Haryana Ke Vir Youdheya/तृतीय अध्याय
तृतीय अध्याय - हमारे देव और ऋषि
सृष्टि के आदि में आर्यावर्त्त देश ऋषियों मुनियों और देवताओं से परिपूरित था । सात्त्विक आहार व्यवहार के कारण सत्त्व गुण प्रधान देव और ऋषियों का बाहुल्य था । क्योंकि देवत्वं सात्त्विका यान्ति (मनु० अ० १२।१) मनु जी के इस विधानानुसार जो मनुष्य सात्त्विक होते हैं वे देव विद्वानों की गति को प्राप्त होते हैं । इसीलिये ब्रह्मादि ८८ सहस्र ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी देव ऋषि पवित्र देवभूमि भारत में हुये हैं । आदि सष्टि में ब्रह्मा से लेकर महाभारत काल में जैमिनि महर्षि पर्यन्त यह देवों की परम्परा चलती रही । उनसे ब्रह्मा आदि देवों की उत्पत्ति तथा वंश परम्परा के विषय में प्राचीन ग्रन्थों में निम्न प्रकार से वृत्त मिलता है ।
महर्षि ब्रह्मा आदि देवों की उत्पत्ति
हमारे पूर्वजों की वंशावली रामायण महाभारत और पुराण आदि ग्रन्थों में दी है, उनमें मतभेद अवश्य है, सब में समानता नहीं मिलती । प्रलय वा अवान्तर प्रलय के पश्चात् अमैथुनी सृष्टि में जो व्यक्ति प्रथम उत्पन्न होता है, वह नर ब्रह्मा कहा जाता है ।
निष्प्रभेऽस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृते ।
बृहदण्डमभूदेकं प्रज्ञानां बीजमव्ययम् ॥
(महाभारत आदिपर्व १।२९)
सृष्टि के प्रारम्भ में जब वस्तु विशेष वा नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ अर्थात् अण्ड के समान गोल आकृति वाली पृथ्वी उत्पन्न हुई, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था अर्थात् सब प्रकार की सृष्टि के उसमें बीज विद्यमान थे ।
युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षते ।
यस्मिन् संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्ब्रह्म सनातनम् ॥३०॥
इस सृष्टिकल्प के आदि में उसी महान् एवं दिव्य अण्डाकार पृथिवी को चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है । जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, अर्थात् वह सर्वव्यापक होने से उसमें भी विद्यमान रहता है ।
अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् ।
अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तत् सदसदात्मकम् ॥३१॥
वह ब्रह्म परमात्मा अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूप से व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय था । और जो कुछ सदसत् रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है, जो सब में व्यापक है ।
यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः ।
ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुः कः परमेष्ठ्यथ ॥३२॥
प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्त वै ।
ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः ॥३३॥
उस परमात्मा ने अण्डे के समान पृथिवी से ही प्रथम देहधारी प्रजापालक, स्वामी देवगुरु, पितामह ब्रह्मा को तथा इसी प्रकार रुद्र (महादेव), मनु, प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र उत्पन्न किये । तत्पश्चात् इक्कीस प्रजापति उत्पन्न किये । ये मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु आदि इक्कीस प्रजापति कहलाते हैं, कुछ विद्वानों का ऐसा मत है ।
इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों को उत्पन्न किया, इस प्रकार सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई ।
इससे यही सिद्ध हुआ कि आदि सृष्टि में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है ।
मनु महाराज भी इसी प्रकार मानते हैं । वे लिखते हैं -
सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रज्ञाः ।
अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥८॥
तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् ।
तस्मिन् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥९॥
उस परमात्मा ने अपने शरीर (प्रकृति) से नाना प्रकार की प्रजा (सृष्टि) रचने की कामना करते हुये आरम्भ में अप (कारण मूल जल) की उत्पत्ति की और उसमें बीज (शक्तिरूप) आरोपित किया । वह (बीज) सहस्रों आदित्यों की प्रभा वाला सुवर्ण के समान अण्डरूप हो गया । उसमें सब लोकों का पितामह (उत्पादक) ब्रह्मा (परमात्मा) उत्पन्न हुआ, अर्थात् परमात्मा ने उसमें अपनी शक्ति प्रकट की ।
महर्षि ब्रह्मा
अग्नि, वायु, सूर्य आदि महर्षियों से ब्रह्मा ने चारों वेदों का ज्ञान ग्रहण किया था । मूर्त्तियों में ब्रह्मा के चार मुखों की कल्पना कर डाली है ।
इस प्रकार सिद्ध है कि मनु महाराज अण्डाकृति वाली पृथ्वी से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं, उसी से ब्रह्मादि ऋषियों की उत्पत्ति हुई ।
वायु पुराण अ० १० में ब्रह्मा से आगे जो पुरुष हुये उनकी वंशावली निम्न प्रकार से दी है -
विराजमसृजद् ब्रह्मा सोऽभवत् पुरुषो विराट् ।
स सम्राट् सा सरूपात्तु वैराजस्तु मनुः स्मृतः ॥१४॥
स वैराजः प्रजासर्गः स सर्गे पुरुषो मनुः ।
वैराजात् पुरुषाद् वीराच्छतरूपा व्यजायत ॥१५॥
अर्थात् ब्रह्मा ने विराट् को उत्पन्न किया, उस विराट् से मनु की उत्पत्ति हुई और वही मनु प्रजाओं की सृष्टि करने वाला हुवा, उसी मनु से ही नानाविध प्रजायें उत्पन्न हुईं ।
अथर्ववेद में भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे (१८-२२-२) प्राणियों में ब्रह्मा सर्वप्रथम उत्पन्न होता है । अथवा जो मानव सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, वह ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध होता है । प्रथमोत्पन्न व्यक्ति जो चारों वेदों का विद्वान् हो उसे ब्रह्मा नाम से सम्बोधित किया जाता है । इस सृष्टि के वैवस्वत मन्वन्तर के ब्रह्मा की वंशावली निम्न प्रकार से है -
वाल्मीकीय रामायण में ब्रह्मा
बालकाण्ड में ब्रह्मा का वर्णन इस प्रकार है -
अव्यक्त परमात्मा तथा प्रकृति से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । वे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुये, इसी कारण उनका नाम स्वयंभू है, उनके सांसारिक माता-पिता नहीं थे । परमात्मा पिता और प्रकृति (स्थूल भूतरूप पृथिवी) माता थी । माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (अथर्ववेद) ।
ब्रह्मा की वंशावली
तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः ।
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्मृतः ॥७०-७१॥
ब्रह्मा से मरीचि की उत्पत्ति हुई, मरीचि के पुत्र कश्यप हुये, कश्यप से विवस्मान् का जन्म और विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ ।
मनुः प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुश्च मनोः सुतः ।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् ॥२२॥
मनु प्रथम प्रजापति थे, उन से इक्ष्वाकु नामक पुत्र हुआ । उस इक्ष्वाकु को ही अयोध्या का प्रथम राजा समझना । यही कुल इक्ष्वाकु कुल के नाम से प्रसिद्ध है । इस वंश में महाराजा रघु और दशरथ के पुत्र महाराजा राम हुये ।
महाभारत के आदिपर्व के ६५वें अध्याय में ब्रह्मा का वर्णन इस प्रकार है -
हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्य स्वयम्भुवे ।
सुरादीनामहं सम्यग् लोकानां प्रभवाप्ययम् ॥९॥
वैशम्पायन जी ने कहा, अच्छा मैं स्वयम्भू भगवान् (ब्रह्मा) को नमस्कार करके तुम्हें देवतादि सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति और नाश का यथावत् वर्णन करता हूँ ।
ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः ।
मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ॥१०॥
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र छः महर्षि विख्यात हैं । मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु । ॥१०॥
मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः ।
प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश ॥११॥
मरीचि के पुत्र कश्यप थे और कश्यप से ही ये समस्त प्रजायें उत्पन्न हुईं हैं । ब्रह्मा के एक पुत्र दक्ष भी थे । उस प्रजापति दक्ष के शौभाग्यशालिनी तेरह कन्यायें हुईं ।
अदितिर्दितिर्दनुः काला दनायुः सिंहिका तथा ।
क्रोधा प्राधा च विश्वा च विनता कपिला मुनिः ॥१२॥
कद्रूश्च मनुजव्याघ्र दक्षकन्यैव भारत ।
एतासां वीर्यसम्पन्नं पुत्रपौत्रमनन्तकम् ॥१३॥
उनके नाम इस प्रकार हैं - १. अदिति २. दिति ३. दनु
४. काला ५. दनायु ६. सिंहिका ७. क्रोधा (क्रूरा) ८. प्राधा ९. विश्वा १०. विनता ११. कपिला १२. मुनि १३. कद्रू - ये सब सभी दक्ष की कन्यायें हैं । इनके बलपराक्रमसम्पन्न पुत्र पौत्रों की संख्या बहुत है ।
अदित्यां द्वादशादित्याः सम्भूता भुवनेश्वराः ।
ये राजन् नामतस्तास्ते कीर्तयिष्यामि भारत ॥१४॥
अदिति के पुत्र बारह आदित्य हुये, जिन्हें लोकेश्वर के नाम से कहते हैं । भरतवंशी नरेश ! उन सबके नाम तुम्हें बता रहा हूँ ।
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च ।
भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा ॥१५॥
एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुच्यते ।
जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः ॥१६॥
धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, ग्यारहवें त्वष्टा और बारहवें विष्णु कहे जाते हैं । इन सब आदित्यों में विष्णु छोटे हैं, किन्तु गुणों में सबसे बढ़कर हैं ।
दैत्यों का वर्णन
एक एव दितेः पुत्रो हिरण्यकशिपुः स्मृतः ।
नाम्ना ख्यातास्तु तस्येमे पञ्च पुत्रा महात्मनः ॥१७॥
दिति का एक ही पुत्र हिरण्यकशिपुः अपने नाम से विख्यात हुआ, उस महामना दैत्य के पांच पुत्र थे ।
प्रह्लादः पूर्वजस्तेषां संह्लादस्तदनन्तरम् ।
अनुह्लादस्तृतीयोऽभूत तस्माच्च शिबिवाष्कलौ ॥१८॥
उन पांचों में प्रथम का नाम प्रह्लाद है । दैत्यों में भी यह एक देवता माना जाता है । उससे छोटे को संह्ललाद कहते हैं । तीसरे का नाम अनुह्लाद है । उसके बाद चौथे का नाम शिवि और पांचवां वाष्कल है ।
प्रह्लादस्य त्रयं पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत ।
विरोचनस्य कुम्भश्च निकुम्भश्चेति भारत ॥१९॥
भारत ! प्रह्लाद के तीन पुत्र हुये, जो सर्वत्र विख्यात हैं । उनके नाम ये हैं - विरोचन, कुम्भ और निकुम्भ ।
विरोचनस्य पुत्रोऽभवद् बलिरेकः प्रतापवान् ।
बलश्च प्रथितः पुत्रो बाणो नाम महासुरः ॥२०॥
विरोचन का एक ही पुत्र हुआ, जो महाप्रतापी बलि के नाम से प्रसिद्ध है । बलि का विश्वविख्यात पुत्र बाण नामक महान् असुर है ।
रुद्रास्यानुचरः श्रीमान् महाकालेति यं विदुः ।
चतुस्त्रिंशद दनोः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत ॥२१॥
जिसे सब लोग भगवान् शंकर के पार्षद श्रीमान् महाकाल के नाम से जानते हैं । भारत ! दनु के ३४ पुत्र हुये, जो सर्वत्र विख्यात हैं ।
तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिर्महायशाः ।
शम्बरो नमुचिश्चैव प्रलोमा चेति विश्रुतः ॥२२॥
असिलोमा च केशी च दुर्जयश्चैव दानवः ।
अयःशिरा अश्वशिरा अश्वशंकुश्च वीर्यवान् ॥२३॥
तथा गगनमूर्धा च वेगवान् केतुमांश्च सः ।
स्वर्भानुरश्वो अश्वपतिर्वृषपर्वाजकस्तथा ॥२४॥
अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः ।
इषुपादेकचक्रश्च विरूपाक्षो हराहरौ ॥२५॥
निचन्द्रश्च निकुम्भश्च, कुपटः कपटस्तथा ।
शरभः शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा ॥
ऐते ख्याता दनोर्वंशे दानवाः परिकीर्तिताः ।२६।
उनमें महायशस्वी राजा विप्रचित्ति सबसे बड़ा था । उसके बाद शम्बर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरा, अश्वशिरा, पराक्रमी, अश्वशंकु, नगनमूर्धा, वेगवान्, केतुमान्, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, वृषपर्वा, अजक, अश्वग्रीव, सूक्षम, महाबली, तुहुण्ड, इषुपाद, एकचक्र, विरूपाक्ष, हर, अहर, निचन्द्र, निकुम्भ, कुपट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य और चन्द्रमा हैं । ये दनु के वंश में विख्यात दानव बताये गए हैं ।
अन्य जो काला दनायु आदि ९ कन्यायें हैं उनकी वंशावली भी महाभारत में अत्यन्त विस्तार से वर्णित है । उनका विवरण विस्तारभय से देना उचित नहीं है ।
ब्रह्मा के छः मानस पुत्र, संभव है कि वे उनके विद्यापुत्र (शिष्य) हों ।
ब्रह्मा के एक पुत्र दक्ष प्रजापति थे, उनकी तेरह कन्यायें थीं, उन्हीं से देव, दैत्य और दानवादि की उत्पत्ति हुई, इसका ऊपर वर्णन हो चुका है ।
अदिति से १३ आदित्य (देव) उत्पन्न हुये ।
दिति का वंश दैत्य (असुर) नाम से प्रसिद्ध हुआ । इन दैत्यों में प्रह्लाद देव माना जाता है ।
हिरण्यकशिपु के पांच पुत्र हुये ।
दनु के चौंतीस पुत्र दानव कहलाये । उनमें दानवों का सुप्रसिद्ध और महायशस्वी प्रथम राजा विप्रचित्ति हुआ है ।
इस प्रकार देव और असुरवंश दोनों ही ब्रह्मा की सन्तान हैं । दोनों वंश महर्षि ब्रह्मा के ही वंश में हैं । आज भी जिस प्रकार देव विद्वान् श्रेष्ठ और असुर मूर्ख, दुष्ट प्रकृति की सन्तान एक ही पिता की देखने को मिलती है, इसी प्रकार देवयुग में और आदि सृष्टि से ही महर्षि ब्रह्मा के वंश में ही देवासुर उत्पन्न हुये । इतना ही नहीं, यक्ष और राक्षस भी इसी प्रकार ऋषिकुल में ही उत्पन्न हुये ।
यक्ष और राक्षसादि
देवर्षि ब्रह्मा का एक पुत्र पुलस्त्य मुनि था, वह बड़ा तेजस्वी था । वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड के द्वितीयसर्ग में उसके विषय में लिखा है -
प्रजापतिसुतत्वेन देवानां वल्लभो हि सः ।
इष्टः सर्वस्य लोकस्य गुणैः शुभ्रैर्महामतिः ॥६॥
प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र होने के कारण ही देवता लोग उनसे बहुत प्रेम करते थे, वे बड़े बुद्धिमान् थे और अपने उज्जवल गुणों के कारण ही सब लोगों के प्रिय थे ।
वे मेरु पर्वत के निकट राजर्षि तृणबिन्दु के आश्रम में गये और वहीं तपस्या करने लगे । उनका राजर्षि तृणबिन्दु की सुयोग्य कन्या से पाणिग्रहण हो गया । उनका एक विश्रवा नाम का पुत्र हुआ जो अपने पिता के ही समान था ।
श्रुतिमान् समदर्शी च व्रताचाररतस्तथा ।
पितेव तपसा युक्तो ह्यभवद् विश्रवा मुनिः ॥३४॥
विश्रवा मुनि वेद के विद्वान्, समदर्शी, व्रत और आचार का पालन करने वाले तथा अपने पिता पुलस्त्य मुनि के समान ही तपस्वी हुये ।
अथ पुत्रः पुलस्त्यस्य विश्रवा मुनिपुंगवः ।
अचिरेणैव कालेन पितेव तपसि स्थितः ॥३-१॥
पुलस्त्य के पुत्र मुनिवर विश्रवा थोड़े ही समय में पिता की भांति तप में संलग्न हो गये ।
सत्यवाञ्शीलवान् शान्तः स्वाध्यायनिरतः शुचिः ।
सर्वभोगेष्वसंसक्तो नित्यं धर्मपरायणः ॥२॥
वे सत्यवादी, शीलवान्, जितेन्द्रिय, स्वाध्याय परायण, बाहर भीतर से पवित्र, सम्पूर्ण भोगों में अनासक्त तथा सदा ही धर्म में तत्पर रहने वाले थे ।
ज्ञात्वा तस्य तु तद्वृत्तं भरद्वाजो महामुनिः ।
ददौ विश्रवसे भार्यां स्वसुतां देववर्णिनीम् ॥३॥
विश्रवा के इस उत्तम आचरण को जानकर महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का, जो देवांगना के समान सुन्दरी थी, उनके साथ विवाह कर दिया । विवाह करने के पश्चात् बहुत वर्षों तक घोर तप करते रहे ।
अथ प्रीतो महातेजाः सेन्द्रैः सुरगणैः सह ।
गत्वा तस्याश्रमपदं ब्रह्मेदं वाक्यमब्रवीत् ॥॥
तब उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महातेजस्वी ब्रह्मा जी इन्द्र आदि देवताओं के साथ उनके आश्रम पर पधारे और इस प्रकार बोले-
परितुष्टोऽस्मि ते वत्स कर्मणानेन सुव्रतः ।
वरं वृणीष्व भद्रं ते वरार्हस्त्वं महामते ॥१५॥
उत्तमव्रत का पालन करने वाले वत्स ! मैं तुम्हारे इस कर्म तपस्या से बहुत सन्तुष्ट हूँ । महामते ! तुम्हारा भला हो, तुम कोई वर मांगो, क्योंकि तुम वर पाने योग्य हो ।
अथाब्रवीद् वैश्रवणः पितामहमुपस्थितम् ।
भगवंल्लोकपालत्वमिच्छेयं लोकरक्षणम् ॥१६॥
यह सुनकर वैश्रवण ने अपने निकट खड़े हुये पितामह से कहा - भगवन् ! मेरा विचार लोक की रक्षा करने का है, अतः मैं लोकपाल होना चाहता हूँ ।
अथाब्रवीद् वैश्रवणं परितुष्टेन चेतसा ।
ब्रह्मा सुरगणैस्सार्धं बाढ़मित्येव हृष्टवत् ॥१७॥
वैश्रवण की इस बात से ब्रह्मा जी के चित्त को और भी सन्तोष हुआ । उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक कहा - “बहुत अच्छा” ।
ब्रह्मा ने इन्द्र, वरुण और यम, जो तीन लोकपाल थे, उनके साथ चौथा लोकपाल वैश्रवण को बना दिया ।
पुष्पक विमान की भेंट
लोकपाल की उपाधि देने के उपरान्त ब्रह्मा ने चौथे लोकपाल वैश्रवण को पुष्पक विमान अर्पित किया ।
एतञ्च पुष्पकं नाम विमानं सूर्यसन्निभम् ।
प्रतिगृह्णीष्व यानार्थं त्रिदशैः समतां व्रज ॥२०॥
यह सूर्यतुल्य तेजस्वी पुष्पक विमान है । इसे अपनी सवारी के लिए ग्रहण करो और देवताओं के समान हो जाओ ।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामः सर्व एव यथागतम् ।
कृतकृत्या वयं तात दत्त्वा तव वरद्वयम् ॥२१॥
तात ! तुम्हारा कल्याण हो, अब हम सब लोग, जैसे आये हैं वैसे लौट जायेंगे । तुम्हें ये दो वर देकर हम अपने को कृत्कृत्य समझते हैं ।
ब्रह्मा आदि देवताओं से आशीर्वाद पाकर ये देवर्षि वैश्रवण जो आगे चलकर धनेश और कुबेर नाम से विख्यात हुये, अपने पिता विश्रवा से पूछने लगे - पितामह, ब्रह्मा ने मुझे लोकपाल तो बना दिया किन्तु निवास के लिए कोई स्थान नहीं बताया, मैं ऐसा स्थान चाहता हूँ जहां रहने से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचे । उसके पिता ने लंकापुरी में निवास करने का आदेश दिया, जो दक्षिण समुद्र के तट पर त्रिकूट नामक पर्वत के शिखर पर बसी हुई है ।
लंकापुरी का वर्णन
तत्र त्वं वस भद्रं ते लंकायां नात्र संशयः ।
हेमप्राकारपरिखा यन्त्रशस्त्रसमावृता ॥२८॥
बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम निःसन्देह लंकापुरी में ही जाकर रहो । उसकी चारदीवारी सोने की बनी हुई है । उसके चारों ओर चौड़ी खाइयां खुदी हुई हैं और अनेकानेक यन्त्रों तथा शस्त्रों से सुरक्षित है ।
रमणीया पुरी सा हि रुक्मवैदूर्यतोरणा ।
राक्षसैः सा परित्यक्ता पुरा विष्णुभयार्दितैः ॥२९॥
वह पुरी बड़ी ही रमणीय है । उसके फाटक सोने और नीलम के बने हुये हैं । पूर्वकाल में भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित हुये राक्षसों ने उस पुरी को त्याग दिया था ।
शून्या रक्षोगणै सर्वै रसातलतलं गतैः ।
शून्या सम्प्रति लंका सा प्रभुस्तस्या न विद्यते ॥३०॥
वे समस्त राक्षस रसातल को चले गये थे । इसलिये लंकापुरी सूनी हो गई । इस समय लंकापुरी सूनी ही है । उसका कोई स्वामी नहीं है ।
अपने पिता की आज्ञानुसार वैश्रवण कुबेर लंकापुरी में निवास करने लगा । कुछ काल पश्चात् लंकापुरी सहस्रों राक्षसों से भर गई । धर्मात्मा वैश्रवण राक्षसों के राजा होकर उन पर राज्य करने लगे । राक्षस भी उनकी आज्ञा में आनन्दपूर्वक रहने लगे ।
काले काले तु धर्मात्मा पुष्पकेण धनेश्वरः ।
अभ्यागच्छद् विनीतात्मा पितरं मातरं च हि ॥३५॥
धर्मात्मा धनेश्वर कुबेर समय-समय पर पुष्पक विमान के
द्वारा अपने माता-पिता से मिल जाया करते थे । उनका हृदय बड़ा ही विनीत था ।
इसका विवाह सुमाली नामक राक्षस की पुत्री कैकसी से हुआ । कैकसी की माता का नाम “केतुमती” था । यह वंश राक्षसों का एक अन्य वंश था, जो महर्षि पुलस्त्य के सःन्तानों से चला था ।
राक्षसाश्च पुलस्त्यस्य वानराः किन्नरास्तथा ।
यक्षाश्च मनुजव्याघ्र पुत्रास्तस्य च धीमतः ॥
(महा० आदिपर्व ६६।७)
नरश्रेष्ठ ! बुद्धिमान् पुलस्त्य मुनि के पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर तथा यक्ष हैं । जिनकी वंशावली रामायण में विशद रूप से वर्णित है ।
अशक्नुवन्तस्ते विष्णुं प्रतियोद्धुं बलार्दिताः ।
त्यक्त्वा लंकां गता वस्तुं पातालं सहपत्नयः ॥२२॥
सुमालिनं समासाद्य राक्षसं रघुसत्तम ।
स्थिताः प्रख्यातवीर्यास्ते वंशे सालकटंकटे ॥२३॥
(रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८)
वे किसी प्रकर भगवान् विष्णु का सामना नहीं कर सके । सदा ही उनके बल से पीड़ित होते रहे । अतः निशाचर लंका को छोड़कर अपनी स्त्रियों के साथ पाताल (अमेरिका) में रहने के लिये चले गये ।
रघुश्रेष्ठ ! वे विख्यात पराक्रमी निशाचर सालकटंकट वंश में विद्यमान राक्षस सुमाली का आश्रय लेकर रहने लगे ।
“सालकटंकट” यह वंश सुमाली की पितामही (दादी) सालकटंकटा के नम से विख्यात हुआ । अमेरिका में सालकटंकट के विषय में जो जनश्रुति प्रचलित है उसकी चर्चा भारतवर्ष का इतिहास द्वितीय खंड के चतुर्थ भाग में ३३९ पृष्ठ पर आचार्य रामदेव जी ने इस प्रकार की है -
अमेरिका में परम्परागत जनश्रुति
प्राचीन मैक्सिकन या एजटेक लोगों में यह अनुश्रुति विद्यमान थी कि उनकी सभ्यता का मूल पश्चिम या उत्तर-पश्चिम में है । सम्पूर्ण अमेरिका महाद्वीप में निवास करने वाली जातियों में यह अनुश्रुति किसी न किसी रूप में विद्यमान थी । एजटेक लोगों में तो यह लिखित रूप में पाई जाती है । यहां ध्यान रखना चाहिये कि अमेरिकन लोगों के लिये पश्चिम या उत्तर-पश्चिम
एशियाटिक देश वा प्राच्य देश ही होंगे । अमेरिकन अनुश्रुति के अनुसार क्वेटसालकटल नाम का एक शुभ्र व्यक्ति प्राच्य देशों से उनके देश में आया था । इसकी दाढ़ी बहुत लम्बी थी, कद उंचा, बाल काले और रंग शुभ्र था । इसने अमेरिका निवासियों को कृषि की शिक्षा दी, धातुओं का प्रयोग सिखलाया और शासन व्यवस्था की कला में निपुणता प्राप्त कराई ।
क्वेटसालकटल अमेरिकन लोगों के लिये इतना अधिक लाभकारक और उपयोगी सिद्ध हुआ कि पीछे से उसकी देवता की तरह पूजा होने लगी । इस रहस्यमय व्यक्ति ने अमेरिका में सतयुग का प्रारम्भ किया । इसके प्रभाव से पृथ्वी पुष्पों और फलों से परिपूर्ण हो गई । इतना बड़ा अनाज होने लगा कि एक व्यक्ति एक सिट्टे से अधिक न उठा सकता था । नानाविध रंगों की कपास उगने लगी । अभिप्राय यह है कि उस दैवी पुरुष के प्रभाव से अमेरिका में नवीन युग प्रारम्भ हो गया ।
परन्तु यह क्वेटसालकटल बहुत समय तक अमेरिका में न रह सका । किसी देवता के प्रकोप से - क्या कारण था, इसका हमें पता नहीं है, इसे देश छोड़कर जाना पड़ा । जब वह मैक्सिकन खाड़ी के समीप पहुँच गया, तब उसने अपने अनुयायियों से विदा ली और समुद्र पार करके वापिस चला गया ।
यह क्वेटसालकटल कौन था ? इसमें सन्देह नहीं कि यह प्राच्य देश का रहने वाला था और इसका वर्णन सूचित करता है कि यह आर्य जाति का था । हम केवल अनुमान नहीं
कर रहे हैं । हमारे पास इसके लिये दृढ़प्रमाण विद्यमान हैं । यह क्वेटसालकटल कौन था, इसे स्पष्ट करने के लिए रामायण के उत्तरकाण्ड में एक बड़ी मनोरंजक और उपयोगी कथा मिलती है । उसमें राक्षसों की उत्पत्ति की कथा लिखते हुये सालकटंकट वंश के राक्षसों की उत्पत्ति का वर्णन किया है । इनका विनाश विष्णु ने किया और उससे पराजित होकर सालकटंकट वंश के राक्षस लोग, जिनका मूल निवास-स्थान लंकाद्वीप था, पाताल देश में चले गये । इनका नेता “सुमाली” था ।
इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि विष्णु द्वारा पराजित सालकटंकट राक्षस पाताल वा अमेरिका देश में जा बसे थे और उन्हीं में से सुमाली, जो उनका नेता था, उसकी कन्या कैकसी के साथ देवर्षि विश्रवा का विवाह हुआ । आदि सृष्टि से ही पातालादि देशों के साथ हमारे पूर्वजों का विवाहादि सम्बन्ध प्रचलित था क्योंकि हमारा महाभारत पर्यन्त सारे संसार में चक्रवर्ती राज्य रहा ।
अमेरिका के “मैक्सिकन” क्वेटसालकटल और भारतीय सालकटंकट ये दोनों ही एक शब्द के रूपान्तर हैं । इन दोनों शब्दों का जनश्रुति एवं रामायण के वर्णन की इतिहास में पूर्ण समानता है । मैक्सिकन इतिवृत्त के अनुसार जो क्वेटसालकटल प्राच्य देशों का देवता उस देश के निवासियों को कृषि, धातुविद्या तथा शासन व्यवस्था सिखाने में समर्थ हुआ था, वह सालकटंकट सुमाली के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था ।
राक्षस आदि कौन थे
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राक्षस लोग प्राचीन भारत की एक जाति विशेष ही थे, जो ब्रह्मादि ऋषियों की सन्तान ही थे । रावणादि राक्षसों का वेद, शास्त्रादि आर्य-साहित्य में कुशल होना, यज्ञ यागों का करना रामायण से स्पष्ट सिद्ध होता है । राक्षस लोग भारतीय थे, वे सभ्यता और भौतिक उन्नति में भारतीयों से न्यून न थे । वे अमेरिका आदि देशों में राजनैतिक कारणों से (विष्णु के सताये हुये) बाधित होकर गए थे । उनके द्वारा वैदिक सभ्यता का पाताल देश (अमेरिका) में अच्छा प्रचार हुआ । क्वेटसालकटल वा सालकटंकट के फिर पाताल देश से लौट आने की कथा भी रामायण के उत्तरकाण्ड के अष्टम सर्ग में अत्यन्त विस्तार से लिखी है ।
चिरात्सुमाली व्यचरद्रसातलं, स राक्षसो विष्णुभयार्दितस्तदा ।
पुत्रैश्च पौत्रैश्च समन्वितो बली, ततस्तु लंकामवसद्धनेश्वरः ॥२९॥
भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित होकर राक्षस सुमाली सुदीर्घकाल तक अपने पुत्र पौत्रों के साथ रसातल (अमेरिका) में विचरता रहा । इसी मध्य में धनाध्यक्ष कुबेर (वैश्रवण) ने लंका को अपना निवास स्थान बनाया ।
इस प्रकार राक्षस आदि आर्यों की ही सन्तान थे किन्तु ये इन्द्र आदि देवताओं को सताते थे ।
ततस्तु ते राक्षसपुंगवास्त्रयो, निशाचरै पुत्रशतैश्च संवृताः ।
सुरान्सहेन्द्रानृषिनागयक्षान्, बबाधिरे तान् बहुवीर्यदर्पिताः ॥४६॥
सुमाली, माल्यवान् और माली आदि तीनों श्रेष्ठ राक्षस अपने बहुत पुत्रों तथा अन्यान्य राक्षसों के साथ रहकर अपने बाहुबल के अभिमान से युक्त होकर इन्द्र और अन्य देवताओं को, ऋषियों, नागों तथा यक्षों को पीड़ा देने लगे । (उत्तरकाण्ड ५।४६)
तब भगवान् शंकर के परामर्श से भगवान् विष्णु ने इन सुमाली आदि राक्षसों का अनेक बार समूल विध्वंस किया तथा इन्हें बाधित कर पाताल देश (अमेरिका) में भगाया । पुनः लंका के वैश्रवण द्वारा बसाये जाने के पश्चात् ये राक्षस अमेरिका से लौटकर लंका में आकर बस गये ।
इस प्रकार संक्षेप से राक्षसों का वर्णन हमने किया, इनकी कथायें एवं वंशावली रामायण तथा महाभारत में विस्तार से वर्णित है । इनका राक्षस नाम जीवों की रक्षा करने के कारण पड़ा । जब प्रजापति ब्रह्मा ने पूछा कि इन जीव जन्तुओं की रक्षा कौन करेगा, तब जिन्होंने रक्षा का भार संभाला वे राक्षस कहलाये । यज्ञ करने वाले याज्ञिक लोग यक्ष कहलाये ।
‘रक्षाम’इति यैरुक्तं राक्षसास्ते भवन्तु वः ।
‘यक्षाम’इति यैरुक्तं यक्षा एव भवन्तु वः ॥१३॥
(उत्तर काण्ड सर्ग ४)
तुम में से जिन्होंने यह कहा है कि हम रक्षा करेंगे वे राक्षस नाम से प्रसिद्ध हों और जिन्होंने यज्ञ करना स्वीकार किया वे यक्ष नाम से विख्यात हों । इस प्रकार ये दोनों नाम ब्रह्मा प्रजापति के ही रखे हुये हैं ।
रक्षा करने वाले राक्षस और यज्ञ करने वाले यक्ष कहलाये । ये सब ब्रह्मा आदि के वंश में ही हुये ।
रावण आदि राक्षसों का वंश
राक्षसराज सुमाली की कन्या ने अपने पिता की आज्ञा से वैश्रवण (कुबेर) को वर लिया । उनकी सन्तान इस प्रकार हुई ।
यह सब जानते हैं कि रावण और कुम्भकर्ण दोनों महाबली राक्षस लोक में उद्वेग (हलचल) उत्पन्न करने वाले थे । विभीषण बाल्यकाल से ही धर्मात्मा थे । वे सदा धर्म में स्थिर रहते थे । स्वाध्याय और नियमित आहार करते हुये इन्द्रियों को अपने वश में रखते थे ।
विभीषणस्तु धर्मात्मा नित्यं धर्मे व्यवस्थितः ।
स्वाध्यायनियताहार उवास विजितेन्द्रियः ॥३९॥
(उत्तर काण्ड ९ सर्ग)
ऐसा प्रतीत होता है कि विश्रवा और वैश्रवण नाम के अनेक ऋषि इस वंश में हुये हैं । उनमें से ही एक विश्रवा की सन्तान रावण आदि राक्षस थे । प्राचीन साहित्य में यह रीति प्रचलित थी कि प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम देकर साधारण व्यक्तियों के नाम छोड़ देते थे । ऐसा ही यहां किया गया है ।
इससे यही सिद्ध होता है कि देव, असुर, किन्नर, राक्षस, वानर आदि सब ऋषियों की सन्तान हैं । जो महर्षि ब्रह्मा के शिष्यों (मानसपुत्रों) की ही सन्तान हैं, उनके बहुत शिष्य थे, उनकी सन्तानों से सभी देवासुरादि की सृष्टि वा परम्परा चालू हुई । यह प्राचीन साहित्य से प्रमाणित होता है । इन्हीं की सन्तान ने अमेरिका आदि देशों को बसाया तथा वहां पर आर्य सभ्यता का प्रचार वा प्रसार किया ।
कृषि की शिक्षा देकर भौतिक उन्नति के साधनों को जुटाया । खाना, पीना, ओढ़ना, पहनना, भवन निर्माण, पशु-पालन और अनेक प्रकार के कलाकौशल भी सिखलाये ।
जिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि ऋषियों तथा उनके शिष्यों और पुत्र पौत्रों ने इस पवित्र वैदिक संस्कृति का सारे विश्व में सन्देश फैलाया, वे जिन विशेष गुण, कर्म और स्वभाव के कारण सब देवों में शिरोमणि माने जाते हैं उन वैदिक काल वा देवयुग के त्रिदेव का इतिहास आप अग्रिम अध्याय में अवलोकन करें ।
Text of original book conmverted into Unicode by Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
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