Jaamun

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ओ३म्
भारत की प्रसिद्ध जड़ी बूटी ग्रन्थमाला-९
जम्बू (जामुन)

लेखक : स्वामी ओमानन्द सरस्वती

प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)
मुद्रक - वेदव्रत शास्त्री, आचार्य प्रिंटिंग प्रैस, गोहाना रोड, रोहतक (हरयाणा)
प्रथमवार - विक्रमी संवत् २०४९ (अप्रैल 1992 ई०)

सुमित्रिया नः आप औषधयः सन्तु

हे प्रभु ! आपकी कृपा से प्राण, जल, विद्या और औषधि हमारे लिये सदा सुखदायक हों


Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल
The author - Acharya Bhagwan Dev alias Swami Omanand Saraswati

Jamun tree in English

Jamun tree (Syzygium cumini) is an evergreen tropical tree in the flowering plant family Myrtaceae. It is native to the Indian Subcontinent and adjoining regions of Southeast Asia. The species ranges across India, Bangladesh, Pakistan, Nepal, Sri Lanka, Malaysia, the Philippines, and Indonesia. The tree gives name to Jambudvipa.

Variants of name in different languages:

Description:

A slow growing species, it can reach heights of up to 30 m and can live more than 100 years. Its dense foliage provides shade and is grown just for its ornamental value. At the base of the tree, the bark is rough and dark grey, becoming lighter grey and smoother higher up. The wood is water resistant. Because of this it is used in railway sleepers and to install motors in wells. It is sometimes used to make cheap furniture and village dwellings though it is relatively hard to work on.

The leaves which have an aroma similar to turpentine, are pinkish when young, changing to a leathery, glossy dark green with a yellow midrib as they mature. The leaves are used as food for livestock, as they have good nutritional value.

Syzygium cumini fruit color changing from green to pink to blood red to black as it matures.

Syzygium cumini trees start flowering from March to April. The flowers are fragrant and small, about 5 mm in diameter. The fruits develop by May or June and resemble large berries; the fruit of Syzygium species is described as "drupaceous". The fruit is oblong, ovoid. Unripe fruit looks green. As it matures, its color changes to pink, then to shining crimson red and finally to black color. A variant of the tree produces white coloured fruit. The fruit has a combination of sweet, mildly sour and astringent flavour and tends to colour the tongue purple.

Jat clans

नम्र निवेदन

सामान्य मनुष्य चाहे जंगल, ग्राम, कस्बे वा बड़े नगर आदि किसी भी स्थान में निवास करते हों, प्रायः सभी का एक ही स्वभाव है कि छोटे मोटे रोग होने पर वैद्य, हकीम वा डाक्टर के घर का द्वार शीघ्र ही नहीं खटखटाते । अपने घर, खेत, जंगल, अड़ौस पड़ौस में कोई घरेलू औषध जो भी सुगमता से मिल जाये, उसी का तुरन्त सेवन वे करते हैं । किन्तु प्रतिदिन दृष्टि में आने वाले जाने पहचाने हल्दी, लवण, मिर्च, सौंठ, अदरक, मेथी, पालक, बथुआ, चौलाई, कटेली, स्वर्णक्षीरी, कमल, आक, नीम, पीपल, बड़, सिरस, जामुन आदि पौधों और वृक्षों के गुणों का यथार्थ ज्ञान न होने से अनेक रोगों की चिकित्सा इन के द्वारा भलीभांति नहीं कर सकते । अपने आस-पास मिलने वाली जड़ी बूटियों के गुण जानकर उनसे चिकित्सा करके कष्ट से बच सकें, इसी कल्याण की भावना से भारत की प्रसिद्ध जड़ी बूटी ग्रन्थमाला का नवम् पुष्प जामुन पाठकों की सेवा में भेंट किया जा रहा है ।

इसमें सामान्य रूप से रोगों का निदान, पहचान, चिकित्सा, उपचार, पथ्यादि पर भी प्रकाश डाला गया है । आशा है हमारे प्रेमी पाठक इसको पढ़कर तथा इसमें दिये गये योगों का यथोचित सेवन करके अवश्य लाभ उठायेंगे । यह ग्रन्थमाला इसी प्रकार आगे भी अनेक लघु पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होती रहेगी । आगे अपामार्ग, बबूल, खदिर, रोहीतक (रोहेड़ा) और निम्बू आदि पर पुस्तक लिखकर शीघ्र ही पाठकों की सेवा में भेंट की जायेगी ।

- स्वामी ओमानन्द सरस्वती
गुरुकुल झज्जर
१-४-१९९२ ई०

दो शब्द

जामुन - आवरण पृष्ठ

परमपिता परमात्मा की सृष्टि में असंख्य वृक्ष और जड़ी-बूटियां हैं, जो उसने महती कृपा करके प्राणिमात्र के कल्याणार्थ उत्पन्न की हैं । जिनको उत्पन्न करने के साथ-साथ अपनी परम पवित्र वेदवाणी द्वारा उनके पवित्र ज्ञान का प्रकाश भी ऋषियों के हृदय में किया । इसी लिए इस युग के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द ने यह घोषणा कि कि वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है । वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना मानवमात्र का परम धर्म है ।

वेदों का एक उपवेद आयुर्वेद है । इसके चरक, सुश्रुत आदि ग्रन्थों की रचना प्राणिमात्र के हितार्थ ऋषि मुनियों ने की है । वेद, उपवेद और आयुर्वेद आदि के पढ़ने और तदनुसार आचरण करने से हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर आधि और भयंकर व्याधियों से बच सकते हैं । अलपज्ञ होने से मानव अनेक त्रुटियां करता है और उनके फलस्वरूप अनेक दुःख भोगता है । आश्चर्य यह है कि इसके चारों ओर रोग की औषध होते हुए भी अपने अज्ञान के कारण रोगों में फंसकर कष्ट भोगता है । "'पानी में मीन प्यासी, मुझे देखत आवे हांसी'" इस लोकोक्ति के अनुसार मानव की दुर्गति हो रही है । इसी प्रकार के दुःख और दुर्दशा से बचाने के लिए जम्बू (जामुन) नामक यह पुस्तक लिख रहा हूं ।

जामुन भारतवर्ष का एक सुप्रसिद्ध वृक्ष है । इससे सभी भारतीय भली भांति परिचित हैं । निघन्टु आदि आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसका पर्याप्‍त वर्णन मिलता है । जामुन केवल एक फल का वृक्ष ही नहीं अपितु रोगनाशक औषध भी है अथवा यों कहा जा सकता है कि यह पूरा औषधालय ही है ।

आज सारे विश्व में मधुमेह (शुगर) का रोग बुरी तरह फैला हुआ है । किसी के पेशाब में तथा किसी के रक्त में यह रोग घर किये हुए है । मेरे पास इस रोग के बहुत रोगी आते रहते हैं । उनको जामुन के अनेक प्रकार के प्रयोग कराये तो सभी को अद्‍भुत लाभ हुआ । मधुमेह के जिन रोगियों को डाक्टर असाध्य कहकर चिकित्सा करने से निषेध कर देते हैं, ऐसे हताश रोगी मेरे पास आकर उपचार कराते रहते हैं । यदि वे पथ्य से रहकर श्रद्धा से औषध सेवन करते हैं तो सभी नीरोग हो जाते हैं ।

जामुन को संस्कृत में जम्बू' कहते हैं । यह आर्यावर्त्त देश भी जम्बूद्वीप का ही एक भाग है । इसके जम्बूद्वीप नामकरण में यह भी एक कारण हो सकता है कि इसी महाद्वीप में जम्बू (जामुन) के पेड़ मिलते हैं ।

आर्य लोगों के संस्कार और यज्ञों में संकल्प पढ़ने की परम्परा चली आ रही है । उसमें भी जम्बूद्वीप की चर्चा है । जैसे - ओं तत् सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽ‍ष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गते अमुकक्षेत्रे अमुकग्रामे ऋतौ नक्षत्रे मुहुर्ते लग्ने तिथौ वासरे....मया एतत्कर्म इत्यादि ।

इससे जम्बूद्वीप का एक खण्ड भारतवर्ष सिद्ध है । यहां अनेक प्रकार के जामुन बहुलता से मिलते हैं । उनसे सभी लोग चिकित्सा करके लाभान्वित हो सकें इसी भावना से इस पुस्तक का प्रकाशन किया है । आर्यसमाज के प्रचार-कार्य में अत्यधिक भागदौड़ करने के कारण कई वर्ष से मैं पूर्ण स्वस्थ नहीं था, पुनरपि यथाशक्ति लगा ही रहता था । इस बार अधिक कष्ट होने से लम्बा उपचार चला । उन्हीं दिनों यह पुस्तक भी लिखकर तैयार करता रहा । ईश्वर की अनुकम्पा से अब स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो रहा है । इसीलिए यह ग्रन्थ आपके हाथों में पहुंच सका है ।

आशा है सभी सज्जन लोग इसको पढ़कर स्वयं लाभान्वित होंगे तथा अन्यों को भी कर सकेंगे ।


निवेदकः
स्वामी ओमानन्द सरस्वती

पृष्ठ १

जम्बू (जामुन)

जामुन के भिन्न-भिन्न निघन्टुओं में नाम

धन्वन्तरीय निघण्टु में जामुन के नाम इस प्रकार हैं -

जम्बूः सुरभिपत्रा च राजजम्बूर्महाफला ।
सुरभी स्यान्महाजम्बूर्महास्कन्धा प्रकीर्तिता ॥

जामुन के नाम - जम्बू, सुरभिपत्रा, राजजम्बू, महाफला, सुरभि, महाजम्बू और महास्कन्धा हैं ।

दूसरी जामुन के नाम -

वेतसी काकजम्बूश्च नादेयी शीतवल्लभा ।
भ्रमरेष्टा नीलवर्णा द्वितीया जम्बूरुच्यते ॥

वेतसी, नादेयी, शीतवल्लभा, भ्रमरेष्टा और नीलवर्णा काकजम्बू के पर्याय हैं ।

राजनिघन्टु में जामुन के नाम निम्न हैं -

राजनिघण्टावाम्रादिरेकादशो वर्गः -
जम्बूस्तु सुरभिपत्रा नीलफला श्यामला महास्कन्धा ।
राजार्हा राजफला शुकप्रिया मेघमोदिनी नवाह्वा ॥

अर्थ - जम्बू, सुरभिपत्रा, नीलफला, श्यामला, महास्कन्धा, राजार्हा, राजफला, शुकप्रिया, मेघमोदिनी ये नौ नाम जामुन के हैं ।

भावप्रकाश निघन्टु में जामुन के नाम निम्न हैं -

फलेन्द्रा कथिता नन्दी राजजम्बूर्महाफला ।
तथा सुरभिपत्रा च महाजम्बूरपि स्मृता

अर्थ - फलेन्द्रा, नन्दी, राजजम्बू, महाफला, सुरभिपत्रा, महाजम्बू - ये जामुन के संस्कृत नाम हैं ।


पृष्ठ २

जलजम्बुक (कटजामुनी वा नदीजामुनी)
क्षुद्रजम्बूः सूक्ष्मपत्रा नादेयी, जलजम्बुका ।

अर्थ - क्षुद्रजम्बू, सूक्ष्मपत्रा, नादेयी, जलजंबुका - ये छोटी जामुन के संस्कृत नाम हैं ।

मदनपाल निघण्टु में जामुन के नाम इस प्रकार हैं -

महाजम्बू राजजम्बूर्महास्कन्धा बृहत्फला ।
क्षुद्रजम्बूर्वीरपत्रा मेघाभा कामवल्लभा ॥

अर्थ - महाजम्बू, राजजम्बू, महास्कन्धा, बृहत्फला, क्षुद्रजम्बू, वीरपत्रा, मेघाभा, कावल्लभा - जामुन के ये आठ नाम हैं ।

नादेयी स्यात्क्षुद्रफला तत्फलं जम्बू जाम्बवम् ।

नादेयी, क्षुद्रफला ये जामुन के नाम हैं । जामुन का फल जम्बू, जांबव, जामुन इन नामों से प्रसिद्ध है ।

शालिग्राम निघण्टु में जामुन के नाम -

जम्बूरस्तु सुरभिपत्रा नीलफला श्यामला महास्कन्धा ।
राजार्हा राजफला, शुकप्रिया मेघमोदिनी च नवाह्वा ॥

अर्थ - जम्बू, सुरभिपत्रा, नीलफला, श्यामला, महास्कन्धा, राजार्हा, राजफला, शुकप्रिया, मेघमोदिनी (जम्बू, जम्बुल) - ये नव नाम जम्बू के हैं ।

महाजम्बूनामानि -

महाजम्बू राजजम्बूः स्वर्णमाता महाफला ।
शुकप्रिया कोकिलेष्टा महानीला बृहत्फला ॥

अर्थ - महाजम्बू, राजजम्बू, स्वर्णमाता, महाफला, शुकप्रिया, कोकिलेष्टा, महानीला, बृहत्फला (महापत्रा), फलेन्द्रा, नन्दी, सुरभिपत्रा) ।

क्षुद्रजम्बूनामानि -

क्षुद्रजम्बूर्दीर्घपत्रा सूक्ष्मकृष्णफला तथा ।

अर्थ - क्षुद्रजम्बू, दीर्घपत्रा, सूक्ष्मकृष्णफला (मध्यमा) ।


पृष्ठ ३

काकजम्बूनामानि -

काकजंबू काकफला नादेयी काकवल्लभा ।
भृंगेष्टा काकनीला च ध्वांक्षजंबूर्घनप्रिया ॥

अर्थ - काकजम्बू, काकफला, नादेयी, काकवल्लभा, भृंगेष्टा, काकनीला, ध्वांक्षजम्बू, घनप्रिया इत्यादि ।

भूमिजम्बूनामानि -

अन्या च भूमिजम्बूर्ह्रस्वफला भृंगवल्लभा ह्रस्वा ।

भूजम्बूर्भ्रमरेष्टा पिकभक्षा काष्ठजम्बूश्च ॥

अर्थ - भूमिजम्बू, ह्रस्वफला, भृंगवल्लभा, ह्रस्वा, भूजम्बू, भ्रमरेष्टा, पिकभक्षा, काष्ठजम्बू (सूक्ष्मपत्रा, जलजम्बुका) ।


अन्य भाषाओं में जामुन के नाम


संस्कृत - जम्बू, महाजम्बू, क्षुद्रजम्बू ।

हिन्दी - जामुन, बड़ी जामुन, फलेन्द्र, छोटी जामुन, काकजम्बू, कठजामन ।

बंगला - जामगाद्द, बड़जाम, क्षुद्रेजाम, वनजाम ।

मराठी - मोठेजांभूल, नदीजांभूल ।

कोंकणी - राजिले ।

गुजराती - राजजाम्बु, रावणांबेलरोपाजाम्बु, डुंगरिजाम्बु, जाम्बुन, क्षुद्रजम्बु ।

कर्णाटकी - निरलु, दोदुनिरलु, दोहुनिरलु ।

तैलंगी - पेद्दानिरडि, नीरनेरडि

अंग्रेजी - जांबीरट्री (Jambir tree)

लैटिन - युजिनिया जाम्बोलेना (Eugenia Jambolana), सिझिझियम् जांबोलेनम् (Syzyzyum Jambolanum), प्रेमना हरबेसिया (Premna Herbacea).


भिन्न-भिन्न निघण्टुओं के आधार पर जामुन के अलग-अलग


पृष्ठ ४

नाम लिखने के पश्चात् उनके गुण-कर्म लिखते हैं ।

धन्वन्तरीय निघन्टु के आधार पर जामुन के गुण -

जाम्बवं वातलं ग्राहि स्वाद्वम्लं कफपित्तजित् ।
हृत्कण्ठकषणं चान्यत् कषायं क्षुद्रजाम्बवम् ॥

अर्थ - जामुन का फल वातवर्धक, ग्राही, मधुर अम्ल एवं कफ पित्त को दूर करने वाला है । क्षुद्र जामुन का फल कसाय रसयुक्त तथा हृदय एवं कण्ठ को खींचने वाला होता है ।

भावप्रकाश निघण्टु में जामुन के गुण -

राजजम्बूफलं स्वादु विष्टिम्भि गुरु रोचनम् ।

अर्थ - बड़ी जामुन स्वादिष्ट, विष्टम्भी, भारी और रुचिकारी है ।

जंबूः संग्राहिणी रूक्षा कफपित्तास्रदाहजित् ।

अर्थ - छोटी जामुन ग्राही, रूक्ष और कफ, पित्त, रुधिर-विकार व दाहनाशक है ।

मदनपाल निघण्टु में जामुन के गुण -

जम्बूः संग्राहिणी रूक्षा कफपित्तव्रणास्रजित् ।

अर्थ - जामुन मल को बांधती है । रूखी है और कफ पित्त, घाव, रक्त - इनको जीतती है ।

राजजम्बूफलं स्वादु विष्टम्भि गुरु रोचनम् ।
क्षुद्रजम्बूफलं तद्वद्विशेषाद्दाहनाशनम् ॥

अर्थ - राजजामुन का फल स्वादु है, विष्टम्भ करता है । भारी है और रुचि को उपजाता है । छोटी जामुन का फल भा ऐसा ही है, विशेषकर दाह को नाश करने वाला है ।

शालिग्राम निघण्टु में जामुन के गुण निम्न हैं -

जम्बूवृक्षस्तु तुवरो ग्राही मधुरपाचकः ।
मलस्तम्भकरो रूक्षो रुचिकृत्पित्तदाहहा ॥

पृष्ठ ५

अम्लः कण्ठ्यः कृमिश्वासशोषातीसारकासहा ।
रक्तदोषं कफं चैव व्रणं चैव विनाशयेत् ॥
फलं च तुवरं चाम्लं मधुरं शीतलं मतम् ।
रुच्यं रूक्षं ग्राहकं च लेखनं कण्ठदूषकम् ॥
मलस्तम्भकरं वातकारकं कफपित्तनुत् ।
आध्मानकारकं प्रोक्‍तं पूर्ववैद्यैर्मनीषिभिः ॥

अर्थ - जामुन की छाल - कषैली, मलरोधक, मधुर, पाचक, मलस्तम्भक, रूक्ष, रुचिकारक तथा पित्त और दाह को दूर करती है । खट्टी, कण्ठ को हितकारी तथा कृमि, श्वास, शोष, अतिसार, खांसी, रक्तदोष, कफ और व्रण - इनका नाश करती है । इसके फल कषैले, मधुर, शीतल, रुचिकारक, रूखे, मलरोधक, कण्ठदूषक, मलस्तम्भक, वातवर्द्धक, कफपित्त नाशक और अफारे को करने वाले हैं ।

जाम्बवं गुरु विष्टम्भि कषायं स्वादु शीतलम् ।
अग्निसंदूषणं रूक्षं वातलं कफपित्तजित् ॥

अर्थ - जामुन का फल - भारी, विष्टंभकारक, कषैला, स्वादिष्ट, शीतल, अग्निदूषक, रूखा, बादी, कफ और पित्तनाशक है ।


राजजम्बूगुणाः

राजजम्बूस्तु मधुरा चोष्णा च तुवरा मता ।
स्वर्या मलस्तम्भकरी, श्वासशोषश्रमापहा ॥
मुखजाड्यातिसारघ्नी, कफकासविनाशिनी ।
फलं चास्यास्तु रुचिदं मधुरं स्तम्भकं गुरु ॥
दोषनाशकरं स्वादु ऋषिभिः परिकीर्तितम् ।

अर्थ - राजजामुन - मधुर, गरम, कषैली, स्वरशोधक, मलस्तम्भक तथा श्वास, शोष, श्रम, मुख की जड़ता, अतिसार,


पृष्ठ ६

कफ और खांसी को हरने वाली है । इसके फल रुचिकारक, मधुर, स्तम्भक, भारी, दोषनाशक और स्वादिष्ट हैं ।

जलजम्बूगुणाः

जलजम्बूस्तु तुवरा शीता तिक्ता गुरुः स्मृता ।
पाके च मधुरा चाम्ला पुष्टिकृद्ग्राहिणी मता ।
वीर्यवृद्धिकरी बल्या श्रमदाहातिसारहा ।

रक्तदोषं कफं पित्तं व्रणं चैव विनाशयेत् ॥

अर्थ - जलजामुन - कषैली, शीतल, कड़वी, भारी, पाक में मधुर, अम्ल, पुष्टिकारक, मलरोधक, वीर्यवर्धक, बलकारक तथा दाह, अतिसार, रुधिरविकार, कफ, पित्त और व्रण को दूर करने वाली है ।

क्षुद्रजम्बूगुणाः

क्षुद्रजम्बूस्तु तुवरा हृद्या च मधुरा मता ।
वीर्यप्रदा ग्राहिणी च पुष्टिकृत्कफपित्तहा ॥
हृद्रोगं कंठरोगं च दाहं चैव विनाशयेत् ।
अस्याः फलगुणाः प्रोक्ता राजजम्बूफलैः समाः ॥

अर्थ - छोटी जामुन - कषैली, हृदय को हितकारी, मधुर, वीर्यवर्द्धक, मलरोधक, पुष्टिकारक, कफविनाशक तथा हृदयरोग, कण्ठरोग और दाह को दूर करती है । इसके फलों के गुण राजजामुन के समान जानें ।

तन्मज्जा मधुरा ग्राही, विशेषान्मधुमेहहा ।
तदंकुरा हिमा रूक्षा ग्राहकाध्मानकारकाः ॥

अर्थ - जामुन की मींग, मधुर, मलरोधक और विशेषकर मधुमेह को हरती है । इसके अंकुर शीतल, रूखे, ग्राही और आध्मानकारक हैं ।

भिन्न-भिन्न भाषाओं में जामुन के नाम व गुण निघण्टुओं


पृष्ठ ७

के आधार पर पहले ही लिख चुका हूं । जामुन के संस्कृत भाषा में जम्बू, सुरभिपत्रा, नीलफला, महास्कन्दा, मेघमोदिनी, राजफला और शुकप्रिया इत्यादि नाम हैं । हिन्दी आर्यभाषा में जामुन, जामन, काली जामुन, फलादा, फलिदा नाम हैं ।

वर्णन - जामुन के वृक्ष भारत में प्रायः सब प्रान्तों में उत्पन्न होते हैं । इसकी तीन चार जातियां होती हैं । एक जाति नदी के तटों पर होती है । उसके पत्ते कनेर के पत्तों के समान और फल बहुत छोटे होते हैं । दूसरी जाति के पत्ते आम के पत्तों के समान और फल मध्यम (बिचले) और कुछ बड़े कद के होते हैं । इन्हें मध्यम कोटि के कद वाले कह सकते हैं । इस जाति को जामुन कहते हैं । तीसरी जाति के वृक्ष बहुत ऊंचे फैले हुए होते हैं । इसके पत्ते पीपल के पत्तों के समान बड़े चिकने होते हैं और ये चमकदार भी होते हैं । इसके फल २ से अढ़ाई इंच तक लम्बे और १ से डेढ़ इंच तक मोटे होते हैं । इस जाति को राज जामुन कहते हैं । हरयाणा प्रान्त में यह राय जामन के नाम से प्रसिद्ध है । यह फलों का राजा अथवा राजाओं का प्रिय फल होता है । इसलिए संस्कृत में राजफल इस वृक्ष का नाम है । इन तीनों जातियों के गुण धर्म समान मिलते हुए ही हैं । किन्तु औषधियों में राज जामुन ही अधिक गुण वाली मानी जाती है । इसलिए इसका विशेष प्रयोग होता है । जामुन का वल्कल (छाल), फल, फलों की गुठली, गुठलियों की गिरी आदि सभी औषधियों में काम आते हैं ।


बड़ी जामुन के वृक्ष, पत्ते और फल सब बड़े होते हैं और छोटी जामुन के सब छोटे होते हैं । छोटी जामुन को हमारे यहां जमोया कहते हैं । इसकी अनेक उपजातियां हैं । जामुन को कभी-कभी इतने अधिक फल आ जाते हैं कि वायु का संचलन


पृष्ठ ८

बन्द होने पर फलों के भार से बड़ी-बड़ी शाखायें अकस्मात् टूट जाती हैं ।

मात्रा - गुठली की गिरी ४ से २० रत्ती । पत्तों का रस १ से २ तोले । छाल का क्वाथ आधे से एक औंस । सिरका १ से २ ड्राम जल में मिलाकर लेवें ।

गुण धर्म - जामुन के फल स्वादु, अम्ल, श्रमहर, रुचिकर, तृषाशामक, पाचक, कफवातजित्, अधिक खाने पर वातुल । अतिसार, श्वास, कफ प्रकोप, कास, उदर कृमि और मलावरोध को दूर करता है ।

जामुन की गुठली, पान और छाल में कसैला रस है । अतः यह मधुमेह में हितावह है । पानों का रस देना हो तो कोमल पानों में से पुटपाक विधि से निकालना चाहिए ।

डाक्टर देसाई के मतानुसार इस वृक्ष की छाल, पान और फलों का उपयोग होता है । फल और बीजों की गिरी पाचक और सामान्य स्तम्भक है । मधुमेह में यकृत् की क्रिया बिगड़ती है, अतः उसे सुधारने के लिए गिरी का सेवन कराया जाता है । इसका विशेष उपयोग शक्कर पचाने में होता है ।

इसके फलों का उत्तम आसव होता है । वह मधुमेह, अतिसार, संग्रहणी और प्रवाहिका में दिया जाता है । इसके पान (पत्तों) का रस उत्तम स्तम्भक है । इस हेतु से रक्तमिश्रित प्रवाहिका और अत्यार्त्तव आदि रक्तस्रावयुक्त रोगों में दिया जाता है । इसके पानों को कुचलकर लोह चूर्ण के साथ मिला देने से उत्तम प्रकार का लोह क्षार बन जाता है । यह क्षार पाण्डु और निस्तेज स्त्रियों के अतिसार में लाभदायक होता है ।

इसकी छाल में स्तम्भन गुण हैं । इस हेतु से उसका क्वाथ


पृष्ठ ९

कर संग्रहणी और प्रवाहिका में दिया जाता है । वनस्पति सृष्टिकार के मतानुसार छोटी जाति में ग्राही गुण अधिक हैं ।

लौह भस्म को जामुन के रस का ५-७ पुट देने से भस्म नीले रंग की बन जाती है । यह मधुमेह के रोगी के लिए उपयोगी होती है ।

जामुन के विषय में सामान्य प्रकाश डालकर इसका सामान्य परिचय पाठकों को दिया गया है । इसका चिकित्सा में औषध रूप में किन-किन रोगों में उपयोग होता है यह विस्तार से लिख रहा हूँ ।

यह पहिले लिखा जा चुका है कि जामुन की सभी जातियों के गुण मिलते जुलते हैं अथवा यों कहिए एक समान ही हैं । राज (राय) जामुन में कुछ विशेष गुण हैं । उन पर अनेक स्थलों पर प्रकाश डाला जायेगा ।


जामुन की छाल

वैसे तो जामुन के पंचांग का प्रयोग औषध रूप में होता है । किन्तु फल फूलादि तो जब ऋतु में इसके वृक्ष फलते हैं, तभी प्राप्‍त होते हैं किन्तु छाल (वल्कल), पत्ते और जड़ तो सदैव प्राप्‍त होते हैं । उनमें जामुन की छाल कहां कहां औषध रूप में कार्य में आती है, उस पर सर्वप्रथम लिख रहा हूँ । सामान्यतया जामुन की छाल का क्वाथ बच्चों के आम व रक्तातिसार में देते हैं । जामुन की छाल के क्वाथ से मसूड़ों के रक्तस्राव (पायोरिया) क्षत व जिह्वा विदारण में कुल्ले गरारे कराते हैं । इससे अच्छा लाभ होता है । सभी कण्ठ के रोगों में इसकी छाल के क्वाथ के गरारों से लाभ होता है ।

जामुन की छाल में स्तम्भन का विशेष गुण है । इसी कारण इसका क्वाथ निर्बल बच्चों और निस्तेज स्त्रियों के अतिसार को दूर करता है ।


पृष्ठ १०

छाल का क्वाथ
जामुन की नरम-नरम अन्तर-छाल दो तोले जौकुट करके ३२ तोले जल में उबालें । जब वह आठ तोले रह जाये तो मलकर छान लें । उसको तीन भागों में बांट लें । इसे तीन बार दिन में पिलायें और प्रत्येक बार धनिया जीरा का चूर्ण दो-दो माशे क्वाथ के साथ देते रहें । इस प्रकार तीन-चार दिन करने से अतिसार बन्द हो जाता है ।
सगर्भा अतिसार
यदि गर्भवती स्त्री को अतिसार हो तो जामुन और आम की ताजी छाल दो तोले ले लें और १६ गुणा जल में क्वाथ करें । चतुर्थांश रहने पर उसे मल छानकर तीन भाग कर लें और तीन-चार घण्टे के अन्तर से प्रतिबार दो-दो माशे धनिया और जीरे का चूर्ण साथ देने से सगर्भा स्त्री के अतिसार (दस्त) तीन चार दिन में सर्वथा बन्द हो जाते हैं ।
मसूड़ों की सूजन
जामुन की छाल का क्वाथ वा फाण्ट बनायें और उससे दिन में दो बार कुल्ले करते रहने से मसूड़ों का शोथ और पीड़ा दूर हो जाती है और हिलते हुए दान्त भी दृढ़ होकर जम जाते हैं । क्वाथ की मात्रा दो तोले से चार तोले तक शक्ति के अनुसार देनी चाहिये ।
रक्तप्रदर
श्वेतप्रदर नया हो, गरम-गरम और जल के समान स्राव होता हो तो जामुन की छाल का क्वाथ दिन में दो बार पांच-सात दिन देने से प्रदर रोग शान्त हो जाता है । क्वाथ में थोड़ा-थोड़ा मधु मिलाकर देने से अधिक लाभ होता है । किन्तु स्त्री-पुरुष दोनों को कई मास तक ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये । यह इस रोग का सबसे बड़ा पथ्य है ।

अशुद्ध पारा वा रसकपूर के खाने से किसी का मुख आ जाए तो जामुन की छाल के क्वाथ से कुल्ले करने से ठीक हो जाता है । मुख के अन्दर की सूजन, लार बहना, जखम और पीड़ा


पृष्ठ ११

आदि सभी विकारों को जामुन की छाल के क्वाथ के कुल्ले ठीक कर देते हैं । अतिसार में इसकी छाल की फांकी देने से यह कष्ट दूर होता है । छाल को छाया में सुखाकर कूट छानकर बारीक पीस कपड़छान कर लें । मात्रा १ माशे से छः माशे तक गरम जल वा गाय की छाछ के साथ दिन में चार-पांच बार देवें । इससे उदर के मरोड़े भी दूर होते हैं ।

चक्रदत्त का मत है कि बच्चों के पुराने आग्निमाद्य और अतिसार में जामुन की छाल का ताजा रस बकरी के दूध के साथ देने से बहुत लाभ होता है । इस प्रकार आयुर्वैदिक मतानुसार जामुन की छाल कसेली, मलरोधक, मधुर, पाचक, रूक्ष, रुचिकारक तथा पित्त और दाह को दूर करनेवाली है । जामुन की छाल का उपयोग अनेक रोगों के दूर करने तथा आसव अरिष्टों आदि में उपयोग होता है । आगे विस्तार से लिखा जायेगा ।

मधुमेह की चिकित्सा

महर्षि चरक का मत है कि जामुन की गुठलियों को बारीक पीसकर चूर्ण करके देने से पर्याप्‍त लाभ होता है ।

आधुनिक खोज के अनुसार जामुन वृक्ष में मधुमेह रोग को नष्ट करने की विशेष शक्ति है और मूत्र के साथ आने वाली शक्कर की मात्रा को इसका सेवन न्यून करता है । मधुमेह रोग को नष्ट करने में इसको बड़ी प्रसिद्धि वा ख्याति प्राप्‍त हुई है ।

डा० सी० ग्रेसर आदि ने इस रोग में अनेक परीक्षण किये और वे इस परिणाम पर पहुंचे कि जामुन की गुठली मूत्र में आने वाली शक्कर को कुछ ही दिनों मे प्रयोग से कम कर देती है और जो बार-बार पेशाब आता है उसमें जो शक्कर आती है वह केवल एक सप्‍ताह के प्रयोग से दोनों कम हो गईं । उनकी मात्रा न्यून होने से रोगी अपने आपको स्वस्थ अनुभव करने लगा । इसी


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प्रकार अनेक डाक्टरों तथा अनेक संस्थानों ने बहुत से परीक्षण किये । वे सभी इसी परिणाम पर पहुंचे कि जामुन की गुठली और इसकी गिरी जब भी मधुमेह के रोगियों को दी जाती है तो यह सरेश मे समान चिपकने वाले पदार्थ की उत्पत्ति और उसको शक्कर के रूप में परिवर्तित होने से रोकती है । इसकी गुठलियों से बनाया हुआ सत्त्व ऐस्ट्रेक्ट मधुमेह रोग को दूर करता है । इसी मात्रा आधा ड्राम से २ ड्राम तक है, और जामुन की गुठली के चूर्ण की मात्रा अढ़ाई रत्ती से १५ रत्ती तक दी जाती है । भारतीय डाक्टरों का यह भी अनुभव है कि जामुन की गुठलियों का चूर्ण मधुमेह रोग में मूत्र में जाने वाली शक्कर को बहुत शीघ्र बन्द कर देता है । भारतीय वैद्यों का अनुभव भी इसी प्रकार मिलता-जुलता ही है । कुछ वैद्यों ने जामुन की छाल की राख वा भस्म का प्रयोग भी किया है, उससे भी मधुमेह रोग में लाभ हुआ है ।

छाल की भस्म से चिकित्सा

राय जामुन की छाल उतारकर छाया में सुखा लें और जलाकर इसकी भस्म बना लें । इससे सफेद रंग की भस्म तैयार होगी । इसको खरल में पीसकर कपड़छान कर लें और बोतलों में भर लें । जब मधुमेह के रोगी का डाक्टर विश्लेषण करते हैं तो उसकी स्पेसिफिक ग्रेविटी १०२५ से लेकर १०३५ तक बढ़ती है । इस समय एक औंस मूत्र में लगभग ५ से १० रत्ती तक शक्कर का तत्त्व जाता है । ज्यों-ज्यों रोग पुराना होता है उसी प्रकार पेशाब की ग्रेविटी १०५० तक हो जाती है । उस समय मूत्र में २५ रत्ती तक शक्कर जाने लगती है । इसके अतिरिक्त अलव्युमेन और दूसरे कई शरीर के पोषक तत्त्व मूत्र के साथ बहने लगते हैं ।

उस समय रोगी के मूत्र की परीक्षा करने पर पेशाब की


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ग्रेविटी १०२० से १०३० तक हो उसको जामुन की इस छाल की भस्म १० रत्ती एक औंस शीतल जल में मिलाकर प्रातःकाल भूखे पेट और १० रत्ती भस्म दोपहर और १० रत्ती भस्म सायंकाल भोजन के १ घण्टा पश्चात् देनी चाहिये । तीन-तीन, चार-चार दिन के अन्तर से पेशाब की ग्रेविटी और शक्कर के परिणाम को जांचते रहना चाहिये । यह अनुमान से कह सकते हैं कि इस प्रयोग से रोगी का रोग डेढ़ महीने में समाप्‍त हो जाता है ।

रोगी की परीक्षा करने पर जिनके मूत्र में स्पेसिफिक ग्रेविटी १०३५ से १०५० तक हो, तो इस जामुन की भस्म को २० से ३० ग्रेन तक की मात्रा में देना चाहिये और इसे तीन बार देवें । रोगी की सामान्य प्रकृति देखकर यदि कोई उपद्रव हो जाए तो किसी सहायक औषधि का भी प्रयोग कर लें ।

मधुमेह में पथ्य

औषध सेवन के साथ रोगी को खान-पान और आचार-व्यवहार का विशेष ध्यान रखना चाहिये । जिन पदार्थों के खाने से शरीर में शक्कर की मात्रा का तत्त्व बढ़ता है, उनका सेवन सर्वथा बन्द कर देना चाहिये ।

भोजन - गेहूं के स्थान पर जौ की रोटी, बाजरे की रोटी, मूंग की दाल, परवल, लौकी (घीया) आदि का शाक खायें । गाय, बकरी का दूध ले सकते हैं । दूध में किसी प्रकार का मीठा न डालें । ब्रह्मचर्य का पालन अत्यन्त दृढ़ता से करें । यह अत्यन्त अनिवार्य पथ्य है । इस भस्म का सेवन रोगी की प्रकृति देखकर कराना चाहिये ।


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जिन वैद्यों ने इस जामुन छाल की भस्म का सेवन अपने रोगियों पर आजमाया वा अनुभव किया है वे इस प्रकार की चुनौती देते हैं । यह भस्म की औषध अत्यन्त सादा होने पर भी अत्यन्त प्रभावशाली है । मधुमेह रोग वा मूत्र के साथ शक्कर का आना ये दोनों रोग प्रायः सदैव उन व्यक्तियों को होते हैं जो एक स्थान पर बैठे रहते हैं, जिनका कार्य बैठक का ही है - जैसे शिक्षित वर्ग, क्लर्क, लेखक, अध्यापक, बाबू लोगों को होता है । और यह रोग ४० वर्ष की आयु के पश्चात् अधिक होता है । इस रोग से धीरे-धीरे रक्त दूषित होता है, पाचन शक्ति बिगड़ जाती है, शक्ति और बल घट जाता है और शरीर के अवयव ढ़ीले वा खोखले होकर कार्य नहीं करते और इससे शरीर शिथिल वा निष्क्रिय हो जाता है । डाक्टरों की औषधियां करके और वैद्यों की भस्में खाकर तथा बहुमूल्य तथा पेटेण्ट दवाइयों से निराश होकर रोगी जब बैठ जाता है तब इस जामुन की छाल की भस्म से रोगी ठीक हो जाते हैं, जिसका उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में किया गया है ।

अनुभवी वैद्यों ने यहां तक लिखा है कि जो वैद्य अपने रोगियों को वसन्त कुसुमाकर और स्वर्ण बंग के समान मूल्यवान् औषधियों को देने के पश्चात् भी स्वस्थ न कर सके हों और जो डाक्टर इन्स्यूलीन और ड्राइप्सोजन के समान औषधियों को देने के पश्चात् भी सफलता प्राप्‍त न कर सके हों उनको इस जामुन की भस्म का सेवन कराना चाहिये और रोगियों को चंगा करना चाहिये ।

जामुन की गुठली और मधुमेह

जामुन की सूखी गुठली पीस लें । इस चूर्ण की मात्रा अढ़ाई रत्ती से १ माशे तक दिन में तीन बार लेवें तो पेशाब के


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साथ शक्कर का आना बन्द हो जाता है । ऐसा भी अनुभव से ज्ञात हुआ है कि जामुन की गुठली के चूर्ण को ५ ग्रेन की मात्रा में दिन में छः बार देने से २४ घण्टे के अन्दर तीन-चौथाई पेशाब कम होने लगता है और पेशाब की ग्रेविटी कम हो जाती है । जामुन की मूल (जड़) १ तोला साफ करके पाव भर पानी में पीस २ तोले मिश्री मिलाकर पीने से मधुमेह में लाभ होता है । इसी प्रकार जामुन की गुठली की गिरी भी मधुमेह रोग को दूर करती है । मधुमेह की चिकित्सा पर अपने तथा अन्य वैद्यों के अनुभूत योग नीचे लिखता हूँ । वैद्य बलवन्तसिंह जी पहलवान जो गुरुकुल झज्जर के प्रधान हैं तथा हरयाणे के प्रसिद्ध वैद्य हैं और ऋषियों के सदृश धर्मात्मा परोपकारी महात्मा हैं और उनकी सारी आयु आयुर्वेद की चिकित्सा द्वारा सेवा करते हुए व्यतीत हुई है उनके अनुभूत योग तथा अपनी अनुभूत औषधि नीचे लिखता हूँ । पाठक सेवन कर और करवाकर लाभ उठायें । मधुमेह को यूनानी हकीम जियाबेतिस और डाक्टर डायबिटीज कहते हैं । सभी प्रकार के प्रमेह ठीक चिकित्सा न होने से पुराना होने पर मधुमेह का रूप धारण कर लेते हैं । इनके निदान, कारण आदि पर वैद्य बलवन्तसिंह जी अपनी पुस्तक घर का वैद्य तृतीय भाग में इस प्रकार लिखते हैं -

कारण - यह रोग प्रायः पाचनशक्ति की विकृति अथवा निर्बलता से उत्पन्न होता है । इसमें मूत्र अधिक आता है जो कि साढ़े तीन सेर से ७-८ सेर तक होता है । मूत्र में गुरुत्व (भारीपन) १०२५ से १०४५ तक और मूत्र में शर्करा (शूगर) चीनी डेढ़ रत्ती से बीस रत्ती तक होती है । मूत्र गाढ़ा, लिबलिबा, पीला होता है अथवा मूत्र शहद के समान होता है । मूत्र का रंग और स्वाद मधु के समान मीठा होने से मधुमेह नाम कहलाता है । मूत्र पर


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कीड़ी मकौड़ी भागकर आती हैं । उनका समूह मूत्र को पीने के लिये मूत्र पर इकट्ठा हो जाता है । मधुमेह के रोगी की जिह्वा (जीभ) निराले ढंग से लाल, सूखी, मोटी, दरदरी हो जाती है । शिर पीड़ा (दर्द) और आलस्य सुस्ती बनी रहती है । शरीर में बेचैनी हो जाती है । रोग बढ़ जाने पर नाड़ी क्षीण हो जाती है । दम घुटता है अर्थात् श्वास फूलता है । उसमें मीठे सेब के समान गन्ध आती है । मधुमेह के रोगी को प्रायः कारबंकल (फोड़ा), क्षयरोग, निमोनिया, अतिसार का रोग होकर ही मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है । मधुमेह में उपद्रव मारक होते हैं । इस रोग में काम (मैथुन) शक्ति समाप्‍त हो जाती है । कई रोगी अन्धे व मोतियाबिन्द से पीड़ित हो जाते हैं । कई बेहोश मूर्छित हो जाते हैं और इसी अवस्था में मर जाते हैं । यदि मधुमेह शीतकाल (जाड़े) में बढ़े तो कफप्रधान है । गर्मी में बढ़े तो पित्तप्रधान है । वर्षा में बढ़ता है तो वातप्रधान है ।

चिकित्सा

जामुन की गुठली की गिरी ५ तोले, सोंठ ५ तोले, गुड़मार बूटी १० तोले । इनको कूटपीसकर कपड़छान कर लें । फिर घीगवार के रस में खरल करके झड़बेर के समान गोली बनायें । प्रातः, दोपहर, सायंकाल एक गोली मधु के साथ सेवन करें । एक मास में लाभ हो जायेगा । यह औषध अत्यन्त गुणकारी है । इससे मधुमेह प्रमेह पिड़िकायें (फोड़े) कारबंकल फोड़ा भी ठीक हो जाता है ।

पथ्य - बाजरे व जौ की रोटी, मूंग की दाल, परवल, लौकी का शाक, गाय का दूध व बकरी का दूध पीवें । परन्तु दूध में भूलकर भी मीठा न डालें । मीठा इस रोग में विष के समान है ।


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योग २ - गुड़मार बूटी १५ तोले, जामुन की गुठली गिरी ७ तोले, सूर्यतापी शिलाजीत १ तोला, स्वर्ण भस्म ७ रत्ती, उत्तम लोह भस्म ७ माशे । इन सबको कूट पीसकर छान लें और सुरक्षित रखें । बलानुसार ४ माशे से ६ माशे तक गाय के दूध के साथ सेवन करें । दूध में मीठा न मिलायें और ऊपर लिखे पथ्य से रहें ।

योग ३ - गुड़मार बूटी २ तोले, जामुन की गुठली की गिरी ४ तोले, सूखा करेला ८ तोले, सूर्यतापी शिलाजीत ३ तोले, त्रिबंग भस्म २ तोले, उत्तम लौह भस्म १ तोला, अफीम ६ माशे । इन सबको यथाविधि कूट पीसकर घीग्वार के रस में घोटकर ४-४ रत्ती की गोली बनायें । एक-एक गोली प्रातः सायं गोदूध के साथ सेवन करें । मधुमेह पर अनुभूत है । इसका प्रयोग अनेक वैद्य करते हैं । मैंने भी इसक प्रयोग कराया है । यदि अफीम न मिले तो इसके बिना भी यह औषध लाभ करती है ।

योग ४ - जामुन की गुठली की गिरी ५ तोले, गुड़मार बूटी ५ तोले, स्वर्णमाक्षिक भस्म २ तोले, सब कूट पीस मिलाकर करेले के रस में खरल करके ४-४ रत्ती की गोली बनायें । छाया में सुखाकर रखें । प्रातः सायं दो-दो गोली गुलाब के अर्क के साथ सेवन करें । अवश्यमेव लाभ होगा ।

योग ५ - त्रिबंग भस्म ५ तोला, छायाशुष्क नीम के पत्र ८ तोला, जामुन की गुठली की गिरी ८ तोले, गुड़मार बूटी ८ तोले, सूर्यतापी शिलाजीत १५ तोले लें । शिलाजीत को जल के साथ खरल में पीस लें । फिर त्रिबंग भस्म मिलाकर घुटाई करें । पश्चात् अन्य औषधि पीसकर मिला दें । दो तीन घण्टे रगड़कर ४-४- रत्ती की गोली बनायें ।

प्रयोग ५ - चार-चार घण्टे के अन्तर से तीन-तीन गोलियों


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का सेवन करें, सारे दिन में १२ गोली प्रयोग करें । प्रत्येक मात्रा में गूलर फल का चूर्ण ४ रत्ती मिलाकर देवें । ऊपर से बेलपत्र का स्वरस अथवा ताजा गिलोय के पत्तों का रस १ तोला पीवें । यदि गिलोय और बेलपत्र न मिलें तो ताजा जल से सेवन करें । यह मधुमेह और बहुमूत्र की अनुभूत औषध है । यदि इस औषध में स्वर्ण भस्म मिला दिया जाय तो यह योग कभी निष्फल नहीं जाएगा । यह अनुभूत योग है ।

योग ६ - जम्बू अरिष्ट - जामुन की छाल ८० तोले, जामुन के फल ८० तोले, जामुन की गुठली (गिरी) ८० तोले, जामुन के हरे पत्ते ८० तोले । इन सबको कूटकर १२८ सेर जल में उबालकर क्वाथ करें । जब १६ सेर जल शेष रह जाय, उतारकर मलकर छान लें और इस क्वाथ में ८० तोले राय जामुन का रस मिलाकर चीनी के मर्त्यवान में भर देवें और उसमें १० सेर शुद्ध मधु मिला देवें । इसमें धाय के फूल आध सेर, नागकेसर बीस तोला मिलाकर मुख बन्द करके सुरक्षित स्थान पर रख देवें । एक मास के पश्चात् निथार छानकर बोतलों में भर देवें । मात्रा २ से चार तोले तक दुगुना जल मिलाकर रोगी को पिलायें । इसके सेवन से मधुमेह, यकृत दोष, उदर रोग, पित्त रोग, जलन, दाह, रक्तविकार, रक्तप्रदर, रक्तातिसार, रक्तार्श (खूनी बवासीर) आदि रोग दूर होते हैं । अनुभूत है ।

योग ७ - जम्बू आसव - जम्बू वृक्ष की छाल ५ सेर, बबूल की छाल २ सेर, खदिर की छाल २ सेर - सबको कूट छान लें । सबको ६४ सेर जल में पकावें । जब चौथा भाग १६ सेर जल रह जाय,


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ठण्डा होने पर मलकर छान लेवें और इनमें १० सेर शुद्ध मधु मिलाकर चीनी के पात्र में भर देवें । धाय के फूल तीन पाव, लोध, सोंठ, पीपल बड़ा, काली मिर्च - इन सबको बारीक मिलाकर पात्र में डाल दें और पात्र का मुख कपरोटी करके बन्द कर देवें । शीत ऋतु में एक मास, गर्मी में १५ दिन पीछे निथरे हुए आसव को छान निथार कर बोतलों में भर देवें । इसकी मात्रा १ तोला से ४ तोले है । भोजन के पश्चात् समान जल मिलाकर पिलायें । यह बहुमूत्र रोग को दूर करता है । गुर्दे और मसाने को शक्ति प्रदान करता है । इसके सेवन करने से स्त्रियों का सोम रोग दूर होता है । इस आसव के साथ १ माशा जामुन की गुठली की गिरी का प्रयोग दोनों समय करें तो मधुमेह रोग भी नष्ट हो जाता है ।

योग ८ - मधुमेह नाशक जम्बू आसव - जामुन की छाल १ सेर, संभल की छाल १ सेर, आम की छाल आध सेर, खरेंटी आध सेर, पीपल की जड़ की छाल ५ तोले, हरड़ का छिलका ५ तोले, बहेड़े की छाल ५ तोले, आंवला ५ तोले, आंवले की गुठली की गिरी ५ तोले, बांसे के पत्ते ५ तोले, मरोड़फली ५ तोले, करंजवे की जड़ ५ तोले, बबूल की छाल ५ तोले - सबको कूटकर ६४ सेर जल में क्वाथ करें । १६ सेर जल शेष रहने पर उतार कर ठण्डा होने पर मल छान लें और चीनी के पात्र में भर देवें । लोघ पठानी १ सेर, धाय के फूल २० तोले, बबूल के बीज, वायबिडंग, सुपारी चिकनी, अनार का छिलका, महुवे के फूल प्रत्येक चार तोले, जामुन की गुठली, काली मूसली, जायफल, लौंग, नागकेसर, सैंधा लवण प्रत्येक एक तोला लें । सब वस्तुओं को कूट पीसकर पात्र में क्वाथ में मिला देवें । मधु शुद्ध ८ सेर इसमें मिला दें । पात्र का


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मुख बन्द कर देवें । एक मास वा १५ दिन में खोलकर देख लें, आसव तैयार हो तो निथार छानकर बोतलों में भर लेवें । मात्रा छः माशे से अढ़ाई तोले तक भोजन के पश्चात् जल मिलाकर पिलावें । यह आसव मधुमेह के लिये रामबाण औषध है । बहुमूत्र और स्त्रियों के सोमरोग को दूर करता है ।

मधुमेह की रामबाण औषध

जामुन की गुठली आधा सेर को थोड़ा-थोड़ा जल डालकर खूब बारीक पीस लें और इसमें दो सेर जल मिलाकर किसी पात्र में खूब हिलायें और ५ वा ६ घण्टे के पीछे निथार लें । नीचे जमे हुए चूर्ण को सुखा लेवें । इस चूर्ण में आधा सेर रेक्टीफाइड स्प्रिट मिलाकर खूब हिलायें और बोतल का मुख बन्द कर देवें और इसे २१ दिन तक पड़ा रहने दें । २१ दिन के पश्चात् इसमें १२ तोले शुद्ध मधु मिलाकर बोतल का मुख बन्द करके एक मास तक रखें । फिर बोतल का मुख खोलकर आसव को निथार कर दूसरी बोतल में भर दें । इसकी मात्रा तीन माशे से छः माशे तक है । समान जल व कुछ अधिक जल मिलाकर भोजन के पश्चात् दिन में तीन-चार बार रोगी को पिलायें । यह विचित्र प्रभाव वाली औषध है । मधुमेह और बहुमूत्र रोग को समूल नष्ट करती है ।

पथ्य - मधुमेह का रोगी न्यून बोले, धूप में अधिक न घूमे, व्यायाम करे, यहां तक कि पसीना खूब निकल जाये । कस्सी से भूमि खोदे । कोई भी शक्तिप्रद व्यायाम बलानुसार करे । गोमूत्र का सेवन करे । गोमय (गौ के गोबर) से मिला गेहूं शुद्ध करके (अन्न) का सेवन करे । जल में तैरने का व्यायाम करे, नित्य स्नान करे, दिन में न सोये, रात्रि को भी अधिक न सोये । ब्रह्मचारी रहे ।


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मधुमेहासव

योग - जामुन की गुठली, सोंठ, गूलर के बीज, मूसली काली, जायफल, जावित्री, लौंग, नागकेसर, सुपारी के फूल, पीपल का गोंद, धनिया, नागरमोथा, प्रत्येक का बारीक चूर्ण १० तोले, जामुन की छाल, गूलर की छाल, खरेंटी की जड़ की छाल प्रत्येक २ सेर, आम की छाल सवा सेर, अर्जुन की छाल सवा सेर, खदिर की छाल, महुवे की छाल, आमले की गिरी, हरड़ की छाल, बहेड़े की छाल, आंवला प्रत्येक २० तोले । कुड़ा छाल, बेल की छाल, बांसे के पत्ते, लोध पठानी, मरोड़फली, करंजवे के फूल, लोध, वायविडंग, सुपारी, नागरमोथा, अनार की छाल प्रत्येक १० तोले, बबूल की फली २० तोले, सबको कूट छानकर २ मन २६ सेर जल में पकायें । चौथाई भाग शेष रहने पर ठण्डा करके खूब मल छान लें । १४ सेर मधु मिलाकर किसी चिकने पात्र में भर दें । कपरोटी कर दें । १५ दिन व एक मास में आसव के बनने पर निथार छानकर बोतलों में भर देवें ।

मात्रा - २ तोले से ४ तोले तक समान जल मिलाकर रोगी को देवें । यह आसव मधुमेह रोग की अत्यन्त उत्तम औषध है । इसके निरन्तर तीन मास सेवन करने से मधुमेह शक्कर आने का रोग समूल नष्ट हो जाता है ।


मधुमेहारिष्ट

महुवे की जड़ की छाल, पीपल की जड़ की छाल, शिवनाक की जड़ की छाल, वटवृक्ष की जड़ की छाल, आंवले की जड़ की छाल, प्रत्येक २० तोले, जामुन की छाल आधा सेर सबको कूटकर १६ सेर जल में पकायें । जब आधा रह जाये तो ठण्डा करके मल छान लें, फिर इसमें जामुन की गुठली, कसेरू, कमल की जड़,


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मुनक्का बीजरहित, चन्दन श्वेत का चूरा, गुलधावा प्रत्येक १० तोले, नागकेसर, इलायची छोटी, प्लास का गोंद, शुद्ध शिलाजीत प्रत्येक पांच तोले, तजसक, तेजपत्र, सोंठ प्रत्येक २ तोले, मुलहटी ३ तोले, शुद्ध शहद २ सेर, ताजे आंवलों का रस १ सेर । पीसने वाली सभी वस्तुओं को बारीक पीस लें । सबको इकट्ठा मिलाकर किसी चिकने पात्र में भर देवें । तैयार होने पर निथारकर छानकर बोतलों में भर देवें ।

मात्रा - १ तोले से ४ तोले तक समान जल मिलकर रोगी को सेवन करायें । यह मधुमेह, शक्कर आना, बहुमूत्र रोग के लिये अत्यन्त लाभदायक है । इसके प्रयोग से रोग समूल नष्ट हो जाता है ।

यकृत प्लीहा रोग

सिरका योग १ - शुद्ध आंवलासार गन्धक ७ तोला, नौशादर १ तोला, हीराकसीस ३ माशे, चिरायता १ तोला - सबको पीसकर एक शीशी में भर दें । उस शीशी में जामुन के पके हुए फलों का रस भर देवें । शीशी का मुख दृढ़ता से बन्द कर दें । ऊपर चिकनी मिट्टी का भली प्रकार से लेप कर देवें और ४० दिन तक धूप में रखें, फिर खोलकर इसका प्रयोग करें ।

इस औषध में से प्रातः सायं २० से ४० बूंद तक २ तोले जल में मिलाकर पिला देवें । भोजन के पश्चात् इसे पीवें । इससे बढ़ी हुई प्लीहा (तिल्ली) बहुत शीघ्र ठीक हो जाती है । यह औषध चमत्कार दिखाती है । इससे यकृत में भी लाभ होता है । जब इसका सेवन करें तो उन दिनों घृत का सेवन अधिक करें और तैल, इमली, मिर्च, खटाई, दही का सेवन सर्वथा छोड़ देना चाहिये । जामुन के सिरके से पेट में वायु की पीड़ा मिट जाती है ।


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सिरका योग २ - पके हुए जामुन का रस एक शीशी में भर दें । सैंधा लवण पीसकर जितना उसमें समा सके, डालें और दृढ़ कार्क से बंद करके कपरोटी करके ४० दिन तक पड़ा रहने देवें । फिर इस औषध में से एक दिन के अन्तर से आधा चम्मच औषध थोड़ा जल मिलाकर लेने से पाण्डु कामला यकृत् (जिगर) के रोग ठीक होते हैं ।


जम्बू आसव

योग ३ - पके हुए जामुन का रस १० सेर किसी चीनी मिट्टी के पात्र में डलें और इसमें निम्नलिखित वस्तुएं डालें । एक वर्ष पुराना गुड़ ४ सेर, फौलाद का चूरा २० तोले, मण्डूर का चूर्ण १० तोले, सोंठ, काली मिर्च, पीपल बड़ा, हरड़ का छिलका, बहेड़े का छिलका, आंवला, चित्रकमूल की छाल, वायविडंग, पिपलामूल, अजवायन, रुहीड़े की छाल, नागरमोथा, धाय के फूल प्रत्येक का चूर्ण ५ तोले । इन्द्रजौ, कुटकी, निसोत प्रत्येक का चूर्ण अढ़ाई तोले । सबको मिलाकर पात्र में भर दें । एक मास पश्चात् निथार छानकर बोतलों में भर दें । मात्रा १ तोले से अढ़ाई तोले तक समान जल मिलाकर भोजन के पीछे देवें । यह आसव यकृत तिल्ली के रोगों को नष्ट करने में अद्वितीय औषध है । पाण्डु-पीलिया, भुस को दूर करके नया रक्त उत्पन्न करता है और अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करता है ।

योग ४ - जामुन के पके हुए फलों का रस १० सेर, घीगवार का रस १० सेर, हरड़ का छिलका, बहेड़े का छिलका दोनों तीस-तीस तोले, मण्डूर पिसा हुआ (बारीक) दो सेर, एक वर्ष पुराना गुड़ २ सेर, सोंठ, मिर्च काली, पीपल बड़ा, सैंधा लवण, सौंचर लवण, सुहागा सफेद, नौशादर, सोडा खाने का, शोरा कलमी - प्रत्येक २ तोले, अजवायन, पोदीना, वायविडंग, दालचीनी,


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मकोय, काला जीरा प्रत्येक २ तोले । सबको पीसकर घृतकुमारी और जामुन के रस में मिलाकर किसी चीनी मिट्टी के पात्र में डालकर मुख बंद करके (कपरोटी कर) गोबर के ढ़ेर में दबा देवें । पन्द्रह दिन वा एक मास के पश्चात् आसव तैयार होने पर निथार छानकर शीशियों में भर दें ।

मात्रा - १ तोले से २ तोले तक समान जल मिलाकर रोगी को भोजन के पश्चात् शीशे के गिलास में डालकर पिलावें । यह आसव बढ़े हुए जिगर तिल्ली के लिए अत्यन्त लाभप्रद है । इसके सेवन से भूख खूब लगती है, पाचन शक्ति बढ़ती है, रक्त बनाकर शक्ति प्रदान करता है ।

जामुन का अर्क

योग ५ - गजबेल का चूर्ण २० तोले (यह न मिले तो रोहीड़े की छाल लें) कढाई में चढ़ाकर मन्दी आंच दें । तत्पश्चात् उसमें गन्धक का तेजाब २० तोला डालें, लोहे की कड़छी से अच्छी प्रकार से मिला लें । जब वह तेजाब जल जाए और धुआं निकलना बन्द हो जाए तब उस कढ़ाई को नीचे उतार लें । ठण्डा होने पर उसमें जामुन का रस ८ सेर डालकर आठ दिन वैसे ही पड़ा रहेने देवें । किन्तु इसे धूप में रखें । दिन में दो-तीन बार पलटे से हिलाते रहें । आठ दिन के पीछे इसमें ४ तोले चोबचीनी, ४ तोले उन्नाव, २ तोले शीतलचीनी, २ तोले वंशलोचन, २ तोले इलायची, २ तोले वनफशा, ४ तोले कासनी, ४ तोले तज, ४ तोले मकोय, ४ तोला सफेद चन्दन, ४ तोला चन्दन, चार तोला दारु हल्दी, ८ तोला चिरायता, ८ तोला शीशम का बुरादा, ८ तोला आबनूस का बुरादा, ८ तोला कासनी की जड़, ४ तोला काली मिर्च, २ तोला कतीरा, १२ तोले पित्त पापड़ा (शाहतरा),


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४ तोले सरपुंखा, ४ तोले हरड़ छाल, ४ तोले बहेड़ा छाल, १२ तोले गोरखमुंडी, ३ तोले आकाशबेल (अमरबेल), ६ तोले गिलोय, ६ तोले जवासा, १२ तोले नीम के फूल, ८ तोले चित्रक की जड़ की छाल, ६ तोले नीम की निंबोली, ६ तोले अनन्तमूल, १० तोले अजवायन, १० तोले मुनक्का, ४ तोले अंजीर, ८ तोले हिमज, ५ तोले आंवला, ५ तोले खारक, ५ तोले गूदी, ४ तोले निसोत - इन सबको कूटकर कढ़ाई में डाल देवें, ऊपर से कूयें का जल १५ सेर डाल देवें । तीन दिन इन सबको पड़े रहने देवें । उसके पश्चात् भबके के द्वारा अर्क खींच लें । इस अर्क की बीस-तीस बूंद अर्क गुलाब में मिलाकर प्रातः सायं दोनों समय लेवें । ४० दिन इस औषध को लेने से यकृत तिल्ली के सब विकार दूर होते हैं । पाण्डु पीलिया कामला, जीर्ण ज्वर, जलोदर, मधुमेह, वृद्धावस्था की निर्बलता दूर होती है । जठराग्नि बहुत तेज हो जाती है । किन्तु इसका सेवन करते समय तेल, खटाई, मिठाई का त्याग करना चाहिए ।

अर्श (बवासीर)

जामुन की नरम-नरम कोंपलों का रस निकालकर २ तोले, थोड़ी मिश्री वा खांड मिलाकर पीने से खूनी, बवासीर का बहता हुआ रक्त (खून) बन्द हो जाता है । इसके शर्बत से खूनी बवासीर और खूनी दस्तों में लाभ होता है ।

जामुन के कोमल कोंपलों का रस १ तोला गाय के पाव भर दूध के साथ मिलाकर लेने से ७ दिन में बवासीर में आने वाला रक्त बन्द हो जाता है । जामुन के कोमल पत्ते पीसकर उनको गोदुग्ध के साथ मिलाकर पीने से बवासीर (खूनी) में लाभ होता है ।

जलपपिल २ तोले, जामुन की कोंपल २ तोले - दोनों को कूट-पीसकर १ पाव गोदुग्ध में मिलाके १ मास तक पीने से खूनी


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बवासीर समूल नष्ट हो जाती है । पहले जो आसव-अरिष्ट लिखे हैं, उनके सेवन से दोनों प्रकार की अर्श (बवासीर) खूनी और बादी नष्ट होती है । जामुन का रस पाचक और कब्ज को दूर करने वाला है । कब्ज से दोनों प्रकार की बवासीर होती है, अतः जामुन के पत्ते व फल खाने तथा उनका रस पीने से कोष्ठबद्धता (कब्ज) दूर होती है । अतः बवासीर का मुख्य कारण दूर होने से बवासीर में भी लाभ होता है ।

जामुन के बीज कब्ज उत्पन्न करते हैं । किन्तु इनकी गुठलियों की गिरी काली (छोटी) हरड़ के साथ समान तोल में लेकर भून कर पीसकर खाने से पुराने दस्त बन्द होते हैं और इसके बीजों के चूर्ण में बराबर खांड वा मिश्री मिलाकर लेने से पेट से रक्त आना बन्द हो जाता है ।

विष - जामुन के पत्तों का रस ८ तोला पीने से अफीम का विष दूर हो जाता है ।

तंग सख्त जूते पहनने से चमरस का विष चढ़ जाता है और जख्म हो जाता है । ब्ड़ा कष्ट होता है । इसे दूर करने के लिये जामुन की गुठली जल में घिसकर लगाने से अच्छा हो जाता है ।

मोतियाबिन्द - जामुन की गुठली की गिरी का चूर्ण ३ माशे शहद में मिलाकर व गोली बनाकर प्रातः सायं खाने से और इसकी गोली को मधु में घिसकर आंख में लगाने से मोतियाबिन्द का नया रोग मिट जाता है ।

हानिकर - जामुन का फल पका हुआ, अधिक खाने से उदर (पेट) और छाती को हानि पहुंचाता है । यह वायु पैदा करता है । इससे अधिक खाने से ज्वर आने लगता है । गले में खराश पैदा करता है और इसका कच्चा फल आंतों में छिलाव व खराश उत्पन्न करता है ।


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दर्पनाशक - इसके दर्प का नाश करने के लिए आंवला, अजवायन और सोंठ प्रधान हैं । जामुन को सैंधा लवण लगाकर खाने से उसका दर्प नष्ट हो जाता है और हानि नहीं होती ।

सदैव ध्यान रखें कि जामुन की गुठली के चूर्ण की मात्रा ३ रत्ती से १५ रत्ती तक है, और इसकी छाल की राख मात्रा १० रत्ती से १५ रत्ती है और छाल के चूर्ण की मात्रा १ माशे से ६ माशे तक है ।

आयुर्वेद, यूनानी और डाक्टरी मत जामुन के विषय में मिलता-जुलता ही है ।

रसायन विश्‍लेषण

इसके बीजों के अन्दर कम्बोलिन नामक ग्लूकोसाइड पाया जाता है । यह तत्त्व स्टार्च को शक्कर के रूप में बदलने में बाधा (रुकावट) डालता है । इसके अतिरिक्त इसमें क्लोरोफिल, चर्बी, रेजिन एलब्यूमिन, गेलिक एसिड और कई रंगदार पदार्थ पाये जाते हैं । इसमें उड़नशील तैल भी होता है ।

कुचले के विष को दूर करने के लिए जामुन की गुठली की गिरी में अद्‍भुत शक्ति है । इसके चूर्ण को ६ माशे की मात्रा में लेने से कुचले का विष चाहे कितना ही चढ़ गया हो, वह एकदम उतर जाता है । डाक्टरों का मत है, इसके पके हुए फल का रस अग्निवर्धक, मूत्रल और शान्तिदायक है । इसके पत्ते, बीज और जड़ संकोचक गुण वाले होते हैं । सार यह है कि जामुन का पंचांग अनेक प्रकार से उपयोग करने पर अनेक रोगों पर लाभ करता है ।

इस प्रकार संक्षेप में जामुन के गुण, उपयोग, उपचार आदि के विषय में लिखा है । पाठक महानुभाव इसके अनुसार आचरण करके सुखी हों, यही ईश्वर से कामना और प्रार्थना है ।


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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल



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