Tahangarh
Tahangarh (तहनगढ़) or Tuhangarh (तुहनगढ़) is a town in Karauli District, Rajasthan.
Founders
It was founded by Tahan Pala, who was the eldest son of Raja Bijai Pala, who himself was 88th in descent from Lord Krishna.
Location
Also called Thangir or Thangarh is 15 miles south of Bayana and 30 km in north of Karauli. Its ancient names are Tribhuvangarh (त्रिभुवनगढ़) or Tribhuvanagiri (त्रिभुवनगिरि).
History
According to Bhat record Tahangarh is fort of Tokas Jats. [1]
Hukum Singh Panwar (Pauria)[2] writes with reference to Dr. Hari Niwas Dwivedi that the contemporary Yadava chiefs of Shripatha (Bayana), Tribhavangarh (Tahangarh) etc., represented wrongly as Yadavas chiefs, were, in fact, Tomars and not Yadavas. Cunningham also confirms, on the basis of numismatic evidences, that Sullakshanpal, Ajaypal, Kumarpal, Anangpal and Mahipal, the rulers of Delhi and Kanauj were Tomars. Dwivedi further informs us that Anangpal II, the founder of Tribhavangarh or Tribhavangiri (Tahangarh) and Vijaypal that of Vijaymandigarh were Tomar and not Yadavas.
Dasharatha Sharma[3] writes....[p.123]: Hammira was the last and most famous of the Chauhans of Ranthambhor. Hammira had ascended the throne in V.1339. Not very long after this, he started, according to the Hammiramahakavya, on a digvijaya or conquest of all the quarters. He first defeated Ajuna, the ruler of Bhamarasa, and then exacted tribute from the fort of Mandalakrita (मण्डलकृत) or Mandalgarh. Striking southwards from here, he reached Ujjayini and Dhara and defeated the Paramara ruler Bhoja. From here he turned northwards, and reached home passing through Chittor, Abu, Vardhanapura (वर्धनपुर) (Badnore), Changa (चंगा) (fortress of the mers still retains old name), Pushkar, Maharashtra (Marot), Sakambhari, Khandilla (खंडिल्ल) (Khandela), Champa (चम्पा) (Chaksu), and Karkarala (कर्कराला) (Karkaralagiri of the Balvan Inscription == Karauli), at the last of which places he received the homage of the ruler of Tribhuvanagiri (Tahangarh).
[p.124]: after came a Koti-yajna which was very much like the asvamedha of Samudragupta. It was under the direction of his purohita Vishvarupa. This digvijaya, or rather a number of raids from time to time magnified into one systematic digvijaya (Balvan Inscription, EI, XIX, pp.49 ff) by Nayachandra, took place before V. 1345 (c. 1288 A.D.). The Balvan inscription of the year mentions the performance of not only one but two Kotiyagna by Hammira and describes the capture of the elephant force of Arjuna, the ruler of Malwa, a kingdom the condition of which was indeed bad enough to invite interference from all sides.
त्रिभुवन गिरि
त्रिभुवन गिरि वर्तमान राजस्थान के करौली नगर से 24 मील की दूरी पर स्थित है। 12 वीं शताब्दी में यादव राजा कुमारपाल वहाँ का शासक था। करौली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र मध्य काल में ब्रजमंडल के अंतर्गत था, और वहाँ के यादव राजा शूरसेन जनपद (प्राचीन मथुरा राज्य) के उन यादवों के वंशज थे, जिनके नेता श्रीकृष्ण थे। त्रिभुवन गिरि के यादव राजा कुमारपाल ने जैन मुनि जिनदत्त सूरि जी से प्रतिबोध प्राप्त किया था, और उन्हें एक चित्रित काष्ठ फलक भेंट किया था। श्री जिनदत्त सूरि ने सं. 1169 में आचार्य पद प्राप्त किया था; अतएव उक्त काष्ठ फलक का निर्माण काल सं. 1175 के लगभग माना जा सकता है। उसका परिचय देते हुए श्री भँवरलाल नाहटा ने लिखा है,- इस फलक के मध्य में हाथी पर इन्द्र व दोनों ओर नीचे चामरधारी नवफण पार्श्वनाथ भगवान का जिनालय है, जिसकी सपरिकर प्रतिमा में उभय पक्ष अवस्थित हैं। दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं। भगवान के बायें कक्ष में पुष्प-चंगेरी लिये हुए एक भक्त खड़ा है, जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्यरत हैं। वे दोनों वाद्य यंत्र लिये हुए हैं। जिनालय के दाहिनी ओर श्री जिनदत्त सूरि जी की व्याख्यान सभा है। आचार्य श्री के पीछे दो भक्त श्रावक एवं सामने एक शिष्य व महाराजा कुमारपाल बैठे हुए हैं। महाराजा के साथ रानी तथा दो परिचारक भी विद्यमान हैं। जिनालय के वायीं तरफ श्रीगुणसमुद्राचार्य: विराजमान हैं, जिनके सामने स्थापनाचार्य जी व चतुर्विध संघ हैं। साधु का नाम पंडित ब्रह्माचंद्र है। पृष्ठ भाग में दो राजा हैं, जिनके नाम चित्र के उपरि भाग में सहण व अनंग लिखे हैं। साध्वी जी के सामने भी स्थापनाचार्य हैं, और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ हाथ जोड़े खड़ी हैं। इस काष्ठ फलक में जिस नवफण पार्श्वनाथ जिनालय का चित्र है, सूरि महाराज की जीवनी के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह जिनालय नरहड़-नरभट में उन्होंने स्वयं प्रतिष्ठापित किया था। पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को नवफणमंडित बनवाने की प्रथा गणधर सार्ध-शतक वृत्यनुसार श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज से ही प्रचलित हुई थी। यह काष्ठ ब्रजमंडल की मध्यकालीन जैन चित्रकला का एक दुर्लभ उदाहरण है। इस समय यह जैसलमेर (राजस्थान) के ग्रंथ-भंडार में संख्या 241 के 'चंद्रपन्नति सूत्र' नामक ग्रंथ के साथ संलग्न है। नाहटा जी का कथन हैं, यह काष्ठ फलक पहिले उस ग्रंथ के साथ था, जिसे यादव राजा कुमारपाल ने लिखवाया था। वह ग्रंथ इस समय उपलब्ध नहीं है, और यह काष्ठ फलक अन्य ग्रंथ चंद्रपन्नति सूत्र के साथ लगा दिया गया है। [4]
तहनगढ या त्रिभुवनगिरि
त्रिभुवनपाल नरेश यदि अनंगपाल प्रथम के लोये ही केशवदाश ने प्रयुक्त किया है, तब यह कहा जा सकता है कि बयाना से 14 मील और करौली से उत्तर-पूर्व 24 मील स्थित त्रिभुवनगढ अनंगपाल द्वितीय ने बसाया था. दिल्ली के तोमरों के लिये यह स्थान सामरिक दृष्टी से उपयोगी भी था. तोमरगृह से ऐसाह के ठिकाने से दिल्ली के मार्ग में ही त्रिभुवनगिरि था. अनंगपाल द्वितीय ने यहां त्रिभुवनगढ की स्थापना की और इसी अपभ्रंश रूप तिहुअणगिरि तथा अवहट्ठ रूप तहनगढ या तुहनगढ हो गया.[5]
जयसिंह बमरौलिया की दिल्ली के तोमर सम्राट से मित्रता
जयसिंह बमरौलिया तथा दिल्ली के तोमर सम्राट - इस समय दिल्ली में तोमर सम्राट अनंगपाल II (1051-1081) का साम्राज्य था. अनंगपाल II तथा गजनी सुलतान इब्राहिम(1059-1099) के मध्य तंवर हिन्दा तथा रूपाल (नूरपुर) पर युद्ध हुआ था, दोनों राज्य तोमर साम्राराज्य के अंतर्गत थे. सम्राट ने इब्राहिम को आगे बढ़ने से रोका था.[6] इस युद्ध में जय सिंह बमरौलिया 3000 सैनिक लेकर तोमर सम्राट के पक्ष में इब्राहिम के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने पहुंचा था. जय सिंह के नेतृत्व में उसकी सेना ने रणक्षेत्र में अदम्य साहस का परिचय दिया, जिसे तुर्क सेना तोमर साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर सकी. [7] (Ojha, p.33)
तोमर सम्राट द्वारा जयसिंह बमरौलिया को राणा की उपाधि - दिल्ली तोमर सम्राट अनंगपाल ने युद्धक्षेत्र में जयसिंह को अदम्य साहस एवं वीरता प्रदर्शित करने के के उपलक्ष में आगरा के पास बमरौली कटारा की जागीर तथा राणा की उपाधि से विभूषित कर छत्र चंवर प्रदान किये.[8] और इनके पुत्र विरमदेव बमरौलिया को साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण स्थान तुहनगढ़ की सुरक्षा का दायित्व सौंपा. (Ojha, p.33)
गढ़ बैराठ से बमरौली आगमन - तोमर सम्राट द्वारा प्रदत्त बमरौली कटारा की जागीर[9] में राणा परिवार आकर रहने लगे. रामदेव उर्फ़ विरहमपाल ने अपने समय में वहां रह रहे मुसलमानों को मार भगाया तथा उनकी जागीर को अपनी जागीर में मिला लिया.[10] (Ojha, p.34)
बमरौलिया जाट: इन जाटों ने बमरौली में अपनी स्थिति बहुत सुदृढ़ करली थी तथा यहाँ 172 वर्षों तक रहने के कारण ये लोग बमरौलिया जाट क्षेत्रीय के नाम से सम्बोधित किये जाने लगे.[11] (Ojha, p.34)
बमरौलिया जाटों का ऐसाह की और पलायन :दिल्ली सुलतान फरोजशाह तुगलक के शासनकाल में सन 1367 में आगरा सूबेदार मुनीर मुहम्मद था. उस समय बमरौली कटारा का जागीरदार रतनपाल बमरौली कटारा छोड़कर अपने मित्र तोमर राजा के पास ऐसाह (वर्तमान मुरैना जिले की अम्बाह तहसील में राजस्थान सीमा के पास चम्बल किनारे गाँव, दिल्ली से पूर्व यहाँ तोमरों की राजधानी थी) पहुंचा. जहाँ वह तोमरों के प्रमुख सामंत के रूप में स्थापित हुए.[12] तोमर सम्राट देव वर्मा द्वारा रतनपाल बमरौलिया को पचेहरा (जटवारा) निवास हेतु प्रदान किया गया. (Ojha, p.35)
पचेहरा से बगथरा आगमन - केहरी सिंह बमरौलिया (1390-1395) को ऐसाह के तोमर राजा वीरसिंह देव (1375-1400) के शासनकाल में अपनी वीरता प्रदर्शित करने का अवसर मिल गया. उस समय 1394 में वीरसिंह देव ने ग्वालियर दुर्ग पर दिल्ली सुलतान की ओर से नियुक्त अमीर को पराजित कर ग्वालियर में तोमर राजवंश की नींव डाली. 4 जून 1394 को दिल्ली सुलतान नसीरुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर ग्वालियर में स्वतंत्र तोमर राज्य स्थापित किया.[13](Ojha, p.35)
वीरसिंह देव तोमर ग्वालियर के प्रथम स्वतंत्र तोमर शासक बने. तोमर राजा वीर सिंह देव तथा दिल्ली सुलतान के मध्य हुए युद्ध में केहरी सिंह बमरौलिया ने वीरसिंह देव का साथ दिया. केहरी सिंह की जाट सेना की छापामार युद्ध प्रणाली की भयंकर मार से सुलतान की सेना भाग खड़ी हुई थी. जब वीरसिंह देव ग्वालियर के स्वतंत्र राजा बन गए तब केहरी सिंह को बगथरा गाँव निवास हेतु प्रदान किया. [14] (Ojha, p.35)
स्थानीय जाटों से वैवाहिक सम्बन्ध - बगथरा गाँव में बसने के बाद इन बमरौलिया जाटों ने स्थानीय बिसोतिया गोत्र के जाटों से वैवाहिक सम्बन्ध बनाये तथा अपने बल में वृद्धि की.[15] (Ojha, p.35)
जाट संघ - केहरी सिंह बमरौलिया ने बगथरा में निवास करने के दौरान स्थानीय जाटों का एक संगठन बनाया और तोमर राजा का युद्धों में साथ देकर उनका विश्वासपात्र बन गया. इस प्रकार ये बमरौलिया जाट तोमर राजाओं के प्रमुख सामंत बन गए. [16] (Ojha, p.36)
Jat Gotras originated from here
- Thani (थानी) is gotra of Jats. This gotra originated from place name Thangarh (थानगढ). [17]
- Thenwar (थेनवार) is gotra of Jats. This gotra originated from place name Thangarh (थानगढ). [18]
References
- ↑ Jat Samaj Patrika, Agra, October-November 2001, p.9
- ↑ The Jats:Their Origin, Antiquity and Migrations,p. 101
- ↑ Dasharatha Sharma, Early Chauhan Dynasties", Ch. XI, pp. 123-124.
- ↑ Braj Discovery
- ↑ Harihar Niwas Dwivedi, Dilli Ke Tomar, p.237
- ↑ Harihar Niwas Dwivedi, Dilli Ke Tomar, p.240-241
- ↑ Kannu Mal, Dholpur Rajya Aur Dhaulpur Naresh,p.8
- ↑ Mohan Lal Gupta, Jaipur: Jilewar Sanskritik Evam Aitihasik Adhyayan, p.248-249
- ↑ Kannu Mal, Dholpur Rajya Aur Dhaulpur Naresh,p.8
- ↑ Kannu Mal, Dholpur Rajya Aur Dhaulpur Naresh,p.8
- ↑ Kannu Mal, Dholpur Rajya Aur Dhaulpur Naresh,p.8
- ↑ Mohan Lal Gupta, Jaipur: Jilewar Sanskritik Evam Aitihasik Adhyayan, p.175
- ↑ Harihar Niwas Dwivedi, Dilli Ke Tomar, p.30
- ↑ Kannu Mal, Dholpur Rajya Aur Dhaulpur Naresh,p.9
- ↑ Kannu Mal, Dholpur Rajya Aur Dhaulpur Naresh,p.9
- ↑ Mohan Lal Gupta, Jaipur: Jilewar Sanskritik Evam Aitihasik Adhyayan, p.175
- ↑ Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998, p. 254
- ↑ Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998, p. 254
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