पुनीततर है, सरस्वती नदी से उसके (सरस्वती के) तीर्थ-स्थल अधिक पुनीत हैं और पृथूदक इन सभी सरस्वती के तीर्थों से उत्तम है। पृथूदक से बढ़कर कोई अन्य तीर्थ नहीं है'।( वनपर्व 83।147; शान्तिपर्व152.11; पद्म पुराण, आदि 27.33, 34, 36 एवं कल्प0 तीर्थ, पृ0 180-181, पुण्यमाहु नान्यत्तीर्थ कुरुद्वह॥ (वनपर्व 83.147)। वामन पुराण (22.44) का कथन है- 'तस्यैव मध्ये बहुपुण्ययुक्तं पृथूदकं पापहरं शिवं च। पुण्या नदी प्राङमुखतां प्रथाता जलौघयुक्तस्य सुता जलाढ्या॥') शल्यपर्व 39.33-34 में आया है कि जो भी कोई पुनीत वचनों का पाठ करता हुआ सरस्वती के: कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वती। सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम्॥ पृथूदकात्तीर्थतमं उत्तरी तट पर पृथूदक में प्राण छोड़ता है, दूसरे दिन से मृत्यु द्वारा कष्ट नहीं पाता। (अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है) वामन पुराण 39.20 एवं 23 ने इसे ब्रह्मयोनितीर्थ कहा है। पृथूदक आज का पेहोवा है जो थानेसर से 14 मील पश्चिम करनाल ज़िले में है।[6]

सात वन: वामन पुराण 34.3 एवं नारदीय पुराण 65.4-7 में कुरुक्षेत्र के सात वनों का उल्लेख है, यथा-1. काम्यक, 2. अदितिवन, 3. व्यासवन, 4. फलकीवन, 5. सूर्यवन, 6. मधुवन एवं 7. सीतावन[7]

सात नदियाँ: शल्यपर्व अध्याय 38 में कहा गया है कि संसार सात सरस्वतियों द्वारा घिरा हुआ है, यथा-

1. सुप्रभा (पुष्कर में, जहाँ ब्रह्मा ने एक महान् यज्ञ करते समय उसका स्मरण किया था) ,

2. कांचनाक्षी (नैमिष वन में),

3. विशाला (गया देश में गय द्वारा आवाहित की हुई),

4. मनोरमा (उत्तर कोसल में औद्दालक के यज्ञ में),

5. सुरेणु (ऋषभ द्वीप में कुरु के यज्ञ में),

6. ओधवती (कुरुक्षेत्र में वसिष्ठ द्वारा कही गयी) एवं

7. विमलोदा। (जब ब्रह्मा ने हिमालय में पुन: यज्ञ किया)

सात नदियाँ: वामन पुराण (34.68) में सरस्वती के सम्बन्ध में सात नदियाँ अति पवित्र कही गयी हैं (यद्यपि 9 के नाम आधे हैं) यथा- सरस्वती, वैतरणी, आपगा, गंगा-मन्दाकिनी, मधुस्त्रवा, अम्बुनदी, कौशिकी, दृषद्वती एवं हिरण्यवती

कुरुक्षेत्र को सन्निहती या सन्निहत्या भी कहा गया है। (देखिए तीर्थों की सूची) वामन पुराण 32.3-4 का कथन है कि सरस्वती प्लक्ष वृक्ष से निकलती है और कई पर्वतों को छेदती हुई द्वैतवन में प्रवेश करती है। इस पुराण में मार्कण्डेय द्वारा की गयी सरस्वती की प्रशस्ति भी दी हुई है। अलबरुनी (सचौ, जिल्द 1, पृ0 261) का कथन है कि सोमनाथ से एक बाण-निक्षेप की दूरी पर सरस्वती समुद्र में मिल जाती है। एक छोटी, किन्तु पुनीत नदी सरस्वती महीकण्ठ नाम की पहाड़ियों से निकलती है और पालनपुर के उत्तर-पूर्व होती हुई सिद्धपुर एवं पाटन को पार करती कई मीलों तक पृथ्वी के अन्दर बहती है और कच्छ के रन में प्रवेश कर जाती है। (बम्बई गजेटियर, जिल्द 5, पृ0 283, कुरुक्षेत्र के तीर्थों की सूची के लिए देखिए, ए.एस. आर. ऑफ इण्डिया (जिल्द 14, पृ0 17-106)।)

पौराणिक कथा: कुरु ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरु बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरु ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरु को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरु के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरु ने यह बात मान ली। यही स्थान समंत-पंचक अथवा प्रजापति की उत्तरवेदी कहलाता है। (महाभारत, शल्यपर्व, अध्याय 53)

संदर्भ: भारतकोश-कुरुक्षेत्र

In Rajatarangini

Rajatarangini[8] tells that ....At the time when preparations for war were being made, three hill chiefs Jāsaṭa of Champa, Vajradhara of Vallapura And Sahajapala of Vartula and two heir apparent Kahla of Trigarta and Anandaraja of Vallapura assembled together and arrived at Kurukshetra. They found Bhikshachara who was saved by Asamati with Naravarmma; and Naravarmma gave gold to the former for, expenses on the way. Jasata was related to Bhikshachara and treated him well, and the other chiefs also honored him. They then arrived at Vallapura. (p.46)


Rajatarangini[9] tells.... But in order to help Nagapala, the king gave him his own army, crushed the pride of his enemies and re-established the stability of the kingdom. In the meantime Koshtaka returned after his ablutions in the Ganges, and taking Mallarjjuna on his side, set about to raise a faction in the kingdom. At the time of the solar eclipse, the prince was at Kurukshetra. It was in 1133 AD. [VIII (i),p.197-198]

In Mahabharata

Mahabharata mentions Kurukshetra (कुरुक्षेत्र) in verses (I.89.43), (1.94), as Tirtha in verse (III.81.1, 2, 92, 175,176,177,178), (V.158.11), (VIII.30.10),(IX.36.48),...


Adi Parva, Mahabharata/Book I Chapter 89 mentions in verses (I.89.42-43)...."Samvarana begat upon his wife, Tapati, the daughter of Surya, a son named Kuru. This Kuru was exceedingly virtuous, and therefore, he was installed on the throne by his people. It is after his name that the field called Kuru Jangala has become so famous in the world. Devoted to asceticism, he made that field (Kurukshetra) sacred by practising asceticism there."

ततः संवरणात सौरी सुषुवे तपती कुरुम
राजत्वे तं परजाः सर्वा धर्मज्ञ इति वव्रिरे (I.89.42)
तस्य नाम्नाभिविख्यातं पृथिव्यां कुरुजाङ्गलम
कुरुक्षेत्रं स तपसा पुण्यं चक्रे महातपाः (I.89.43)

Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 81 mentions names of Tirthas (Pilgrims): Kurukshetra (कुरुक्षेत्र) is mentioned verses (III.81.1,2) as under.... "Pulastya said, 'One should next proceed, O king, to the adored Kurukshetra (कुरुक्षेत्र) (III.81.1) at sight of which all creatures are freed from their sins. He is freed from all sins who constantly sayeth, 'I will live in Kurukshetra.' The very dust of Kurukshetra, conveyed by the wind, leadeth a sinful man to a blessed course (in after-life). They that dwell in Kurukshetra which lieth to the south of the Saraswati and the north of the Drishadwati, are said to dwell in heaven."


ततॊ गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रम अभिष्टुतम
पापेभ्यॊ विप्रमुच्यन्ते तद्गताः सर्वजन्तवः (III.81.1)
कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्य अहम
य एवं सततं बरूयात सॊ ऽपि पापैः परमुच्यते (III.81.2)
अत्र मासं वसेद वीर सरस्वत्यां युधिष्ठिर
यत्र बरह्मादयॊ देव ऋषयः सिद्धचारणाः (III.81.3)

Verse (III.81.92) states ......O son of the Kuru race, one should next repair to Naimishakunja (नैमिष कुञ्ज) (III.81.92). O king, the Rishis engaged in ascetic austerities in the woods of Naimisha had, in days of old, taking the vow of pilgrimage, gone to Kurukshetra. There, on the banks of the Saraswati, O chief of the Bharatas, a grove was made, which might serve for a resting spot for themselves, and which was highly gratifying to them. Bathing in the Saraswati there, one obtaineth the merit of the Agnishtoma sacrifice.

ततॊ नैमिष कुञ्जं च समासाद्य कुरूद्वह
ऋषयः किल राजेन्द्र नैमिषेयास तपॊधनाः
तीर्थयात्रां पुरस्कृत्य कुरुक्षेत्रं गताः पुरा (III.81.92)
दक्षिणेन सरस्वत्या उत्तरेण दृषद्वतीम
ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति तरिविष्टपे (III.81.175)
कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्य अहम
अप्य एकां वाचम उत्सृज्य सर्वपापैः परमुच्यते (III.81.176)
बरह्म वेदी कुरुक्षेत्रं पुण्यं बरह्मर्षिसेवितम
तदावसन्ति ये राजन न ते शॊच्याः कथं चन (III.81.177)

Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 81 explains the importance of Prithudaka in verses (III.81.122-29)...."One should next proceed, O king, to the tirtha celebrated over the three worlds, which is called Prithudaka (पृथूदक) (III.81.122), belonging to Kartikeya. One should bathe there and occupy oneself in the worship of the Pitris and the gods. Whatever evil hath been committed, knowingly or unknowingly, by man or woman, impelled by human motives, is all destroyed, O Bharata, by a bath in that tirtha. Bathing there one obtaineth, too, the merit of the horse-sacrifice and heaven also. The learned have said that Kurukshetra is holy; that holier than Kurukshetra is the Saraswati; that holier than the Saraswati are all the tirthas together, and that holier than all the tirthas together is Prithudaka. He that engaged in the recitation of prayers casteth off his body at Prithudaka, which is the best of all tirthas, becometh an immortal. It hath been sung by Sanatkumara and by the high-souled Vyasa, and it is in the Vedas also, that one should, O king, go to Prithudaka, with subdued soul. O son of Kuru race, there is no tirtha which is superior to Prithudaka. Without doubt, that tirtha is purifying, holy and sin-destroying."

ततॊ गच्छेत राजेन्द्र तीर्थं तरैलॊक्यविश्रुतम
पृथूदकम इति खयातं कार्तिकेयस्य वै नृप
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः (III.81.122)
अज्ञानाज जञानतॊ वापि सत्रिया वा पुरुषेण वा
यत किं चिद अशुभं कर्मकृतं मानुषबुद्धिना (III.81.123)
तत सर्वं नश्यते तस्य सनातमात्रस्य भारत
अश्वमेध फलं चापि सवर्गलॊकं च गच्छति (III.81.124)
पुण्यम आहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात सरस्वतीम
सरस्वत्याश च तीर्थानि तीर्थेभ्यश च पृथूदकम (III.81.125)
उत्तमे सर्वतीर्थानां यस तयजेद आत्मनस तनुम
पृथूदके जप्यपरॊ नैनं शवॊ मरणं तपेत (III.81.126)
गीतं सनत कुमारेण वयासेन च महात्मना
वेदे च नियतं राजन अभिगच्छेत पृथूदकम (III.81.127)
पृथूदकात पुण्यतमं नान्यत तीर्थं नरॊत्तम
एतन मेध्यं पवित्रं च पावनं च न संशयः (III.81.128)
तत्र सनात्वा दिवं यान्ति अपि पापकृतॊ जनाः
पृथूदके नरश्रेष्ठ पराहुर एवं मनीषिणः (III.81.129)

Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 81 gives its location in verse (III.81.178)......That which lieth between Tarantuka (तरन्तुक) (III.81.178) and Arantuka (अरन्तुक) (III.81.178) and the lakes of Ramahrada (रामह्रदा) (III.81.178) and Machakruka (मचक्रुक) (III.81.178) is Kurukshetra. It is also called Samantapanchaka (समन्तपञ्चक) (III.81.178) and is said to be the northern sacrificial altar of the Grandsire.

तरन्तुकारन्तुकयॊर यद अन्तरं; रामह्रदानां च मचक्रुकस्य
एतत कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं; पिता महस्यॊत्तर वेदिर उच्यते (III.81.178)

Udyoga Parva/Mahabharata Book V Chapter 158 mentions in verse (V.158.11)....The field of Kurukshetra also is without mire. The roads are even. Thy steeds are well-fed.

लॊहाभिहारॊ निर्वृत्तः कुरुक्षेत्रम अकर्थमम
समः पन्दा भृता यॊधाः शवॊ युध्यस्व सकेशवः (V.158.11)

Karna Parva/Mahabharata Book VIII Chapter 30 mentions ...."One should always avoid the Vahikas, those impure people that are out of the pale of virtue, and that live away from the Himavat and the Ganga River and Sarasvati and Yamuna and Kurukshetra and the Sindhu and its five tributary rivers."

तत्र वृथ्धः पुरावृत्ताः कदाः काश चिथ थविजॊत्तमः
बाह्लीक थेशं मद्रांश च कुत्सयन वाक्यम अब्रवीत (V.158.9)
बहिष्कृता हिमवता गङ्गया च तिरस्कृताः
सरस्वत्या यमुनया कुरुक्षेत्रेण चापि ये (V.158.10)
पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नथीनां ये ऽनतर आश्रिताः
तान धर्मबाह्यान अशुचीन बाह्लीकान परिवर्जयेत (V.158.11)

Geography

The district is a plain which slopes generally from North East to South West. The plain is remarkable flat and within it, are the narrow low-lying flood plains, known as either Betre Khadar of Naili. A good network of canals is providing irrigational facilities. Underground water level is not relatively high. Tube well irrigation is also common in the district. It is one of the prosperous district from agriculture point of view. Kurukshetra along with Karnal and Kaithal districts is known as the 'Rice Bowl of India' and famous for Basmati Rice. The soil is generally alluvial, loam and clay does not constitute average texture of the soil.

Places of national importance

Sheikh Chehli's Tomb

शेखचिल्ली का मकबरा, थानेसर This beautiful tomb and the attached Madrasa are associated with the sufi saint Abd-Ur-Rahim alias Abudul-Karim popularly known by the name of Sheikh Chehli, believed to be spiritual teacher of Mughal prince Dara Shikoh (1650 AD) the tomb. Built of buff sandstone, the tomb is crowned by pear shaped dome of marble on a high circular drum. Another tomb of sand stone with a long dome of marble decorated with graved floral designs is on the west wall of the enclosure. It is said to be of Sheikh Chehli’s wife. in view of its architectural and historical importance it was declare protected as a monument of National importance.

Kurukshetra Panorama and Science Centre

The Centre is situated adjacent to the Sri Krishna Museum in Kuruksheta and has a magnificent two-storied building used for exhibition and visitors’ activities. In the ground floor, an exhibition called ‘India-A Heritage in Science, Technology and Culture, consisting of working and interactive exhibits on ancient Indian concept of properties of matter, structure of atom, geometry, arithmetical rules, astronomy medicine and surgery. Housed in a tall and cylindrical building, with its elegant architecture and ambience, the main attraction of the Centre is a life-like Panorama of the epic battle of Kurukshetra. Standing at the centre of the cylindrical hall, one can feel the towering 34 feet high paintings of the episodes from the 18-day confrontation between the Pandavas and the Kauravas come alive before his eyes. Merged with this is the diorama of the battleground that epitomizes the carnage realistically. The chanting of Gita and distant war cries mingled with lighting illusions create the perfect ambience. A Science Park has also been set up outside the four walls of the center’s building. This is a refreshing concept of science learning for the children through fun and enjoyment.

Archeological Site Museum

An archaeological site museum has been set up here to enlighten the people the history of Thanesar as revealed by archaeological excavations carried out by The Archaeological Survey of India. It houses a variety of exhibits unearthed from the mound such as stone and terracotta sculptures, coins, ornaments, ritualistic objects etc. The exhibition also includes schematic plan and its findings as well as the architectural buildings as have been exposed after the excavation. This site museum is the first of its kind in Haryana.

Harsha Ka Till - An Archeological Excavated Site

It is an archaeological mound excavated by Archaeological Survey of India. The excavation has revealed cultural occupation from 1st century B.C. to 18th century AD. Various archaeological findings pertaining to different periods of history unearthed from the mound depicts the cultural history of Thanesar through the ages. The excavated passions have been scientifically conserved and made available for the tourists and scholars.

Sthaneshwar Mahadev Temple

Small and distinct. With an air of an ancient presence, lies the Sthanesvara Mahadev Temple at Thanesar. It was here that the Pandavas prayed to Lord Shiva and received His blessings for Shiva and received His blessings for victory in the battle of Mahabharata legend has it that the waters of the tank adjoining the temple are holy. A few drops of water cured King ‘Ben’ of leprosy. And, no pilgrimage of Kurukshetra is believed to be entirely complete without a visit to this holy temple. The temple of Sthaneswar is the abode of Lord Shiva. It once formed an important part of the kingdom of King Harsha Vardhana of the Pushyabhuti dynasty. The architecture of the temple is regional is style-it has a domical roof and the façade of this dome is given an ‘Amla’ shape along with a tall pinnacle. The ‘Linga’ is ancient and worshipped with a lot of ritual and prayer.

Bhadrakali Temple

The temple is dedicated to Bhadrakali a form of shaktiand consort of Virabhadra. This is considered to be one of the fifty one Shakti pithas of India. It is believed that the right ankle of Sati fell here in the well. The consort of Savtri is called Sthanu. Hence, the city is called Sthanesvar meaning abode of Shiva. It is believed that the mundan (hair removing) ceremony of Krishna and Balarama was also performed in this temple.

Jyotisar

On of the most revered of holy places of Kurukshetra is Jyotisar, which lies 5 km from Kurukshetra on Kurukshetra-Pehowa road. It is believed that here under the holy banyan tree Lord Krishna delivered the eternal message of Bhagawadgita to Arjuna before commencement of Mahabharata battle. The Bhagawadgita has been immortalised in the sacred ambiance of a small village named Jyotisar one of the most revered holy places of Kurukshetra. In fact, the word Jyotisar constitutes of two words that is ‘Jyoti’ meaning light and ‘Sar’ meaning tank. Thus, it symbolically signifies the sacred tank of enlightenment. Tradition says here stands a banyan tree, may be an offshoot of the original banyan tree under which Krishna delivered the Bhagawadgita on the eve of battle just before its commencement. Sound & Light show on the theme of Bhagawadgita in the light of Mahabharata has been mounted by ITDC as a part of the tourism promotion in Kurukshetra. The show enlivens the story of Mahabharata through the powerful dialogues and the hymns from the Bhagawadgita. An ambience of the battle is created in the secluded environment of Jyotisar.

Kalikamli Temple

The temple is dedicated to Bhadrakali. The main deity worshipped in the sanctum sanctorum is Kali, a form of ‘Shakti’. As such Thanesar is known for Shaktism and tantricism. Apparently the temple might have existed in some or other form. The temple is double storied structure. Architecturally it is an off-beat style as the sanctum sanctrum and sanctum are juxtapositioned in such a way that it forms one single structure bearing composite style of domical and vaulted roofs.

Sri Krishna Museum

Krishna means ‘all that is attractive’. He embraces all that is beautiful, enchanting, and eternal. Look at him as an incredible hero. Perceive him as the destroyer of evil. Feel in your heart and soul his love and compassion. He is the symbol of time, space, and eternity, the manifestation of justice, goodwill, fraternity and universality. Every museum has its own character and personality. With a view to awakening the people morally and culturally through the ideas and ideals of Krishna and to enlighten the people the history of the region, the Sri Krishna Museum was established in 1987. Subsequently it was shifted to the present building in 1991 and new block was added in the year 1995. The artefacts displayed in the museum represent Krishna as godhead, an avatara, of Vishnu, a great Philosopher, an epic hero, an astute statesman and a supreme lover. There are six galleries displaying different terms of Madhubani Paintings, Thanjarur Paintings, Miniature Paintings, Archaeological Objects and Krishna Paintings.

Notable Jats from Kurukshetra district

Jat Gotras in Kurukshetra district

Notable Jat villages in Kurukshetra district

Tyoda, Tyodi, Ban, Buddha, Kailron, Mangoli Jattan, Bangro, Dudhla Bapda, Bapdi, Latthi, Dhanaura, Dudhla, Charuni Jattan,Landha, Landhi, Kirmach,Kheri Dabdlan Rattan Dera

External Links

Gallery

References

  1. Kurukshetra.nic.in
  2. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p. 54
  3. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.54
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.207-208
  5. आर्क्यालाजिकल सर्वे रिपोर्टस, जिल्द 14, पृ0 86-106
  6. देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 1, पृ0 184
  7. देखिए आर्क्यालाजिकल सर्वे रिपोर्टस फॉर इण्डिया, जिल्द 14, पृ0 90-91
  8. Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII,p.46
  9. Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII (i),p.197-198

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