Khandavavana

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(Redirected from Khandava Forest)
Author: Laxman Burdak IFS (R)

Khandavavana (Hindi: खाण्डव वन, Eng: Khandava Forest), also known by name Khandavaprastha‏‎ (खांडवप्रस्थ) was an ancient forest mentioned in the epic Mahabharata.[1]

Variants

Location

It lay to the west of Yamuna river, in modern day Delhi territory. Pandavas cleared this forest to construct their capital city called Indraprastha. Khanda, Haryana village of Dahiya clan of Jats in Sonipat district was the part of Khadav Van exists that time. Khanda village named after Khandavprasth.

History

Khandu (खंडु) is a place name mentioned by Panini under Suvastvadi (सुवास्त्वादि) (4.2.77) group. [2] (KhanduKhandava)


This forest was earlier inhabited by Naga tribes led by a king named Takshaka.[3] Arjuna and Vasudeva Krishna cleared this forest by setting up a fire. The inhabitants of this forest were displaced. This was the root cause of the enmity of the Naga Takshaka towards the Kuru kings who ruled from Indraprastha and Hastinapura.[4]

The Mahabharata states that Indra was the protecting deity (deva) of Khandava forest, which is why the region was known as Indraprastha. When the forest was being burned, Indra attacked Arjuna with his bolt (vajra), injuring him.

From the Mahabharata account, Son of Takshak was Ashwasena who was saved by Indra, while Khandavavana was put into flame by Pandava Arjuna (1000 BC-950 BC). [5]

Arjuna had encountered Yakshas in Khandava forests.

Ram Sarup Joon

Ram Sarup Joon[6] writes....One branch of Shavi Gotra is Takshak. Before the Mahabharat, they ruled the area of present Delhi, which was then known as Khanduban. Their capital was known as Khand Prastha. When Dharat Rashtra divided his kingdom into two, Yudhishtra selected Khand Prastha as his capital, named it Indraprastha and started constructing palaces and forts. Takshaks opposed this project, refused to vacate the area and tried to demolish the buildings at night. This led to war. Pandavas defeated the Takshaks, destroyed their villages and drove them out of this area. Consequent upon this incident in the Mahabharat, Takshaks joined Duryodhana’s army and fought against the


History of the Jats, End of Page-30


Pandavas. A Takshak warrior killed king Parikshit, a grandson of Yudhishtra. These facts are mentioned in Adi Parva of Mahabharat.

At present, there are five villages of Takshak Jats in this area viz. Mohammed Pur, Manirka, Shahpura, Haus Khas and Katwaria.

On being driven out of Khanduban, the Takshaks drifted North west and made their new capital at Takshala or Taxila, This view is confirmed in ‘A Guide to Taxila’. The Takshaks also founded Takshkand later known as Tashkand or Tashkent and Takshasthan later known as Turkistan. The Takshaks of Taxila later adopted the abbreviated title of Taki and are still found in that area as Muslim Jats of Taki Gotra or clan. When Mudrak Raja Subhagsen of Ghazni was driven east by the Iranians, he also had to fight a battle with Takis of Taxila.

The rulers of Magdha of the Shesh Nag Dynasty were Takshak Jats. Todd writes that they ruled Mugdha for six hundred years.

Todd writes that Chittor, then known as Jattor was the capital of Mori branch of Takshaks. Gehlot Jats later occupied it.

In Mahabharata

  • Khandavavana (खाण्डव वन) (Forest) is mentioned in verse (IV.2.9)
  • Khandavaprastha (खाण्डवप्रस्थ) is mentioned in verse (II.29.2)

Virata Parva, Mahabharata/ Book IV Chapter 2 mentions Khandavavana in verse (IV.2.9).[7]....Yudhishthira said, "And what office will be performed by that mighty descendant of the Kurus, Dhananjaya, the son of Kunti, that foremost of men possessed of long arms, invincible in fight, and before whom, while he was staying with Krishna, the divine Agni himself desirous of consuming the forest of Khandava had formerly appeared in the guise of a Brahmana? What office will be performed by that best of warriors, Arjuna, who proceeded to that forest and gratified Agni, vanquishing on a single car and slaying huge Nagas and Rakshasas, and who married the sister of Vasuki himself, the king of the Nagas?


Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 29 mentions the Countries subjugated by Nakula in West. Khandavaprastha (खाण्डवप्रस्थ) is mentioned in verse (II.29.2)[8]

अर्जुन और श्रीकृष्ण द्वारा खाण्डव वन को जलाना

धूमकेतु अग्नि ने वरुणदेव से कुछ अस्त्र-शस्त्र लेकर अर्जुन को दिए जो निम्न प्रकार से हैं - 1. दिव्य धनुष 2. अक्षय तरकस 3. कपियुक्त ध्वजा से सुशोभित रथ 4. गाण्डीव धनुष और बाणों से भरे हुए अक्षय एवं बड़े तरकस भी दिए। वह धनुष अद्भुत था, किसी भी अस्त्र-शस्त्र से वह टूट नहीं सकता था और सब दूसरे अस्त्रों को नष्ट कर डालने की शक्ति उसमें मौजूद थी। वह दूसरे लाख धनुषों के बराबर था। उस रथ का निर्माण प्रजापति विश्वकर्मा ने किया था। पूर्वकाल में शक्तिशाली सोम (चन्द्रमा) ने उसी रथ पर आरूढ हो दानवों पर विजय पाई थी। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इस गाण्डीव धनुष का निर्माण किया था।

पावक ने श्रीकृष्ण जी को एक चक्र दिया जिसका मध्यभाग वज्र के समान था। माधव! युद्ध में आप जब-जब इसे शत्रुओं पर चलायेंगे, तब-तब यह उन्हें मारकर और स्वयं किसी अस्त्र से प्रतिहत न होकर पुनः आपके हाथों में आ जायेगा। वरुण ने भी कौमादकी नामक गदा भगवान् कृष्ण जी को भेंट की, जो दैत्यों का विनाश करने वाली और भयंकर थी।

इसके बाद अर्जुन और श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर अग्निदेव से कहा - “भगवन्! अब हम दोनों रथ और ध्वजा से युक्त हो सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों से भी युद्ध करने में समर्थ हो गए हैं; फिर तक्षक नागों के लिए युद्ध की इच्छा रखने वाले अकेले वज्रधारी इन्द्र से युद्ध करना क्या बड़ी बात है?” अर्जुन और श्रीकृष्ण ने खाण्डव वन को सब ओर से जलाना आरम्भ कर दिया2

उस आग को बुझाने के लिये देवताओं के स्वामी इन्द्र ने विशाल रथ ले लिये और आकाश में स्थित होकर जल की वर्षा करने लगे3। वर्षा करते हुए इन्द्र की उस जलधारा को अर्जुन ने अपने उत्तम अस्त्र का प्रदर्शन करते हुए बाणों की बौछार से रोक दिया। जब खाण्डव वन जलाया जा रहा था, उस समय महाबली नागराज तक्षक वहां नहीं था, कुरुक्षेत्र चला गया था। परन्तु तक्षक का बलवान् पुत्र अश्वसेन वहीं रह गया था। उसकी माता ने उसे आग से बचाया था। देवराज ने भी अर्जुन को युद्ध में कुपित देख सम्पूर्ण आकाश को आच्छादित करते हुए अपने दुःसह अस्त्र (ऐन्द्रास्त्र) को प्रकट किया। फिर तो प्रचण्ड वायु चलने लगी जिससे वर्षा करने वाले मेघों की उत्पत्ति हो गई4

वे भयंकर मेघ बिजली की कड़कड़ाहट के साथ धरती पर वज्र गिराने लगे। उस अस्त्र के प्रतीकार की विद्याओं में कुशल अर्जुन ने उन मेघों को नष्ट करने के लिए अभिमन्त्रित करके वायव्य नामक उत्तम अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र ने इन्द्र के छोड़े हुए वज्र और मेघों का ओज एवं


1. महाभारत आदिपर्व 187वां अध्याय, श्लोक 19-20-21 और 27.
2. महाभारत आदिपर्व 224वां अध्याय श्लोक 1-34.
3. महाभारत आदिपर्व 225वां अध्याय श्लोक 18.
4. महाभारत आदिपर्व 226वां अध्याय श्लोक 1,4,14.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-168


बल नष्ट कर दिया। तत्पश्चात् असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग युद्ध के लिए उत्सुक हो अनुपम गर्जना करते हुए वहां दौड़े आए। उनके हाथों में तोप, बंदूक, चक्र, पत्थर एवं भुशुण्डी आदि थे। उन्होंने श्रीकृष्ण और अर्जुन पर अस्त्रशस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। उस समय अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से उन सब के सिर उड़ा दिए। श्रीकृष्ण ने भी चक्र द्वारा दैत्यों और दानवों के समुदाय का महान् संहार कर दिया1। शत्रुघाती श्रीकृष्ण के द्वारा बार-बार चलाया हुआ वह चक्र अनेक प्राणियों का संहार करके पुनः उनके हाथ में चला आता था2


1. महाभारत आदिपर्व 226वां अध्याय, श्लोक 15, 24, 25, 26, 27.
2. महाभारत आदिपर्व 227वां अध्याय श्लोक 10.

खांडवप्रस्थ

विजयेन्द्र कुमार माथुर[9] ने लेख किया है कि....खांडवप्रस्थ (AS, p.255) हस्तिनापुर के पास एक प्राचीन नगर था जहां महाभारतकाल से पूर्व पुरुरवा, आयु, नहुष तथा ययाति की राजधानी थी. कुरु की यह प्राचीन राजधानी बुधपुत्र के लोभ के कारण मुनियों द्वारा नष्ट कर दी गई. युधिष्ठिर को, जब प्रारंभ में, द्यूत-क्रीडा से पूर्व, आधा राज्य मिला तो धृतराष्ट्र ने पांडवों से खांडवप्रस्थ में अपनी राजधानी बनाने तथा फिर से उस प्राचीन नगर को बसाने के लिए कहा था. (महाभारत आदि पर्व, 206 दक्षिणात्य पाठ) तत्पश्चात पांडवों ने खांडवप्रस्थ पहुंच कर उस प्राचीन नगर के स्थान पर एक घोर वन देखा. (आदि पर्व: 206, 26-27). खांडवप्रस्थ के स्थान पर ही इंद्रप्रस्थ नामक नया नगर बसाया गया जो भावी दिल्ली का केंद्र बना. खांडवप्रस्थ के निकट ही खांडववन स्थित था जिसे श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अग्निदेव की प्रेरणा से भस्म कर दिया. खांडवप्रस्थ का उल्लेख अन्यत्र भी है. पंचविंशब्राह्मण 25,3,6 में राजा अभिप्रतारिन् के पुरोहित द्दति खांडवप्रस्थ में किए गए यज्ञ का उल्लेख है. अभिप्रतारिन् जनमेजय का वंशज था. जैसा पूर्व उद्धरणों से स्पष्ट है, खांडवप्रस्थ पांडवों के पुराने किले के निकट बसा हुआ था. (दे. इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर)

खांडववन

विजयेन्द्र कुमार माथुर[10] ने लेख किया है कि....खांडववन (AS, p.256) खांडवप्रस्थ के स्थान पर पांडवों की इंद्रप्रस्थ नामक नई राजधानी बनने के पश्चात अग्नि ने कृष्ण और अर्जुन की सहायता से खांडववन को भस्म कर दिया था. इसमें कुछ अनार्य जातियाँ जैसे नाग और दानव लोगों का निवास था जो पांडवों की नई राजधानी के लिए भय उपस्थित कर सकते थे. तक्षकनाग इसी वन में रहता था और यहीं मयदानव नामक महान यांत्रिक का निवास था जो बाद में पांडवों का मित्र बन गया और जिसनेइंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर का अद्भुत सभा भवन बनाया. खांडववन-दाह का प्रसंग महाभारत आदि पर्व 221 से 226 में सविस्तर वर्णित है. कहा जाता है कि मयदानव का घर वर्तमान मेरठ (मयराष्ट्र) के निकट था और खांडववन का विस्तार मेरठ से दिल्ली तक, 45 मील के लगभग था. महाभारत में जलते हुए खांडववन का बड़ा ही रोमांचकारी वर्णन है. (आदि पर्व 224,35-36-37). खांडववन के जलते समय इंद्र ने उसकी रक्षा के लिए घोर वृष्टि की किन्तु अर्जुन और क़ृष्ण ने अपने शस्त्रास्त्रों की सहायता से उसे विफल कर दिया.

इंद्रप्रस्थ

विजयेन्द्र कुमार माथुर[11] ने लेख किया है कि....इंद्रप्रस्थ (AS, p.75) वर्तमान नई दिल्ली के निकट पांडवों की बसाई हुई राजधानी थी. महाभारत आदि पर्व में वर्णित कथा के अनुसार प्रारंभ में धृतराष्ट्र से आधा राज्य प्राप्त करने के पश्चात पांडवों ने इंद्रप्रस्थ में अपनी राजधानी बनाई थी. दुर्योधन की राजधानी लगभग 45 मील दूर हस्तिनापुर में ही रही. इंद्रप्रस्थ नगर कोरवों की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ के स्थान पर बसाया गया था--

'तस्मातत्वं खांडवप्रस्थं पुरं राष्ट्रं च वर्धय, ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्च कृत निश्चया:। त्वदभ्क्त्या जंतग्श्चान्ये भजन्त्वेव पुरं शुभम्' महाभारत आदि पर्व 206

अर्थात धृतराष्ट्र ने पांडवों को आधा राज्य देते समय उन्हें कौरवों के प्राचीन नगर वह राष्ट्र खांडवप्रस्थ को विवर्धित करके चारों वर्णों के सहयोग से नई राजधानी बनाने का आदेश दिया. तब पांडवों ने श्री कृष्ण सहित खांडवप्रस्थ पहुंचकर इंद्र की सहायता से इंद्रप्रस्थ नामक नगर विश्वकर्मा द्वारा निर्मित करवाया--'विश्वकर्मन् महाप्राज्ञ अद्यप्रभृति तत् पुरम्, इंद्रप्रस्थमिति ख्यातं दिव्यं रम्य भविष्यति' महाभारत आदि पर्व 206.

इस नगर के चारों ओर समुद्र की भांति जल से पूर्ण खाइयाँ बनी हुई थी जो उस नगर की शोभा बढ़ाती थीं. श्वेत बादलों तथा चंद्रमा के समान उज्ज्वल परकोटा नगर के चारों ओर खींचा हुआ था. इसकी ऊंचाई आकाश को छूती मालूम होती थी--


[पृ.76]: इस नगर को सुंदर और रमणीक बनाने के साथ ही साथ इसकी सुरक्षा का भी पूरा प्रबंध किया गया था तीखे अंकुश और शतघ्नियों और अन्यान्य शास्त्रों से वह नगर सुशोभित था. सब प्रकार की शिल्प कलाओं को जानने वाले लोग भी वहां आकर बस गए थे. नगर के चारों ओर रमणीय उद्यान थे. मनोहर चित्रशालाओं तथा कृत्रिम पर्वतों से तथा जल से भरी-पूरी नदियों और रमणीय झीलों से वह नगर शोभित था.

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ इंद्रप्रस्थ में ही किया था. महाभारत युद्ध के पश्चात इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर दोनों ही नगरों पर युधिष्ठिर का शासन स्थापित हो गया. हस्तिनापुर के गंगा की बाढ़ से बह जाने के बाद 900 ई. पू. के लगभग जब पांडवों के वंशज कौशांबी चले गए तो इंद्रप्रस्थ का महत्व भी प्राय समाप्त हो गया. विदुर पंडित जातक में इंद्रप्रस्थ को केवल 7 क्रोश के अंदर घिरा हुआ बताया गया है जबकि बनारस का विस्तार 12 क्रोश तक था. धूमकारी जातक के अनुसार इंद्रप्रस्थ या कुरूप्रदेश में युधिष्ठिर-गोत्र के राजाओं का राज्य था. महाभारत, उद्योगपर्व में इंद्रप्रस्थ को शक्रपुरी भी कहा गया है. विष्णु पुराण में भी इंद्रप्रस्थ का उल्लेख है.

आजकल नई दिल्ली में जहाँ पांडवों का पुराना किला स्थित है उसी स्थान के परवर्ती प्रदेश में इंद्रप्रस्थ की स्थिति मानी गई है. पुराने किले के भीतर कई स्थानों का संबंध पांडवों से बताया जाता है. दिल्ली का सर्वप्रचीन भाग यही है. दिल्ली के निकट इंद्रपत नामक ग्राम अभी तक इंद्रप्रस्थ की स्मृति के अवशेष रूप में स्थित है.

Jat clan and Place

  • Khanda: People of Khandavavana were also called Khanda a Jat clan.
  • Khanda, Haryana village in Sonipat district where Khandav Van exist at that time. Khanda village named after Khandavprasth.

A story

A little known story is that at the time of the great war when Arjuna and Karna come face to face with each other, the Naga King Ashwasena desirous of avenging the death of his mother from Arjuna, in that battle quietly slips into the quiver of Karna in the guise of an Arrow. It is this Arrow that had almost killed Arjuna had it not been for Krishna who by pressing his feet on the chariot sank it one cubit deep into the earth hence the arrow missing its aim.

External Links

References

  1. Sir William Wilson Hunter, The Indian empire: its history, people and products, Trubner, 1882, "
  2. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.508
  3. The Mahabharata, Book 1 of 18: Adi Parva
  4. The Mahabharata, Book 1 of 18: Adi Parva
  5. Dr Naval Viyogi: Nagas – The Ancient Rulers of India, p.145
  6. History of the Jats/Chapter II,p. 30-31
  7. यम अग्निर बराह्मणॊ भूत्वा समागच्छन नृणां वरम, थिधक्षुः खाण्डवं थावं थाशार्ह सहितं पुरा (IV.2.9)
  8. निर्याय खाण्डव प्रस्थात परतीचीम अभितॊ दिशम, उथ्थिश्य मतिमान परायान महत्या सेनया सह (II.29.2)
  9. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.255
  10. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.256
  11. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.75-76