Dhruva

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Dhruva (ध्रुव) is the Sanskrit term dhruva nakshatra "immovable star" used for the polar star in the Mahabharata, personified as son of Uttanapada and grandson of Manu. Dhruva was born a son of the King Uttānapāda (the son of Svayambhuva Manu) and his wife Suniti. The king also had another son Uttama, born to his second queen Suruchi, who was the preferred object of his affection.

Variants

The Story of Dhruva

Of myths that represent a spiritualizing interpretation of the stars, the very jewel is probably the story of Dhruva. It is frankly a statement of how the Pole-star came to be so steady, and the Hindu name for the Pole-star is Dhruva-lok, or place of Dhruva.

Dhruva was a child and a prince, the eldest son of a king and his chief queen. There was, however, a younger wife who had gained great ascendancy over the mind of Dhruva's father, and in consequence of her jealousy and dislike the prince and his mother Suniti were banished from the court and sent to live in retirement in a cottage on the edge of a great forest. We are here dealing, we must remember, with a Hindu tale of the period when every story forms an epos of the soul, and in the epos of the soul the chief event is that by which arises a dis taste for the material world. Young Luther sees his


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Dhruva by Asit Kumar Haldar

friend struck dead by lightning, and at once enters a monastic order.

This crisis in the history of the child Dhruva arises when he is seven years old. At that age he asks his mother to tell him who is his father. When she has answered he has still another question. May he go and see his father ? Permission is readily given, and on the appointed day the child sets forth. Seated on his father s knee, amidst all the joy of his love and welcome for the little son is the king's darling the great disillusionment arrives. Dhruva's stepmother enters, and at the sight of the anger in her face the father hastily puts his boy down.

Wounded to the core, the child turns, without speaking, and steals quietly away. He has sought for strength and found none. Even the strongest love in the world, a father's, and that father a king, is without power or courage to be faithful and to protect. On reaching the home of their exile the child has only one question to put to the anxious woman who has watched so eagerly for his return : " Mother, is there anyone in the world who is stronger than my father ? "

"Oh yes, my child," said the startled queen; "there is the Lotus-eyed. In him is all strength."

" And, mother," said the child gravely, " where dwells the Lotus-eyed ? Where may he be found ? "

Was there in the simple words some hint of danger, some note of a parting that was to throw its shadow over all the years to come ? There must have been, for the mother gave as if in fear an answer that would fain make search impossible.

"Where dwells the Lotus-eyed, my son ? " said she. "Oh, in the heart of the forest, where the tiger lives and the bear lives. There dwells he."


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That night when the queen lay sleeping the child stealthily rose to find his way to the Lotus-eyed. " O Lotus-eyed, I give my mother to thee ! " he said, as he stood for a moment at her side. And then, as he paused on the threshold of the house : " O Lotus-eyed, I give myself to thee ! " and stepped boldly forth into the forest. On and on he went. Difficulty was nothing, distance was nothing. He was a child, and knew nothing of the dangers of the way. On and on, without faltering, he went. After a while, still pursuing his way through that impenetrable forest, he came to the Seven Sages deep in their worship, and paused to ask his road of them. At last he came to the heart of the forest and stood there waiting. As he waited the tiger came, but the child Dhruva stepped up to him eagerly and said : " Art thou he ? " And the tiger turned away in shame and left him. Then the bear came, and again Dhruva went forward, saying : " Art thou he ? " But the bear, too, hung his head and went away.

And then, as the child of the steady heart still waited and watched, a great sage stood before him who was Narada himself. And Narada gave him a prayer and told him to sit down, there at the heart of the forest, and fix his whole mind on the prayer, saying it over and over again, and surely he would find the Lotus-eyed. So there, at the heart of the forest, where we see the Polar Star, sits Dhruva saying his prayer. He has long ago found the Lotus-eyed found him in his own heart. For he fixed his mind on his prayer with such perfect steadfastness that even when the white ants came and built about him the mighty ant-hill of the midnight sky the child Dhruva never knew it, never moved, but there, stirless, all-absorbed, sat on and sits still, worshipping the Lotus-eyed for ever and ever.


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ध्रुव

विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ... ध्रुव (AS, p.469) विष्णु पुराण 2.4.5 के अनुसार प्लक्ष-द्वीप का एक भाग या वर्ष जो इस द्वीप के राजा मेधतिथि के पुत्र ध्रुव के नाम पर प्रसिद्ध है.

ध्रुव की कहानी

उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्यायें थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुये । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था । एक बार उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई । अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा के गोद में बैठे देख कर वह ईर्ष्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुव को राजा के गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बैठाते हुये कहा-

"रे मूर्ख! राजा की गोद में वह बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ है । तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारण से तुझे इनकी गोद में तथा राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है । यदि तेरी इच्छा राज सिंहासन प्राप्त करने की है तो भगवान नारायण का भजन कर । उनकी कृपा से जब तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होगा तभी राजपद को प्राप्त कर सकेगा ।"

पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को अपनी सौतेली माता के इस व्यहार पर बहुत क्रोध आया पर वह कर ही क्या सकता था ? इसलिये वह अपनी माँ सुनीति के पास जाकर रोने लगा । सारी बातें जानने के पश्चात् सुनीति ने कहा-

"बेटा ध्रुव! तेरी सौतेली माँ सुरुचि से अधिक प्रेम होने के कारण तेरे पिता हम लोगों से दूर हो गये हैं । अब हमें उनका सहारा नहीं रह गया है । तू भगवान को अपना सहारा बना ले । सम्पूर्ण लौकिक तथा अलौकिक सुखों को देने वाले भगवान नारायण के अतिरिक्त तुम्हारे दुःख को दूर करने वाला और कोई नहीं है । तू केवल उनकी भक्ति कर ।"

माता के इन वचनों को सुन कर ध्रुव को कुछ ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह भगवान की भक्ति करने के लिये पिता के घर को छोड़ कर चल दिया । मार्ग में उसकी भेंट देवर्षि नारद से हुई । नारद मुनि ने उसे वापस जाने के लिये समझाया किन्तु वह नहीं माना । तब उसके दृढ़ संकल्प को देख कर नारद मुनि ने उसे 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र की दीक्षा देकर उसे सिद्ध करने की विधि समझा दी । बालक के पास से देवर्षि नारद राजा उत्तानपाद के पास आये ।

राजा उत्तानपाद को ध्रुव के चले जाने के बाद पछतावा हो रहा था । नारद मुनि का विधिवत् पूजन तथा आदर सत्कार करने बाद वे बोले-

" हे देवर्षि! मैं बड़ा नीच तथा निर्दयी हूँ । मैंने स्त्री के वश में होकर अपने पाँच वर्ष के छोटे से बालक को घर से निकाल दिया । अब अपने इस कृत्य पर मुझे अत्यंत पछतावा हो रहा है ।"

ऐसा कहते हुये उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे । नारद जी ने राजा से कहा-

" राजन्! आप उस बालक की तनिक भी चिन्ता मत कीजिये । जिसका रक्षक भगवान हैं उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता । वह बड़ा प्रभावशाली बालक है । भविष्य में वह अपने यश को सारी पृथ्वी पर फैलायेगा । उसके प्रभाव से तुम्हारी भी कीर्ति इस संसार में फैलेगी ।"

नारद जी के इन वचनों से राजा उत्तानपाद को कुछ सान्त्वना मिली । उधर बालक ध्रुव ने यमुना जी के तट पर मधुवन में जाकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जाप के साथ भगवान नारायण की कठोर तपस्या की । अत्यन्त अल्पकाल में ही उसकी तपस्या से भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर कहा-

" हे राजकुमार! मैं तेरे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ । तेरी सभी इच्छायें पूर्ण होंगी । तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं । प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता । सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । यक्षों के द्वारा मारा जावेगा और उसकी माता सुरुचि पुत्र विरह के कारण दावानल में भस्म हो जावेगी । समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अन्त समय में तू मेरे लोक को प्राप्त करेगा ।"

बालक ध्रुव को ऐसा वरदान देकर भगवान नारायण अपने लोक को चले गये।

संदर्भ: भारतकोश-ध्रुव

बिठूर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ...बिठूर (AS, p.629) प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल है जो कानपुर 12 से मील उत्तर की ओर उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका मूलनाम ब्रह्मावर्त कहा जाता है. किवदन्ती है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के उपलक्ष्य में यहाँ अश्वमेघयज्ञ किया था। बिठूर को बालक ध्रुव के पिता उत्तानपाद की राजधानी माना जाता है. ध्रुव के नाम से एक टीला भी यहाँ विख्यात है. कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम जहाँ सीता निर्वासन काल में रही थी, यहीं था। अंतिम पेशवा बाजीराव जिन्हें अंग्रेज़ों ने मराठों की अंतिम लड़ाई के बाद महाराष्ट्र से निर्वासित कर दिया था, बिठूर आकर रहे थे। इनके दत्तक पुत्र नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के स्वतंत्रतायुद्ध में प्रमुख भाग लिया था. पेशवाओं ने यहाँ कई सुंदर इमारतें बनवाई थी किन्तु अंग्रेजों ने इन्हें 1857 के पश्चात अपनी विजय के मद में नष्ट कर दिया. बिठूर में प्रागैतिहासिक काल के ताम्र उपकरण तथा बाणफ़लक मिले हैं जिससे इस स्थान की प्राचीनता सिद्ध होती है.

External links

References