Haryana Ke Vir Youdheya/प्रथम अध्याय
प्रथम अध्याय - हरयाणे के वीर यौधेय
हरयाणा प्रदेश आर्यावर्त वा भारतवर्ष का एक भाग है इसलिए आर्यावर्त के इतिहास में हरयाणा के इतिहास का समावेश है । हरयाणे का इतिहास भारत के इतिहास से पृथक् हो ही नहीं सकता अतः हरयाणे का इतिहास भारत का इतिहास है । इसकी कड़ियां भारत के इतिहास से जुड़ी हुई हैं और भारत का इतिहास आदि सृष्टि से प्रारम्भ होता है । अतः सर्वप्रथम सृष्टि के इतिहास पर प्रकाश डालना ही हरयाणे का इतिहास प्रकाशित करना है । इसी तथ्य को मानकर सर्वप्रथम सृष्टि का ही इतिहास लिखता हूँ ।
प्रत्येक विचारशील मनुष्य जो वर्तमान सृष्टि में विचरता है उसके मन में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठते हैं कि यह सृष्टि कब बनी ? कितने वर्ष हुए ? इसका लेखा-जोखा किस प्रकार है ? इसकी आयु कितनी है अर्थात् यह कब तक स्थिर रहेगी ? इसका कर्त्ता, धर्त्ता और हर्त्ता कौन है ? इत्यादि ।
उपरिलिखित प्रश्नों का यथार्थ उत्तर ही सृष्टि का प्रामाणिक इतिहास है । हमारे पूर्वज विद्वान् जो सभी विद्याओं में पूर्ण दक्ष थे, इस प्रकार के सृष्टि-विज्ञान अर्थात् कालगणना वा संवत् निश्चित करने तथा ऐतिहासिक घटनाओं का शोध एवं जांच पड़ताल करने में भी सिद्धहस्त थे । अतः वे सृष्टि-विज्ञान के सत्य सिद्धान्तों को समुचित रूप में स्थिर रखने में भी सर्वोपरि योग्य और प्रशंसा के पात्र हैं । उनके सभी नियम, विधान और अनुसंधान श्रेष्ठ विद्याओं से पूर्ण ज्ञान के आधार पर प्रतिष्ठित होने के कारण
पत्थर की लकीर के समान अमिट होते थे । उनके सिद्धान्तों की सत्यता में मतभेद प्रकट करने का प्रसंग कभी नहीं आता था । उनकी इस महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा का एक आधार था जिसके कारण उनके मन की बगिया सदा ही हरी-भरी और प्रफुल्लित रहती थी । उनके उस प्रतिष्ठित और महत्त्वपूर्ण आधार का नाम वेद है ।
इस तथ्य को पूज्य पं० लेखराम जी आर्य-पथिक ने "सृष्टि का इतिहास" नामक अपनी पुस्तक में उपरिलिखित शब्दों में प्रकट किया है । जिस महापुरुष की दया से पं० लेखराम जी को इस तथ्य का ज्ञान हुआ, उसके लिए वे अपनी इसी पुस्तक में लिखते हैं -
- ऐसा ही सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, परम सुधारक स्वामी दयानन्द जी महाराज ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक "ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका" में लिखा है, जो कि अवश्य ही पढ़ने के योग्य और बहुत उत्तम पुस्तक है । उस महात्मा ने अपने इस वैदिक भाष्य में अपने ईश्वर प्रदत्त विद्याबल के द्वारा बहुत बड़ा चमत्कार कर दिया है । सच पूछो तो उसने सत्यान्वेषी जनों की झोलियों को सत्य ज्ञान की मणियों और मोतियों से भर दिया है ।
महर्षि दयानन्द के विषय में पं० लेखराम जी का उपरिलिखित वाक्य सोलह आने सत्य है । क्योंकि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है । वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है । यह आर्य समाज का तीसरा नियम बनाकर महर्षि दयानन्द जी महाराज ने सारे संसार की आँखें खोल दीं ।
जब सभी सत्य विद्याओं का भण्डार वेद है तो सृष्टि सम्बन्धी सभी रहस्यों का भेद इसी से खुलेगा तथा इससे सम्बन्धित शंकाओं का समाधान वेद को छोड़कर कहीं अन्यत्र ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं । पवित्र वेद में जगद्विधाता ने इस तथ्य को बहुत उत्तम और युक्तिपूर्वक दर्शाया है कि वह प्रभु सनातन न्याय के नियमों के आधार पर इस सृष्टि की रचना और संहार बारम्बार किया करता है और उसकी रचना वा संहार करने की शक्ति कभी भी विकार तथा ह्रास को प्राप्त नहीं होती । वह सदैव एकरस बनी रहती है । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, मेघ आदि सभी पदार्थ उसने प्रकृति से बनाये हैं और ईश्वर ने अपने सर्वोपरि ज्ञान एवं बल के आधार पर परस्पर आकर्षण की शक्ति से संयुक्त करके उन को सुस्थिर किया है ।
सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर
सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का करना ईश्वर का ही सामर्थ्य है । सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही इस महान् कार्य को कर सकता है । अल्प सामर्थ्य, अल्पज्ञ और एकदेशी जीव के बलबूते यह कार्य कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्रलय के समय सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति के परमाणु पृथक् पृथक् होते हैं जो किसी मनुष्य आदि प्राणी को बड़े से बड़े सूक्ष्मवीक्षणयन्त्र (दूरबीन) से भी दिखाई नहीं देते, फिर उन को पकड़कर यथायोग्य मिलाकर किसी पदार्थ की रचना करना यह अल्प बुद्धि मानव किस प्रकार कर सकता है । इसलिये इस सृष्टि का निमित्त कारण अथवा कर्त्ता एकमात्र सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही है । अतः सब सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति
से बनाने, धारण और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण परमात्मा है किन्तु प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण है क्योंकि इस के बिना कुछ नहीं बन सकता । वही अवस्थान्तर रूप हो के सृष्टि और प्रलयावस्था को प्राप्त होती है, किन्तु उपादान कारण प्रकृति (परमाणु) जड़ है । वह अपने आप न बन सकती है, न बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है । वेदादि शास्त्रों में इस सत्य सिद्धान्त का वर्णन इस प्रकार किया है ।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः ज्ञातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय् हविषा विधेम ॥ (यजुः १३-४)
अर्थ - वह परमात्मा सृष्टि से पूर्व भी विद्यमान था । वह सूर्यादि तेज और प्रकाश वाले सब लोकों को उत्पन्न करने वाला तथा उनका आधार है । जो कुछ पहले उत्पन्न हुवा था, अब वर्तमान में विद्यमान है तथा भविष्यत् में होगा । उस सब का वह ईश्वर स्वामी था, है और रहेगा । वह पृथिवी से लेकर सूर्य लोक पर्यन्त सृष्टि को बना के धारण कर रहा है । उस सुखस्वरूप परमात्मा की भक्ति सब लोगों को करनी चाहिये ।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमान्त्स वेद यदि वा न वेद ॥ ऋक् १०-१२९-३।
इस विविध सृष्टि का प्रकाशक वा कर्त्ता ईश्वर है । वही इस का धारण और प्रलय करता है । वही इस जगत् का स्वामी है । उसी सर्वव्यापक प्रभु में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति
और प्रलय को प्राप्त होता है । उसी सृष्टिकर्त्ता परमात्मा को जानना चाहिए ।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति ।
यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति तद् विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म ॥
(तैत्तिरीयोपनिषद् भृगु अनु. १ ।)
जिस परमात्मा की रचना से सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं । जिससे उत्पन्न हुए जीवन को धारण करते हैं और जिस में प्रलय को प्राप्त होते हैं । उसके जानने की इच्छा करो । निष्कर्ष यह निकला कि ईश्वर ही इस जगत् का कर्त्ता-धर्त्ता और हर्त्ता है । हां ! जीव इतना अवश्य कर डालता है कि वह परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अपनी अनेकविध रचनायें करता रहता है । स्वयं मूलतः किसी वस्तु को बनाने का उसमें कोई सामर्थ्य नहीं है अतः उस जीव को साधारण निमित्त कारण कह सकते हैं ।
ईश्वर-जीव में भेद
ईश्वर, जीव और प्रकृति - ये तीनों पदार्थ अनादि और अनन्त हैं किन्तु इनमें समता और भिन्नता दोनों ही विद्यमान हैं । तीनों सदा से हैं और सदा रहेंगे । यह सत्ता का गुण वा धर्म इन तीनों में सदा समान रूप से रहता है । ईश्वर जीव की प्रकृति के साथ सत्ता में समानता होते हुए भी भिन्नता यह है कि ये दोनों चेतन हैं तथा प्रकृति जड़ है । जीव-ईश्वर में भी यह भिन्नता है - जीव अल्प, अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है तथा जन्म-मरण के प्रवाह में पड़ने वाला
है । परन्तु ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सृष्टि का रचयिता, धर्ता और संहर्ता, जीवों को कर्मानुसार फल प्रदान करने वाला है । यह भेद ईश्वर और जीव दोनों में सदा रहता है । यह भिन्नता दोनों के गुण, कर्म तथा स्वभाव की पृथकता की कारण हुवा करती है । इसलिए ये दोनों न कभी एक थे, न एक हैं और न ही एक होंगे । अर्थात् तीनों कालों में ईश्वर और जीव पृथक्-पृथक् रहते हैं, न कभी जीव ईश्वर बनता है और न ईश्वर ही जीव बनता है । उन की यह भिन्नता नित्य ही है । इस में सन्देह करने की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है । यह सार्वकालिक और सार्वभौम सिद्धान्त है । इस भेद को वेद भगवान् ने इस प्रकार स्पष्ट किया है –
न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उवथशासश्चरन्ति ॥ यजुः १७।३१॥
व्याख्यान - हे जीवो ! जो परमात्मा इन भुवनों का बनाने वाला है उस को तुम लोग नहीं जानते हो । इसी हेतु से तुम अत्यन्त अविद्या से आवृत मिथ्यावाद, नास्तिकत्व बकवाद करते हो, इस से दुःख ही तुमको मिलेगा, सुख नहीं । तुम लोग केवल स्वार्थ साधक प्राण-पोषण मात्र में ही प्रवृत्त हो रहे हो । केवल विषय-भोगों के लिए ही अवैदिक कर्म करने में प्रवृत्त हो रहे हो और जिसने ये सब भुवन रचे हैं, उस सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, परब्रह्म से उलटे चलते हो अतःएव उसको तुम नहीं जानते ।
प्रश्न - वह ब्रह्म और हम जीव आत्मा लोग - ये दोनों एक हैं वा नहीं ?
उत्तर - अन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ब्रह्म
और तुम जीवों में अन्तर स्पष्ट विद्यमान है । अतः इन दोनों की एकता युक्ति और वेद से कभी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि जीव-ब्रह्म का पूर्व से ही भेद है । जीव अविद्यादि दोषयुक्त है, ब्रह्म अविद्यादि दोषयुक्त कदापि नहीं होता ।इस से यह निश्चित है कि जीव और ब्रह्म एक न थे न होंगे और न ही हैं । किं च व्याप्यव्यापक, आधाराधेय, सेव्य-सेवक और जन्यजनक अथवा पिता पुत्रादि सम्बन्ध तो जीवादि के साथ ब्रह्म का है । इस से जीव ब्रह्म की एकता मानना किसी मनुष्य को योग्य नहीं । उपरिलिखित वेदमन्त्र के भाष्य में महर्षि दयानन्द ने जीव और ब्रह्म का भेद स्पष्ट कर दिया है ।
ऋग्वेद (१.१६४.२०) में इस भेद को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥
"जो ब्रह्म और जीव दोनों चेतनता और पालनादि गुणों में सदृश, व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त, परस्पर मित्रतायुक्त, सनातन अनादि हैं और वैसा ही अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ प्रकृति है । इन तीनों के गुण, कर्म, स्वभाव भी अनादि हैं । इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पाप पुण्य रूप फलों को अच्छे प्रकार भोगता है । दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोगता हुवा चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है । जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्नस्वरूप तीनों अनादि हैं ।"
प्रकृति, परमाणु तथा त्रसरेणु का लक्षण
अर्थात् (सत्त्व) शुद्ध (रजः) मध्य, (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता इन तीन गुणों वाले परमाणुओं को मिलाकर जो एक संघात होता है उसका नाम प्रकृति है । परमाणु भी इसका नाम है ।
जालान्तरगते रश्मौ यत्सूक्षमं दृश्यते रजः ।
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुः प्रचक्षते॥ मनु० ८.१३२॥
मकान के रोशनदान में से प्रविष्ट होती हुई सूर्य की धूप में जो सूक्ष्म-सूक्ष्म रज (जर्रे) दीखते हैं, वह मापने के प्रमाणों में प्रथम (परिणाम) त्रसरेणु कहलाता है । ऊपर जो लक्षण किए हैं, उनकी व्यवस्था इस प्रकार ठीक बैठती है - साठ परमाणुओं के मिलते से एक अणु बनता है । दो अणु का एक द्वयणुक होता है । द्वयणुक का स्थूल वायु होता है । तीन
द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अथवा तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथिव्यादि दृश्य पदार्थ होते हैं ।
सृष्टि प्रवाह से अनादि
सृष्टि का प्रारम्भ कभी नहीं होता, क्योंकि इसका रचना-क्रम प्रवाह से चला आ रहा है । जैसे दिन से पूर्व रात और रात से पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है । इसी प्रकार सृष्टि से पूर्व प्रलय और प्रलय से पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के पीछे सृष्टि का चक्र अनादि काल से चला आता है । इसका आदि और अन्त नहीं । किन्तु जैसे दिन और रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है उसी प्रकार सृष्टि और प्रलय का आदि अन्त होता रहता है । क्योंकि जैसे परमात्मा, जीव तथा जगत् का कारण (प्रकृति) तीन स्वरूप से अनादि है वैसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय प्रवाह से अनादि है । जैसे नदी का प्रवाह वैसा ही दीखता है, ऐसे व्यवहारों को प्रवाह रूप जानना चाहिए । जैसे ईश्वर के गुण वा स्वभाव का आरम्भ और अन्त नहीं, उसी प्रकार उसके कर्त्तव्य कर्म सृष्टि आदि का आरम्भ तथा अन्त नहीं है । वह प्रवाह से अनादि है ।
सृष्टि की रचना
सृष्टि की रचना तीन अनादि तत्त्वों वा पदार्थों से होती है । इनकी चर्चा श्वेताश्वतर उपनिषद् (४।५) में इस प्रकार की है -
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुष्माणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥
प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज हैं अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं । इनका कारण कोई नहीं है । इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फंसता है और उसमें परमात्मा न फंसता और न उसका भोग करता है । ईश्वर विषय भोगों की कामनाओं से सर्वथा ऊपर है, अतः इनमें उसकी आसक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । वेद भगवान् "शुद्धमपापविद्धम्" का उपदेश करता है । वह परमात्मा अविद्या अज्ञानादि क्लेश और सब दोषों से पृथक् है अतः वह पापयुक्त वा पाप करने वाला कभी नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वभाव से ही धर्मात्मा है । अतः वह विषय भोगों में कैसे फंस सकता है । सदैव शुद्ध पवित्र और पाप से दूर रहने वाला धर्मात्मा विषय भोगों में आसक्त नहीं हो सकता ।
उपर्युक्त प्रकृति ही सब संसार के बनाने की सामग्री है, यही सृष्टि का उपादान कारण है । इसके जड़ होने से इसमें स्वयं सृष्टि को बनाने और बिगाड़ने का सामर्थ्य नहीं है । प्रकृति के द्वारा सृष्टि का बनाना तथा उस बनी हुई विकृति (सृष्टि) को पुनः प्रकृति रूप करना सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ही कार्य है । क्योंकि जब कोई वस्तु बनाई जाती है तो उसमें विभिन्न साधनों की आवश्यकता पड़ती है जैसे ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ तथा दिशा काल और आकाश ये साधारण कारण हैं जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार निमित्त, मिट्टी उपादान कारन और दण्ड चक्रादि
सामान्य निमित्त कारण, दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि निमित्त साधारण कारण और निमित्त कारण भी होते हैं । इन तीनों कारणों के बिना कोई वस्तु न बन सकती है, न बिगड़ सकती है ।
सर्वव्यापक परमात्मा जिस प्रकृति के भीतर भी वह व्यापक है, उस व्यापक प्रकृति वा परमाणु (कारण) से स्थूल जगत् को बनाकर आप उसी में व्यापक होके साक्षीभूत आनन्दमय हो रहा है । सृष्टिकाल में अनेक प्रसिद्ध चिह्नों वा लक्षणों से युक्त होने से वह जानने के योग्य होता है । इसी अवस्था में वह उपलब्ध हो सकता है । प्रलयावस्था में उसे प्राप्त नहीं कर सकते । क्यों कि -
तम आसीत्तमसा गूढमग्रे (ऋग्वेद १०.१२९.३)
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतकर्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ (मनु० १।५॥)
यह जगत् सृष्टि से पूर्व प्रलय में अन्धकार से आवृत = आच्छादित (ढ़का हुवा) था और प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है । उस समय न किसी को जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था । प्रलयावस्था में सब जीव प्रसुप्त दशा में ही होते हैं । गाढनिद्रा में जीवात्मा सर्वथा बाह्यज्ञान रहित होता है अतः विवशता के कारण वह जान नहीं सकता तथा सृष्टि के अभाव में परमात्मा के जानने के लिए प्रसिद्ध चिन्हों वा साधनों का भी अभाव होता है । किन्तु जब सृष्टि हो जाती है (जैसे वर्तमान में) तब प्रसिद्ध
लक्षणों से युक्त होने से यह जगत् जानने वा उपलब्ध होने के योग्य होता है । जीवात्मा इस सृष्टि का प्रत्यक्ष कर्त्ता है और उपभोग करता है ।
सृष्टि रचना का क्रम
प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारो अहंकारात्पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं ।
पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥
सांख्यदर्शन १।६१॥
प्रकृति का लक्षण कह चुके हैं । वह परमसूक्षमरूप प्रकृति परमाणुओं के संयोग से जब कुछ स्थूल आकार वाली हो जाती है तब उसको महत्तत्त्व कहते हैं । उससे जब कुछ और स्थूल रूप होता है वह अहंकार कहलाता है । अहंकार से भिन्न भिन्न पांच सूक्षमभूत जिन्हें पञ्चतन्मात्रायें कहते हैं, उत्पन्न होते हैं । इनसे दोनों प्रकार की इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राण ये पांच ज्ञानेन्द्रियां और वाक् हस्त, पाद, गुदा और उपस्थ ये पांच कर्मेन्दियां उत्पन्न होती हैं । और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है । इस प्रकार पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलभूत जिनको हम लोग देखते तथा प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, पैदा हुये । इस सृष्टि की रचना में सूक्षम से स्थूल रूप किस प्रकार आया करता है इसका वर्णन महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास में इस प्रकार किया है –
- नित्यायाः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थायाः प्रकृतेरुत्पन्नानां परमसूक्ष्माणां पृथक्पृथग्वर्तमानानां तत्त्वपरमाणूनां प्रथमः संयोगारम्भः संयोगविशेषादवस्थान्तरस्य स्थूलाकारप्राप्ति सृष्टिरुच्यते ।
अनादि नित्यस्वरूप सत्त्व, रजस् और तमोगुणों की एकावस्था रूप प्रकृति से उत्पन्न जो परमसूक्ष्म पृथक्-पृथक् तत्त्वावयव विद्यमान हैं उन्हीं का प्रथम ही जो संयोग का आरम्भ है, संयोग विशेषों से अवस्थान्तर (दूसरी अवस्था) को सूक्षम से स्थूल-स्थूल बनते-बनते विचित्र रूप बनी है । इसी से यह संसर्ग होने से सृष्टि कहाती है । प्रकृति से प्रारम्भ कर पंच स्थूलभूतों तक की उत्पत्ति का वर्णन ऊपर कर चुका हूँ । इसका वर्णन उपनिषद में इस प्रकार किया है -
- तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या औषधयः औषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः, रेतसः पुरुषः, स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । (तै० उ० ब्र० अनु० १)
आकाश विभु (सर्वव्यापक) होने से सब पदार्थों का अधिकरण (आधार) है और उससे भी विभु तथा अतिसूक्ष्म परमात्मा है । आकाश को परमात्मा ने उत्पन्न किया है । आकाश में जो परमाणु थे उनको समेटकर संयोग करने से जो अवकाश उत्पन्न सा होता है, उसे ही आकाश की उत्पत्ति कहते हैं । यथार्थ में आकाश तो नित्य है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती । इस आकाश अर्थात् अव्यक्त प्रकृति (शून्य) से वायु उत्पन्न हुवा, वायु से अग्नि प्रादुर्भूत हुवा, अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई और जल से पृथिवी उत्पन्न हुई । यह व्यवस्था परमाणुओं में हुई । यह उत्पत्ति काल की व्यवस्था है । आगे प्रलयकाल में इससे विपरीत होता है क्योंकि सृष्टिरचना के समय परमाणुओं के संयोग से रचना आरम्भ होती है किन्तु परमाणुओं के संयोग के स्थान पर वियोग चलता है । त्रसरेणु द्वयणुक में विभाजित हो जाता है और द्वयणुक
विभाजित होकर अणु के रूप को धारण करता है और अणु से परमाणुओं को प्राप्त हो मूल प्रकृति का रूप धारण कर लेता है । सृष्टि बनते समय सूक्ष्म परमाणुओं के मिलने से स्थूल रूप धारण करती है ।
जैसे पृथिवी से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है । यह महाप्रलय के बाद का सृष्टि क्रम है । क्योंकि परमेश्वर सृष्टि का निमित्त कारण और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है, जब महाप्रलय होता है तब आकाशादि क्रम अर्थात् आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता और अग्नि आदि का होता है तब अग्न्यादि क्रम से और जब अग्नि का प्रलय नहीं होता तो जल क्रम से सृष्टि का प्रारम्भ होता है । अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहां जहां तक प्रलय होता है, वहां वहां से सृष्टि की उत्पत्ति होती है ।
सृष्टि का प्रयोजन
परमात्मा में जगत् की रचना करने का विज्ञान बल और क्रिया है । यदि वह सृष्टि की रचना न करे तो उपरिलिखित शक्ति परमात्मा की सार्थक नहीं हो सकती और परमात्मा के न्याय, दया, रचना, धारणादि गुण जगत् के बनाने से ही सार्थक होते हैं । जब वह जगत् को बनावे तब ही उसका अनन्त सामर्थ्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने से ही सफल होता है । जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है । यदि ईश्वर
सृष्टि न रचता तो सब जीवात्मा प्रलय में निकम्मे पड़े रहते जैसे सुषुप्ति में पड़े रहते हैं और प्रलय से पूर्व सृष्टि में जीवों को पाप-पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव कैसे भोग सकते ? बिना जगत् की उत्पत्ति के इस का कोई दूसरा उपाय नहीं है और बहुत से पवित्रात्मा मुक्ति के साधन करके मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं । कुछ आलसी लोग इस प्रकार की शंका करते हैं कि यदि ईश्वर इस सृष्टि की रचना न करता तो वह स्वयं भी आनन्द में रहता और जीवों को भी सुख दुःख प्राप्त न होता । यथार्थ बात यह है कि यदि सृष्टि के सुख दुःख की तुलना की जाये तो दुःख की अपेक्षा सुख कई गुणा अधिक होता है और मोक्ष प्राप्ति तो जगत् में ही होती है । अतः पुरुषार्थी सृष्टि रचना से पूर्ण लाभ उठाकर पूर्ण आनन्द की प्राप्ति करते हैं ।
सृष्टि की आयु
सृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात् जब तक स्थिर रहती है, उस समय को शास्त्रीय परिभाषा में एक कल्प कहते हैं । इसी की दूसरी संज्ञा सहस्रमहायुग भी है । यह कल्प चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों का होता है । इसमें वेद का प्रमाण है –
शतं तेऽयुतं हायनान् द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः ।
विश्वेदेवास्तेऽनुमन्यन्तामहृणीयमानाः ॥
(अथर्ववेद काण्ड ८, अनु० १, मं० २१॥
इसका अर्थ यह है कि दस हजार सैंकड़ा अर्थात् दस लाख तक शून्य देने पर अनुक्रम पूर्वक दो, तीन और चार ये अंक
रखने से सृष्टि की आयु का ब्यौरा वा हिसाब प्राप्त होता है ।
वेदों के साक्षात् कृतवर्मा ऋषियों ने सृष्टि विज्ञान को भली भांति समझा और लोक कल्याणार्थ इसका प्रचलन किया । सूर्य सिद्धान्त (जो गणित ज्योतिष का सच्चा और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसके रचयिता मय नामक महाविद्वान् थे ) में लिखा है -
अर्थात् कृतयुग (सतयुग) जब कुछ बचा हुआ था, तब मय नामक विद्वान् ने यह ग्रन्थ बनाया । आज से इक्कीस लाख, पैंसठ सहस्र अड़सठ (२१, ६५,०६८) वर्ष पुराना यह ग्रन्थ है । क्योंकि वर्तमान कलियुग के पांच सहस्र अड़सठ (५०६८) वर्ष बीत चुके । इस से पूर्व आठ लाख चौंसठ सहस्र (८,६४,०००) वर्ष द्वापर के, बारह लाख छियानवें सहस्र (१२,९६,०००) वर्ष त्रेता युग के बीत चुके हैं । इन सबको मिलाकर २१६५०६८ वर्ष पुराना तो कम से कम यह सूर्य सिद्धान्त नामक ग्रन्थ है । कुछ समय इस में सतयुग के अन्त का भी मिलाया जा सकता है । लाखों वर्ष पुराने इस ज्योतिष के ग्रन्थ में भी सृष्टि की आयु वेद के अनुसार ही लिखी है –
युगानां सप्ततिः सैका मन्वन्तरमिहोच्यते ।
कृताब्दसंख्यस्तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः ॥
ससन्धयस्ते मनवः कल्पे ज्ञेयाश्चतुर्दश ।
कृतप्रमाणः कल्पादौ सन्धिः पञ्चदशः स्मृतः ॥
अर्थात् इकहत्तर (७१) चतुर्युगियों को एक मन्वन्तर कहते हैं । एक कल्प में सन्धिसहित ऐसे-ऐसे चौदह मन्वन्तर होते हैं । कल्प के प्रारम्भ में तथा प्रत्येक मन्वन्तर के अन्त में
जो सन्धि हुवा करती है वह भी एक सतयुग के वर्षों के समान अर्थात् सत्रह लाख अठाईस सहस्र (१७,२८,०००) वर्षों की होती है । इस प्रकार एक कल्प में पन्द्रह सन्धियां होती हैं । इसकी गणना निम्न प्रकार से हुई -
चतुर्युगी अथवा महायुग | ||||||||||||
नामयुग | युग के वर्षों की निश्चित संख्या' | |||||||||||
१ सतयुग (कृतयुग) | १७,२८००० वर्ष | |||||||||||
२ त्रेतायुग | १२,९६,००० वर्ष | |||||||||||
३ द्वापर युग | ८,६४००० वर्ष | |||||||||||
४ कलियुग | ४,३२००० वर्ष | |||||||||||
कुल योग | ४३,२०,००० वर्ष |
तेतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक चतुर्युगी होती है जिसका नाम महायुग भी है । यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि कलियुग से दुगुना द्वापर, तीन गुणा त्रेता और चार गुणा सतयुग (कृतयुग) होता है । उपर्युक्त एक सहस्र महायुग का एक कल्प होता है जो कि सृष्टि की आयु है । इस का वर्णन सूर्य सिद्धान्त में निम्न प्रकार से है -
इत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः ।
कल्पं ब्राह्ममहः प्रोक्तं शर्वरी तस्य तावती ॥
वह जगद्विधाता परमेश्वर एक सहस्र महायुग तक इस सृष्टि को स्थित रखता है । इसी काल को एक ब्राह्म दिन कहते हैं । इसी का नाम एक कल्प है । जितना काल एक ब्राह्म दिन का होता है उतना ही ब्राह्मरात्रि अर्थात् प्रलयकाल होता है ।
इस गणना को मन्वन्तरों के अनुसार इस प्रकार गिनते हैं । तेतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों का एक महायुग अथवा एक चतुर्युगी । इन इकहत्तर चतुर्युगियों का नाम एक मन्वन्तर । इसका काल तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस सहस्र (३०,६७, २०,०००) वर्ष हुवा । यह काल सन्धि रहित मन्वन्तरों का हुवा । चौदह मन्वन्तरों के अन्त की चौदह सन्धियां तथा सर्गादि की एक सन्धि ये कुल मिलाकर पन्द्रह सन्धियां हुईं । एक सन्धि का काल एक कृतयुग जितना अर्थात् सतरह लाख, अठाईस हजार वर्ष (१७, २८,०००) होता है। इस प्रकार पन्द्रह सन्धियों का काल दो करोड़, उनसठ लाख और बीस सहस्र वर्ष हुवा । इस को चौदह मन्वन्तरों के पूर्वोक्त ४२९४०८०००० काल में जोड़ने से सृष्टि की आयु ४,३२,००००००० वर्ष ठीक हो जाती है ।
महर्षि व्यास जी ने महाभारत में इस विषय में उल्लेख किया है -
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥
(गीता अ० ८, श्लोक १७)
एक हजार चतुर्युगियों तक एक ब्राह्म दिवस होता है तथा उतनी ही बड़ी उसकी ब्राह्मरात्रि भी होती है । यहां सृष्टि और प्रलय की आयु का वर्णन दूसरे प्रकार से कर दिया है ।
सृष्टि संवत्
सृष्टि को उत्पन्न हुए कितना समय व्यतीत हो चुका है? इसकी गणना निम्न प्रकार से है –
एक सर्ग में चौदह मन्वन्तर होते हैं । अब तक छः मन्वन्तर बीत चुके हैं और सातवां मन्वन्तर बीत रहा है, जिस की अठाईसवीं चतुर्युगी का भोग हो रहा है ।
छः मन्वन्तरों का बीता हुवा समय | १८४०३२०००० वर्ष | |||||||||||
सातवें मन्वन्तर की २७ चतुर्युगियों का काल | ११६६४०००० वर्ष | |||||||||||
अठाईसवीं चतुर्युगी के तीन युगों का व्यतीत समय | ३८८८००० वर्ष | |||||||||||
वर्तमान कलियुग का अतीत समय | ५०६७ वर्ष | |||||||||||
कुल योग | १,९६,०८,५३,०६७ वर्ष |
वर्तमान में कलियुग का ५०६८ वां वर्ष बीत रहा है । इस अड़सठवें वर्ष के आज श्रावणी दिन तक १३३ दिन बीत चुके हैं । तदनुसार एक अरब, छियानवें करोड़, आठ लाख, तरेपन हजार सड़सठ वर्ष सृष्टि तथा वेदों की उत्पत्ति को हो गये हैं । यह अड़सठवां वर्ष भोगा जा रहा है और अभी दो अरब, पैंतीस करोड़, इक्यानवें लाख, छियालीस सहस्र नौ सौ बत्तीस वर्षों का भोग होना शेष है ।
सम्पूर्ण आर्यावर्त देश में जो संकल्प धार्मिक कृत्य संस्कारादि शुभ कर्मों के अवसर पर द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के यहां पढ़ा जाता है उस से भी सृष्टि का सत्यज्ञान होता है, जैसे विक्रमादित्य के सं० २०२५ के श्रावणी उपाकर्म पर हम "हरयाणे के वीर यौधेय" नामक इतिहास छापना प्रारम्भ कर रहे हैं । इस के लिए निम्नरीति से संकल्प पढ़ा जाता है -
- ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरार्द्धे वैवस्ते मन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे पञ्चविंशत्युत्तरद्विसहस्रतमे वैक्रमाब्दे दक्षिणायने वर्षर्तौ श्रावणमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमायां गुरुवासरे सिंहराशौ भारतवर्षस्य हरयाणाप्रान्ते वर्तमानस्य रोहितकमण्डलस्य झज्जरगुरुकुले भगवानदेव आचार्योऽहं "वीर यौधेय" नाम हरयाणाप्रान्तीयेतिहासं प्रकाशयितुं प्रवृत्तोऽस्मि * ।
(* सौर वर्ष के अनुसार १७ श्रावण १८९० शकाब्द और ईस्वी सन् १९६८ है)
इस प्रकार सभी आर्य लोग आबालवृद्धवनिता इस संकल्प को जानते तथा प्रयोग करते चले आये हैं । इस संकल्प के विषय में कोई विरोध वा मतभेद नहीं । आज तक यह सारे आर्यावर्त में एक समान चल रहा है और सब ग्रन्थों में भी एक ही प्रकार का लेख पाया जाता है, अतः इस को अन्यथा करने वा मिथ्या कहने का सामर्थ्य किसी में नहीं हो सकता । इसीलिये सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक सृष्टि संवत् की गणना ठीक होती चली आई है । जिस से यह सिद्ध होता है कि आर्य लोग बड़े चतुर, सभ्य और विद्वान् होते चले आये हैं । उपर्युक्त संकल्प के आधार पर भी सृष्टि संवत् वहीं ठहरता है जो पहले लिख आये हैं । इस विषय में अधिक जानना चाहें तो धर्मवीर अमर शहीद पं० लेखराम जी आर्य पथिक द्वारा लिखित "सृष्टि का इतिहास" नामक पुस्तक में देख लेवें ।
पाश्चात्य विद्वानों में सृष्टि की आयु के विषय में बहुत मतभेद हैं जिनमें से कुछ के मत इस प्रकार हैं -
सृष्टि की आयु और पाश्चात्य विद्वान्
पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि भूमि सूर्य का एक भाग है और इसको ठण्डा होने में बहुत दीर्घकाल लगता है, तब कहीं यह वनस्पतियों को उत्पन्न करने तथा पशु, पक्षी और मानव के रहने के योग्य बनती है ।
१ प्रो० एस. न्यूकोम्ब की मान्यता है कि भूमि को ठण्डा होने में एक करोड़ वर्ष लगे हैं ।
२ प्रो० काल साहिब भूमि को ठण्डा होने का काल सात करोड़ वर्ष मानते हैं ।
३ सर विलियम टामस महोदय के मत में भूमि के ठण्डा होने में दस करोड़ वर्ष लग गये ।
४ प्रो० लचाफ का कथन है कि भूमि के ठण्डा होने में पैंतीस करोड़ वर्ष लग गये ।
५ प्रो० रैड के कथनानुसार योरुप में जब से वनस्पतियां उगनी प्रारम्भ हुई हैं, तब से पचास करोड़ वर्ष बीत चुके हैं ।
६ प्रो० हक्सल (जो भूगर्भविद्या के विशेषज्ञ माने जाते हैं) ने अपने अनुसन्धान के आधार पर लिखा है कि जब वनस्पतियां पृथ्वी पर उगने लगीं उस समय एक अरब वर्ष बीत चुके थे ।
सृष्टि से पूर्व की अवस्था का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध होता है जिसे आज का विज्ञान-जगत् भी स्वीकार करता है । मन्त्र इस प्रकार है -
गीर्णं भुवनं तमसापगूढमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ ।
तस्य देवाः पृथिवी द्यौरुतापोऽरणयन्नोषधीः सख्ये अस्य ॥
(ऋ० १०।८८।२॥)
इस मन्त्र की व्याख्या स्वामी वेदामन्द जी (दयानन्द तीर्थ) महाराज ने स्वाध्याय सन्दोह में निम्न प्रकार से की है -
- सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व क्या था, कैसा था ? ये प्रश्न प्रायः सभी विवेकशील महानुभावों के हृदय में उठते हैं किन्तु जैसा इन का समाधान वेद में है, और किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं है । उत्पत्ति से पूर्व यह गीर्णं भुवनं तमसापगूढम् संसार निगला हुआ सा और अन्धकार से अत्यन्त आच्छादित था... सृष्टि में सब से पूर्व एक आग्नेय पिण्ड पैदा हुआ और आविः स्वरभवज्जाते अग्नौ अग्नि के उत्पन्न होने पर प्रकाश हो गया । इस आग्नेय पिण्ड की उत्पत्ति के पीछे सारी सृष्टि क्रमशः उत्पन्न हुई - तस्य देवाः पृथिवी द्यौरुतापोऽरणयन्नोषधीः सख्ये अस्य इस महान् आग्नेय पिण्ड के सहयोग में पृथिवी, द्यौ, जल और औषधियां रमण करने लगीं ।
- सूर्य से पृथिवीपिण्ड पृथक् हुआ, सहस्रों वर्ष उस पर मूसलाधार वर्षा होती रही । तब कहीं पृथिवी ठंडी हुई और उसके पश्चात् औषधि वनस्पति आदि की उत्पत्ति हुई ।
- सृष्टि उत्पत्ति का यह क्रम आजकल के वैज्ञानिक बतलाते हैं, वेद विज्ञान का सिद्धान्त ग्रन्थ है । इसमें ऐसे गम्भीर वैज्ञानिक तत्त्वों को देखकर पश्चिमी विद्वान् चकित रह जाते हैं ।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार इनफनिस्टन {Elphinstone} महोदय का (जो बम्बई के राज्यपाल भी रहे थे) कथन है कि ब्राह्मदिवस का जो समय आर्य लोग मानते हैं वह ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार होने से सत्य है । हिन्दुओं की गणनानुसार ब्राह्मदिवस चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष का होता है ।
पाश्चात्य विद्वान् सृष्टि का काल प्रारम्भ में तो बहुत ही थोड़ा मानते थे । उल्लिखित उद्धरणों में आप देख रहे हैं कि
सृष्टि का काल एक करोड़ वर्ष से लेकर हमारे द्वारा पूर्व प्रतिपादित सृष्टिकाल तक पाश्चात्य विद्वान् स्वीकार करते हैं ।
ये प्रमाण पं० लेखराम जी ने अपनी "सृष्टि का इतिहास" नामक पुस्तक में दिये हैं, मैंने उनमें से कुछ उद्धृत कर दिये हैं ।
आदि सृष्टि मैथुन अर्थात् माता-पिता के संयोग से नहीं होती, क्योंकि जब स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर परमात्मा उनमें जीवों का संयोग कर देता है, तदनन्तर उन से मैथुनी सृष्टि चलती है ।
आदि सृष्टि में सभी युवक तथा युवतियां ही उत्पन्न होते हैं । क्योंकि जो बालक उत्पन्न होते तो उनके पालने के लिये दूसरे मनुष्य आवश्यक होते । जो वृद्धावस्था में पैदा करता तो वृद्धों से मैथुनी सृष्टि कैसे चलती । इसलिये युवावस्था में ही सृष्टि की रचना हुई ।
भगवान् की विचित्र सृष्टि
भगवान् ने मानवादि के शरीर में इस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिस को विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं । भीतर हाड़ों का जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढ़क्कन, प्लीहा, यकृत्, फुफ्फुस (फेफड़ा), पंखा, कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत् का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूल रचन, लोम नख आदि का स्थापन, आंख की अति सूक्ष्म शिरा का तारवत्
ग्रन्थन, इन्द्रियों के भागों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिए स्थानविशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला-कौशल-स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है । इसके बिना नाना प्रकार के रत्न धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार वटवृक्षादि के बीजों में अति सूक्षम रचना, असंख्य रक्त, हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र, मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूलनिर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कषाय, तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगन्धादि युक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द, मूलादि रचना, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि परमेश्वर के विना कोई भी नहीं कर सकता ।" (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास)
भगवान् की विचित्र सृष्टि का वर्णन ऋग्वेद (१।११५।१) में भी इस प्रकार किया गया है –
चित्रं देवानामुद्गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
वह देव चराचर का जीवनाधार जड़ और चेतन सब में व्यापक है । द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष इत्यादि सब जगत् को रचकर सब ओर से धारण करता हुवा रक्षा करता है । सबका प्रकाशक अर्थात् बाहर सूर्य के प्रकाश और भीतर वेद के प्रकाश से अन्धकार को दूर भगाता है । मित्र स्वभाव वाले मानव तथा श्रेष्ठ व्यक्तियों का और अग्नि आदि पदार्थों का प्रकाशक है । और चक्षु के समान मार्गदर्शक, सब सत्यों का उपदेष्टा और प्रकाशक है । वह दिव्यगुण वाले विद्वानों के हृदय में उत्कृष्टता का प्रकाशक है । अतः वह ब्रह्म अद्भुत स्वरूप वाला है ।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्योऽस्य ज्ञाता कुशलानुशिष्ठः । (कण्ठोपनिषद्)
ब्रह्म के आश्चर्य स्वरूप होने के कारण इसका वक्ता आश्चर्य है, इसका प्राप्त करने वाला कुशल है, कुशल पुरुष से शिक्षित होकर इसका ज्ञाता आश्चर्य है अर्थात् इसका वक्ता, ज्ञाता सभी आश्चर्य की अनुभूति करते हैं । वह परमात्मा हमारे सब दुःखों के नाश के लिये, काम, क्रोध आदि शत्रुओं के विनाश के लिए बल है । उसको छोड़कर मनुष्यों का सर्वसुखकारी शरण अन्य नहीं है, यह जानना चाहिए । हमें यह सच्चे हृदय से कहना और अनुभव करना चाहिये । इस प्रकार वह प्रभु हमारे लिये सर्व प्रकार से आश्चर्यप्रद है । इस मन्त्र का उच्चारण करते समय भक्त स्वयं इसे अनुभव करता है ।
भगवान् की इस विचित्र सृष्टि का बखान हरयाणे के आर्य कवि दादा बस्तीराम जी ने अपनी पुस्तक "पाखंड खंडिनी" में बड़े अच्छे प्रकार से किया है । यह भजन भारत के प्रायः सभी भागों में आज भी गाया जाता है । वह इस प्रकार है -
टेक - धन्य तेरी कारीगरी हो कर्त्तार ॥
अन्तरा -
जब निराकार और निर्विकार साकार बना दिया जग कैसे ।
जागृत स्वप्न सुषुप्त तू था, फिर रचा मुक्ति का मार्ग कैसे ॥
क्या वस्तु लई जिससे देह भई, फिर बना दई रग-रग कैसे ।
सबको धार रहा, रम सबमें रहा, फिर सबसे रहा अलग कैसे ॥
जब सबमें है तू सब गुलों में बू, सब रूहों की रूह फिर सुगम कैसे ।
जब "अपाणिपादो जवनो गृहीता" फिर कोई पकड़े पग कैसे ॥
जब सृष्टि कर्त्ता भर्त्ता धर्त्ता, हर्त्ता रहता अनहग कैसे ।
जब काशी काबे में ना पता, फिर जावे पता यहां लग कैसे ॥
वन पर्वत पृथ्वी नभ तारे, सबको रहा तू कैसे धार ॥१॥
किए रंग बिरंगे फूल और बादल, रंग की रैणी कहीं नहीं ।
किए सूरज से चमकते पदार्थ, चमक निराली कहीं नहीं ॥
नर तन-सा चोला सीम दिया, सूई धागा हाथ में कहीं नहीं ।
पत्ते-पत्ते की कतरन न्यारी, हाथ कतरनी कहीं नहीं ॥
बरसे जब जल, जंगल भर दे, आकाश में सागर कहीं नहीं ।
दे भोजन कीड़े कुंजर को, चढ़े दीखैं भण्डारे कहीं नहीं ॥
दिन रात न्याय में फर्क पड़े ना, लगी कचहरी कहीं नहीं ।
कर्मों का फल दे यथायोग्य, मिले रूह और रियायत कहीं नहीं ॥
अखण्ड ज्योति, अपार लीला, किन्हों न पाया तेरा पार ॥२॥
जाने कौन विध गर्भ में रहकर, दे क्रीडा बालकपन की ।
फिर जीवन जवानी आई कहां से, कमी रही न यौवन की ॥
फिर वृद्धपन देकर दिखा दे सबको, बनी सो एक दिन बिगड़न की ।
कोई पैसे-पैसे को मोहताज है, कोई खोल रहे कोठी धन की ॥
कोई पिया संग कामिन खेल करे, कोई रो-रो राख करे तन की ।
कोई भटकते-भटकते उमर गंवावे, कोई तृप्ति कर रहा मन की ॥
पर्वत भूमि टीब्बे पर टीब्बे, कहीं कहीं लहर हरे वन की ।
कहीं ताल सुरगे जल से भरे, कहीं चोटी चमक रही पर्वतन की ॥
कहीं सर्द समय के झोले बगैं, कहीं धूप गरद गर्मी घन की ।
कहीं चतुर्मास घटा चढ़ आवे, वर्षा की बहा दे जलधार ॥३॥
चाहे कितना ही बरते ना निबड़े, जब देन लगे तू इतना माल ।
नहीं दे जब चाहे दिन-रात कमाओ, फिर भी वह नर रहे कंगाल ॥
अदना से आला कर पलक में, जब नर पर तू हो कृपाल ।
राजा का राज ताजों का ताज, तू ही महाराज काल का काल ॥
तू ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुरेश, नरेश हमेश निराली चाल ।
तू इतना जबर, नहीं तेरी खबर, मेरी सुन दिलबर, मुझे कर दे निहाल ॥
रहूं तेरी शरण, गहूं तेरे चरण, मत दे तू मरण हम तेरे लाल ।
ऐ सुखनिधान रख मेरा मान, दे भक्ति दान होकर दयाल ॥
दीनबन्धु सुन हम दीनों की, प्रभु पतित उद्धार ॥४॥
तू अनन्त तेरी गति अनन्त, तुझे देखें सन्त कर योग ध्यान ।
हैं साधन तेरे अमित बड़ेरे, प्रेरें रवि शशि से महान् ॥
जाने कहां सीखे न देखे कीड़ी के बना दिए नाक-कान ।
नहीं छाया धरे रंग इतने भरे, किसी तरह न गिन सकता जहान ॥
सब जगह जोर, नहीं तुझ-सा और, सिर सबके मोड़, सबका प्रधान ।
मायानुगामी जीव का स्वामी, अन्तर्यामी बल निधान ॥
सच्चिदानन्द तू करुणाकन्द, मैं महामन्द मुझे अपना जान ।
अति दुखी भया, तुझे कूक रहा, कर मुझ पे दया दे अपना ज्ञान ॥
तू ही सखा स्नेही तू ही है हमारा परिवार ॥५॥
चार वेद छः शास्त्र पुकारें, सार गुण की संभार नहीं ।
फिर ऋषि मुनि और सन्त महन्त, थके गा-गा पर पार नहीं ॥
जो कर दे सो नहीं बदल सके, किसी और को अख्त्यार नहीं ।
जो करै सो ईश्वर आप करै, किसी और का चहत सहार नहीं ॥
जो करनी चाहे सो कर गुजरे, किसी काम में तू लाचार नहीं ।
कर भक्ति रंक गले लिपटे, बिन भक्ति भूप से प्यार नहीं ॥
जो प्रेमी करै जिससे परिचय, तेरे ऊंच-नीच की ठार नहीं ।
यह 'बस्तीराम' दरवाजे खड़ा, क्यों इसकी सुनते पुकार नहीं ॥
शुभ स्वरूप दर्शा दे अपना खोल के अखण्ड द्वार ॥६॥
धन्य तेरी कारीगरी हो कर्तार ॥
सृष्टि उत्पत्ति का स्थान
मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप् अर्थात् जिसको तिब्बत कहते हैं, में हुई । यह भारत देश का ही एक भाग था । अंग्रेजों ने अपनी धूर्तता से इसे भारत से पृथक् कर दिया और हमारे राजनैतिक नेताओं की भयंकर भूल से यह अब चीनियों के अधिकार में चला गया । यही नहीं, इसके साथ सहस्रों मील लम्बा चौड़ा भारत का प्रदेश चीनियों ने छीन लिया । जो तिब्बत इन्द्रपुरी और स्वर्ग के नाम से प्रसिद्ध था, जहां का राजा देवराज इन्द्र कहलाता था, जिसका चयन (चुनाव) आदि सृष्टि से महाभारत पर्यन्त होता रहा, जिस तिब्बत की रक्षार्थ भारत के राजे-महाराजे अवसर आने पर देवासुरसंग्राम करते रहे, मानव का आदि उत्पत्ति स्थान वही इन्द्रपुरी तिब्बत आज हमारा नहीं रहा । यही नहीं, इसके साथ हम अपनी शंकर पुरी कैलाश पर्वत को भी चीन के हाथों सौंपकर नपुंसकों की भांति चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं । हमारे नेताओं ने अपनी उदारता का परिचय यह कहकर दिया कि तिब्बत तो सदा से ही चीन का भाग रहा है । उसका फल यह भी हुआ है कि चीनियों ने लद्दाख, सिक्किम, भूटान, नेपाल को भी अपना बतलाना प्रारम्भ कर दिया । इस पर भी उन्होंने सन्तोष नहीं किया । उनकी सेना ने भारत के इन भागों के सहस्रों मील भूभाग पर अधिकार कर लिया और हमें वहां से मार भगाया । हमारे नेता तो उदारता की खान हैं, उन्होंने यह कहकर टाल दिया - "क्या हो गया कुछ ऊंची नीची पर्वत की चोटियों पर चीनियों ने अधिकार कर लिया है, जो बर्फ से ढ़की रहती हैं, जहां मानव रहता ही नहीं, यदि रहता भी है तो बड़ी कठिनाई से ।
उसके चले जाने से भारत की क्या हानि है ? चीन वाले और आगे बढ़े तथा अब सारे भारत पर ही अपना अधिकार करना चाहते हैं । उसके लिए अनेक प्रकार की सहायता करके पाकिस्तान को उभारते रहते हैं । हमारे लिए यह ऐसी समस्या खड़ी हो गई है जिसे सुलझाया नहीं जा सकता ।
मानव के आदि उत्पत्ति स्थान, भारत के पवित्र भाग स्वर्गपुरी, देवराज इन्द्र के तिब्बत को खोने का यह फल हमें मिला है । जिसकी सुरक्षार्थ हमारे पूर्वजों ने अनेक युद्ध किए, जो देवासुरसंग्राम के नाम से प्रसिद्ध हुए । ये संग्राम आदि सृष्टि से ही प्रारम्भ हो गये थे, जिनकी थोड़ी-सी चर्चा महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार की है । किसी ने शंका कि कि लोग तो पहले तिब्बत में उत्पन्न हुए थे फिर वे सारे भारतवर्ष और संसार में कैसे फैले ? इसका समाधान करते हुए वे लिखते हैं –
- आदि सृष्टि में केवल एक मनुष्य जाति थी । पश्चात् श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान्, देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो भेद हुए । फिर आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए । शूद्रों में जो मूर्ख और अनाड़ी थे उनसे ही दस्युओं की वृद्धि होने लगी । फिर विद्वानों (देवों) और अविद्वानों (शूद्रों) असुरों में सदा लड़ाई बखेड़ा हुवा करता, जब बहुत उपद्रव होने लगे तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकर यहां आकर बसे । इसी से देश का नाम आर्यावर्त हुवा । तिब्बत प्रदेश इसी का भाग है ।
आर्यावर्त्त की सीमा
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्तं विदुर्बुधाः ॥
(मनु० २।२२॥)
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते ॥२॥
(मनु० २०१॥)
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र ॥१॥ तथा देव नदी सरस्वती, पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल व आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम की ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्रा कहते हैं, जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है । हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर तथा रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने प्रदेश हैं, उन सबको आर्यावर्त इसलिए कहते हैं कि आर्य अर्थात् देव विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहलाता है । आर्यावर्त - भारत के असली निवासी आर्य लोग ही हैं । जो विदेशी इतिहासकार लिखते हैं कि मध्य एशिया वा ईरान से आकर आर्य भारतवर्ष में बसे हैं, यह सर्वथा मिथ्या है, इसका कोई प्रमाण नहीं । यदि आर्य लोग बाहर से आकर भारत में बसे हैं तो उन के आने से पूर्व इसका कोई और नाम होना चाहिए । आर्यों के यहां आने से पूर्व का इस देश का नाम बताने का कोई साहस तो करे । तीन काल में भी कोई नहीं बता सकता । यथार्थ बात
यह है कि भारत भूमि के एक प्रदेश तिब्बत में ही मनुष्यों की उत्पत्ति हुई और वहां से चलकर शेष सारे आर्यावर्त को बसाने वाले आर्य लोग ही हैं । इसीलिए इसका नाम आर्यावर्त है ।
कौल, भील, द्रविड़ आदि जातियों को जो लोग भारत के आदिवासी बताते हैं और आर्यों को बाहर से आया हुवा लिखते हैं, यह सब विदेशियों की धूर्तता है क्योंकि वे स्वयं विदेशी थे और आर्यों को विदेशी बताकर यह सिद्ध करना चाहते थे कि तुम भी विदेशी, हम भी विदेशी, फिर तुम आर्य लोग इसे अपना देश बताकर स्वराज्य क्यों मांगते हो । हम अंग्रेजों की अपेक्षा भारत पर तुम्हारा कोई अधिक अधिकार नहीं । यह हीन भावना उत्पन्न करके भारतीयों को सदा के लिए अपना दास रखना चाहते थे । यह उनका बहुत बड़ा षड्यन्त्र था और इसमें भारत के सभी पढ़े लिखे लोग फंस गये और अपने ही घर में अपने को विदेशी मान बैठे और सभी इतिहास भूगोल की पुस्तकों में यह पढ़ाने लगे कि आर्य लोग बाहर से आये हुए विदेशी हैं । और दुःख तो यह है कि स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् आज २१ वर्ष हो गये फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है ।
इस युग के महापुरुष जगद्गुरु महर्षि दयानन्द जी महाराज क्रान्तिकारी थे जिन्होंने डंके की चोट में यह लिखा तथा अपने उपदेशों में भी बार-बार यह कहा - आर्यावर्त देश आर्यों का बसाया हुवा है । ये ही इसके आदिवासी हैं और सृष्टि के आदि से ये ही आज तक यहां बसते आये हैं । कुछ इतिहासकार स्वामी दयानन्द के नाम से उपर्युक्त सत्य को अपने ग्रन्थों में लिखने का साहस करने लगे हैं । जो विदेशी इतिहासकार तथा उनके भारतीय शिष्य द्रविड़, भील आदि जंगली जातियों
को भारत के आदिवासी बताते हैं तथा आर्यों को विदेशी कहते हैं वे यह नहीं जानते कि द्रविड़ादि जातियां भी आर्यों की ही सन्तान हैं । उनके पतित होने का कारण मनु जी महाराज ने इस प्रकार लिखा है -
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ (मनु० १०।४३)
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।
पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः ॥ (मनु० १०।४४)
किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों से लड़कर उन्हें जीत तथा निकालकर इस देश के राजा हुए । पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है ? ये निम्नलिखित क्षत्रिय जातियां यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन आदि धार्मिक क्रियाओं के लोप होने से धीरे-धीरे शूद्रता को प्राप्त हो गईं । इसका मुख्य कारण ब्राह्मणों (गुरुओं) के न मिलने से धार्मिक शिक्षा से वञ्चित होना था । जैसे - द्रविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दरद और खश आदि ।
इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि इन जातियों के पूर्वज सब आर्यक्षत्रिय थे । केवल सच्चे गुरुओं के न मिलने से ये शूद्र बन गये । जो अनाड़ी मूर्ख हो उसे ही शूद्र कहते हैं । विदेशी धूर्तों ने आर्यों को विदेशी तथा इन द्रविड़ादि को यहां के आदिवासी बताकर सदा के लिए इनके मध्य एक भित्ति खड़ी कर डाली जिससे भारत के लोग परस्पर झगड़ते रहें और अंग्रेजों का राज्य
भारत पर सदा बना रहे । फूट डालो और राज्य करो इस नीति को अपनाकर भारत को वे अपना दास रखना चाहते थे । किन्तु पांच सहस्र वर्ष पश्चात् एक महान् क्रान्तिकारी महर्षि दयानन्द आये, जिस निर्भीक सन्यासी ने निर्भय हो इनकी पोल खोल डाली और अंग्रेजी राज्य की जड़ को बारूद का पलीता लगा दिया जिससे विदेशी राज्य का गलासड़ा वृक्ष भस्मसात् हो धड़ाम से गिर पड़ा और इन विदेशी लुटेरों को यहां से भागना पड़ा । इसलिये महर्षि दयानन्द को अंग्रेजों ने अपने गुप्त पत्रों में बागी फकीर लिखा और उनको विष देकर मरवाने का षड्यन्त्र स्वयं अंग्रेजों ने किया । ऐसा अब इतिहास लेखक मानने लगे हैं ।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि आर्य ही इस आर्यावर्त देश के निवासी हैं और द्रविड़, भील, किरात आदि इन्हीं की सन्तान हैं । इनमें कोई विदेशी नहीं है । इन सब के पूर्वज आर्य ही हैं । यह ठीक है कि आर्यों की सन्तान विदेशों में भी गई और वहां पर ही जाकर बस गई । जैसे ईरान के लोग आर्यों की सन्तान हैं, उनकी स्त्रियां घाघरा पहनती हैं जो भारतीय स्त्रियों का पहनावा है । स्त्रियां अपनी वेश-भूषा को बड़ी देर से छोड़ती हैं । इसी कारण अब तक ईरान में देवियों की वेश-भूषा भारतीय ढंग की है ।
खलीफा हारूरशीद पर किसी शत्रु ने चढ़ाई कर दी थी । उस समय भारत के सिन्ध राजाओं से उन्होंने शत्रु से रक्षार्थ सहायता मांगी । उसकी सहायतार्थ यहां से बड़ी भारी सेना गई थी । उसकी सहायता से खलीफा को विजय प्राप्त हुवा । उससे
प्रसन्न होकर खलीफा ने ईरान का राज्य भारतीय सेना के सेनापति को सौंप दिया । वे सेना सहित वहीं बस गये और आज तक अपने गुण, कर्म, स्वभाव भारतीय ढंग के उनमें सुरक्षित हैं । वे गौवों का दूध-घी खाते तथा मल्ल्युद्ध (कुश्ती) में बड़ी रुचि रखते हैं और आज भी वे सारे संसार में मल्लविद्या में एक अच्छा स्थान रखते हैं ।
सारे अरब देश में क्योंकि मुसलमान हैं और ईरान के लोग भी मुसलमान हैं । मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव उनके खान-पान पर पड़े बिना कैसे रह सकता था । उन पर आर्यधर्म वा परम्पराओं का पूर्ण प्रभाव नहीं रहा । मैं स्वयं श्री रूपचन्द जी आर्य पहलवान बामला (हिसार) निवासी के साथ ईरान के प्रसिद्ध पहलवान जो भारत में आधुनिक कुश्ती की शिक्षा देने के लिए आये हुए थे और कई वर्ष तक भारतीय पहलवानों को मल्ल विद्या का प्रशिक्षण देते रहे, उनसे मिला तथा बातें कीं । उनके प्रशिक्षण का प्रकार देखा । वे हमारे पहलवानों को प्राचीन व्यायाम पद्धति आसनों के व्यायाम के ढंग से ही व्यायाम सिखाते थे जिस से शरीर में लचकीलापन और स्फूर्ति अधिक आये । ईरान के पहलवानों में इसी व्यायाम पद्धति के कारण तथा गोदुग्ध और गोघृत का ही सेवन करने के कारण हमारे भारतीय पहलवानों की अपेक्षा स्फूर्ति बहुत अधिक है । वे प्रथम पांच या दस मिनट में जय-पराजय का निर्णय कर डालते हैं तथा अपनी स्फूर्ति के कारण दूसरे पहलवानों को चक्कर में डाल देते हैं । दौर्भाग्य से भारत के पहलवान भैंस के घी दूध का अधिक सेवन करते हैं तथा आसनों के व्यायाम प्रायः नहीं करते, अतः ये कुश्ती में ईरान के पहलवानों के समान चुस्ती नहीं रखते ।
रोहतक के कुश्ती दंगल में हमारे तथा ईरानी के पहलवानों में एक और अन्तर मैंने अपनी आंखों से देखा । ईरान के पहलवानों में दम नहीं । वे दस मिनट के पीछे हांफने लगते हैं और थक जाते हैं । फिर वे कुश्ती करने में असमर्थ हो जाते हैं । उस समय उनको पराजित करना बड़ा ही सरल हो जाता है । उन को गिराना उस समय वामहस्त का कार्य है । इसका मुख्य कारण उनका मांसाहार है और भारतीय पहलवान विशेषकर हरयाणे के पहलवान प्रायः सभी निरामिष भोजी हैं, गोश्त नहीं खाते । यह सर्वमान्य सत्य है कि गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शीघ्र थक जाता है । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी था । जब उसका मल्लयुद्ध भारत केसरी विजेता हरयाणे के प्रसिद्ध आर्य पहलवान मास्टर चन्दगीराम से हुवा तो मेहरदीन हार गया और ३५ मिनट के संघर्ष में वह इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका । कुछ मिनट के पश्चात् अन्य पहलवानों ने उसको सहारा दिया । यदि मांस खाने का दोष मेहरदीन पहलवान में न होता तो चन्दगीराम उसको कभी नहीं जीत सकता था, क्योंकि मेहरदीन में तो चन्दगीराम की अपेक्षा एक सौ साठ पौंड भार अधिक है । चन्दगीराम उसके सामने बालक सा लगता था । किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वह जीत जायेगा । किन्तु परम्परा से जो आदि सृष्टि से लेकर आज तक पवित्र आहार-विहार और ब्रह्मचर्य, सदाचार की शिक्षा हरयाणे में प्रचलित है उसी में शिक्षित दीक्षित मा० चन्दगीराम आर्य पहलवान है । न वह मांस अण्डे को छूता है, न तम्बाकू, शराब का सेवन करता है । उसी के
फलस्वरूप उसको विजय प्राप्त हुवा और उसने भारत केसरी बनकर भारत का नाम ऊंचा किया । उसका विजय आर्य संस्कृति का विजय है ।
इस से भारतीय पहलवानों को शिक्षा लेनी चाहिये और अपनी पवित्र परम्परा के अनुसार अपना शुद्ध गोदुग्ध, घृतादि का सात्विक आहार तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन बिताना चाहिए । फिर संसार में सर्वत्र इनका विजय ही होगा । ईरान के पहलवान मांस खाना छोड़ दें तो वे भी संसार के सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि उनमें प्राचीन भारतीय आर्य ऋषियों का ही रक्त है ।
देश-देशान्तरों और द्वीप-द्वीपान्तरों में जो बस्तियां आज देखने में आतीं हैं वे सभी हमारे पूर्वज आर्यों ने ही बसाईं थीं । महाभारत तक तो अनेक ऋषि-महर्षियों का गमनागमन भी भारत से बाहर के देशों में होता रहा । धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय वा अश्वमेध यज्ञ में तथा महाभारत के युद्ध में भाग लेने के लिए प्रायः सभी देशों से राजे-महाराजे आये थे । आदि सृष्टि से महाभारत तक तो हमारे देश का चक्रवर्ती राज्य सारे भूगोल में रहा है । महाभारत युद्ध के पश्चात् सारी व्यवस्था बिगड़ गई । वेद का प्रचार करने वाले दूसरे देशों में नहीं पहुंच सके क्योंकि वेद प्रचारक ऋषियों की परम्परा महाभारत युद्ध के साथ समाप्त हो गई । इसी कारण वेद प्रचार के अभाव में वैदिक मर्यादाओं का लोप होने लगा और आर्यावर्त से भिन्न पूर्व दिशा से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम दिशाओं में रहने वालों का नाम दस्यु, म्लेच्छ तथा असुर हो गया और नैऋति, दक्षिण, आग्नेय दिशाओं में (आर्यावर्त से भिन्न) रहने वाले मनुष्यों का नाम
राक्षस हो गया । अब देखने से ज्ञात होता है कि हब्शी लोगों का स्वरूप जैसा राक्षसों का वर्णन किया है वैसा ही भयंकर दीख पड़ता है । उपर्युक्त सत्य को हमारे स्मृतिकारों ने इस प्रकार कहा है –
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः ॥ (मनु० १०।१४)
म्लेच्छदेशस्त्वतः परः ॥ (मनु० २।२३)
इस से यही सिद्ध होता है कि आर्यों की सन्तान जो भारत से बाहर अन्य देशों में बसी, वही ऋषियों वा विद्वानों के सत्संग तथा शिक्षा के अभाव में असुर, दस्यु, म्लेच्छ और राक्षस बन गई । आज यही देखने में आता है सभी देशों में मांस भक्षण तो प्रायः सभी करते हैं । इस्लामी देशों को छोड़कर मद्य का सेवन भी सभी करते हैं, केवल भारत ही ऐसा देश था जहां मुसलमान और अंग्रेजी राज्यकाल से पूर्व सुरापान तथा मांस भक्षण बहुत थोड़ी मात्रा में था । हरयाणा प्रदेश में मद्य मांस का सेवन न होने के समान ही था । स्वराज्य मिलने से पूर्व तक यथार्थ में यह शुद्ध आर्यों का प्रान्त था । सरकार की अशुद्ध नीति के कारण यहां भी अब मद्य-मांस का सेवन बढ़ता जा रहा है ।
हरयाणा प्रदेश आज से २० वर्ष पूर्व शुद्ध आर्य संस्कृति का प्रत्यक्ष केन्द्र था । इसने अपने पूर्वजों की इस पवित्र धरोहर को, जो आदि सृष्टि से ऋषियों के द्वारा इन्हें प्राप्त हुई, ज्यों का त्यों सुरक्षित रक्खा हुआ था । आज भी महर्षि दयानन्द की दया से आर्यसमाज पवित्र आर्य संस्कृति की रक्षार्थ हरयाणे में कटिबद्ध है । यदि हमारी सरकार के कर्णधारों को परमात्मा सद्बुद्धि प्रदान कर दे तो यह कार्य सरल हो सकता है और यह
ब्रह्मर्षि देश सारे विश्व में एक शुद्ध आर्य वैदिक संस्कृति का केन्द्र बन सकता है । जो संस्कृति भगवान् ने सृष्टि के प्रारम्भ में वेद ज्ञान के द्वारा मानव के कल्याणार्थ ऋषियों के हृदय में प्रकाशित की, जिसका प्रचार-प्रसार ऋषियों के आश्रमों द्वारा इसी पवित्र भूमि हरयाणा से सारे संसार में होता रहा, जिसके कारण यह ब्रह्मर्षि देश कहलाया और महर्षि व्यास ने जिसे 'धर्मक्षेत्र' 'पुण्यक्षेत्र' नाम देकर अपने लेखनी को चार चांद लगाये ।
वैदिक संस्कृति का प्रकाश
परमात्मा ने सब प्राणियों के कल्याण तथा भरण-पोषण के लिए सब साधन उपस्थित किये हैं । जैसे बाह्यचक्षु की सहायतार्थ सूर्य का प्रकाश, ऐसे ही आन्तरिक चक्षु बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति बुद्धि के लिये वेद का ज्ञान देने की महती कृपा की है ।
स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः । (यजु० ४०।८॥)
अर्थात् स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है, वह सनातन जीव रूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् विधि पूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है । अतः उसने परम पवित्र चारों वेदों द्वारा ज्ञान का दान करने की महती कृपा की है ।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ (यजु० ३१।७॥)
अर्थ - सर्वव्यापक सच्चिदानन्दस्वरूप, उपासनीय परब्रह्म
देव ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों को उत्पन्न किया अर्थात् चार ऋषियों के हृदय में वेद ज्ञान का प्रकाश किया ।
अग्नेः ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः (शत० ११।४।२।३॥)
प्रथम सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का प्रकाश किया । इन चार ऋषियों से यह वेद का ज्ञान ब्रह्मा ने ग्रहण किया ।
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥ (मनु० १।१३॥)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त करवाये ।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है । इसलिए उसके पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने को आर्यों ने अपना परम धर्म माना है । इसी का प्रचार देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त सभी ऋषि-महर्षि लोग करते रहे हैं । यह परम्परा आदि सृष्टि से महाभारत पर्यन्त चलती रही और इस वैदिक धर्म वा वैदिक संस्कृति का प्रचार और प्रसार सारे भूमंडल में होता रहा । जिसके कारण सारे विश्व में वैदिक संस्कृति जिसे वेद ने स्वयं विश्ववारा नाम दिया है, का बोलबाला हो गया । सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा (यजु० ७।१४) इस सबसे प्रथम और सर्वोत्तम विश्व की प्रिय, सबको सुख देने
वाली “विद्या सुशिक्षा जनित नीति”का, जिसे वैदिक संस्कृति कहते हैं, सारे संसार को स्वर्ग बनाने के लिए संसार में ऋषियों ने (देवताओं ने) प्रसार किया । इसी के कारण देश-देशान्तर से ऋषियों और महर्षियों के चरणों में इसकी शिक्षा लेने के लिए भारत में सारे संसार से लोग आते रहे । ये आश्रम वा गुरुकुल प्रायः सारे भारतवर्ष में ही थे । किन्तु इनका बाहुल्य हरयाणा प्रदेश में था, जिसके कारण इस प्रदेश का नाम उस समय ब्रह्मर्षि देश था । भृगु, च्यवन, जमदग्नि, परशुराम, दुर्वासा, कपिल, उद्दालक, पिप्पलाद और महर्षि व्यास के आश्रम हरयाणे में ही थे ।
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ब्रह्मर्षि देश
कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसेनकाः ।
एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ॥ (मनु० अ० २।१९॥)
इस ब्रह्मर्षि देश के अन्तर्गत कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल और शूरसेनक ये चारों देश आ जाते हैं । ब्रह्मावर्त से ब्रह्मर्षि देश कुछ छोटा है । अतः यह ब्रह्मावर्त के अन्तर्गत ही है । मनु जी द्वारा कथित ब्रह्मर्षि देश हरयाणा तथा इसका एक भाग ही है । इसी प्रदेश में संसार के लोग आचार व्यवहार, वैदिक संस्कृति की शिक्षा लेने के लिए आया करते थे ।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ (मनु० २।२०॥)
यह ब्रह्मर्षि देश (हरयाणा) सारे संसार का चरित्रादि की शिक्षा का केन्द्र था । यहीं पर ऋषि और देवताओं का निर्माण होता था, जिनका वर्णन आप देवयुग में पढ़ेंगे ।
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